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यथाशक्ति सहु संघनी भक्ति, करतां आस्मिक प्रगटे शक्ति; मुजपर गुरुपर श्रद्धा प्रेम, धारे पामे योगने क्षेम. वैधर्मी प्रतिपक्षी जेह, तेओ उपर राखे स्नेहः । दुष्ट दावथी नहि वंचाय, दुष्टोनुं नहि बूलं च्हाय. संप शक्तिथी जीवे संघ, सद्गुण नीतिबलथी अभंग संघनां हानिकर जे कर्म, तेमां कोइ काले न धर्म. धर्म छतां पण तेह अधर्म, संघनी पडतीकारकर्म देशकाल अनुसारे संघ, वधे कर्म त्यां धर्मनु मर्म. संघ वधे एवां जे कर्म, सर्वकालमा तेथी धर्म; समजे ते मुंज आणा जाण, बाकी बीजा छ ज अजाण. संघनी संख्याद्धि उपाय, फेरफारमा धर्म सदाय, एबुं जाणे संघ ते शक्त, मुजपर प्रेमी संघ ते भक्त. संघमां ज्ञानी आगेवान, संघनी प्रगतिकारक जाण; अज्ञानी ज्यां थाय प्रधान, संघनी पडती त्यारे मान, अनेक संकटमाथी पसार, ज्ञानी संघ थतो निर्धार; सर्व संघने आपो ज्ञान, धार्मिकव्यवहारिक गुणखाण. गृहस्थ संघ तरीके चार,-वर्णो गुणकर्मानुसार; वर्ती मुज आज्ञा अनुसार, धर्म करे शिव पामे सार. मुजमां मन राखी नरनार, वर्ते वर्णादिक व्यवहार रागद्वेषनो टाळे संग, मुक्ति पामे आतमरंग. आतमधर्म छे उपशमभाव, क्षयोपशमने क्षायिकभाव; आतम ते परमातम थाय, ए छे संघनुं ध्येय सदाय, सर्वकर्मने करवां दूर, वरवं अनंत आतमनूर; आतमशुद्धि करवी बेश, साध्य ए दृष्टि प्रवृत्ति हमेश.
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