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शरीर प्रगटी विणशी जाय, आतम आपस्वरूपे सुहाय; आतमना उपयोगी थया, मरण भ्रांतिथी दूरे गया. आतम एवो जाणे जेह, देहवियोगे रडे न तेहः । पाणादिकनो थाय वियोग, तब तेने नहि भीति शोक. ९६ उपजे विणसे तेनो अंत, आतम पूर्ण अनादि अनंत; आतम तुं बीजो नहीं कोई, जोइ जोइने जोशो जोइ. प्रगटे ज्यारे आत्मप्रकाश. त्यारे प्रगटे हर्ष विलास; पूर्वकर्मनिर्भरणा करे, नवां न वांधे मुक्ति वरे. आपोआप प्रभुने मळ्यो, आतमरूप न जावे कळ्यो; अनेकदृष्टियोगे दृश्य, अनुभव्यो आतम अदृश्य. अनंत आनंद अपरंपार, आतममां सत् छे निर्धार; ज्ञानानन्द ते आतम जाण, प्रगटे प्रभु प्रगट्या ज प्रमाण. १०० ज्ञानानन्दनो आविर्भाव, सत्य मोक्ष ते निश्चय लाव; ज्ञानानन्द ते आतमधर्म, बाकी बीजुं जाण ज भर्म. १०१ ज्ञानानन्द प्रकटता हेत, सर्वयोग साधन संकेत ज्ञानानन्द ज प्रगट्यो ज्याय, आतम प्रगट्यो जाणो त्यांय. १०२ ज्ञानने आनंद शक्ति ज्यांय, प्रगटी मोहनुं द्वैत न त्यांय; एवारूपे जीव्या जेह, मरे न देह छतां वैदेह. एवा संत प्रभु साकार, संग करो तेनो नरनार; जैनधर्म समजावे मर्म, भूलावे मन माया भर्म. ज्ञानानंद प्रकटता जेह, रोकड धर्मने जाणे तेह; मृत्यु पहेलां मरी मुखपाय, आपोआप प्रभु थै जाय. १०५ साध्यधर्म आतममां एह, ज्ञानानन्द प्रकटता जेह; आत्मधर्मनी झांखी लह्यो, स्वयं स्वयं जोइ सुख लह्यो. १०६ निज धर्मे वर्ते सहु द्रव्य, कोइ कोइमा पेसे न भव्य; आतमधर्म ते आतममांध, अन्यद्रव्यमा मळे न क्यांय, १०७
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