Book Title: Aagam 43 Uttaradhyanani Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३] श्रीमन्ति उत्तराध्यनानि _ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूयो नमः । “उत्तराध्ययन” नियुक्ति: एवं चूर्णि: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + जिनदासगणि रचिता चूर्णिः] [आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) 01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र -[४३], मूलसूत्र -[३] "उत्तराध्ययन" नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः [0] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) === प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [-1, मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीमन्ति उत्तराध्ययनानि. कुलीन-कोटिकगणीय-वज्रशास्त्रीय-श्रीगोपालगणिमहत्तर शिष्य(जिनदास गणिमहत्तर) कृतया चूर्ष्या समेतानि प्रकाशयित्री - मालवदेशीय रत्न पुरान्तर्गत श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजीत्यमिधा श्रीश्वेताम्बर संस्था. न्दौरनगरे श्रीजैनबन्धुमुद्रणालये - श्रेष्ठी जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा द्वारा मुद्रापयित्वा । संवत् २४५९. विक्रम संवत् ३९८९. पण्यं ४-०-० इष्ट सन् १९३३. • उत्तराध्ययन-चूर्णे: मूल "टाइटल पेज" [1] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-चूर्णे: उपक्रम: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तराध्ययनचूर्णिः प्राकू तावत् आवश्यकनन्दीअनुयोगद्वारदशवकालिकनामधेयानामागमानां चूर्णयः संस्थयतया प्रादुष्कृताः, अधुना तु श्रीमतामुत्तराध्ययनानां चूर्णिः प्रादुर्भाव्यते, यथा प्राक्तनचूणीनां मुद्रणे मूलमूत्राणि न धृतानि न च नियुक्तिर्भाष्यं च भृते, किन्तु प्राङ्मुद्रितानामेव वृत्तिपुस्तकानां गाथायंकाः पत्रांकाश्च धृताः तद्वदत्रापि न मूलसूत्राणि न च नियुक्तिर्नापि भाष्यं च मुद्रितानि, किन्तु तत्र तत्र प्रारमुद्रितायाः श्रीशान्तिमरिभाषितायाष्टीकापतेः पत्रांका धृता गाथार्थका अपि तत्रस्था एवं धृताः, एतस्या अपि पूर्णे: प्राइमुद्रितचूर्णीनामिव नात्यन्तमुपयोगः सूत्रावगमे तथापि साहित्यरसिकानां पदार्थवैचित्र्यान्वेषणे भविष्यस्यवापयोगोऽस्याः, प्रादुष्करणं चास्याः प्राचीनसाहित्यप्राकट्यायैव यतो नात्र ग्राहकसंख्या तथाविधा, भाषा प्राकृता विकृतिश्च संक्षिति हेतुरपि तत्र, भविष्यति चाशास्महे आचारांगसूत्रकृतांगभगवतीनां चूर्णीनां मुद्रणक्रिया, प्रार्थयामहे च सज्जनान् यदुत यत्किचित् सूचनीय विधाय कृपां ज्ञातव्यमिति अलेख्यानन्दसागरैः वीरसंवत् २४५९ आश्विनशुक्ला प्रतिपत्, सुरत • उत्तराध्ययन-चूर्णे: पूज्यपाद आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित उपक्रम: [2] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १६४०+८८ मूलं ०००१ ००४९ ०२ ००९५ ०३ ०११५ ०४ ०१२८ ०५ ०१६० ०६ ०१७९ ०७ औरभियं ०२०९ ०८ कापिलियं ०२२८ ०९ नमिप्रव्रज्या अध्ययनं of विनयसूत्तं परिषह विभक्तिः चातुरंगियं असंस्कृतं अकाममरणियं क्षुल्लकनिर्ग्रन्थियं उत्तराध्ययन मूलसूत्रस्य विषयानुक्रम पृष्ठांक: οοε ०५१ ०९६ १०७ १३१ १४७ १६२ १७३ १८२ मूलं ०२९१ १० द्रुमपत्रकं ०३२८ ११ बहुश्रुतपूजा १२ हरिकेशियं ०३६० ०४०७ १३ ०४४२ १४ ०४९५ १५ ०५११ १६ ०५३९ १७ ०५६० १८ चित्रसंभूतियं इषुकारि सभिक्षुकं [3] अध्ययनं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं पापश्रमणियं संयतियं दीप-अनुक्रमाः १७३१ पृष्ठांक: १९१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: १९९ २०६ २१८ २२५ २३८ २४३ २४८ २५२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १६४०+८८ उत्तराध्ययन मूलसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १७३१ । पृष्ठांक: २५५ पृष्ठांक: રાક૬ २७७ २५६ २६५ २७८ २६८ मूलांक: अध्ययनं ०६१४ | १९ मृगापुत्रिक ०७१३ | २० महानिर्ग्रन्थियं ०७७३ | २१ समुद्रपालितं ०७९७ | २२ रथनेमिय ०८४७ | २३ केशीगौतमियं ०९३६ | २४ प्रवचनमाता ०९६३ | २५ यज्ञकियं १००० | २६ सामाचारी १०५९ | २७ खलुंकियं मूलांक: अध्ययनं १०७६ | २८ मोक्षमार्गगति: १११२ | २९ सम्यक्त्व पराक्रम १९८९ |३० तपोमार्गगति: १२२६ |३१ चरणविधि: १२४७ |३२ प्रमादस्थानं १३५८ | ३३ कर्मप्रकृत्ति: १३८३ | ३४ लेश्या-अध्ययनं १४४४ | ३५ अणगारमार्गगति: १४६५ | ३६ जीवाजीव-विभक्तिः २७९ २८० २६९ २७१ २८१ २७२ २८३ २७४ २८४ २८५ २७५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: [4] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ["उत्तराध्ययन-चूर्णि:” इस प्रकाशन की विकास-गाथा] यह प्रत सबसे पहले " श्रीमन्ति उत्तराध्ययनानि" के नामसे सन १९३३ (विक्रम संवत १९८९) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है। - हमारा ये प्रयास क्यों? - आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगम चूर्णि के प्रकाशनो में भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था, परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कई नियुक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते, कोइ-कोइ नियुक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है, उनकी चूर्णि भी है पर उस नियुक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते | इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है । हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, नियुक्ति तथा भाष्यो के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसी को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .....मुनि दीपरत्नसागर. [5] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं , मूलं /गाथा ||-11 नियुक्ति: । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: -% श्रीउत्सरान चूर्णी १ विनयाध्ययने अनुयोग प्रतिज्ञा ॐ नमः श्रीसर्वज्ञाय । ॥ श्रीउत्तराध्ययनचूर्णिः॥ 2-4-4-144Cito-de दीप अनुक्रम कयपवयणप्पणामो, वोच्छं धम्माणयोगसंगहियं । उत्तरायणणुयोगं, गुरूवएसाणुसारेणं ॥१॥ प्रोच्यन्ते अनेन जीवादयः पदार्था इति प्रवचनम् , अथवा प्रगतं प्रधान प्रशस्तमादी वा वचनं प्रवचन, तत् द्वादशांग, तदुपयोगान्यत्वाद्वा सधः, प्रणमनं प्रणामः पूजेत्यर्थः, कृतः प्रवचनप्रणामो येन स कृतप्रवचनप्रणामः, 'वोच्छं' वक्ष्ये, 'धम्माडणुयोगसंगहिय' ति, इह चत्वारोऽनुयोगाः प्रोच्यन्ते, तद्यथा-चरणकरणाणुयोगो, धम्माणुयोगो, गणिताणुयोगो, दवाणु-4 योगोत्ति, तत्थ चरणकरणाणुयोगो कालियसुताति, धम्माणुयोगो इसिभासितादि, गणिताणुयोगो सूरपण्णत्तादि, दवाणुयोगो दिद्विवादोत्ति, अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः, समस्तं गृहीतं संगृहीतम् आख्यातं प्ररूपितमित्येकोऽर्थः, किं तत् ? उत्तरायणाणु-15॥ १ ॥ योग, उत्तरज्झयणाणि चा उवरि भाष्णहन्ति, अणुयोजनमनुयोगः अर्थव्याख्यानमित्यर्थः, उत्तराध्यायानामनुयोगः तमुत्तराध्या-11 - ...अथ चूर्णिकार-कृत् अनुयोग-प्रतिज्ञा दर्शयते [6] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्ति: [-] अध्ययनं [-1. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा०) चूर्णां १ विनया ध्ययने ॥२॥ यानुयोगं, गृणंति शास्त्रार्थमिति गुरवः ब्रुवन्तीत्यर्थः, ते पुनराचार्या अर्हदादयो वा तदुपदेशः - तदाज्ञा, गुरूपदेशानुवृत्तिरित्यर्थः, तया गुरूपदेशानुवृच्या, गुरूपदेशानुसारेणंति ॥ तस्स फलजोगमंगल समुदायत्था तहेव दाराई । तन्भेदनिरुक्तिकम, पओयणाई च वच्चाई ॥ २ ॥ ' तस्ये ' ति तस्योत्तराध्ययनानुयोगस्य फलं प्रयोजनं योगः - सम्बन्धो मङ्गलं-उपचारः समुदायार्थः पिण्डार्थः द्वाराणि उपक्रमादीनि, 'तदि' त्यनेन द्वाराण्येव संबन्ध्यन्ते इति, तद्भेदाः- तत्प्रकाराः, निरुक्तिः - निर्वचनं क्रमो - व्यवस्था प्रयोजनंशास्त्रोपकारः, एते अधिकारा वाच्याः । आह-किमुत्तराध्ययनानुयोगे फलम् ?; उच्यते, इह जीवस्स अट्ठविहकम्मबंधणबद्धस्स सम्मदंसणनाणचरितेहिं मोक्खो भवति, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकानि चोत्तराध्ययनानि अतः तद्व्याख्यानारम्भः पायेण च न धर्म्मकथा मन्तरेण दर्शनादिप्राप्तिरस्ति, अतस्तद्विकलस्याकारणता, कारणतथ कार्यसिद्धिरस्तीत्यत उत्तराध्ययनानुयोगादर्शनादिप्राप्तिः, ततो मोक्ष इति फलवानुत्तराध्ययनानुयोगारम्भ इति । कः पुनरुत्तराध्ययनानुयोगस्याभिसंबन्ध इति १, उच्यते, | उत्तरज्झयणा पुत्रं आयारस्सुवीरं आसि, तत्थेव तेसिं उवोद्घातसंबंधाभिवत्थाणं, ताणि पुण जप्यभिई अज्जसेज्जभवेण मणगपितुणा मणगहियत्थाए णिज्झहियाणि दस अज्झयणाणि दसवियालियंमित्ति, तम्मि चरणकरणाणुयोगो वणिज्जति, वप्पभिई च तस्सुवरि ठविताणि, एतेणाभिसंबंधेणुत्तरज्झयणाणि आगताणि, अवा साधुगुणसंजुतं कोई धम्मं पुच्छेज्जा, पच्छा सो तेसि विण [7] फलयोगी ।। २ ।। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं . मूलं /गाथा ||-11 नियुक्ति: । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: + श्रीउत्तरायसंजुत्ताणं धम्म परिकहेइ चउब्बिहाते कहाते, तं०-अक्खेवणीए विक्खेवणीए संवेयणीए निव्वेयणीए, तत्थ परीसहहिं अक्खित्ता मंगलं चूर्णी या चाउरंगिज्जे विक्खिना असंखतेणं संवेगमागच्छति, उरिमेसु णिव्वेयमागच्छंति, एस अभिसंबंधो । इदाणि मंगलंति-'बहु-II विग्घाई सेयाणि तेण कयमंगलोवयाहि । घेतम्बो सो सुमहाणिहिव्य जहवा महाविज्जा ॥१॥ तं मंगलमादीए मज्झे ध्ययन पज्जतए य सत्थस्सा । पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय णिदि8 ॥२॥ तस्सेव य थिज्जत्थं, मज्झिमयं अंतिमपि तस्सेव ।। ॥३॥ अब्बोच्छिचिणिमित्तं सिस्सपसिस्सादिवंसस्स ॥३॥ आह-आचार्य! मङ्गलकरणात शास्त्रं तेऽमंगलमापद्यते, अथवेह मङ् गलात्मकस्यापि शास्त्रस्य अन्यन्मङ्गलमुच्यते अतस्तस्याप्यन्यत्तस्याप्यन्यन्मङ्गलमादेयम्, इत्यतोऽनवस्था, नवेदनवस्था प्रतिपद्यते ततो यथा मङ्गलमपि शास्त्र अन्यमङ्गलशून्यत्वादमङ्गलं तथा मङ्गलमयेऽन्यमंगलशून्यत्वादमङ्गलमिति भावः, उच्यते, यस्य शास्त्रादर्थान्तरभृतं मङ्गलं तं प्रत्येषा कल्पना भवेत् इह त्वस्माकं शास्त्रमेव मङ्गलं,यद्यत्र मङ्गलमुपादीयते किमत्रा मङ्गले का वाऽनवस्थेति, नायमस्माकं पक्षे, किन्तु यस्यापि शाखादर्थान्तरभूतं मङ्गलं तस्यापि नामङ्गलप्रसंगो न चानवस्था, ID कुतः, स्वपरानुग्रहकारित्वान्मगलस्य प्रदीपवत् लवणादिवद्वा, आह-मगलत्रयान्तरालयं न मङ्गलमापद्यते, 15 अर्थापत्तितः, यदि वेह सर्वमेव शाख मङ्गल मिति प्रतिपाद्यते, मङ्गलत्रयग्रहणमनर्थकम्, उच्यते, समस्तमेव शाखं तथा विभज्यते, कुतोऽन्तरालद्वयपरिकल्पन? यदमङ्गलं भवेत् , तत्कथं पुनः सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलमिति चेदुच्यते, निर्जरार्थत्वात्तपोवत् , आह-यदि । स्वयमेव शाखं मङ्गलमित्यतः किमिह मङ्गल ग्रहणं क्रियते ?, उच्यते, नसूक्तं नैवेह शाखादर्थान्तरभूतं मङ्गलमुपादीयते, किन्तु का मङ्गलमिदं शास्त्रमिति केवलमुच्चार्यते, आह-तदुच्चारण किं फलं?, यदि मङ्गलमिति न संशब्द्यते किं तदमङ्गलं भवति ?, उच्यते, दीप अनुक्रम - ॥ ३ ॥ ... अत्र शास्त्रकार-कृत् 'मङ्गलं निरूप्यते [8] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्ति: [-] अध्ययनं [-1. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूर्णां १ विनया ध्ययने ॥ ४ ॥ शिष्य मतिमङ्गलपरिग्रहार्थमत्र तदभिधानम्, इह शिष्यः कथं शास्त्रं मङ्गलमित्येवं परिगृह्णीयादिति यस्मादिह मङ्गलमपि मङ्गलयुद्धया परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत् आह - ततः सर्वमेवेदं मङ्गलमित्येतावदस्तु नाथ मङ्गलत्रयबुद्धिपरिग्रहेण उच्यते, ननु तत्रापि कारणमुक्तं यथैव हि शास्त्रं मङ्गलमपि सत् न मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मंगलं भवति साधुवत्, तथा मंगलत्रयकरणमचि, अविनपारगमनादि न मंगलत्रयबुद्धया बिना सिद्धयतीति अतस्तदभिधानमिति, मंगेर्गत्यर्थस्य अल्प्रत्ययान्तस्य मङ्गलमिति रूपं भवति गम्यतेऽनेन हितमिति मंगलं, गम्यते साध्यत इतियावत्, अथवा मङ्गो धर्मों, ला आदाने, मगं लातीति मंगलं, अथवा मां गालयते भवादिति मङ्गलं, संसारादुपनयतीत्यर्थः अथवा शास्त्रस्य मा गलो भूदिति मङ्गलं, गलो-विनं मा गलो वर्त्तीदिति मङ्गलं, गलनं गालो नाश इत्यर्थः, तत्र मंगलं चतुर्विधं तेजहा - नः ममङ्गलं ठवणामङ्गलं दय्वमंगलं भावमङ्गलमिति, एवं चउन्विहमवि आवस्काणुकमेण परूवेऊण भावमंगलं णंदी, सा तहेव चउव्विहा, तत्थावि भावणंदी पंचविहं नाणं, तंपि आवस्सगाणुकमेण परुवेत जाब केवलनाणं, णंदी मंगलमिति चेह परिसमत्ताई, अहुणा स मङ्गलत्थो भष्णति, पगओ अणुयोगोऽत्थि, केवलज्ञानमिह परिसमापितं, तत्समाप्तौ च नन्दी तत्समाप्तौ च मङ्गलमिति । इदानीं मङ्गलार्थोऽनुयोगः, मङ्गलमर्थोऽस्येति मङ्गलार्थः अथवा अर्ध्यतेऽसावित्यर्थः, गम्यते साध्यत इतियावत् . मङ्गलस्यार्थो मङ्गलार्थः मङ्गलसाध्य इत्यर्थः, स च कः?, प्रकृतोऽनुयोगः प्रकृतोऽधिकृत इत्यर्थः सोऽनुयोगो मतिज्ञानादीनां कतमस्य इति उच्यते श्रुतज्ञानस्य, न शेषाणाम् अपराधीनत्वात् अपरप्रबोधकत्वाच्च श्रुतं तु प्रायेण यतः पराधीनं परप्रबोधकं च प्रदीपवत्, अनुयोगध परप्रबोधनायारभ्यते अतः श्रुतस्यैवासाविति आह - ननूत्तराध्ययनानामनुयोगं वक्ष्यामीत्युक्त [9] समुदायार्थे मंगलार्थोऽ नुयोगः ॥ ४ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं H. मूलं -/गाथा ||-|| नियुक्ति: [१/१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: I श्रीउत्तरा मैवासौ, कः पुनः कस्य ज्ञानस्येति किमनया चितया , उच्यते, इह श्रुतज्ञानस्यानुयोग इत्यभिधानादेवोत्तराध्ययनं श्रुतविशेष चूर्णी इत्युक्तं भवति, आह-अनुयोग इति का शब्दार्थः, उच्यते, श्रुतस्य स्खेनार्थेनानुयोजनमनुयोगः, अथवा पत्रस्याभिषयच्यापारानी १ विनया- नयोगः अनुरूपः अनुकूलो वा योगः अनुयोगः, अथवा अर्थतः पश्चादभिधानात् स्तोकत्वाच्च सूत्रमनु तस्याभिधेयन योजनम-140 ध्ययने नुयोगः । आह-ययेवमुत्तराध्ययनानामनुयोगः तच्च श्रुतविशेषः, अतस्तत्किं अग अगाई सुयक्खन्धो श्रुतस्कन्धाः अजायणं | ॥ ५ ॥ | अज्झयणा उद्देसो उद्देसा ?, उत्तरज्झयणाणि णो अगं नो अगाई सुतक्खन्धो नो सुयक्खन्धा नो अज्झयणं अझयणा णो उद्देसो णो उद्देसा, तम्हा उत्तरं णिक्खिविस्सामि अज्झयण मिक्खिविस्सामि सुतं णिरिखविस्सामि खंघं निक्खिविस्सामि, तत्थ * | पढमं दारं उत्तरंति, तत्थ इमा णिज्जुतिगाहा-'णामंठवणा' गाहा (१-३ पत्रे) तं उत्तरं पनरसविह, तं०-णामुत्तरं ठवणु-15 | तरं दव्युत्तरं खत्तुत्तरं दिसुत्तरं ५ तावखेत्तुत्तरं पण्णवगुत्तरं पति कालु० संचयु०१०पधाणु०णाणु कमु० गणणु भावुत्तर१५मिति, तस्थ णामुत्तरं जस्स उत्तरेत्ति णाम कज्जति, ठवणुचरं अक्खणिखेवादी, अहवा चित्तकम्मादिसु उत्तरा दिसा ठाविता, दव्युत्तरं । जाणगसरीर० भवियसरीर०, तव्यतिरित्तं खीराउ दधि, तत्थ पुव्वं खीरं उत्तरं दधि, खत्तुत्तरं उत्तराः कुरवः, अहवा पुग्वं सालिखेत्तं । आसि पच्छा उच्छुखेनं जातं एवमादी, दिसुत्तरं उत्तरा दिसा, तावखेत्तुत्तरं मंदरो पब्बतो, सब्वेसिं उत्तरेण भवति, पण्णवयुत्तरं पण्णवगस्स जं वामं तदुत्तरं, प्रतिउत्तरं एगसोऽवस्थिताणं देवदचजण्णदचाणं देवदत्ताओ जण्णदत्तो उत्तरो भवति, कालुत्तर Bा पुन्वं समयो पच्छा आवलिया, अहवा पुब्बकालाओ पच्छाकालो उत्तरो भवति, यथा 'पूर्वोत्तरविरुद्धार्थ, भारतं तु युधिष्ठिर ॥५॥ कथं , पूर्वमन्यथोक्त्वा पवादन्यथोपदिष्टवान् , संचगुत्तरं संचयस्सोवरि ववत्थितं तिणं कई पत्रं वा तं संचयुत्तरं, पहाणुत्तरं, 11 दीप अनुक्रम - ... अत्र 'उत्तर' शब्दस्य नामादि निक्षेपा: वर्णयते [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं H. मूलं /गाथा ||-|| नियुक्ति: [२-४/२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: अंगादिप्रभवान्यु तराणि SHASHASAN दीप अनुक्रम श्रीउत्तुरा०पहाणुत्तरं तिविह, तं०-सच्चिचं अच्चित्तं मीसंति, सच्चित्तपहाणुत्तरं तिवि, त-दुपयं चउप्पयं अपयंति, दुपदेसु तित्थंचूर्णों से करो चउपदेसु सीहो अपदेसु रुक्खाणं जंबू सुईसणा, पणसं कताणं फलाणं, अचिचाणं मणीण बेरुलियमणी सुवण्णाण वणसुवणं, १ विनयाध्ययने | मीसपहाणुत्तरं दुपदेसु जहा स एव भगवं तित्थगरो गिहवासे सवालंकारविभूसितो, णाणुत्तरं केवलणाण, सव्वणाणुत्तरं सुयनाणं, जओ-सुयनाणं महिडीयं, केवल तयणतरं । अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परिभावगं ॥१॥ अथवा श्रुतवानं ज्ञानो॥ ६ ॥ चरं, कमुत्तरं क्रमः परिपाटी आनुपूवी इत्यर्थः, कमुत्तरं चउब्बिह, तं०-दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, दवओ परमाणुपोग्गलस्स दुपएसिओ उत्तरो दुपएसियस्स तिपएसियो एवं जाय अतिमो अणंतपएसिओ संधो, खत्तओ एगपएसोगाढस्स दुपएसोगाढो उत्तरं, एवं जाव अंतिमो असंखज्जपएसोगाढचि, कालओ एगसमयठितियस्स दुसमतठितिओ उत्तरो एवं जाव अंतिमो, असंखेज्जसमयठितीउत्ति, भावओ वण्णादाणं एकके एगगुणा(द)पदकमो जाव अणंतगुणपज्जवसाणोत्ति, गणणाउत्तरं गणेज्जताणं भएकगाउ दुरुत्तरो दुगाउ तिगो एवं जाच सीसपहेलियत्ति, भावुचरो खातिओ भावो, उत्तरो सर्वोत्कृष्ट इत्यर्थः। एतेसिं लक्षणं 'जहन्नं सउत्तरं खलु' गाहा (२-४ ) जहर्ष थायमित्यर्थः, जहण्णो परमाणू स उच्चरो एवं जाव अंतिमो खंधो अणतात|पएसिओ णिरुत्तरो, सेसा बंधा सउत्तरा अणुत्तरा य भवंति, एवमिहापि विणयसुर्य सउत्तरं जीवाजीवाभिगमो णिरुचरो, सर्वो |चर इत्यर्थः, सेसज्झयणाणि सउत्तराणि णिरुत्तराणि य, कहं , परीसहा विणयसुयस्स उत्तरा चउरांगजस्स तु पुब्वा इतिकाउं पणिरुत्तरा, एवं णेयं ॥ एत्थ कयरेणुत्तरेणाहिगारो', उच्यते, 'कमुत्तरेण पगयं' गाहा (३.५) उत्तरायणाणि आया-15 रस्स उवरि आसिति तम्हा उत्तराणि भवति । एयाणि पुण उत्तरज्झयणाणि कओ केण वा भासियाणिति !, उच्यते, 'अंगप्प - %25 [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं , मूलं -/गाथा ||-11 नियुक्ति: [५-११/५-११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा अध्ययनादिनिक्षेपाः श्रीउत्तराभवा' गाहा (४५) तत्थ अंगप्पभवा जहा परीसहा वारसमाओ अंगाओ कम्मप्पबायपुब्बाओ णिज्जूढा, जिणभासिया चूर्णी जहा दुमपत्तगादि, पत्तेयबुद्धभासियाणि जहा काबिलिज्जादि, संवाओ जहा पमिपब्वज्जा केसिगोयमेज्ज च, तं एते सव्वेव १ विनया- बंधप्पमोक्खत्थं छत्तीसं उत्तरज्झयणा कया । उत्तरंति भणियं, इयाणि उत्तरायणंति तस्सेवेगद्वियाणि, अज्झयणंति वा ध्ययने ४ | अज्झीणंति वा आउत्ति वा झवणचि वा, एएसि निरुच भण्णति सुतं अज्झप्पं जणेतित्ति अज्झप्पजणणं, प्पकारणकाराणं लोबातो | अज्झयणति, अहवा अझप्पाणयणं प्पकारणकारागारलोवातो अज्झयणंति, अहवा बोधादीनामाधिक्येन अयनमध्ययन, अयनं भगमनमित्यर्थः, अक्षीणमर्थिभ्यो दीयमानमधवा अव्यवच्छित्तिनयोपदेशाल्लोकवनित्यं, आयो लामः प्राप्तिरित्यनर्थान्तरं, कस्य, ज्ञानादीना, क्षपणा अवचयो निजेरेति पर्यायः, कस्यो, पापानां कर्मणामिति ।। अधुणा निज्जुत्ती पवित्थारेति-'णामंठवणज्झयणे' गाहा (५-६) अज्झयणं णामादि चउब्विई, दब्बज्झयणं पचयपोत्थयलिहियं, भावज्झयणं इमाणि चेव उत्तरज्झयणाणि, वत्थ गाहाउ 'अझप्पस्साणयणं' गाहा (६-६) 'अधिगम्मति व अत्था' गाहा (७-७) जथा एयाणि पढंतो सुणंतो गुणतो | अज्झप्पे य अप्पाणं णिउजति तम्हा अज्झयणति, अझीर्णपि एमेव नामादिचउब्बिई, दव्वझीणं सव्वागाससेढी, भावज्झीणं 'जह [वा] दीवा दीवसयं' गाहा(८-७)आयोवि गामादि चउव्यिहो, दल्बाओ सच्चित्तादीणं दब्वाण आयो, भावाओ दुविहो-पसत्यो अपसत्थो य, तत्थ माहा 'भावे पसत्थ' गाहा (९-७) भावाओ पसत्थो तिविहो, तं०-णाणाओ दंसणाओ चरित्ताओ, अप्पसत्थो | भावाओ कोवायादिओ, ज्झवणावि गामादिया चउविहा, दव्वझवणा 'पल्लस्थिया अपत्या' गाहा (१०-८) भावज्झवणं दुविह १वृत्तौ यद्यपि क्षपणाया न प्रशस्वेतरत्या विभागः, तथाप्यत्र कर्मरजस्रो हानावेरावारकत्वादप्रशस्तक्षपणावं, तत्क्षपणासाधनाना प ज्ञानादीनां प्रशस्तक्षपणावमुक्त. दीप RADHANBADASTARA अनुक्रम - RECENCES [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१] . मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्तिः [१३,१८,२७/१२-२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण १ विनया ध्ययने पसत्यभावज्झवणं अप्पसत्थभावज्ावणं च अप्पसत्यभावज्झवणा इमा गाहा 'अडविहं' गाहा ( ११-८) पसत्थभावज्झबरेणा णाणादीणि, अज्झयणत्ति गतं । इदाणिं सुत्तं, तंपि णामादिचउध्विहं जहा अणुयोगद्दारे, भावसुतं तं दुविहं-आगमओ णोमैं आगमतो य, आगमतो जाणए उबउत्ते, गोआगमतो एयाणि चैव उत्तरज्झयणाणि सामित्तासंबद्धाणि । खंधोऽवि जहा अणुयोगद्वारे, भावखंधो एतेसिं चैव छत्तीसाए उत्तरज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं उत्तरज्झयणभावसुतक्खधेति लब्भइ, ताणि पुण ५ छत्तीसं उत्तरज्झयणाणि इमेहिं नामेहिं अणुगंतव्वाणि 'विणयसुयं च परीसह' गाद्दाओ जाप 'जीवजीवाभिगमो' चि (१३-१७/९) * एतेसिं इमे अत्याहिगारा भवति, तंजहा- 'पढमे विणओ' गाहा, एवं अत्थादिगारगाहा भाणियव्वाओ (१८-२६।१०) एवमुतरज्झायाण पिंडत्थे वण्णितो समासेणं । एत्तो एक्केकं पुण अज्झयणं कित्तहस्सामि ॥ १ ॥ (२७-१०) समुदायत्थो गतो, ॥ ८ ॥ - इदाणिं दाराणि तत्र प्रथममध्ययनं विनयसुत्तमिति, विनयो यस्मिन् सूत्रे वर्ण्यते तदिदं विनयसूत्रं, विनयमूलत्वाच्च धर्मस्य सर्वगुणाधारभूतं यतो न विनयशून्ये गुणावस्थानमिति, तस्य महापुरस्यैव द्वाराण्यनुयोगद्वाराणि चत्वारि, अनुयोग इत्यध्ययनार्थः, द्वाराणि तत्प्रवेश मुखानि, यथेह पुरमद्वारमधिगन्तुमशक्यं, एकद्वारमपि च कृच्छ्रेणाधिगम्यते कार्यात्तिपत्तये च भवति, चतुर्भिः पुनर्मूलद्वारैश्च सुखेनाधिगम्यते न च कार्यातिपत्तये भवति, तद्वद्विनयसूत्रमहा पुरमपि अर्थाधिगमोपायद्वारशून्यमशक्यमधिगन्तुम्, अनुग- तु मैकद्वारमपि तत्कृच्छ्रेण द्राघीयसा च कालेनाधिगम्यते, विहितसप्रभेदोपक्रमद्वारचतुष्टयं पुनरयत्नेनाल्पीयसा च कालेनाधिगम्यते इति द्वारोपन्यासः । तानि चानुयोगद्वाराणीमानि तं० उबकमो निक्खेवो अणुगमो गया इति । इयाणि तद्भेदो, उनको छब्बिहो, णिक्खेवो २ उत्तरायणास वृत्ती. ॥ ८ ॥ अत्र अध्ययन १ "विनय" आरभ्यते थुतस्कन्धौ अनुयोगद्वाराणि [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्तिः [१३,१८,२७/१२-२८] अध्ययनं [१] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: १ विनया ध्ययने श्री उत्तरा०तिविहो, अनुगमो दुविहो, यो सत्तविहो । इदाणि निरुत्ती, तत्र शास्त्रस्योपक्रमणमुपक्रमः उपक्रम्यतेऽनेनेति अस्मिंश्रेति, उप सामीप्ये चूर्णो क्रमु पादविक्षेपे, शास्त्रसमीपीकरणं शास्त्रस्याभ्यासदेशानयनमित्यर्थः, तथा निक्षिप्यते अनेनेति अस्मिन् वेति निक्षेपणं वा निक्षेपा, 'क्षिप प्रेरण' इति नियतो निश्चितो वा क्षेपः निक्षेपः न्यासः स्थापनेतियावत्, अनुगम्यतेऽनेनास्मिश्चेति अनुगमनं अनुगमः, अणुनो वा सूत्रस्य गमोऽनुगमः, सूत्रानुसरणमित्यर्थः, णी प्रापणे, तस्य नय इति रूपं, वक्तव सूत्रार्थप्रापणे गम्बे परोपयोगान्नयति नयः, नीयते चानेन अस्मिन्वेति नयनं वा नयः, वस्तुनः पर्यायाणां संभवतोऽधिगमनमित्यर्थः, एषां चोपक्रमादिद्वाराणामयमेव क्रमः, यतो नानुपक्रान्तं असमीपीभूतं सन्निक्षिप्यते, न च नामादिभिरानिक्षिप्तमर्थतोऽनुगम्यते, न च नयमतविकलोऽनुगम इति, यतस्तु शास्त्रं संबन्धात्मकेन उपक्रमेण स्थापनासमीपमानीय नामादिन्यस्तनिक्षेपमर्थतोऽनुगम्यतेऽनुगम्यते नाम नयैः, अतोऽयमेवानुयोगद्वारकम इति । तत्थोवकमो छव्विहो, तं० - णामोव० ठवणोव० दव्वोय खेतोब० कालोब० भाबोव० जहावस्सए जाव अहवा भावोवकमो छच्विधो, तंजहा - आणुपुब्बी नाम पमाणं वचव्वया अत्थाहिगारो समोयारो, सव्वं एवं अणुओगदाराणुकमेण परूवेऊण इमं विणयसुतज्झयणं जत्थ जन्थ समोयरति तत्थ तत्थ समोयारे तथ्वं, तत्थाणुपुब्वी दसविहा, तं -पामाणुपुथ्वी ठवणाणुपुन्वी दव्वाणु खतागु० कालाणु ० ५ उत्तिणाणु गणणाणु० संठाणाणु० सामायारीआणुपुब्वी भावाणु० १०, एत्थ उक्तितणगणणा शुपुबी समोयरह, उत्कीर्त्तनं- संशब्दनं, वं०-विनयसुतं परीसहा इत्यादि, गणणं परिसंखाणं एकं दो तिनि इत्यादि, तत्र विषयसुयं पुव्वाशुपुब्बीए पढमं, पच्छानुपूर्व्याए छत्तीस इमं, अणाणुपुन्वीए अणिययं कयाइ पढमं कयाई बिलिये इत्यादि, २ ॥ ९ ॥ अणापुब्बी इमं करणं एगा दियाए एगुचरीए छत्तीसगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्ण भासो दुरुवृणोति, पुष्याणुपुथ्वी पच्छा णुपुब्बी ॥ ९ ॥ ४ ॥ द्वारभेदाः निरुक्तिथ [14] आलुपूर्व्यादि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१] मूलं ] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [१३,१८,२७/१२-२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: चूर्णी । ध्ययने दीप श्रीउत्तराय दोवि फेडियाओ सेसाओ अणाणुपुष्वीओ भण्णंति, इमाउ पत्थारगाहाओ-एगादी उत्तरिवड्डिताण ठाणाण इच्छियाणं तु । जो जो आदी य भवे सो सो तु अणंतरो ओ॥१॥ जहियं त णिक्लेवो(जहियमि उ णिक्खित्ते) पुणरवि सो चेव होइ निक्लेवो । १ विनया सो होइ समयमेदो बज्जेयध्वो ततो नियमा ॥ २॥ पुष्वाणुपुब्बि हेट्ठा समयाभेदेणणंतरो देयो । उवरिमतुलं पुरतो हस्सो हस्सादि तो सेसो ॥३॥ असती अणंतरस्स उ देयोऽणंतर अणंतरो तत्तो। तचोऽवि परतरो पुण ता जाव अणंतरो णत्थि ॥४॥ एवं ॥१०॥ तिसु द्वाणेसु पत्यारं दंसेइ १२३ , एस पुच्वाणुपुच्ची, तत्थेगस्स अणंतरो णस्थि, दुण्हणंतरो एको ततो दुहं हेट्ठा एक ठावेऊण VI उवरिमतुल्लं ठवेति तिण्डं हेडा तिनि निकख आदीय बेणि से, जाता २१३, ततियपरिवाडीए (दोहमणतरो एको, तं 14 जति ठवेति समयभेदो भवति, एकस्साणतरो णत्यित्ति तिण्हमणतरो दुगो दिज्जइ, एगं तिगं च आईए, जातं १३२, चउत्थपरि वाडीए) एकस्सऽणतरो दुगो तं जति ठवेति समयभेदो भवति, तो अणंतराणंतरं ठवेति एक, उपरिमतुल्लं दो दोहं हेडा Aठवेज्जाऽऽईए तिमि ठवेति, जातं ३१२, पंचमपरिवाडिए तिण्हाणतरे दो त जति ठवेति तो समयभेदो भवति, अर्णवरासातरो एको तेणवि समयभेदो भवति, तओ तिहं हेडा ण ठवेति, एगस्साणतरो णस्थि तत्थवि ण ठवेति, दोण्हाणतरो एको | ततो दोण्हं हिट्ठा एक ठवेति, आदीए हस्सचि चे तिष्णि य, जातं२३१, छट्ठपरिवाडीए दोण्हाणंतरो एको, तेण समयभेदो भवति, तो तीण्णाणतरो दो तं वेति, उपरिमं तुलं नसे इक, आदीए ठवे तिनि, जाता पच्छाणुपुथ्वी ३२१, एवं तिसु चचारि अणाणुपुब्बीओ, एवं सेसावि पविस्थारा नेया । इह यद्वत्थुनो अभिधानं जातिरूपादिपर्यायप्रभेदानुसरणस्वभावं तमाम नमनं प्रहित्वमिति, वस्तु नमनात-प्रतिवस्तु नमनात् भवनादित्यर्थः, तच्च दशप्रभेदमेकनामादि बहुभेदं बाऽमिलाप्यविषयत्वात् । अनुक्रम [15] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्तिः [१३,१८,२७/१२-२८] अध्ययनं [१] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउतरा० चूर्णी १ विनया ध्ययने ॥ ११ ॥ तत्थ छब्बिहे णामे भाषो छब्बिहो वणिज्जति, तत्र क्षायोपशमिक एव श्रुतावतारी नान्यत्र श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजत्वाद श्रुतस्य प्रमाणं दब्वादि चउम्विहं, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं तत्थ भावप्यमाणे समोयरति भावगुणप्पमाणं च तिविह-गुणप्पमाणं णयप्पमाणं संखप्पमाणं, गुणप्पमाणं दुविहं- जीवगुणप्पमाणं अजीवगुणप्पमाणं च ततो जीवाऽन्यत्वाद्विनयसूत्रस्य | जीवगुणप्पमाणे समोतरति तं तिविहं णाणगुणप्यमाणं दंसणगुणप्पमाणं चरितगुणप्पमाणं, तत्र बोधनात्मकत्वाद्विनय| सूत्रस्य णाणगुणप्पमाणे समोतरति, गाणगुणप्पमाणं चउन्विहं तं०- पच्चक्खं अणुमाणं उनमें आगम इति, तत्थ विषयसुयस्स प्रायशः परोपदेशकत्वादागमप्रमाणेऽवतारो, आगमो दुविहो-- लोइओ लोउत्तरिओ य, लोउत्तरे समोयरति, लोउत्तरो दिविद्दोसुतं अत्थो तदुभयंति, तिसुवि समोयरति, सो तिविहो- सुत्तागमो अणंतरागमो परंपरागमो ( तत्थ सुत्तओ थेराणं अत्तागमो | अत्थओ अनंतरागमो थेरसिस्साणं सुत्तओ अनंतरागमो अत्थओ परंपरागमो, तेण परं सुतओवि अत्थओऽवि) नो अत्तागमो नो अनंतराममो, परंपरागमो, गतं गुणप्पमाणं । मूढणयियं कालियं सुतंति नाधुना नयप्रमाणावतारः, आसि पुरा सो जियते अणुयोगाणमपुत्तभावंमि । संपति णत्थि पुहुत्ते होज्ज व पुरिसं समासज्जा ॥ १ ॥ संखष्पमाणं अडविहं- णाम| संखा ठवणसंखा दव्व० उम्म० परिमाण० जाणणासंखा गणणा० भावसं०, तत्थ परिमाणसंखाए अवतरति सा दुविधाकालिय सुत्तपरिमाणसंखा य दिडिवायसुतपरिमाणसंखा य, तत्थ कालियसुत्तपरिमाणसंखाए समोतरति कालियसुतपरिमाणसंखा अणेगविदा पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघातसंखा पदसंखा पायसंखा गाहा • सिलोग० वेढग० निज्जुत्ति० अणुओगद्वार० उद्देश० अज्झयण सुयक्खंध० अंगसंखा वेति, तत्थ विणयसुतं सूत्रतः परिचपरिमाणी, परिमितपरिमाणमित्यर्थः, [16] प्रमाणाबतारः ॥ ११ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं / गाथा ||-11 नियुक्ति: [२९/२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: S C - श्रीउत्तरा | अर्थतोऽनन्तपर्यायत्वादनन्तपरिमाणं, तेण अनंता पज्जवा संखेज्जा अक्खरा संखज्जा संपाता संखेज्जा पदा संखेज्जा पादा। वक्तव्याचूर्णी | धिकारा | संखेज्जा सिलोगा एगा णिज्जुत्ती संखेज्जा अणुयोगदारा एगे अज्झयणे, वत्तव्बया तिषिधा-ससमयवत्तव्वया परसमयवत्त१ विनया-15 निक्षेपा: ध्ययने ब्बया ससमयपरसमयवत्तव्वया, तत्र समयः सिद्धान्तः वक्तव्यता-पदार्थविचारस, तत्र स्वसिद्धान्तवक्तव्यतानियमितामद मध्ययनं, यापिहि कचिदध्ययने परसिद्धान्तोभयवक्तव्यता वाऽनुश्रयते सापि हि यता सम्यग्दृष्टस्तत्वदशेनपरिग्रहात् । स्वसमयवक्तव्यतैवेत्यतः सर्वाध्ययनानि स्वसमयवक्तव्यतानियतानि- मिच्छत्तममहमय सम्म जं च तदुवगारमि । बट्टति परसिद्धान्तो तो तस्स ततो ससिद्धान्तो ॥१॥ अथ अर्थाधिकारो, सो विणएणं,-अधुणा समोचतारो जेण समो-| तारियं पइद्दारं । विणयसुर्य सोऽणुगतो लाधवओ ण उ पुणो वच्चो ॥१॥ उवकमो गतो, 'भण्णति घेप्पति य सुई णिस्खेव- | | पदाणुसारतो सत्थं । ओहो णाम सुत्तं णिक्खेत्तव्वं ततो तस्स ॥१॥ ओहो ज सामण्णं सुत्तभिहाणं चउच्विहं तं च । अजायण अझीणं आयो झवणा य पत्तेयं ॥ १॥णामादि चउम्मयं वपणेऊणं सुयाणुसारेणं । विणयसुअं आयोज्जा चउसुपि कमेण भावेसु । ॥३॥ ओहणिप्फण्णो गतो। णामणिप्फण्णे णिक्खेवे विणयमयंति विणओ सुत्रं च दुपयं णाम, एत्थ णिज्जुत्तिगाहा 'विणयो | पुब्बुदिट्टो'गाक्षा(२९-१५) विणओ चउग्विहो नामाइ जहा विणयसमाहीए तहेव भाणियन्चो, सुत्तपि पूर्ववत् ,गतो णामादिHiणिप्फण्णो, इदाणि सुचालावगनिष्फण्णो 'जो सुचपदण्णासो सो सुत्तालावगाण निक्खेवो । इह पत्तलक्खणो सो णिक्खिप्पति ण पुण किं कज्जी|१||सुत्तं चेवन पावह इह सुत्तालापयाण कोऽवसरो। सुचाणुगमे काहिति तमास लाघवनिमित्त ।।२।।अह यति पाचोड़लावि ततो ण णस्सए कीस भन्नए इहई। दाइलाइ सो निक्खेवमेत्तसाममओ नवरंशा संपदिमोहाईणं सणिक्खिचाणमणुगमो कओ।ला दीप अनुक्रम % % - १२॥ * %- RE [17] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं / गाथा ||-11 नियुक्ति: [२९/२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: ॐar- श्रीउत्तरा सोडणुगमा दुविकप्पो ओ णिज्जुत्तिसुचाणं ॥४॥ णिज्जुतियणुगमो तिथिहो, तं०-णिक्खेवाणिज्जुत्तिअणुगमो उवाग्यात- मत्रानुगमः चूर्णौनिज्जुत्तिअणुगमो सुत्तफासियणिज्जुचिअणुगमो, तत्थवि णिक्खेवनिज्जुति अणुगया जा एसा उत्तरज्झया खेवादि| १ विनया- अभिहिया, उवोग्यायणिज्जुत्तीअणुगमो 'उद्देसे णिसे य णिग्गमे खेत्त काल पुरिसे य । कारण पच्चय लक्खण णए समोध्ययने तारणाऽणुमति ॥ १॥ किं कतिविहं कस्स कहिं केस कहं केचिरं हवइ कालं । कति संतरमविरहित, भवागरिसफासण12 ॥१३॥ णिरुत्ती ॥ २॥' एताणि दाराणि जहा सामाइए ॥ संपति सुत्तप्फासियणिज्जुत्ती जं सुतस्स वक्खाणं । तसिऽवसरा सा पुण पत्तावि ण भण्याए इहई ॥१॥ किं ? जेणासति सुत्ते कस्स तई तं जता कमा (सुतं )। एतो सुचाणुगमो बोच्छिदि होहि तसेि तया भागो ॥ २॥ अत्थाणमिदं तीसे जदि तो सा कीस भन्नए इहई । इह सा भएणति णिज्जुनिमित्तसाम िण्णतो नवरं ॥३॥' अतोऽनेनैव सम्बन्धेनेदानी नियुक्तिअनुगमनानन्तरं सूत्रानुगमः, सूत्रस्यानुगमः२ सूत्रानुसरणमित्यर्थः, कि, | न्यूनाधिकविपर्यस्तादीदोपदुष्टमाहोश्विनिर्दोषमिति !, निर्दोषस्य च व्याख्यानं प्रारप्स्यते, शेषस्य चापनीतदोषस्येत्यतः सूत्रानुगमे सत्रमुचारणीय,-' अक्खलिय अमिलियं अविच्चामेलियं पडिपुर्व पडिपुण्णजोग कंटोडविप्पमुफ, न क्खलियमुप्पलाकुलभूमिलांगुलवत्, न च मिलितमसमानधान्यसंकरवत , अविपर्यस्तपदवाक्यग्रन्थमथवा न संसक्तपदवाक्यं, विच्छेदविपर्यस्तमिति, इह च व्याविद्धविपर्यस्तपदवाक्यग्रंथयोरयं विशेषः- वर्णन एव च्याविद्धं, पदं वाक्यं ग्रन्थतो विपर्यस्तमिति, केचित्तु व्याविद्ध वर्णपदवाक्यं ग्रन्थतो मन्यते, संसक्तपदवाक्यं विच्छेदविपर्वस्तमिति, न च व्यत्याग्रेडितमनेकशास्त्रग्रन्थसहक ॥१३ राद् अस्थानच्छिन्नग्रन्थनाद्वा पायसभेरीवत् 'प्राप्तराज्यस्व रामस्य राक्षसाणा' मित्यादिवद्वाऽप्रतिपूर्णमर्थतो ग्रन्थतच, तत्र 6-4- 9-% ॐॐॐॐॐ % [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्ति: [२९/२९] अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३ ], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण: श्रीउतरा० चूर्णी १ विनया ध्ययने ॥ १४ ॥ * ग्रंथतो मात्रादिभिर्यम प्रतिनियतमानं छन्दसा वा अर्थतो न साकाङ्क्षमध्यायकस्वतंत्र वा प्रतिपूर्णघोषमुदात्तादिभिरवि कलघोषमिति, 'कंडोहविष्यमुक्क' मिति स्पष्टमाह, नाव्यक्तं बालमुकभाषितवत् । एवंगुणसम्पन्नं सूत्रमुच्चारणीयं ततो तत्थ णज्जिहिति ससमयपदं वा परसमयपदं वा बंधपदं वा मोक्खपदं वा विणयपदं वा तो तंमि उच्चारित समाण केसिंचि भगवंताणं के अत्थाधिगारा अहिगया भवंति, केई अणगहिया, तेसिं अणगहियाणमत्थाणं अभिगमणदुयाए पदं वन्नस्सामि इमेण विहिणासंहिता य पदं चैव पयत्थो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य, छन्विहं विद्धि लक्खणं ॥ १ ॥ तत्थ संहितपदुच्चारणं संहिता, 'परः सन्निकर्षः संहिते ' ति वचनात् पदं नाभिकादि पंचविधं तत्राश्व इति नामिकं खल्विति नैपातिक, परीत्योपसर्गिक, धावतीत्याख्यातिकं, संयत इति मिश्र, पदार्थश्रतुर्विधः कारकादिविषयः, पचतीति पाचकः, समासविषयः राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः, तद्धितविषयो वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः, निरुक्तविषयो भ्रमति च रौति चति भ्रमरः अथवा त्रिविधः पदार्थः- क्रियाकारकभेदतः पर्यायवचनतो भूतार्थाभिधानत इति, तत्र क्रियाकारकभेदतो 'घट चेष्टायां घटतेऽसाविति घट इत्यादि पर्यायवचनतो घटः कुम्भः इत्यादि, भूतार्थाभिधानतो योऽसावूर्ध्वकुण्डलोष्ठायतसूत्रग्रीवादिरूप इत्यादि । 'पायं पदविच्छेदो समासविसयो तत्थनियमत्थं । पदविग्गहोति भण्णइ सो सुद्धपदे ण संभवति ॥ १ ॥ इह प्रायेण यः समासविषयः पदयोः पदानां या छेदो अनेकार्थसंभवे इष्टार्थनियमनाय क्रियते स पदविग्रहः, यथा राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः, श्वेताः पटाश्रेति श्वेतपटाः इत्यादि, सुत्तगतमत्यविषयं च दूसणं चालणं मतं तस्स । सद्दत्यण्णायातो परिहारो पञ्चवत्थाणं ||१|| इह यत्सूत्रविषयमर्थविषयं वा दूषणमारभ्यतं शिष्यचोदकाभ्यां तच्चालनं विचारो वेत्यर्थः, तस्य शब्दार्थन्यायतो [19] व्याख्या प्रकाराः ॥ १४ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं ] / गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - विनयप्रा - - दुष्करण प्रतिज्ञा ध्ययन edule संयोग निक्षेपाः गाथा संयोगः - श्रीउत्तरा०नयमतविशेषाच्च परिहारः प्रत्यवस्थानं, क्षितप्रसिद्धिरित्यर्थः । 'एवमनुसुतमत्थं नयन(सद्दनय)मतावतारपरिसुद्धं । भासेज चूणों 18| निरवसेसं पुरिसं च पडुच्च ज जोग्गं ॥ १ ॥ होति कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुताणुगो । सुत्तालावगनासो नामादिण्णाससपनया विनियोगं ॥२॥ इह सूत्रतत्पदच्छेदाभिधानात्सूत्रानुगमः कृती जायते, अवसितप्रयोजन इत्यर्थः, सूत्रालापकन्यासोऽपि नामा-1 दिन्यासविनियोगमात्र, 'सुतप्फासियनिज्जुत्तिनियोगो सेसयो पयत्थाई । पायं सोचिय णेगमणयादिमयगोयरो होई ॥१॥॥ १५॥ तिसूत्रस्पर्शकनियुक्तिविनियोग इत्यर्थः, शेष:- पदार्थविग्रहविचारप्रत्यवस्थानभेदः सूत्रानुगमनस्वाभाव्यात, स एव हि प्रायो नैगमादिनयमतविषयः, प्रायोऽभिधानात्पदविधानन्यासोऽपीति, पादं पदविच्छेदो सुत्तप्पासंच संहिता जेण । कस्सइ इहत्थकारयकालादिगती ततो चेव ॥ १ ॥ प्रायः पदविच्छेदोऽपि क्वचित् सूत्रस्पर्शान्तर्भाव्येव, यतः क्वचित् पदविच्छेदादेवार्थः काल कारकादयो गम्यन्त इति, एयमणुयोगद्वारपजोयणं भणियं, हेट्ठा दारगाहा । एवं णिक्खित्तंति । 'एथ य सुत्ताशुगमो सुत्ताIलावयकओ य णिक्खेयो। सुत्तफासियनिज्जुत्ती या य पइसोचमायोज्जा ॥१॥ मुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेयव्यंति, तं चिमं सुत्र-संजोगा विप्पमुस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । विणयं पायो करिस्साभि, आणुपुचि सुणह मे ॥१॥ (१८५०)'संजोगे निक्खेवा' गाहा । (३०-२१) संयुज्जत इति संयोगः, येन चा संयुज्जते स संयोगः, सो संयोगो छविहो- णामसंजोगोठवणासंजोगो दव्वसंजोगो सेत्तसंजोगो कालसजोगो भावसंजोगो, नामठवणाो गयाओ, द्रव्यसंयोगो द्रव्ययोर्द्रयाणां वा संयोगो द्रव्यसंयोगः, सो दुविहो- संजुत्तगदब्धसंजोगो इतरेतरदव्वसंयोगो य, तत्थ गाहा 'संजुत्तगसंजोगो' गाहा ( ३१-२३) तत्थ संजुत्तदव्वसंजोगो णाम जो पुब्बसंजुत्त एव अण्णेण दवेण सह संयुज्जते, सो तिविधो दीप अनुक्रम [१] SASEAR ॥ CRORESCRedHER [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं -/गाथा ||११||| नियुक्ति : [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: गाथा श्रीउत्तरासचिचसंजुत्तदव्वसंजोगो अचित्तसंजुत्तदथ्वसंजोगो मीससंजुत्तदवसंजोगो, तत्थवि सचित्तसंजुत्तदव्वसंजोगो णाम जहा इतरतर संयोगः | रुक्खो पुथ्वं मूलेहिं पुढविसंबद्धेहिं उत्तरकालं कंदण सह युज्जते, एवं जापत्ति ताव नेय, एत्थ गाहा 'मूले कंदे' गाडा (३२-२३) १विनया IA सचित्तसंजुत्तदव्यसंजोगे इमे गाहा-'एगरस एगवणे' गाहा (३३-२६ ) जहा परमाणुपोग्गले एगवणे एगगंधे एगरसे ध्ययने दुफासे, स तु जता कालगत्तं पडिचइऊणं नीलगतेण परिणमति तदा गंधादीहिं संजुत्ते एव लीण(णील)गत्तणं संजुत्तेणं, एवं लोहित॥१६॥ लहालिहसुकिल्लत्ततोषि, णीलगो वा जया नीलग परिच्चइऊण कालगत्तेण परिणमति तदा गंधादीहिं संजुत्ते एव लीण(नील)गत्तेण संजुत्तेणं, एवं लोहितहालिहसुकिल्लचतोऽपि, एवं संजोगा वीसं भाणितब्वा, गंधतोऽवि, जता सुम्मिगंधं परिच्चइऊणं दुरभिगंधत्तेण परिणमति तदा बनरसफाससंजुत्त एव दुन्भिगंधसेण जुज्जते, एवं दुन्भिगंधोऽचि, रसो जहा वण्णो, फासे दुसु, जता सीत-13 फासो उसिणफासं परिणमति तदा वण्णगंधरसफासणिद्धलुक्खाण फासाण एगतरेण संजुत्त एव उसिणं संयुज्जते, उसिणफासोऽपि सीतं फार्स परिणमति, गिद्धोऽवि रुक्खफासं, रुक्खोऽपि निद्धफास, अहवा एगगुणकालगो होत्तिऊणं उत्तरकालं दुगुणं कालगो भवति तदा कालगवण्णेण संजुत्त एव, पुणरवि तेण वा अधिकतरेण संयुज्जते, एवं यो जाव अर्णतगुणकालगोति, अवसेसेसु य वाणगंधरसफासेसु माणितव्यं जाव अणंतगुणलुक्खोत्ति, एवं दुपदेसिगादिसुवि विभासा, अचित्तसंजुत्तदब्बसंजोगो गतो। इदाणि मीससंजुचदन्यसंजोगो,स च जीवकर्मणोः, तयोः स्थानादिसंयोगे सति यदुपचीयते स मिश्रसंयुक्तसंयोगो भवति 'जह धातू | कणगादी' गाहा (३४-२५) यथा धातवः सवर्णादी स्वेन स्वेन भावेन परस्परसंयोगेन संयुक्ता भवंति,अथवैतेषां क्रमेण पृथग्भायो भवति. अन्यत किटं अन्यच्च सुवर्ण, एवं गृहाण जीवस्यापि संततिकर्मणाऽनादि संयुक्तसंयोगो भवति, स च यदा निरुद्धयोगा दीप अनुक्रम [१] ak: 5 -% % 4 % [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं ] / गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: %ESS गाथा CatCle श्रीउत्तराश्रयो भवति तदा जीवकर्मणोः पृथक्वं भवति, दुस्सति (सचिचे) मलकंदे अचिने परमाणुपोग्गलग्गहणं वण्णगंधरसफासादीहिंसपुद्गलबन्धा चूणों संततिकम्मति मिस्सस्स गहतो जह धातू कणगा इति, उक्ताः संयुक्ताः संयोगाः । इदाणि इतरेतरसंजोगो, तत्थ निज्जुत्तिगाहा १ विनया |'इतरतरसंजोगों' गाहा(३५-२५) इतरेतरसंजोगो छन्विहो, तंजहा-परमाणणं पएसाणं अभिप्पेयस्स संजोगो अणभिप्पेयस्य संजोगो ध्ययने अभिलावसंजोगो संबैधनसंजोगो, तत्थ दुप्पभितीण परमाणूणं जो संजोगो सो इतरेतरसंजोगो भवति परमाणूणं, पदेसेसु दुपदेसा॥१७॥ दीण नेयमिति, तत्थ 'दुविहो परमाणूणं' गाहा ( ३५-२५) परमाणूणं इतरेतरसंजोगो दुविहो-संठाणतो खधतो य, उक्तश्च समणिकाए पंधो ण होइ समलुक्खतायवि ण होति । वेमायणिद्धलुक्खतषण बंधो उ खंधाणं ॥१॥ तत्थेगगुणणिद्धो है | एगगुणणिद्वेण सह न बज्झति, तहा दुगुणणिद्धो बेगुणणिद्धेण समं ण, अर्णवाणिदो अर्थताणखूण ण, एवं एगगुणलुक्ख-12 वि एगगुणलक्खेण सह ण बज्झति, एगगुणलुक्खो दुगुणलुक्खेण जाव अणतगुणलुक्खो अणतगुणलुक्खेण, एवं सव्वत्थ समगुणसु बंधो णस्थि, मातणिद्धलुक्खत्तणेणति विषमा मात्रा विमाता, एवं भवति, कहं पुण!, उच्यते 'णिद्धस्स गिद्धेण दुताहिएणं' | लुक्खस्स लुक्खण दुयाहिएणं । णिद्धस्स लुक्खेण उवेति घंधो, जहन्नवजो विसमो समो वा ॥१॥ एगगुणनिद्धो तिगुणणिद्वेणं | बज्झति, तिगुणनिद्धो पंचगुणणिद्धेण, पंचगुणो सत्तगुणणि ण, एवं दुयाहिएण बंधो भवति, तहा दुगुणणिद्धो चउगुणणिश्रेण, | चउगुणणिद्धो छगुणणिद्वेण, छग्गुणणिद्धो अट्ठगुणणिद्वेण, एवं णेयं, लुक्खेवि एवं चेव, गिद्धलुक्खस्स पुण जहन्नगुणवज्जेसु | सेसेसु विसमेसु समेसु वा बंधो भवति, 'जहन्नगुणो 'त्ति एगगुणणिद्धो एगगुणलुक्खेणं ण बज्झति, सेसेसु दुगुणतिगुणठिएसु R१७॥ । | वझति,अण्णे पुण भणंति-एगगुणस्स दुगुणाधितेण बंधो भवतीति, दुगुणाहिएणंति एगगुणस्स तिगुणेण दुगुणस्स पंचगुणेण तिगुणस्स -C7-09- दीप अनुक्रम [१] CCCC ... अत्र पुद्गल-बन्ध: वर्णयते [22] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं ] /गाथा ||११|| नियुक्ति : [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: चूणौँ गाथा श्रीउत्तरासा या सत्तगुणेण, एवं सम्वत्थ दुगुणाधिएणं बंधो भवति,तस्थ गाहा-दोण्ह जहण्णगुणाणं णिद्धाणं तह य लुक्खदव्वाणं । एमाहिएऽविष गुणे | PRG १ विनया गुणपंधस्स परिणाहो(मो)॥शाण होति बंधस्स (वृ.) जेऽविय-णिद्धविगुणाधिएणं बंधो णिद्धस्स होइ दब्बस्स । लुक्खविगुणाधिएण य, ध्ययने | लुक्खस्स समागमं पप्प ।।२।। बझंति णिद्धलुक्खा बिसमगुणा अहव समउणा जतिीव। वज्जेत्तु जहनगुणे बज्झती पोग्गला एवं ॥३॥ एमेव य खंधाणं दुपदेसादीण बंधपरिणामो। जो होइ जहा अहितो सो परिणामेति तदऊणं ।। ४ ।। जति चिसमे संजोगो ॥१८॥ पारणाम तस्स कवलंतु खंघचे । अवसेसे परिणामो तारिसर्ग चेव तं दवं ॥५॥ सरिसगुणा सरिसगुणं अमहियगुणाण होणगुणमेव । परिणामिउं समत्था न पुर्ण ऊणा तु अहियाणं ॥ ६॥ परिणामगा समाहिय परिणामिज्जति समो व हीणो वा । दब्वगुणाधियभावेण ण पुण दवामिगत्तेणं ॥ ७॥ जति बहुगं एकगुणं थेबीपय बहुगुणं जति हबेज्जा । परिणामिज्जति 19 बहुगं थोवेण गुणाहियगुणेणं ॥ ८॥ जति कालियमेगगुणं सुकिलयंपि हवेज्ज बहुगुणं । परिणामिज्जति कालं मुकेण गुणाहिय-14 गुणेणं ।।९।। जति सुकिल्लगमेगगुणं कालयदव्वं तु बहुगुणं जति य । परिणामिज्जइ सुकं कालेण गुणाहियगुणेणं ॥१०॥ जति सुकं एगगुणं कालगदव्वंपि एगगुणमेव । कायोत परिणाम तुल्लगुणं जस्स संभवति ॥११॥ एवं पंचवि बना संजोएणं तु वण्णपरिणामो । समहियहीणगुणेण य वणंतरसंगयाणं च।।१२।एमेव य परिणामो गंधाण रसाण तह य फासाणं। संठाणाण य भणितो संजोएणं बहुविगप्पे ॥१३॥दब्बं भणियं सप्पज्जयं निग्गुणा गुणा होति । जहि दवं तत्थ गुणा जत्थ गुणा तत्थ परिणामो॥१४ाएयं पासंगिक,ते हि परिमाणवः संहन्यमाना अग्घाइज्जंता दुपदेशगादि खधं णिव्वत्तेन्ति५ संठाणं च, मृत्पिण्डवच्च, यथा मृत्पिण्डः कालान्तरेण पिण्डत्वेन परिणमन् घटत्वेनोत्पद्यते तसंस्थानवत् , एवं तन्तवोऽपि पटत्वेनोत्पद्यन्त तत्संस्थानेन च, तद्वत्परमाणु नां पिंडोखंधचं संठाणं चा| दीप अनुक्रम [१] PER-ECECRETER ॥१८॥ ... अत्र संस्थान-भेदा: वर्णयते [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं ] / गाथा ||१/१|| नियुक्ति : [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: गाथा TAIN परमाणवो वा कारणांतरात् संयुज्जते संयुज्जमाना स्कन्धत्वेनोत्पद्यन्ते तत्संस्थानेन च, तस्थ संठाणं पंचविह-'परिमंडले य गाहा सस्थ १यिनया MI-III (३८-२७)परिमंडल संठाणं दुविहं-धणपरिमंडलं पयरपरिमंडलं. तत्थ पयरपरिमंडलं जहावं वीसपदेसियं वीसपदसोगाढं, उक्कोसेशं ध्ययने र | अणंतपदेसियं असंखेज्जपदेसोगाद च,तत्थ वीसपदेसियस्सा इयं स्थापना घणपरिमंडले जहन्त्रेण चत्तालीसपदेसिए चत्तालीसपदे॥१९॥ सोगाढे, एतेसि चव वीसाए परमाणूर्ण उवरि अण्णा वीसं चेव परमाणू भवंति,उक्कोसेण अणंतपदेसितो असंखज्जपदेसोगाढा,बडो दुविहोघणयद्वे य पयरवडे य,पयरवढे दुविहो-ओयपदसिए जुम्मपदेसिए य,ओजपएसे जहन्नण पंचपएसिएपंचपदेसोगाढो उकोसेणं अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढो, जुम्मपएसिए जहण बारसपएसिए बारसपएसोगाढे ! उको सेणं अणंतपएसिए असंखिज्जपएसोगाढे, घणबट्टे दुविहो-ओयपदेसिए जुम्मपदेसिए य, ओयपएसिए जहन्नेण सत्तपदेसिए सत्तपदेसोगाढो एतस्स मज्झेल्लस्स पदेसस्स | | उवरि एगो ठावितो हेट्ठावि एगो एवं सत्त भवंति, उक्कोसेणं तहेच, जुम्मपदेसिए जहन्मेण बत्तीसपदेसिए बत्तीसपदेसोगाढो एते। पारस व उपरि एते पारस चेव एते चउबीसं, एतेसिं चउव्वीसाते उवारं चत्तारि हेट्ठावि चत्वारि, एवं बचीसं भवति. उको-18 & सेणं तहेव, तसे दुविहे-घणे पतरे य, पतरतसे दुविहो ओयपदसिए जुम्मपदेसिए य, ओयपदेसिए जहन्नेण तिपदेसिए तिपदेसोगाढे, |" उक्कोसेणं तहेच, जुम्मपदेसिए जहन्नेण छप्पदेसिए छप्पदेसोगाढो। उक्कोसेणं तहेव, घणो दुविहो-ओये जुम्मे य, जहण ॥१९॥ ४. पणतीसपदेसिए पणतीसपदेसोगाढो, एते पन्नरस पदेसा, एतेसिं इमे उवरि एते दस पदेसा, "एतर्सि उवरि एते.. छप्पदेसा, &ाएतेर्सि इमे उवरिं", एतेसिपि उवरि , एवं एतं सर्वपि घणं तंसं एगं निप्फन्नं भवति, जुम्मपदेसिए जहन्त्रेण चउप्पदेसिए चउ %ACRORESCENocar दीप अनुक्रम C [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [8] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा || १/१ || निर्युक्तिः [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४३ ], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: ध्ययने ॥ २० ॥ श्रीउत्तरा० ॐ प्पसावगाढे, एत्थ जे तिन्नि तत्थ एतेसिं एयम्स उवरि एको कीरह, उकोसेणं तहेव, चउरंसे दु०-घणे पयरे य, पयरे दुविहे ओए चूर्णी जुम्मे य, ओये जहन्त्रेण णवपएसए णवपदेसावरगाढे: उक्कोसेण तद्देव, जुम्मपदेसिए जह० चउपदेसिए चउपदेसोगादे १ विनया, उक्कोसेणं तद्देव, जुम्मपदेसिए जह० अडपएसिए अट्ठपएसोगाढे, एतेसि चैव उवरिं अन्ने चचारि, एते अट्ठ, उक्कोसेणं तहेव, आयते दुबिहे-सेढी आयतो घणायते य, सेडीआयते दुविहे ओये जुम्मे य, ओये जहण्णेण तिपदेसिए तिपदेसोगाढे . उक्कोसेणं तहेव, जुम्मपदेसिए जहन्त्रेण दुप्पएसए दुप्पएसोगाढे, उक्कोसेणं तहेव, पयरागतो दुविहे-ओये जुम्मे य, ओये जह०पण्णरस पदे| सिए पन्नरसपदेसोगाढेउकोसेणं तहेव, जुम्मपदेसिए जहमेणं छप्पदेसिए छप्पदेसोवगाढे, उकोसेणं तद्देव, घणायते दुबिहे - ओए जुम्मे य, जोए जहनेणं पणयालीसपएसिए पणयालीसपएसिओगाढे, एतेसि देट्ठा उवरिं च पण्णरस, एते चैव पणयालीसं भवंति, उक्कोसेणं तद्देव, जुम्मपएसिते जहत्रेणं वारसपएसिए बारसपएसोगाढे, एतेर्सि उवरिं अन्ने छप्पएसा ठाविंति एवं बारस हवंति, उकासेणं अणतपएसिए असंखेज्जपण्सोगाढे, एवं परमाणूनां संठाणओ गतं इदानीं त एव परमाणवः संहन्यमानाः स्कन्धवं निर्वर्त्तयन्ति न च संस्थानं, तद्यथा-अचित्तमहास्कन्धः, जे व अण्णे अणित्थत्थसंठाणं परिणता, अणित्थंस्थं णाम अणे गप्पगार, पंचहं संठाणाणं एगतरमवि ण य भवति, एसो परमाणूणं इतरेतरसंजोगो गओ, इदार्णि पदेसाणं इतरेतरसंजोगो, तत्थ गाहा'धम्माइ| पदेसाणं' गाहा ( ४२-२९) तत्थ धम्मत्थिकाइयाईणं पंचण्डं अस्थिकायाणं यः स्वैः स्वैः प्रदेशैरन्यद्रव्यप्रदेशैश्च सह संयोगः स प्रदेशत इतरेतरसंयोगो भवति, तत्थ धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय आगासत्थिकायाणं एतेर्सि तिन्हवि अदातीओ अपज्जवसिओ इतरेतरपदे संसयोगो भवति, जीवद्रव्यस्यापि आत्मप्रदेशैरेव सह इतरेतरसंयोगः, तत्थवि य तिन्हं तिन्हं अणावीवो, सेसाणं [25] संस्थानानि ॥ २० ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र श्रीउत्तरा चूर्णी १ विनया ध्ययने ॥ ११ ॥ मूलं [-] / गाथा || १/१ || निर्युक्ति: [३०...६३/३०-६३] [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: | तत्थ छब्बिहे णामे भावो छब्बिहो वणिज्जति, तत्र क्षायोपशमिक एव श्रुतावतारी नान्यत्र श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजत्त्वात् श्रुतस्य प्रमाणं दब्वादि चउम्विहं, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं तत्थ भावप्यमाणे समोयरति भावगुणप्पमाणं च तिविह-गुणप्पमाणं णयप्पमाणं संखप्पमाणं, गुणप्पमाणं दुविहं- जीवगुणप्पमाणं अजीवगुणप्पमाणं च ततो जीवाऽन्यत्वाद्विनयसूत्रस्य | जीवगुणप्पमाणे समोतरति तं तिविहं णाणगुणप्यमाणं दंसणगुणप्पमाणं चरितगुणप्पमाणं, तत्र बोधनात्मकत्वाद्विनयसूत्रस्य णावगुणप्पमाणे समोतरति, णाणगुणप्पमाणं चउन्त्रि, तं०- पच्चकखं अणुमाणं उनमें आगम इति, तत्थ विणयसुयस्त प्रायशः परोपदेशकत्वादागमप्रमाणेऽवतारो, आगमो दुविहो-- लोइओ लोउत्तरिओ य, लोउत्तरे समोयरति, लोउत्तरो दिविद्दोसुतं अत्थो तदुभयंति, तिसुचि समोयरति, सो तिविहो- सुत्तागमो अनंतरागमो परंपरागमो ( तत्थ सुत्तओ थेराणं अत्तागमो | अत्थओ अनंतरागमो थेरसिस्साणं सुत्तओ अनंतरागमो अत्थओ परंपरागमो, तेण परं सुतओवि अत्थओऽवि) नो अत्तागमो नो अनंतराममो, परंपरागमो, गतं गुणप्पमाणं । मूढणयियं कालियं सुतंति नाधुना नयप्रमाणावतारः, आसि पुरा सो जियते अणुयोगाणमपुत्तभावंमि । संपति णत्थि पुहुत्ते होज्ज व पुरिसं समासज्जा ॥ १ ॥ संखष्पमाणं अडविहं- णाम| संखा ठवणसंखा दव्व० उम्म० परिमाण० जाणणासंखा गणणा० भावसं०, तत्थ परिमाणसंखाए अवतरति सा दुविधाकालिय सुत्तपरिमाणसंखा य दिडिवायसुतपरिमाणसंखा य, तत्थ कालियसुत्तपरिमाणसंखाए समोतरति कालियसुतपरिमाणसंखा अणेगविदा पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघातसंखा पदसंखा पायसंखा गाहा० सिलोग० वेढग० निज्जुत्ति० अणुओगद्वार० उद्देश० अज्झयण सुयक्खंध० अंगसंखा वेति, तत्थ विणयसुतं सूत्रतः परिचपरिमाणी, परिमितपरिमाणमित्यर्थः, [26] प्रमाणाबतारः ॥ ११ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं ] /गाथा ||११|| नियुक्ति : [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: गाथा C तुरासच ती च ते, एवं दुगादीयो, अक्सरसंजोगमादी व्यञ्जनं भवति, तत्र व्यञ्जनसंजोगो भवति यथा स्त्री. कोऽर्थः १. व्यजनान्यने- सस्थानानि चूौँ । १विनया | कानि, एसोऽभिलावसंजोगी। इदानि संबंधणसंजोगो, सो चउन्विहो, तं-दबसंबंधणसंजोगो खेत्त० काल० भाव०, ध्ययने | तस्थ दवे 'संबंधणसंजोगो' गाहा (४६-३२ ) सचित्तदव्वसंबंधसंजोगो तिविहो, दुपयादी, तत्थ दुपयसच्चित्तसंबंधसंयोगो || यथा पुत्रयोगात्पुत्री, एवं चतुष्पदेवि यथा गोसंयोगात गोमान, अपदे यथा आरामसंयोगिकादारामिका, अचित्ते यथा |" ॥२२॥ कुंडलसंजोगा कुंडली, मिश्रे यथा रथेन गच्छति रथिको गच्छति । 'खेत्ते काले च तहा' गाहा (४७-३२) खेचर्स बंधसंयोगो द्विविधो, तं०-अप्पितो अणप्पितो य, अणप्पितो- अबिसेसितो, अप्पितो-विसेसिओ, तत्थ अणप्पितो| जो जेण खेत्तेण संजुतो अप्पितो, जहा सोरडतो मालवतो मागहो इत्यादि, एवं कालेऽवि दुविहो, णवरं अप्पिओ जहा वसन्तगो, खेतवि कालेवि एवं दुविहं तु तेण दोण्हवि दुविहो य संजोगो, इदाणिं भावसंपंधणसंजोगो गाहापच्छद्रेण भएणति-'भावंमि होइ दुविहो आदेसे चेव णादेसो' भावे दुविहो-आदेसे। चेव गादेसो, भावे | दुविहो-आदिट्ठो अणादिट्ठो य, तत्थ अणादिडो भाव इति षण्णा भावानामन्यतमः, एत्थ गाहा-उदइयउवसमखइएसुतह | खइए य उपसमिए । परिणामसन्निवाए य छविहो होतिष्णादेसो (४८-३३) कहं पुण?, जहा उदइयओ भावो आदेस्सइ तदा ण | गजति किं मणुसस्स उदईओ अमणुस्सस्स उदइओ?, उदइओ पुण सामन्नो जीवाजीवदन्वेहिं भवति, उपसमिओवि तहेव, एवं जाव | ॥२२॥ परिणामिओवि, सामग्रएवि भवति, 'आदेसो पुण दुविधों' गाथा (४९-३३) आदेसो दुविधो-अप्पियववहारगो अण-18 | प्पितववहारगो य, इक्केके तिविहो-आत्मन्यर्पितः बहिरर्पितः अनात्मनीत्यर्थः उभयापित इति, अत्रात्मन्यर्पितो णाम 'उवस PL-94 दीप अनुक्रम [१] २ERA- [27] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं ] / गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: % बिनया 9-425 गाथा - श्रीउत्तरामेण य' गाहा (५०-३.) ओपसमिकः क्षायिका क्षायोपसामिकः पारिणामिको य अप्पितो वा भवति तदा आत्मनि प्रत्यबसेयः, संस्था चूर्णी एतेसु चउसुीव आत्मसंयोगो भवति, एते हि जीवगया भवति-एतेसु भावेसु जीवो भणण्णो भवति, तदात्मक इत्यर्थः । अनर्पित स्तु भाव एव, 'जो सन्निवादितो खलु' गाहा (५१-३४ ) जो सभिवाइतो भावो उदयिययजितो भवति तत्थेव सणिवादीणं ध्ययने | चउण्हं भावाणं दुगसंजोगेणं तिगसंजोगेण चउक्कसंजोगेण एक्कारस भंगा भवंति, तत्थ छ दुगसंजोगे चतारि तिगसंजोगे ॥ २३॥ एक्को चउकसंजोगे एते एक्कार संजोगा भवंति, एसोवि अत्तसंजोग एव, गतो अत्तसंजोगो । बाधसंयोगो नाम 'लेसा कसाय वेदण' गाहा (५२-३४ ) यदा औदयिका लेस्थाः कषाया चेदनं वेदो अज्ञानं मिथ्यात्वं च अर्पितं भवति तदा अनात्मकमिति प्रत्यबसेयः, किमुक्तं भवति ?-कर्मपुद्गलोदयादेतानि भवन्ति, अनपिंतस्तु भाव एबौदयिकः, उक्तो बाह्य अभ्यन्तरश्च 2 भावसंयोगः तदुभयसंयोगो इमो-'नो सन्निवाओ खलु' गाहा (५३-३५) सच्चे ओदयिकं अमुंचमाना संजोगा कायब्वा, तत्थ दुगसंजोगा ओदयिक अमुंचमाणेण चत्तारि तियसंजोगा छ चउक्कसंयोगा चत्तारि एगो पंचसंयोगे, एवं औदयिकभावं अमुचमाणेण पचरस संयोगा भवंति 'वितिओवि आदेसो गाहा (५४-३५) अयमपर: किल आदेशः, भावसंजोगो तिविधी-अत्त संजोगो परसंजोगो तदुभयसंजोगो, 'ओदयिय' गाहा (५५-३६) तत्रात्मना षड् भावाः संबध्यन्ते, जहा ओदयियोर मणुस्सो स एव उपसंतकसाओ, स एव खीणदसणमोहणीओ, स एव खओवसमसुत्तनाणी, पारिणामिओ जीवो, अयमात्मसंयोगोऽभ्यन्तर इत्यर्थर, बाघसंयोगसु 'णामंमिय' गाहा (५६-३७) इह नामिनो नाम्ना सह संयोगो भवति यथा देवदत्त इति, द्रव्या-1 दिभिश्च बाह्यसंयोगो भवति यथा दंडसंयोगादंडी, क्षेत्रेण आकाशेन सह संयोगः ग्रामेण नगरेण वा इत्यादि, काले दिवसादिना, % दीप अनुक्रम [१] [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||||| दीप अनुक्रम [8] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा || १/१ || निर्युक्तिः [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूर्णो ११ विनया ध्ययने ॥ २४ ॥ भावेण उ संजोगः अंतर एव, नहि भावो भाविनोऽर्थान्तरभूतो भवति, मा भूदभावप्रसंगः, तदुभयसंजोगो दब्वेण कोधी दंडी क्रोधी मुकुटीत्येवमादि, तथा क्षेत्रेण क्रोधी मालवकः क्रोधी सौराष्ट्रक इत्यादि, कालेनापि क्रोधी वासंतिक इत्यादि, अयमन्योपिबाह्य एव परस्परं संयोगो भवति, 'आयरियसीस' गाहा (५७-३७) यथा आयरियस्स सिस्सेण सद्धि संयोगः, असावपि बाह्यसंयोगो भवति, आयरिया इत्युक्ते अवश्यशिष्येण तदितरेण भवितव्यं यस्यासावाचार्य इति, तथा शिष्य इत्युक्ते अवश्यमाचार्येण भवितव्यं, आह की दशोऽसावाचार्यः शिष्यो वेति?, उच्यते- 'आयरिओ तारिसओ' गाहा (५९-३९) किमुक्तं भवति:-आयरिओ तारिसो जारिसा आयरिया भवंती, आयरियगुणेहिं उबवे ओ यथाचार्यः स्वगुणमाहात्म्ययुक्तः तादृशः, शिष्योऽपि तत्तद्गुणसदृशः, यथा पुत्र इत्युक्ते अवश्यमेव तस्य पित्रा भाव्यं, तथा पिवेत्युक्ते अवश्यं पुत्रेण भाव्यं यस्य सो पिता, एवं मातापुत्रयोमी तादुहित्रोः तथा भार्यापत्योः, एवं शीतोष्णयोः, शीतमित्युक्तं अवश्यमुध्णे संप्रत्ययो भवति, एवं तमउद्योतयो छायाऽऽतपयोः, ' एवं णाण' गाहा (५६-४०) तथा ज्ञानमित्युक्ते अवश्यं ज्ञानस्य ज्ञेयेन वा सार्द्धं संयोगो भवति, तथा चरणामित्युक्ते चरणमाभाव्यं स्वमित्यर्थः, न ज्ञानी ज्ञानादन्यो भवति यद्यन्यस्तस्मादज्ञानी स्यात्, तथा चरणादपि यदाऽन्यः स्यात् तेन न चारित्री स्यात्, तस्माच्चरणचरणिनोरेकत्वं, तेणेवेस अभ्यन्तरसंयोग एव, न बाह्यः, तथा ज्ञातुर्ज्ञानिना सह संबंधो भवति, ज्ञानस्य च ज्ञेयेन उभयसंबंधो भवति, एवं चारित्रेणाऽपि तथा स्वामित्वेऽपि ममैष स्वामी, अथवा स्वामित्वेनोभयसंयोगो भवति, ममैष दासस्य (स्वामी) एष च मम पितुः पुत्रः मम कुलाभ्यन्तर इति, एप संयोग उभयसंबंधो भवति । ' पच्चयतो य बहुविहो ' गाहा ( ६०-४१ ) प्रतीयतेऽनेनार्थं इति प्रत्ययः, ज्ञायत इत्यर्थः सच बहुविधः, तद्यथा - घटं प्रतीत्य घटज्ञानमेवमादीनि प्रत्यय [29] संस्थानानि ॥ २४ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं ] / गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा चूणों ध्ययने ॥२५॥ A गाथा - ज्ञानानि भवन्ति, आह-यद्येवं घटं प्रतीत्य घटनानं पटं प्रतीत्य पटनानं तेन किं प्राप्ती, जितस्यापि तत्प्रत्ययपूर्वकमेव ज्ञान संस्थानानि भवति, मा भूदप्रत्ययं, उच्यते, यदवोचस्त्वं यथा प्रतीत्यप्रत्ययतो ज्ञानं भवति नाप्रत्ययमिति तेन तस्यापि भवतीत्यत्र ब्रूमा, । असदेतत् , कस्मात् ?, सिद्धान्तापरिज्ञानात् , यद्येतत्प्रत्ययपूर्व ज्ञानं एतद्धि छअस्थाना, जिना हि भगवंतः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः मिन्नतमस्काः , तेषां हि निवर्चितप्रत्ययं ज्ञानं, तेषां माहात्म्य विभूतिरेषा भगवतो निरावरणस्य सर्वमावावमासकं ज्ञानं भवति, अन्यच्च-केवलिनस्तु केवलज्ञाननिवर्तितप्रत्ययं, एकप्रकारमेव, यस्मादेकं केवलज्ञानमिति, अथ एकेन हस्तेन बहवः पटा गृ-1 धन्ते, न तेषामेकत्वं, एवमेकेन केवलज्ञानेनानन्ता मावा एककाले गृह्यन्ते, न च तेषामेकत्वं भवतीति । देहा य बद्धमुक्का अम्भि-14 तरसंजोगो भवति, तत्थ अभितरं कम्मगं वाहिरं ओरालियं, जाणि संपयं सरीराणि बद्धाणि सो अभितरसंजोगो, जाणि मुक्काणि सो बाहिरसंजोगो, एवं मातिपितिसुतातिसु जेस संपदं वदति ते अचसंयोगा, जे अतिकता ते परसंयोया भवंति, 'संबंधण-15 संजोगो' गाहा (६१-४२) पुन्चकम्मेहिं संबद्धस्स कसायस्स जीवस्स जो अमिणवेहि सह कम्मेहिं बंधो भवति सो संबं-12 काषणसंजोगा भवति, जेहिं भगवंतो विदितसपरा छिन्ना, ण हि बंधणा ते तेसिं भगवंताणं कोति पडिबंधहेऊ बिज्जति, तथा|DI प्रभुत्वादुत्पद्यते ममेदमिति अहमस्य स्वामी, अप्रभोरुत्पद्यते स्थानाद्यपि स्वामिसंबंधन ममीकोति, एवमेतत्परिचिन्त्यमानं यस्य हि ममेदमिति भवति तस्य संबंधनसंयोगसंबंधो बहुमतो, नान्येषामपि, “संबंधण' गाहा ( ६२-४४ ) यश्च संबंधनमा संयोगाभिलाषः एष संसारहेतुको भवति, अनुत्तरवासश्च भवति, तच्छेत्तुमुद्यताः साधवः, अतः अस्माद्भावसंयोगाद्विप्रमुक्का इति 151 संबंधणसंयोगो भणितो, इतरेतरसंयोगोयगतो। इदाणि खेत्तकालभावसंजोगो भन्नति-तत्थ गाहा--संबंधणसंजोगे दीप अनुक्रम [१] ॐॐॐ [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा ||2|| दीप अनुक्रम [૨] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||२२|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण श्रीउत्तरा० चूण १ विनया ध्ययने ॥ २६ ॥ | खेतादीणं विभास जा भणिया । स्वत्ताइसु संजोगो सो चैव विभासितव्यो तु (६४-४३ ) अथवाऽऽकाशप्रदेशैः सार्द्ध ४ विनीतेतर - संयुज्जमाने इतरेतरसंजोगो भवति सेसं यथा सम्बन्धणसंजोग खचादी भणिता तथा विभाषितव्याः, तू लक्षणानि एव संयोगः अस्मात्संयोगाद्विप्रमुक्तस्य विशेषेण प्रमुक्तो विप्रमुक्तोऽतस्तस्य, संयोगात् विप्पमुवस्स, न मच्छंतीत्यगा- वृक्षा इत्यर्थः, अगैः कृतमागारं गृहमित्यर्थः नास्य आगारं विद्यत इत्यनगारः, अतस्तस्य अणगारस्स, भिक्खणसीलो भिक्खु, भिक्खुग्गहणं मिगचारियापवित्ताणं दव्वअणगाराण वृदासत्थं, ते हि दव्वअणकारति निगत्तिअ ण भिक्खवो भवंति, निदानोपहतबालतपःकम्मभिरदत्तजीवितत्वात् अप्रासुकाहारकत्वान्न भिक्षवः, अथवा अनगार एवं भिक्खुः अतस्तस्य अणगारस्स भिक्खुणो, 'बिणयंति' विनयंति चाष्टप्रकारं कर्म विनयः, 'प्रादुः प्रकाशने' उक्तं हि - "प्रादुरासीत् मुनिः सिद्धस्तस्मिन्नृपति चेन्मति (जन्मनि ) " तथा पाउकरणं दुबिहं- पागडकरणं पगासकरणं च ' आणुपुब्वी सुणेह मे ' आनुपूर्व्यनुक्रमः, परिपाटीत्यर्थः, यथोपदिष्टं यथा कार्य यथा क्रमः सो वा, तथा पठ्यते च ' आणुपुवि सुणेह मे ' ॥ १ ॥ स्यान्मतिः कथं विनीतो भवति १, उच्यते-' आणाणिद्देसकरे' सिलोगो (२०४४) आज्ञाप्यतेऽनया यस्य आज्ञा, निर्देशनं निर्देशः, आझैव निर्देशः, अथवा आज्ञा सूत्रोपदेशः, तथा निर्देशस्तु तदविरुद्धं गुरुवचनं, आज्ञानिर्देशं करोतीति आणाणिद्देसकरो, गुरुरेव गुरुः तस्स गुरुणो, उपपतनमुपपातः, शुश्रूषाकरणमित्यर्थः, 'इंगिताकारसंपन्नो ' इङ्गितमेव आकार: इङ्गिताकारः, अथवा इङ्गितं कंपितमित्यर्थः, तद्यथा-शिरः कंपो हस्तक्षेपो वा, आकृतिराकारः, तथा ' नेत्रवत्रविकाराभ्यां गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ' अथवाऽऽगंतुगमागारं चिति सोत्तमाकारं, वेत्तुमाकारं, जहा ' अवलोयणं दिसाणं वियंभणं साङगस्स संठवणं । आसणसिढिली करणं [31] ॥ २६ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण १ विनया ध्ययने २ ॥ २७ ॥ पडियलिंगाई एयाई ॥ १ ॥ एवमादि संपन्नवान् संपन्नः, स एवंविधो विनीत इत्युच्यते, न हि विनयो विनीतमन्तरेणास्तीति अपदिश्यते स एव विनय इति । उक्तो विनयस्तद्विपक्षोऽविनयः, तहा हि मृढणयियं कालिये, अस्थापतित्तिकाऊण उच्यते'आणाऽणिदेसकरे' सिलोगो ( ३ सू० ४४ ) पुष्बद्धं कंठ्यं, 'पाडणीए असंबुद्धी' अनीकं प्रति यदन्यदनीकं तत्प्रत्य नीकं, सचायं प्रत्यनीकीभूते विलोमकारि इत्यर्थः, सम्यग्युद्ध:- संबुद्धः न संबुद्धः असंबुद्धः, विनयाद्यकोविद इत्यर्थः, से अविगीति वच्चति ॥ तद्विपाकस्त्विहैव 'जहा सुणी पूतिकण्णी सिलोगो ( ४ सू० ४५) येन प्रकारेण यथा, श्वसति श्वा स एव शुनीत्युपदिश्यते, अथ शुनीग्रहणं शुनी गर्हिततरा, न तथा श्वा, पूर्ति यस्याः कर्णौ सो भवति पूतिकर्णी, 'निक्कसिज्जति'ति निकृष्यते सव्वसोत्ति' सव्यपागारं सर्वावस्थासु वा सर्वशः, ' एवं ' अवधारणे, दुट्ठशीलो दुःशीलः, अनीकं प्रति यदनीकं स चायं प्रत्यनीकीभूतो प्रतिलोमकारीत्यर्थः, जह जं भणितं न काहं, जत्तो बारेसि तत्थ वासेज्जा । ( सोच्चा) किं अरिं जराओ, घेत्तुं उदयं ण दिष्णोमि ।। १ ।। मुहेण अरिमावहतीति मुहरी, यत्किचित्प्रलापीत्यर्थः स्याद् बुद्धिः किं सो एवं करोति जेण निक्कसिज्जति १, उच्यते, स्वभावोपघातात् दितो 'कणकुंडगं सिलोगो ( ५ सू० ४५) कणा नाम तंदुलाः, कुंडगाः | कुक्कसाः, कणानां कुंडगाः कणकुंडगाः, कर्णमस्सो वा कुंडकः कणकुंडकः, सोय वुद्धिकरो, खयराणं प्रियस्सञ्च, सः तदमवि कण कुंडकं 'जहिताणं ' ति ' ओहाक त्यागे' तत्थ जहातीति भवति स्वभावोपहतबुद्धित्वात् 'विठ्ठे भुंजति सूयरों' वि पुरीसं यथेति वाक्यशेषः, एवं शीलं जहित्ताणं दुःशीलभावो दौःशील्यं तस्मिन् दौस्सील्ये, रमति, मृगवत् मृगः, दुःशीलो सीमंतेहिं णिकसिज्जति, अतः 'सुणिया भावं ' सिलोगो ( ६ सू० ४६ ) श्रुत्वा सुणिया, असोहणी भावो अभावो, जहा असोहणं सीलं [32] अविनयफलं ॥ २७ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: 12.zll HEISS - गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा० जस्सेति असीलः, अथवा न भावः, जहा अभावो देसस्स णगरस्स वा चट्टति, साणस्स पूतिकण्णस्स सूयरस्स कणगकुंडशिक्षारीतिः चूणा चहचाण, एवं दुासीलनरस्सेति, यस्ताम्यामनुसासिति-एवं दुशीले पडिणीए, विणये ठवेज्ज अप्पाणं पच्छद्धं कण्ठ्यं, सो हिण ध्ययने HT पूतिसुणगो व णिकसिज्जति, यतश्चैवं 'तम्हा विणयमेसिज्जा ' सिलोगो (७ सू० ४६) तम्हा इति कारणाद्विनयं । HI'एसेज' ति विणयं कुर्यादित्यर्थः, येन किं लभ्यते ?, विनयाच्छीलं प्रतिलभ्यते, कोऽभिप्रायः ?- आचार्या हि सम्यगुपचर्य॥२८॥ माणाः श्रुतेन लाभयन्ति, सोए ( चोय) णादिभिश्च, इत्यतो विनयकरणाच्छील प्रतिलभ्यते, विनयः प्रतिलभ्यते इत्यर्थः, A'बुद्धवुत्ते णियागड्डी' बुद्धैरुक्तं बुद्धोक्तं ज्ञानमित्यर्थः, तदेव च नियाकं निजकमात्मीयं, शेष शरीरादि सर्व पराक्यं, बुद्धा नामा चार्याः, बुद्धानां वा पुत्राः, नियाके यस्यार्थः स भवति णियागट्ठी, ण णिकसिज्जति कण्हुता, न कृतश्चिदपीत्यर्थः । एवंविधश्च ण लाणिकसिज्जति णिसंते सिया' सिलोगो (८ सू०४६ ) अहियं शांतो निशान्तः, अक्रोधवानित्यर्थः, अत्यन्तशान्तचेष्टो वा, प्रमुख अरिमावहतांति मुखरी, न मुखरी अमुखरी, दान्तेन्द्रियः, बुद्धाः आचार्याः, अंतिकमत्यासं, तेषामंतिके तिष्ठन् सुप्रशान्तो अमुखरी दान्तश्च भवेदिति, अथवा प्रशान्तोऽमुखरी दान्तश्च तेषामंतिके तिष्ठन् अत्थयुतानि सिक्खेज्जा, अर्थेन युक्तानि सूत्रालण्युपदेशपदानि वा, न येषामों विद्यत इति निरस्थाणि, तु विशेषणे, जहा 'भारहरामायणादीणि' अथवा दिच्छो दविच्छोटू ४ ॥२८॥ पाखंड इति, अथवा इत्थिकहादीणि ॥ जति पुण णिरत्थगाणि सिक्खमाणो आयरियादीहिं अणुसासिज्जेज्ज तदा अणुसा सितो ण कुप्पेज्जा ' सिलोगो (९ सू०४७ ) अणुकूलं सास्यते स्म अनुशासितः, कुप्यते येन स कोषः तं न कुर्यात्, क्षमता लक्षान्तिः तं सेवेज्जा, पापाड्डीन: पंडितः, पण्डा वा बुद्धिा, पण्डितः तयाऽनुगतः, स एवंविधः खुड्डेहिं समं संसर्ग, बालकैरित्यर्थः, दीप अनुक्रम [३-४८] [33] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक क्रोधधारणं गाथा ||३-४८|| न श्रीउत्तरा क्षुणतीति क्षुद्रः, क्रूरकर्मा इत्यर्थः, क्षुद्रकर्मणो बा, संसर्जनं संसर्गः, हास्यं च क्रीडा च हास्यक्रीडे, तत्र हास्यं भासित्ता पासित्ता चूर्णों 18 सुणेत्ता संभरेता य भवति, हसंतो मोहणिज्जं बंधति, लोगपरिवायो सज्झायोवरोहे सलादि वा होज्जा अतिहासात, उक्तं च है " जीवेणं भंते! हसमाणेण वा उस्सुयमाणेण वा कति कम्मपगडीओ बंधति, गोयमा! सत्तविहवंधए ध्ययने IPवा अढविहवंधए चा" क्रीडतोऽप्येवमेव, कीडा गाहा वकवाल (वण्णलो) वादीहिं, अहवा जे कीडपुष्वगं हास्यं तद्विवर्जयेत्।। ॥२९॥18 अयमन्यो विनयोपदेशः, 'मा य चंडालिय कासी' सिलोगो (१० सू०४७) चंडो नाम क्रोधः, ऋतं सत्यं, न तमनृतं, पागते | HIतु तमेव अलियं, चंडं च अलियं च चंडालियं, अथवा चंड इति क्रोधः, अल पर्याप्ती, चंडेन अलं यस्य भवति चंडाला-पर्याप्तक्रोध इत्यर्थः, चंडभावः चंडालिक, चंडालेन कलितः चंडाला (लिजः), तंमा य चंडालियं कासि, चंडाल इव चंडालः चंडालमागलाय ति, चंडेन वा आगलितः चंडाला, आरूटोवि य हासविकहापसंगेसुबहुयं मा य आलवे बहुयं-बहुपरिमाणं, अमानोनाः प्रतिषधे, भृशं | मालपत्यालपेत्, स्वाध्यायादिव्याघातः वायुसंपदे मा (आत्म) बाधायै, तेन कार्यमा भाषेत्,'कालेन अहिज्जित्ता कलाभिनिवर्तितः काला,सक्ष्मामपि कलां कलयत इति काला,सकलयति भूतानि वा कालः,यो हि यस्य अध्ययनस्य काल कालिकस्येतरस्य वा तस्मिन् काले || अधीत्य 'ततोझाएज एक्कओ' उक्तं हि'-एकस्य ध्यान द्वयोरध्ययनं त्रिप्रभृतिग्राम:,' एवं लौकिकाः संप्रतिपन्नाः, वयं तु ससहायो है| असहायो चा रागद्वेषासहायवान् एक एव, 'आहच्च चंडालियं कटूटु' (११२.४८) आहृच्चेति कदाचित, यदिह नाम कदाचिनिग्रह का परस्यापि सतः सहसा चण्डाल: उदीर्यते तमुदीपणं निन्हवेत् तद्यथाऽऽहानं निन्हवं, व्यपलाप इत्यर्थः, योग्यप्रकाश कोधः, सोऽपि न | लानिपवितव्यः, तत्रात्मनिन्हव एव भवति, सदा वा अचक्षुर्दानादिभिः परैरुपलक्षीयत्वा उच्यते-भवान् ममान्यस्य वा रुपित इति । दीप अनुक्रम [३-४८] - - ...अत्र क्रोध एवं चंडरुद्राचार्यस्य दृष्टान्त कथयते [34] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H/ गाथा |३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्रांक श्रीउत्तुरा चूर्णी १विनया गाथा ध्ययने ॥३०॥ ||३-४८||| तथापि न निन्दवितव्य, एवं प्रकाशमपि कृत्वा अनुपशान्तोऽपि प्रत्युद्यमकरणात् ब्रवीत्यहम् शान्त इति, एष निन्दवः, एवं कालिराकीमृपावादेऽपि प्रत्यक्ष वा प्रत्यक्षे वा न निन्हवितव्यं, कदाचिदिति अहनि रात्री वा, प्रत्यादिष्टस्त्वपरेण 'कर्ड कडेत्ति भासेज्जा' णवाच | सत्यमहं रुपित आसीत् अनृतं वा मयोक्तं, अकृते तुन परस्स सत्केण वत्तव्वं यथाऽहं कारीति, मा मूदस्य मृषावाद इति । जं का एक्कर्सि पश्चिाइज्जति अवराहे तस्मात् प्रभृत्येव निवर्तितव्यं 'मा गलीअस्सेव कसं सिलोगो (१२ सू.४८) मा गलिअस्सो-' कपिहो सो गलिआओ अवहमाणो स्वयमेव कस प्रहारादीनि इच्छति, कर्मवत्कर्मकती इतिकृत्वा स्वयमेवासौ कशमिच्छति, जहाडू वाहं नेच्छेत्, एवमयमपि यथा कृत्येष्वर्थेष्ववर्तमानः पुनर्वचनमिच्छति, चोदनामित्यर्थः, 'कसं व दटुमाइन्नों' कशतीति कशः का कश गतिशातनयोः' य(त)था बलविनयसौमुख्यादिभिगुणैराकार्य इति आइण्णो, स हि कसमेव दटुं गृह्यमाणमुक्षिप्यमाणं वा सारथेरनुकूलं गच्छति, एवं सिस्सोऽवि इंगितादीहिं आयरियभावमुवलक्खेऊण तहा करेइ, पावं वज्जइत्ता, पापमकृत्वेत्यर्थः, तं वर्जयन् वैनयिक सेवितो,एवं हि कुर्वताऽचार्यस्य वाक्यादिश्रमः परिहृतो भवति (तंडीति वा गलीति वा मरालीति वा एगट्ठा, सो पुण बच्चंतो कीरद आसेण वा गोणेण चा, आइण्णे वा विणीए वा भदए वा एगट्ठा) ये पुनरिदानी 'अणासवा थूलवया' सिलोगो १३ स. ४९) न शृण्वतीत्यनाश्रवाः जे भणितं न काहं, पठ्यते 'अणासुणा धूलवया' ण सुर्णेति अणासुणा, थूराणि वयांसि येषां, अनिपुणातिस्थूलशब्दा अविनीतेत्यर्थः, कुत्सितशीलाः कुशीलाः, मिदुपि चंडे पकरेंति सिस्सा, मिपि-अकोहणसीलीप कोधणशीलं करेंति, अपिशब्दात् अन्यमनतमक्रोधी वा, उक्तहि-"शिष्यकस्यैव तज्जाज्यं, यदाचायः प्रमादवान् । कुदारुषु सु-151 ॥३०॥ ला तीक्ष्णोऽपि, परशुः प्रतिहन्यते ॥१॥"जे पुण चिचाणुगा चित्तं अणुगच्छंतीति चित्ताणुगा लाघवोपपेता दक्षत्वेन च उत RECARCLAA दीप अनुक्रम [३-४८] [35] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूर्णे ११ विनयाध्ययने ॥ ३१ ॥ लाघवेनाविलंबमाना निर्देशायोपतिष्ठते, दक्षोपपेता नाम आज्ञां शीघ्रं कुर्वन्ति, यदान्यत् वैयावृत्याय, ' प्रसादये ' प्रसादयन्ति 'त' इति एवंविधा सिस्सा, हु विसेसणे, दुष्टमाश्रयंति तमिति दुराश्रयं, अभिवत्, अत्रोदाहरणं चंडकद्देण अवंतीजण ए उज्जेणीए हव[णा ] शुज्जाणे साहुणो समोसरिया, तेसिं सगासि एगो जुवा उदग्गवेसो वयंससहितो उवागतो, सो ते बंदिऊण भणति ते बालुके- तुझं मम संसारातो उत्तारेही, पव्वयामित्ति, तेहिं एते अम्दे पर्वतीचकाऊण घृष्यतां कलिना कलि - रिति चंडरुद्दं आयरियं उवदिसंति, एस ते नित्थारिहिन्ति, सोय सम्भावेण फरुसो, ततो सो तं वंदिऊण भणति-भगवं ! पव्वावेह ममेति, उच्चारणमाणेहित्ति, आणिएण लोयं काऊण पव्वाविओ, वयंसा य से अद्विति काऊण पडिगता, तेऽवि उवसयं णिययं गया, विलंबिए सूरे पंथं पडिलेहित्ति विसज्जिओ, पडिले हिउमागतो, पच्चूसे निग्गया, पुरओ वच्चत्ति मणिओ, बच्चेतो पंथाओ फिडिओ, चंडरुद्दो खाणुए पकूखलिओ, रूसिएण हा दुट्ठसेहत्ति दंडएण मत्थए आहतो. सिरं फोडितं, तहावि समं सहति, बिमले पभाए चंडरुद्देण रुधिरोग्गलंतविदारियमुद्धाणो दट्ठो, दुड्डु कयंति संवेगमावण्णेण खामिओ एवं दुरासज्जंपि पसादए । विनयाधिकार एव आयरियसमीचे वसंतो 'णापुट्ठो वागरे किंचि सिलोगो, ( १४ सू. ५१ ) ण अपुच्छिओ वागरेज्ज किंचिदिति अत्थपर्यं पुष्ववत्तं वा कई वा चरियं वा जतिवि जाणति, पुट्ठो वा णालियं वदे' पुट्ठो वा पुच्छिओ आयरिएहि, जहा- अज्जो ! तुमं किर अमुकं जाणसि १, तत्थ अजाणमाणेण वत्तब्वं-जहा ण जाणामि, जाणमाणेण वा जाणामित्ति वत्तव्वं, सन्भूयमेव वत्तब्धं, गिहिणावि पुट्टो णालियं, अन्यत्र सावद्यात्, यदिवा क्रोधकारणे सत्याक्रोशादौ परस्य रुष्यते कथंचित्, तत्र तं क्रोधं असच्च कुब्वेज्ज, अफलमित्यर्थः, कथं?, उच्चते, कोवस्मुदयनीरोहो वा उदय [36] चण्डरुद्राचायोः ॥ ३१ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा० पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, अत्रोदाहरणं- कस्सय कुलपुत्तस्य भाया वेरिएण वाचाइतो, सो जणणीए भण्णति-पुत्त पुरुषा- क्रावस्या चूणा तयं पातेसुती, ततो सो तेण जीवंतओ मिहिऊण जणणिसमीवमुवणीतो, भाणिओ यण-भातिपातय! कहि ते आहणामित्तिा, तेण र सत्यता १विनया भणितो-जहिं शरणागता आहम्मंति, तेण जणणी अवलोकिता, ताए भण्णति-पुण पुत्तण शरणागया आहम्मंति, तेण भण्णइध्ययने कह रोस सहलं करेमित्ति. तीए भण्णइ-ण सध्यस्थ रोसो सफलो कज्जति, पच्छा सो तेण विसज्जितो, एवं कोह असच्चं कुब्वेज्जा । ॥३२॥ स्यान्मतिः कथमसत्यः क्रियते?, उच्यते, धारयता प्रियमप्रिय, एत्थोदाहरणं-असिवोवद्दुते णगरे तिन्नि भूयवादिता रायाणमुवगत', अम्हे आसिषं उवसामेमोत्ति, रायणा भणियं-सूणेमो केणोवाएणति, तत्थेगो भणति-अस्थि महेगभूते, ते सुरूवं विउविऊण गोपुररस्थासु परिअडतितं न निहालियब, तं निहालियं रूसति, जो पुणतं निहालेति सो विणस्सति, जो पुण ते निहालिऊण अहोमुहो ठाति | सो रोगाओ मुच्चति, राया भण्णति-अलाहि एतेण अतिरोसणणंति, वितिऊ भणति-महच्चयं भृतं महइमहालयं रूवं विउव्वति लंबो-18 तादरं टिट्टिभकुक्षि पंचशिरं एक्कपादं विसिहं विस्सरूवं अट्टहासं विणिम्मुयंतं गायतं पणच्चंतं विक्रांतरूवं, दणं जो पहसति | पवंचेइ वा तस्स सतहासिरं फुट्टति, जो पुण तं सुहाहि वायाहिं अभिणदती धूयपुफाईहिं पूएति सो सव्वामयाओ मुच्चीत, राया | भणति अलमेएणति, ततितो भणति-ममवि एवंविह एव, णातिीवसेसकर भृतमस्थि, प्रियाप्रियणिविसेस तु, पर्वचिज्जमाणं व लोएहिट | तहा पूइज्जमाणं थुध्वमाणं पबंधिज्जमाणं अभिनंदिज्जमाणं पूयाईहिं पूइज्जमाण सव्वमेव प्रियात्रियकारिणं दरिसणादेव रोगेहि तो मोययति, राणा भणियं-एवं होउत्ति, तेण तहा कए असिवं उवसंत, एवं सावि असारूपचे सति शब्दादिप्रतिकूलगामित्वेन | | परेहि परिभूतमाणो पचिज्जमाणोषि हाम्मज्जमाणोवि तहा धूयमाणो वा पूइज्जमाणो चासं प्रियाप्रियं सहेत, किंच मा वायरियस्स दीप अनुक्रम [३-४८] नव [37] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सत्रांक गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरापरिकिलिस्सं कलिसिति मा वा आयरिया उवरि भएणं सिस्सति जहा मम सो दाम्माहीसाच अतो भण्णति 'अप्पाणमेव दमए' | सचमको चूर्णी | सिलोगो (१५५ ५२ ) दमो दुविहो-इंदियदमो णोइंदियदमो य, इंदियदमो सोईदियाईणं दमो, जोइदियदमा कोहकसायादिदमो,181 हस्ती १ विनया अतो अतेण दुविहेणविदमोण अप्पाणं दमए, स हि आत्मा दुष्टाश्ववत् अश्ववत्सु दु:ख दमयितुं,उक्तहि-"निरनुग्रहमुक्तिमानसी ध्ययने 8 विषयाशोकलुषस्मृतिजनः। त्वयि किं परितोयमेष्यति' द्विरदस्तंभ इवाचिरग्रहः ॥१॥" इमे अदंतदोसा- सद्देण ॥ ३३ ॥1 मतो रूवेण पतंगो महुयरो य गंघेणं । आहारेण य मच्छो बज्झति फरिसेण य गईदो ॥१॥दांतगुणास्तु 'अप्पावतोसुही होइ'13 दुईतो अदन्ताणंति, जे चदंतिन्दिआ चद्धा इतरे मुका, इहलोगेऽवि अदंतिदिया पारदारीकादयो विनश्यंति, तद्विपर्ययतस्तु इह परत्र च नंदते, अत्रोदाहरण-दो भायरो चोरा, तेसि उवस्सए साहुणो वासावासमुवगता, तेसि वासारत्तपरिसमत्तीए गच्छतेहिं लातेसिं चोराण अण्णं वतं किंचि अपडिवज्जमाणाणं रतिं न भोत्तव्बंनि वयं दिणं,अण्णया तेहिं सुबहुत गौमाहिसं आणीय, तत्थ अनेर। माहिसं मारेनु मंसं खइउमारद्धा, अण्णे मज्जस्त गता, मंस खाइत्ता संपहारिन्ति-अडगे मंसे विसं पक्खिवामो, तो मज्जदत्ताण 15 दाहामो, ततो अम्हं सुबहु गोमाहिसं भागण आगमिस्सति, मज्जइनावि एवं चेव समत्थंति, एवं तेहि विसं पक्खिन, आइच्चोsIMवि अत्थं गतो, ते भायरो ण भुत्ता, इतरे परोप्परं विससंजुषेण मज्जमसेण उवभुत्तेण मता, मरिऊण य कुगाते गया, इयरे इह परलोए Iय सुहभाइणो जाया, एवं ताव जिभिदियदमो, एवं सेसेसुवि इंदिरासु अप्पा दंतो सुही होइ अस्सि लोए परत्थ य । किंचान्यत् ?-14 131'वरं मे अप्पा दंतो' सिलोगो (१६सू०५३) कंठ्यः, उदाहरणं सेवणओ गंधहस्थी, अडवीए जूहं महालं परिवसति, तत्थ जूहपती | जाते २ गतकलमे विणासेति, तत्थेगा करणी आवण्णसत्ता चिंतेति-जति कहिंचि मम गयकलमओ जायति सो एतेण विणासिज्जति दीप अनुक्रम [३-४८] R: ... अत्र सेचनकहस्ति-दृष्टान्तदर्शयते [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत रविनया गाथा ||३-४८||| थाउत्तरााचिकाउं लगती ओसरति, जहाहिवेण जूहे छुम्भति, पुणो पुणो ओसरति ताहे बितितततियदिवसे जूहेण मिलति, ताहे एग रिसिया-15 उपवेशन चूणौं । समि पयं दिहूं, सा तत्थ अल्लीणा, संवणिया य णाए रिसयो, सा पस्या सेतगर्यकलभय, सो तेहिं रिसिकुमारेहिं सहितो पुप्फा-II विधिः रामं सिंचति,सेतणगति से नाम कर्त, वयत्थो जातो, जूहं दळूण जूहबतिं हतूण जूहण्णेण पडिवन, गंतूण य अणेण सो आसमो ध्ययन |विणासितो-मा अन्नावि काइएवं काहित्ति, ताहे ते रिसओ रूसिता पुप्फफलगहितपाणी सेणियस्स रणो सगासमुवगया, कहिय। ॥३४॥ चणेहि-एरिसो सव्वलक्खणसंपण्णो गंधहत्थी सेयणओ णामा, सेणिओ हथिग्गहणणं णिग्गतो, सो य हत्थी देवयापरिग्महितो, ताए ओहिणा आभोइओ जहा अवस्सं घेप्पति, ताए सो भण्णति-पुत्ता बरं ते अप्पा दंतो, ण यसि परेहिं दमंतो बंधणेहिं बहेहि य, 1 15ासो एवं भणितो सयमेव रसीए वारिंगतूण आलाणखमं अस्सितो, एवमिहापि, वर मे अप्पणा देतो. सिलोगो, उक्तं च-'वरं हिते लिक मनिग्रहोचिता, वशेऽवशा इन्दियवाजिनः शठन चास्मि (सि) तैः शीघ्रमनर्थगामिभिर्दुःखार्णवश्वभ्रतटेषु पातितः ॥१॥" अयं ताव अप्पणा ठियो उवदिट्ठो, अयमों-आयरियस्स न य अविणओ पजियचो 'पडिणीयं च बुद्धाणं ' | सिलोगो (१७ सू० ५४) पडिणीतो भणितो, बुद्धा आयरिया, तत्थ वायाए ण तुमं जाणसि, तुम हमति वा भणंति, यद्वा दि अन्यदपि वाचा विरुद्ध गुरुसमक्खं परोक्खं वा भणति, 'कंमुणा' आयरिओवज्झायाण सेज्जासंथारए णिसीयति, हत्थ पाएहि वा संघदृति, आसण्णानि वा गच्छगाति (गमागमाइ ) करेति, 'आवी वा जति वा हस्से' आविः प्रकाशे, आविपर्वा सर्वाग्रे,रह त्यागे, उभयग्रहणं मा भूव कश्चिदेकं करिष्यति, आकुले मध्ये वा विनयं च हापयिष्यति, एताणि पडिणीयादीणि ॥३४॥ लिणो कुर्याद् कदाचिदपि ॥ अयमण्णो पज्जुवासणविनयो आयरियस्स,कयरम्मि पदेसे ण ठातितब्बति', भण्णति- 'ण पक्खतो' दीप अनुक्रम [३-४८] [39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रतिश्रवण २ विधि: Het गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरासिलोगो (१८ सू०५४) पक्षत्यनेनेति पक्षा, पुरुषस्य हि भुजावेव पक्षी, ततः पतति इत्युक्तं, तथा पक्षयोः भासमाणस्स स| मुहप्परिता सहपोग्गला कण्णबिलमणुप्पविसंति, कण्णसमसढी पक्षो, ततो ण चिट्ठे गुरूणंतिए, तहा अणेगग्गता भवति, १विनया पुरतो प्रत्युरस्यपि च विणए बंदमाणाण य विग्घतोति, सम पट्टिओ पेढाओ, णेव ठिज्जा कियाण पिढतोत्ति, आयरियं पिट्ठओ ध्ययन काउं आयरियाण पट्टि दाऊण ण चिट्ठज्जा, उरुगमुरुगेण संघठेऊण एवमवि ण चिठ्ठज्जा, जति य कहिंचि आयरियएहिं सहितो होज्जा ततो सपणे न पडिसुणे, सयणं सयणीयं तमि निवन्नो निसबो वा न पडिमुणेज्जायरियस्स वयणं, किन्तु आयरियसगासमागंतूर्ण बंदिऊण विणयेण पडिमुणेज्जा,इमो कायगो विणयो, गुरुसमीवे 'णेव पल्हस्थियं कुज्जा' सिलोगो (१६०५४) पलहस्थिया पत्ते ण कज्जति, पक्वपिंडो दोहिंवि बाहाहिं उरूगजागीण घेत्तूण अच्छणं, सेसं कंठ्यं, इमो आयरियवयणपडिसुणणाविणओ-'आयरिएहिं वाहिन्तो' सिलोगो (२००५५) वाहिती णाम सहितो, 'ण कयाइवि' ति दिया वा रातो वा मुंजमाणो | पियमाणो चा,पासादपेही पसीदए जेण प्रसीदनं वा प्रसादः तं पसाद 'पहि' ति केणायं उपकारेण विणएण या पसिज्जेज्जा, 'णियागट्ठी' णियाग णिदाणं नियगमित्यर्थः णाणातितियं वा णियगं आत्मीयमित्यर्थः, सेस सरीरादि सन्यं परायग, णियाएणट्ठो जस्स सो णियागट्ठी, उपेत्य तिष्ठत वा चिट्ठज्जा, गुरूं-आयरियं, सदा-सम्बकालं । आयरियस्स वयणं कह सुणतन्वीत, || भण्णति-'आलवंते लवंते वा' सिलोगो (२१०५५) आलब एक्कसि, लवणं पुणो पुणो,आलवंते लवंते वा आयरिए सीसेण न णिसीतित्ता सोतव्यं, इऊण आसण पीठगादी धारो घी:-बुद्धिः इत:-परिगतः तया इति धीरः 'यती' मनोवाक्काये: लाज' प्रयत्नेन पडिसुणे । इदाणि किच्चकाणं बचोवागरण वा वागरणं वा पुच्छमाणो सीसो आयरिय 'आसणगतो ण २- दीप अनुक्रम [३-४८] HAMARHI [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्री उत्तरा० ४ चूर्णो १ विनया ध्ययने ॥ ३६ ॥ पुच्छे ' सिलोगो ( २२ सू०५५) आसणं- पीढं फलगं भूमिं वा तत्थ गतो यदुक्तं उबेडो, णिसिज्जगतो नाम भूमीए संथारए वा संचिट्ठो, 'कयाह' कदाचित्, परिसागतं अपरिसागतं आयरियं दिया वा राओ वा. कहं पुच्छेज्जा १, उच्यते- 'आगम्मुक्कुडओ संतो' आगम्म गुरुसगासं उक्कडगासणो पुच्छेज्ज, पंजलिउडो अञ्जलिं मत्थए काऊणं । इदाणिं आयरियस्स विणओ मण्णति' एवं विणयजुत्तस्स ' सिलोगो ( २३ ० ५६ ) कंठो । ' वागरेज्ज जहा सुतं ' ति,जहा सिक्खियमिति, भणितो पज्जुवा सणाविणतो, अयमण्णोऽवि पज्जूवासणाविणय एव, अहवा चरित्तविणयो, आयरियं पज्जुवासमाणे 'मुसं परिहरे भिक्खु' सिलोगो ( २४ सू०५६ ) सुसं-वितर्ह तं परिहरे, ओहारिणी नाम यदवधारणेनोच्यते, एवमहं करिष्यामि वक्ष्यामि यमि| ष्यामि वेति, 'भासादोसं परिहरे' भासादोसा असच्चभूतोवघाति ककसणिडुरकडुयवयणादि अणेगहा ते परिहरे, मातानियडी तामपि वर्जयेत् सदा सर्वकालं ॥ अयमपि भासादोस एव 'ण लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं ' सिलोगो ( २५ सू० ५६ ) पुट्ठो पाम पुच्छितो मृगाद्युदकं वा सावज्जं, अहवा नक्खत्तं सुविणं जोगं सावज्जमवज्जजुचं, णिरत्थयं जहा दस दाडिमा - नि षडपूपा कुंडमजाजिनं पललपिंड पूरकीीटके दिया दिशमुदीचीं स्पर्शन कस्या ( त्वं पिता प्रतिशीत इत्यादि, अथवा चंजुलफल| वित्तमीसा उच्चक्खुडकुसुममालिया सुरभी । वरतुरगस्स विरायति ओलग्गा अग्गसिंगेहिं ॥ १ ॥ एवंविहं ण भासेज्जा, म्रियते येन तन्मर्म, मर्म कृन्ततीति मर्मकृत्, यथा इत्थिकारी भवान्, तं तु लोगरायविरुद्धं वा, भणियं च " जम्मं मम्मं कम् तिन्निचि एयाई परिहरेज्जासि । मा जम्ममम्मविद्धे मरेज्ज मारेज्ज वा कंचि ॥ १ ॥ " तं तु 'अप्पणठ्ठा परका वा आत्मार्थे ममैव किंचिद्दास्यति, परार्थ श्रावकेन निजेन चार्थितो ब्रवीमीति, एवं भवेत्सावद्यमुभयार्थे, प्रद्विष्टो ब्रवी [41] भाषादोषवजनं ॥ ३६ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H/ गाथा |३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्रांक ध्ययने । गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरामीति, एवं मर्म कर्मापि, आत्माथें अधिक्षिप्तः रोषितः परेण, परार्थे यद्यस्य ज्ञातकः सुहृद्वा केनचिदधिक्षिप्तो भवति, मर्माणि || चूर्णों वा स्पृष्टः तदाऽसौ तन्मर्माणि पडिश्रवति, जहा 'कच्छूल्लाउड्डियाए जो जातो गद्दभेण मूढेण । तस्स महाजणमझे रविनया आयारा पागडा होंति ॥१॥' अंतरेण वत्ति मिहो अंतराले, मिथो रहस्से, योगे च द्वयोहूनां वा ब्रुवतां मिथः, नेदंतराले वा,अमनमंतः अम्यते वा, नांतरकथं कुर्यात्, मा भूदप्रियं तेषां तयोर्वा, उक्तं च-'द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् !' ॥३७॥ अयं चान्यश्चारित्रविनय:-'समरेषु अगारीसु' सिलोगो (२६सू०५७) समरं नाम जत्थ हेडा लोहयारा कम्मं करेंति, अहवा सहारिभिः समरः, अरिभूता हि यतिना खियः,समरं नाम दिहादिट्ठीसंबंधी तासिं, श्रागारं नाम सुण्णागारं, असुण्णा-1* गारं संधाणं संधि, बहूण चा घराणं तिहं घराणं यदंतरा, महापहो रायपहो, महापहरगहणं अभिजणाइण्णे, किं पुण विजणे, अहवा महापहो बहियादीण, उभओ वइगुचो गंभीरो, अण्णसु त एवमादिएसु संकणिज्जेसु 'एगो एगित्थीए' सेसं कंव्यं ।।जइ य इस्थिनिमित्तेणG A अमेण या केणइ खलितो वा होज्ज तत्थालंबणंज मे बुद्धाणुसासंति सिलोगो(२७५.५७)यदि तस्मिन् खलिते बुद्धा-आचार्या अनुकूलं 21 सासंति, शीतेन स्वादुना इत्यर्थः, अथवा शीलाविरुद्धन शीलेन शीलमेव वा आचार्याणामनुशासनं, यथा भास्करः भूपतिः, 'फरसेणंति परुप-स्नेहवर्जितं यत्परोक्षं निष्ठुरभिधानं वा, यदेतत् सर्वमपि मम लाभे'त्ति पेहाए,एमेव य भावयन् , मां कृतापराधं Hशीतलेनानुशासति यच्च मां परुष वदति न निष्काशयन्ति,अथवा किं गुरुणं परिहायरसति यद्यहं अनाचारशबलत्वाद्विराधयिष्यामि | बोधि, तदेतच्छीलं परुषं वाऽनुशासनं मम लाभोत्ति पेहाए,लाभेन वा प्रसभं यतः,तं पडिसुणे कृतांजलि उत्फुल्लविनयः। अयंच विनयः । हा अणुसासणमोवायं' सिलोगो (२८सू०५८) अणुसासणं पसंसणमित्यर्थः, उवाये नाम आयरियस्स सुस्सूसासंथारकरण CBSE दीप अनुक्रम [३-४८] fect [42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: १ विनयाध्ययने ॥ ३८ ॥ श्रीउत्तरा० ) विस्सामणादि यच्चान्यदपि तस्य कृत्यं स उवाये, दुक्कडस्स य चोयणा, चुकक्स लिएसु, चोदणा, तदेव अणुसासणं उवातं दुक्कडचोदणं चूर्णां वहितं मण्णती पण्णो हितमिह परप्रज्ञावान् प्राज्ञो वेस्सं होति असाहुणी' तान्येव अनुसासन उवायं चोदनादि, अनेकमेका| देशात्, हितं नतु मन्यतेऽप्राज्ञः देश्यं असाधोः असाधुत्वकारिणः, असाधुरिव असाधुः ॥ स्यात्किमालंचनं कृत्वा प्राज्ञः तद्धितं मन्यते ?'हितं विगतभया बुद्धा' सिलोगो (२९.५८) विगतं भयं यस्य विगतं वा भयतो भयमितस्तस्यं भयं विगतं, तस्य न भयमुत्पद्यते इत्यर्थः, यतश्च भयं नोत्पद्यते हितमेव पद्य (मन्य) ते, अत एवासौ विगतभयस्तस्माद्विगतभयाद्. युध्यते स्म बुद्धः, परुषमप्यनुशासनं मन्यत इति वाक्यशेषः, कुलपुत्रवत् प्रमादस्खलिते गुरुवचनं, तदेवाकुलपुत्रस्येव गुरुवचनं वेस्सं तं होइ मूढाणं द्वेष्यं तदिति वेस्सं, मूढत्वान् भूढः, क्षमणं क्षान्तिः सोधिमेव करोति खंतिसोहिकरणं, तस्य हि स्वभावोपहतत्वात् क्षान्तियुक्तमपि पदमसकृत् पसादाधिकारं वेस्सं होति मूढाणं । इमोबि पज्जुवासणाविणय एव 'आसणे उवचिद्वेज्जा' सिलोगो (३० सू०५९) उपेत्य तिष्ठति जति बरिसासु आसणं | सेवेज्ज पीढफलगादी तया अणुच्चे ण गुरुआसणा सुमहिकं वा, 'कुच स्पंदने' न कुचनमकुचं विराहणा संजमाताए, तत्थ ठितो | संतो, अणुट्टाई णिरुट्टाए, अल्पशब्दः अभावे द्रष्टव्यः श्लो (स्तो ) के वा, नासावुत्तिष्ठती निरर्थक, अर्थेऽपि परिमितमेवोत्तिष्ठते, आहारणीहारणिमित्तं गुर्वादेशतो वा तिष्ठन्नपि 'अप्पकुक्कुर' चि न गात्राणी स्पंदयती ण वा अवद्धासणो भवति, अन्नत्थूसासणीससितादी अत्थस्सेह मुक्त्वा शेषमकुकुचो । अक्कुचित्वप्रतिपक्षे कुचित्वं तत्परिणामार्थमित्युच्यते - 'कालेण णिक्खिवे (कलमे ) सिलोगो (३१०५९) ग्रामनगरादिषु जहोचितं भिखावेलाए, कालेनेति तृतीया तेन सहायभूतेन, निक्खमे पढिस्सयातो गच्छेज्जा, णातिबेलातिकतं, कालणेव पडिक मे--पडिनियतेज्जा, एत्थ खेत्तं पहुप्पति कालो पहुप्पइ माणं पहुप्पर, ते अट्ठ भंगा जोएयब्बा ॥ ३८ ॥ पर्युपासना विनयः [43] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: गोचर - गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा | जहोचिय, विवरीय 'अकालं चति अकालमप्पत्तमतीतं वा एव 'विवजेत्ता' चईऊण (ण) केवलं सि(भिक्खाए पडीलहणादी-1 चूर्णी णमवि जहोचिते काले । भिक्खमडतो 'परिवाडीए न चिट्ठज्जा' सिलोगो (३२सू०५९) परिवाडी णाम संखडिपरिवेसणाए अंतए । स्थानविधि १ विनया चिज्जा,जति आगतो(तमत्तो चेव न लम्भति ता वोलेइ,परिवाडी चिट्ठमाणस्स दोसो, दुराहडं अंतरि भायणापेच्छाइ उक्खेवणिक्खेध्ययने वादी दायगस्स, अविय-अरे चिट्ठमाणस्स उवसामणा दत्तेसु, दत्तंपि सत् एसणीयं गेण्हइ, पडिरूवं णाम सोभणरूच, जहा पासादीये ॥३९॥४॥दरिसणीज्जे अहिरूवे पडिरूबे, रूपं रूपं च प्रति यदन्यरूपं तत्प्रतिरूपं, सर्वधर्मभूतेभ्यो हि तद्रूपमुत्कृष्ट, तत्तद् स्वहरणगोच्छप | डिग्गहमाताए, जे या पाणिपडिग्गहिया जिणकप्पिता तेसिं गहणं, तेसि जिणरूत्रप्रतिरूपकं भवति, यतस्तेन प्रतिरूपेन एसित्ता, पाएसणामार्गणा, मित'माह माने 'बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपरतो भाणितो' कालनेति दिवसतो, न रात्रौ अच्छ (मिए) वा, | अदुवमविलंब भक्खए-अश्नीयात, पविठ्ठो गोपरग्गगतो भिक्खनिमित्तं घरमणुपविस्समाणो जो तत्थ कहिंचि पुव्वपविट्ठो सवणवणी | मगादी होज्जा ततो तेसिं दायगस्स वा अप्पत्तियादिदोपपरिहरणत्थं न पविसिज्जति, कहिं च पडिवालेज्जा'-'णाइदरे अणासपणे' IN सिलोगो (३३सू०५९) दूरत्थो ण याणति-कि णिग्गया णवत्ति, आसण्णत्यो णज्जति जहा एस परिवार्डतो अच्छति, अण्णेहिं च अदिस्समाणो, जहा तेसिं संका न भवति, एस ते वणीमगादी णिग्गछते पडिवालेति, अतो चिट्ठज्ज भिक्खणीमित्तं वणीमगादिरहिते, | एगो अरागदोसविउत्तो, लाभालाभे अरागदोपवान्, 'लंघिया तं णतिक्कमे'त्ति ते वणीमगादी लंधिऊण ण पविसे ।।अयमपि गोयरविणय एव-'णातिउच्चे व सिलोगो (३४सू०६०) अतिउच्चे उड्डमालोहडं भवति, ण य दायगस्स उक्खेवणिक्खेवा दीसंति, अति| गीएवि अधोमालोहडे, ण य एसणं सोहेति, अच्चासण्णेवि एयस्स भिक्खनिमित्तं ठायमाणस्स अपचियं तेणसंकादिदोसो होज्जा, दीप अनुक्रम [३-४८] +CPN-NCRK E%ESRA ॥३२ C+ % [44] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H/ गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत ध्ययने गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरामा भणियं च 'अदिभूमि न गच्छेज्जा, गोयरग्गगतो नुणी। कुलस्स भूमि आणित्ता, मितं भूमि परक्कमे ॥१॥" अति-12 | भोजन चूर्णी XM दूरेबि एसणं ण सोहेति 'फासुर्य परकड पिंड' फासुग-णिजीव परे णाम असंजता तेसिं अट्ठाए कर्ड पिंडं समयेसणाए भत्तपाणं | सावद्यः भाषावजन तं 'पाडगाहेज संजते संजए संमं जए संजतो । एवं गहणविणयसुद्धस्स मुंजणविणयो उपदिस्सति- 'अप्पपाणप्पपीतंमि' सिलोगो (३५सू०६०) अप्पाणेत्ति वत्तव्वे बंधाणुलामे अप्पपाणे अप्पपीए, प्राणग्रहणात सर्वप्राणीनां ग्रहणं, चीजग्रहणात् तद्भेदाः, यदिवा बीजान्यपि वर्जयंति, किमत हरितत्रसादयः,तं तु आरामादिसु उवस्सए वा, अपलिच्छन्न नामाकुई अटवीए वा कुंडगादीसु, संवुडो नाम सविदियगुतो, 'समयं संजए भुजेसमतं नाम सम्यग रागद्वेषवियुतः एकाकी भुक्त, यस्तु मंडलीए मुंक्त सोवित समगं संजएहि भुजज्ज, सहान्यैः साधुभिरिति, अहवा समयं जहारातिणिओ लबणे गेण्हइण्णे वा, तथा अविक्कितवदनो गेहांते, | 'जत न्ति न यागसिगालादि, मुंक्त अपरिसाडगंण परिसाडेतो। सावद्यवयणवज्जणविणएणं'सुकडेत्ति' सिलोगो (३६सू०६१) | सुटुकडं सुकडं तं पसंसावयणं मज्झणुमायणं च एवं साचा वज्जये, सुकडेत्ति सर्वक्रियापसंसणं, सुपकेत्ति पागस्स, तं पुणो । हसमणादि,सुच्छिणं रक्खादिसु,सुहडे गमेयाततिसु.(गामघातादिसु) सुमडे सुमारियवयणकताए अणुवसंतादि, सुणिटिए बहुवेसणं सणं णिट्ठाणगादि सुलट्ठ, एवंजातीयमण्णपि सावज्ज ण लवे मुणी, अणवज्ज पुण लोयकरणं बंभचेरणियागसिणेहपासच्छेदसे | हाहरणपंडियमरणअट्ठविहकम्मनिद्वधासुलहधम्मकहादि सिलागो जहासंखेण लबे से । एवं विणीयविणयस्तथा करोति यथा | क्वचित्प्रमादस्खलिते चोदयन्तोऽप्याचार्याः- 'रमति पंडिते सास' सिलोगो (३७सू०६१) रमत इव रमते, हृष्यत इत्यर्थः, पंडिति ॥४०॥ शबुद्धिः साऽस्य जातेति पंडितः, स हि तं विणीतविणयं पंडित रमते आचार्याः सासतः, दिर्हृतो हयं मई व वाहते, भाति भाष्यतेऽ ckeSi-%% R दीप अनुक्रम [३-४८] 2034 2SD ECECREX [45] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण १ विनया ध्ययने ॥ ४१ ॥ नेनेति मन्द्रः सुशीलो, भद्रेण तुल्यं भद्रवद, वाहतीति वाहकः, स हि इंगितं मत्वा स्मरोषेः ईषत्केशाक्षिपं स्पृष्टो वा यथेष्टं वहते, सहि यथा रमते तं वाहयन् एवमाचार्या अपि विनीतमाज्ञापयन्तः क्वचित्प्रमादस्खलिते रमेत्, तद्विपचस्तु 'बालं समझ सासेंतो' स तु नित्यप्रमादवशात् सासत् श्राम्यति, एवं कुरु मा चैवं कुरु पुनः २ चोदयन् कालेनाल्पीयसाऽपि खिद्यते, दिडंतो गलियस्व वाहए, उभयं क्लेशयतीत्यर्थः शिष्यस्याप्ययमेव श्लोक:- रमति पंडिते सास' शास्यमान इत्यर्थः, बालं सम्यइ सास्यमान इत्यर्थः गलियस्संव वाहए, स एवं गलियस्संभूतो 'खड्डगा में' सिलोगो (३८ ०६२) खड्डुगाहिं चवेडाहिं अक्कोसींह वहेहि या एवमादि भिक्खु शासने प्रकारे तमाचार्य कल्याणमणुसासेन्तं, कल्यमानयतीति कल्याणं, इह परलोकं (कहितं) इत्यर्थः तथापि तत्कल्याणमनुशासत् कल्याणं वा तमाचार्यमनुशासनं पावदिट्ठिति मण्णति, अयं हि पापो मां हंति, निर्घृणत्वात् क्रौर्यत्वाच्च चारकपालकबद्धाधयति, अपरकल्पः- ' खड्डगा मे ववेडा मे' सो उ गम्मो इति, एस आयरिओ अकोविओ एवं चवडउच्चावहिं मं आउस्सेहिं आउस्सति, एवमसौ कल्लाणमणुसात पावदिति मन्नति, अपर आदेश:- वाग्भिरप्यसावनुशास्यमानः मन्यते तां वाचं' खड्डुगा मे चवेडा मे' तथा हितामपि वाचे अक्कोसतित्ति, सासति वधं वा तत्प्रतिपक्षस्तु 'पुत्तो मे भाति णातित्ति ' सिलोगो ( ३९ ०६२) कटुकैर्मधुरखी वचोभिरनुशास्यमानोऽपि मतिमान् मन्यते पुत्रमिवार्य मामनुशासति, नावज्ञया, केवलं शिष्यसौदार्यात्, साधुरेव साधुः, तमनुशासनं कल्याणं मन्यते, एवं भाता, जाती योऽन्यो पितामहो वा सबै तत्क ॥ ४१ ॥ न्याणानुशासनं सुष्ठु च ममेवैतद्धितमिति मन्यते, इतरस्तु पावदिट्ठी तु अप्पाणं पापं अशोभनं स हि पापदृष्टिरात्मानं हितानुशासनेनाप्यनुशास्यमानं दासमिव मन्यते ॥ स एवं नित्यमप्रमादवान् गुर्वाराधनापरः ण कोवए आयरियं 'सिलोगो, [46] मूढानुशासनं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H/ गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक [-] श्रीउत्तरा० चूर्णी १विनयाध्ययने EV गाथा ||३-४८|| ॥४२॥ (४० सू०६२) कुप्यते येन प्रकारेण कायिकेन वाचिकेन वाऽऽचार्यः अन्यो वा तं न कुर्यात्, यदा पुनर्विनयं कुर्वताऽऽचायः कचिन्मू- बुद्धोपचादुना परुषेण वा प्रकारेण अणुसासिज्जति तदा अनुशास्यमानः आत्मानमपि न कोपयेत् , अनेसु वाऽचियत्तकारणेसु तासिमा- विदृष्टान्तः | यरियाणं रुट्ठो भवति अनसि वा साधणं तदा बुद्धोवघाती न स्यात्, बुद्धो-आयरियो,बुद्धानुपहन्तुं शीलं यस्य स भवति बुद्धोषघाती, | उपेत्य घात:उपघातः, स तु त्रिविधः णाणादि, णाण अप्पसुतो एस देस गोप्पवइ इओ देसणे उम्मग्गं पण्णवेति सदहति वा, चरणे पासत्या 3 वा कुशीलो वा एवमादी, अहवा आयरियस्स वृत्तिमुपहति, जहा एको आयरिओ अ (ववा) यमग्गो ( अगमओ), तस्स सीसा | चिंति केच्चिरं कालं अम्हेहिं एयस्स बलियब्बति !, तो तहा काहामो जहा भनं पच्चक्खाति, ताहे अंतं एव (विरसं भत्तं ) उवणेति, भणति य-ण देंति सड्ढा, किं करेमो?,सावयाण च कहेंति- जहा आयरिया पणीय पाणभोयणं ण इच्छति, सलेहणं करतित्ति, ततो सड्ढा आगंतूण भणंति-किं खमासमणा! संलेहणं करेह ?, ण वयं पडिचारगा वाणिविण्णत्ति,ताहे ते जाणिऊण तेहिं चेव वारितंति भणति-कि मे सिस्सेहिं तुम्भेहिं वाऽवरोहिएहिं?,उत्तमायरियं उत्तमट्ठ पडिवज्जामि,प०२ भत्तं पच्चक्खायंति,इत्येवं बुद्धोपघाती ण सिया. | आशंकायामवधारणे च स्याच्छान्दस्योपयोगः, इह त्वरधारणे द्रष्टव्यः, पुनरप्यवधारणगमेव यधा बुद्धोपघाती न सिया, तहा ण सिया तुत्तगयेसए तुद्यते येन तुत,न गुरोरंध्रान्वेषीत्यर्थः,यदापि चास्य प्रमादाचरिते क्वचित् आयरिओ तस्सेव हिताए रूसए | तदावि आयरियं कवियं णच्चा सिलोगो (४१सू०६३)कुवितं संतं, कुपितं अप्पणाहिं परतो वा जाणिऊण,इमेहिं लिंगेहि'अचक्षुदान ॥ ४२ ।। प्राकृतपूर्वनाशनं, विमाननं दुखरिताय कीर्तनम् । कथाप्रसंगो नच नाम विस्मयो, विरक्तभावस्य जनस्य लक्षणम् 181 |॥१॥ परोवा से कहेजा जहा गुरूते कुवितो, तदैनं 'पत्तिएण पसादए' ण राजाभियोगवत्, मे खमे रायाणया, प्रत्यंतगमो दीप अनुक्रम [३-४८] %ACROCCACA-CRORESAR % [47] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: चूणों रीतिः गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा०पायैः,ममैवार्य अनुग्रह इतिकृत्वा प्रियेणैवेनं प्रसादयेत् , तत्कथं प्रसादयेत्', उच्यते-'विमधिज्ज पंजलियडों' विज्झवणं क्षामणमि-11 इत्यर्थः, विससेण झाएज्जा विज्झबेज्ज, प्रसादनं विध्यापनमिति च पुनरभिधानानुप्रदर्शनाददोषः, अंधानुलोम्याद वा तदेवं, बहज्ज | विनीत| णो पुणोत्तिय ॥ आचार्यविनयश्रुतमिदं-'धम्मज्जियं च ववहारं' सिलोगो (४२सू०६४ ) धार्मिकं जीतं धम्मज्जीतं, इकारस्य | ध्ययन कृत्य हस्वत्वं काउं, विविह वा पहरणं विविधो वा अपहारः बवहारः, 'बुद्धहारितं सदा' बुद्धा 'सदे'ति अतीते काले संप्राप्ते वाऽऽचर्यते mea 'तमायरंति ववहारं' तमिति धम्मार्जितं बुद्धरुपदिष्टं आचीणं वा, गरहाणाम एस दंडरूई निग्षिणो वा, अप्पेवं धर्मार्जितग्रहणान्माद भूच्छिप्योऽयं मम णीयेल्लओ वा पहुवकारी तेन कश्चिन्ममीकारान दंडयेत् इत्यतो धर्मजीतग्रहणं, उक्तं च-'यस्सापि तं वा०' गाहा, सूत्रगौरवार्थ बुद्धेहायरियं, सरागैरेव केवलमाचयते,अहं हि वीतरागचरित एव शिष्यैरपि सुगम्यते ॥ अयमन्यः सूक्ष्मो विनयः-13 ला'मणोगतं' सिलोगो (४३ सू०६४) नेत्रबक्रविकारमनोगतं भावं लक्षयेत्, वाक्यगर्त तु अर्धेन उकेण वा, यथा इंगितज्ञाच मागधा, तदेवं मणोगतं वकगतं वा अभिप्पातं जाणिऊण आयरियस्स उ तं परिगिज्झ वायाए,तमिति अभिप्राय,एवंति वा चायाए परिगिझ में कम्मुणा तदीप्सिततमस्य समीपमापादयेत् उपपादयेत् । अपि पढति-'मणोगयं (रुई) वकगई जाणित्ता' सुतं, मनसो रोचतीतिमनो-18 राचि मनसः सचित्तस्य यत्र तत्र चार्थे गतो,मनसा रोचतीत्यर्थः,आकारिगितादिभिः ता मनोरुचि,एवं वाक्यरुचिमपि अोक्तादिभिः ।। Vत मनोरुचिं वाक्यरुचि, सेसं तहेबय एवमभिप्रेतमप्यर्थमाराधयति,से 'वित्ते अचोतिए णिच्च सिलोगो (४४सू०६४) वित्त एव वित्तं ॥४३॥ तस्य वित्तयिकमेवेदं, अचोदितेनैव मया यत्कृत्यं गुरोस्तत्कर्त्तव्यं, श्रेयाणीह कृत्यानि, बलवद्विनीतधुर्यवत् (अपि) प्रतोदोत्क्षेपमपि नो, सिहते] कुतस्तर्हि निपातनी एवं असावप्यचोदित एव सर्वकृत्येपूत्पद्यते प्रसन्नवान् प्रसनः, नाहमाजप्तव्य इविकृत्वा प्रसन्नो भवति अपि दीप अनुक्रम [३-४८] - %8:564 % [48] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H/ गाथा |३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक १ विनया-मा गाथा ||३-४८||| * श्रीउत्तरा०प्रसाधते हर्षात् समये मय्यनुग्रह' इति तच्च क्षिप्रं करोति, थामवान् नामानलसः, थामो नाम बलं, किमभिप्रेते सति पलं करोति, विनयफलं चूर्णी | अन्यथा करोति,सदा सर्वकालं । 'णचा णमिति मेहावी' सिलोगो (४५०६५) झात्वा वैनयिकानि यो वा यस्य विनयो । यथा कार्यः तं ज्ञात्वा नमति, नमनेन च तस्योत्पद्यते पूजा, तत्कराति यः तस्य हि लोके कीर्तिर्भवति, स्वपक्षे परपक्षे वा ध्ययने बाकीयते विनयवानेषः गुराधनपरा, स चैवं विनयवान् सरणं भवति किच्चाणं, शिराचितमिति सरणा, सेवंत इत्यर्थः, स हि | ॥४४॥ कृत्या नाम कृत्यासेविभिः अणुधमानानां शरणं भवति, तत्र हि तानि निरुपद्रवानि तिष्ठति, अथवा शरणं घरं, गृहबदसौ तेषां कृत्यानां शरणं, ततो भवति दिट्ठतो भूताणं जगती जहा, भूतानामिति जीवानां, जायन्ते तस्यामिति जगती, पृथिवीत्यर्थः, ४ एवं तस्स गुरुं पणिवयमाणस्स कृत्यानां शरणभूतस्य पूजनीयाः अल्पेनैव कालेन तुष्यन्ति ॥ तदेवं पूज्यैः तटैः किं भवति । उच्यते, 'पुज्जा जस्स पसीयंती' सिलोगो (४६०६५) पूजनीयाः पूजा इत्यर्थः, यस्यति यस्य साधोः, बुद्धाप्याचार्या | तएव, ते पूर्व पूज्यते पचारप्रसीदंति, स्यादेतत् प्रसादे सति यथा हरिहरहिरण्यगर्भादयः साक्षात्स्वर्ग किल नवंति किमेवं तेऽपि स्वर्ग। | मोक्षं वा नयंति? इच्छितं वा वरं देति !, न, किमुच्यत ?, तेऽवि सम्यगाराधनाविशेषैः प्रसभाः प्रसादे सति लाभयिष्यति 'पिपुलं अहितं सुतं' अर्थेन युक्तमाथिक सुतं-श्रुतं ज्ञानं उक्तं नम (विन) यश्रुतं ॥ तदादेशकारिफलं तु 'सपुज्जसत्थे' वृत्तं (४७-6 सू.६६ ) स इति शिष्यः, पूजनीयाः पूज्याः आचार्यों इत्यथे: पूज्यैः शासितः सपूज्या शासितः सपूज्जसत्थे, सुष्टु विनीतः संशयो | ॥४४॥ ४ यस्य भवति स सुष्टु धिमीतसंशयः, आचार्यस्य मनसो रुचितं चिद्वति कम्मसंपदं,अनुभवमान इति वाक्यशेषः,विनीयकरणं तु मनो रुचिं चिट्ठदि कम्मसंवदं मनोचितं याति मृस्वा सौधर्मसंपदं, कर्मविभूत्या इत्यर्थः, अक्खीणमहाणसीयादिलद्धिजुत्तो, अहवा % दीप अनुक्रम [३-४८] % % ...अत्र विनय-फ़लम् दर्शयते [49 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: 12.zll प्रत सत्रांक - गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तराविशुद्धा कर्मसंपदा, अथवा मनोरुचिता विष्ठति तस्य कर्मसंपदा, चरिमा कर्मविभूतिरित्यर्थः,नागार्जुनीयास्तु पठंति-'मणिरिचय | विनयफलं चूणौँ संपदमुत्तमं मनो,अहक्खायचरित्तसंपदं प्राप्त इत्यर्थः। 'तवोसमायारिसमाहिसंवुडो तवो बारसविहो, सकारस्य इस्वत्वं वृत्तभं-18 १ विनया- गभयात्, समाधानं समाधिः,संवरण संबुडो इंदियनोईदिएहि,स एवंविधो समायारीसमाधिसंबुडो'महज्जुतिमहती द्युतिर्यस्य स भवति ध्ययने महद्युतीः,तपोदीप्तिीरत्यर्थः,पंच वयाणि पालिय अनुपालयित्वत्यर्थः ।। 'सदेवगंधव्यमणुस्सपूहए'वृत्त, तपाद्यैर्गुणैरन्वितत्वात् स | देवेगान्धर्वमनुष्यैः पूजितः,स्तुत इत्यर्थः, 'जाहित देहं मलपंकपुब्धयंत्यत्वा देहमौदारिकं शरीरं मलपंकपुवंति मल एव पंक: कर्मणो हि पंकारख्या भवति,जहा पावे वज्जे वेरे पंले पणए य' तथा कम्मगपुब्बगं हि सरीरं, अहवा मलपंकपुब्धयन्निव मातु-त उयं पिउसुकं एवं मलपंकजीबो पुव्वं आहारेऊण सरीरंणिवत्तेति ततो मलपंकपब्धयन्ति तं त्यक्त्वा यत उक्तं'ओरालियवेउवियाहाशरकतेयकम्माई सत्तावि विप्पजहन्नाहं उप्पाययित्तासि सिद्धे बा भवति सासते, सासयग्गहणं विज्जासिद्धादिणिरागरणथं, सावसेसकम्मे पुण देवे भवति, अप्परये ति अप्पकम्मे,लवसत्तमेसु देवेसु विजयादिसु वा अणुत्तरेसु 'महिड्डीय'त्ति सेसेसु वा कप्पेसु पादचाए सामाणियत्ताए वा उच्चअति, इतिसदो अणगहो, इह तु परिसेसए विसयो, आहवा एवमत्थो, एवमिति, बेमि-प्रवीमि, थेराणं | लावयणमेयं, भगवता सर्वविदा उपदि8 अहमपि ब्रवीमि । एवमयं अज्झयणं उबकमेण णिवेबसमीरमाणेऊण सुत्चालावगे णिक्वेवि*ऊण सुत्तफासियणिज्जुचीए जहासंभवं वक्खाणियं, इदाणिं चतुत्थं अणुओगद्दारं णयत्ति, ते य बक्खाणगं, इत्धेव सुत्ते मुत्ते उव- ||॥४५॥ कायोज्जा, तहावि दारामुण्णत्थं भण्णति, तंजहा गमसंगहयवहारउन्जुसुयसहसमभिरूढएवंभूता, एते सत्तवि जहा सामाइए तहा लापरवेऊण समासेण दुहा विभज्जति ,तंजहाणाणणतो करणगतो यणाणाहीणं सध्यं णाणणयो भणति किं च करणेणं । किरि-18| दीप अनुक्रम [३-४८] 15EXAMERICA [50] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) २ परीषदा ध्ययने या करणणओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥ १ ॥ णायम्मि गिहियवे गाहा ( ) गाउति परिच्छिष्णो गेज्झो जो कज्जसाहओ होइ । अगेज्झ अणुवकारी जत्थो दव्वं गुणो वाचि ॥ १ ॥ जतितध्वंति पयत्तो कज्जे सज्झांम गिण्डितब्बत्ति । अग्गेज्झऽनादिययोऽवधारणे एवसद्दोऽयं ॥ २ ॥ इति जोती एवामहं जो उद्देसोस जाणणाणयो सेत्ति। सो पुण समदंसणसुत सामइयाई बोद्धव्यो || ३ || गतो जाणणाणयो । इदाणि चरणणयो 'सव्वेसिंपि णयाणं' गाहा ( ) सव्वेति मूलसाइप्पसाहभेदादि५ ॥ सद्दवो तेसिं । किं पुण मूलपयाणं ? अहवा किमुताविसुद्धाणं || १ || सामण्णविसेसोभयभेदा वत्तव्यया बहुवित्ति । अह्वाणामादीर्ण इच्छति को कं णयं साहुं । सोऊ सद्दहिऊण य णाऊण य तं जिणोवदे संग । तं सव्वणयविमुद्धति सव्वणयसम्मतं जंतु ॥ ३ ॥ चरणगुणसुद्वितो होति साधुरेवेस किरियणयो णाम । चरणगुणसुट्ठितं जं (साधु) साधुत्ति मन्ने || ४|| सो तेण भावसाधू सव्वणया जंच भावमि च्छंति । णाणकिरियाणयो भयजुत्तो य जतो सदा साहू ॥ ५ ॥ चिणयसुतचुन्नी समत्ता ॥ १ ॥ ॥ ४६ ॥ अथ परीषदाध्ययनं २ उक्तोऽस्मिन् प्रथमेऽध्याये विनयः, तस्य विनय विनीतस्य साधोः कदाचित् परीषहा नानाप्रकारा उदीर्यते, ते अणा/इलेण अव्यवहितेण सम्मं सहितव्या, ते च क्षुधाद्याः, अनेन संबंधेनेनेदमध्ययनमायातं परीसहा इति, तस्स चचारि उवकमादीणि सव्वाणि परूयेऊनं णामणिफणे शिक्खेवे परीसहेचि मार्गाच्यवनार्थ निर्जरार्थं च सम्यक् परिषोढव्या, तत्थ 'णासो परीसहाणं गाहा अध्ययनं -१- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२- "परिषह" आरभ्यते [51] नयाः ॥ ४६ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं H/ गाथा ||४८.../४८...|| नियुक्ति : [६५-८५/६५-८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्रांक श्रीउत्तरा चूर्णी निक्षेपाः ध्ययने गाथा ||४८...|| ॥४७॥ (६५-७२ ) ते परीसहा चउबिहा णामादी, णामठवणातो गतातो, दव्वपरीसहा दुविहा-आगमतो णोआगमतो य, आगमतो । परीवह जाणते अणुरउत्ते, गोआगमतो तिचिहा, तत्थ माहा 'जाणगसरीर' गाहा (६६-७२) सव्यं परूवेऊणं जाणगसरीखहरिचे दब्व परीसहा दुनिहा, तंजहा- कम्मदच्चपरीसहा य गोदब्बकम्मपरीसहा य, जाणि परीसहवेदणिज्जाणि कम्माणि बद्धाई तावत र मन उदेज्जति ते कम्मदव्यपरीसहा, 'णोकम्ममि य' गाहा (६७-७३ ) तिविहा पोकम्मदव्वपरीसहा- सचिचाचित्तमीस गा,सचित्तणोकम्मदवपरीसद्दा जहिं सचिनेहिं परीसहा उदेज्जति जहा गिरिनिज्झरणपाणीयं, एयस्स छुहा उदेज्जंति, अचित्ते णो कम्मदव्यपरीसहा जहा अग्गिदीवणियचुष्णेहिं छुहा भवति, मीसे गुलल्लएणं छुहा भवति, पिवासापरीसहो लोणपाणीएण वा मतहा उदेज्जति, तेलेहि य अचिचेहिं, णिलवणादीहिं मिस्सेहिं दबेहि खज्जतेहि य तण्हा उदेज्जति, एवं सेसावि परीसहा जहासंभवं जोएयब्वा, गतो णोकम्मदव्वपरीसहो, दवपरीसहा य । इदानि भावपरीसहा, ते वेदणिज्जाणं कम्माण, उदिण्णाण वेदणिज्जाणं भवति, तेसि परीसहाणं इमाणि तेरस पदाणि भवंति,तत्थ गाहा-'कत्तो करस व दब्बे (समतारो) अहियास णए व बतणा काले । खेत्तोइसे पुच्छा णि इसे सुत्तफासे यत्ति(६८-७३) एत्थ पुण आदिदारं कत्तो एते परीसहा निज्जूढा, उच्यते, कम्मप्पबायपुब्वा सत्तरसे पाहुडंमि जे सुतं । सणयं सउदाहरणं तं चेव इहंपि णातब्ब ६९-७३) कत्तोत्ति गतं, इदार्णि। कस्सत्ति दारं, कस्स ते परीसहा ?, कि संजतस्स असंजतस्स संजयासंजतस्स?, एस्थ णएहिं मग्गणया इति, कोऽर्थः ।, उच्यते, नयाः कारका दीपकाः व्यञ्जका भावकाः उपलम्मका इत्यर्थः, विविधैः प्रकारैरर्थविशेषान् स्वेन स्वेनाभिप्रायेण नयन्तीति नयाः, ते च णैगमादयः सप्त नयाः. तद्यथा-णेगमसंगहबवहारउजसत्तसहसमभिरूढएवंभताः एत्थ गाहा-'तिपहंपिणेगम' I दीप अनुक्रम [४८...] बनवाबनव-KHAR S ense ... अत्र 'परिषहस्य नामादि निक्षेपा: दर्शयते [52] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं H / गाथा ||४८.../४८...|| नियुक्ति: [६५-८५/६५-८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्रांक परीपहे नयाः गाथा ध्ययने द ||४८...|| SCIET श्रीउत्तरागाहा (७०-७४ ) तत्थ गमनयस्स विण्हंपि परीसहो भवति, तंजहा-संजतस्सवि असंजतस्सवि संजताससंजतस्सवि, एवं जा चूणा उज्जुसुतस्स. तिण्हं सद्दणयाणं संजतस्सेव एगस्स परीसहो भवति, तंजहा-संजतस्स-विरयस्स, ण सेसाणं, कस्सत्ति गतं, इदाणि २ परीषदा THA दव्यत्ति दारं,कयरेण दव्वेण परीसहा उदेज्जति?, किं जीवदव्वेण १ जीवदव्वेहिं २ अजीवदव्वेण ३ अजीबदम्वईि ४ उदाहु जीवदव्वेण अजीबदब्वेण५य तहा जीवदव्येण वा अजीबव्वेहि वादउदाहु जीवदब्बेहि अजीबदब्वेण य७उदाहु जीवदम्बेहि य अजीवदव्वेहि य८% ॥४८॥ एते पुच्छा अदुभंगा भणिता, तत्थ णेगमणयो भण्णति-अट्ठहिवि भंगाहं परीसहा भवंति, कह, उच्यते, एगण पुरिसेण परीसहेलि #उदीरितो चबेडिया दिवा, जीवदव्येण एगेण कंटगाइणा, जीवदव्वेहिं बहहिं पुरिसेहिं चवेडादिहिं आसाइतो,अजीवदब्वेहिं बहुना पासाणकंटगादीण उबरि पडितो, जीवेण अजीवेण एगेण पुरिसेण एगेण सरमातिणा, एवं विभासितव्बा अडवि भंगा, संग-१ हस्स जीवेण अहवा णोजीवेण, कथं कृत्वा ?, यो हि जीवेण व्वेण योऽप्यजीवदव्येण सर्वोऽप्यसौ जीवस्यैव तेण जीवेण, गोजीबोद कथं ?, जतो णोजीवेण उदारेजति तदा जीचोबि गहितो जओ उदीरेति, बबहारस्स नोजीवो कह', जीवस्स कम्मेणेव डापरीसहा भवंति, सेसाणं जीवस्स, कह , पगति वेयणत्तिकृत्वा जीवस्सव परिसहो, णो अजीवस्स, तेण जीवस्सेव भवति, दब्वेति गतं, इयाणि समोतारो,तत्थ गाहा-'समोतारो स्खल्लु गाहा' ७२-७५) समोतारो दुविहो-पगडीसु पुरिसेसु य, तत्थ पगडीसु। चउसु समोतरंति- 'णाणावरणे' गाहा (७३-७५) णाणावरणे वेदणिज्जे मोहणिज्जे अन्तराये य बावीसइ परीसहा, कत्थ कोसें। समोचारो, आह-पन्नाऽनाणपरिसहा' गाहा (७४-७५) पापरीसहो अभाणपरीसहो य नाणावरणस्स उदएणं, एको य४ अलाहपरीसहो अंतरायस्स उदएणं, मोहणिज्जे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- दसणमोइणिज्जे चरित्तमोहणिज्जे य, तत्थ दीप अनुक्रम [४८...] RO ॥४८॥ [53] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं H / गाथा ||४८.../४८...|| नियुक्ति : [६५-८५/६५-८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक पुरुषेषु परीषहाः 575%ERSE% गाथा ॥४९॥ श्रीउत्तरा०चरितमोहणिज्जे सत्त परीसहा समोतरंति, तत्थ गाहा-'अरती अचेल' गाहा (७५-७६ ) 'अरई दुगुंछाय' गाहा (७६-७६) चूणौँ 'दंसणमोहे' गाहा(७७-७६)अरती अरतिवेदणिज्जस्स कम्मस्स उदयएणं समुप्पअति, अचेलगपरीसहो समोतरति दुगुंडामोहणिज्जे, २ परीपहा- इत्थीपरीसहो पुरिसवेदस्स कम्मस्स उदएणं,णिसीहियापरीसहो भयस्स उदएणं,जायणापरीसहो माणस्स उदएणं, अकोसपरीसहो ध्ययने कोहस्स उदएण, सकारपुरकारपरीसहो लोभस्स उदयेण, देसणमोहस्स कम्मस्स उदयेण एको दसषपरीसहो भवति, सेसा एकारस | परीसहा वेयीए समोतरंति, तत्थ गाहा-पंचेव आणुपुटवी' गाहा (७८-७६ ) (पंच आणुपुचीए) तंजहा-दिगिछापरी० पिवासाप० सीयप० उसिणप० दसमसगपरीसहो आणुपुब्बी एते पंच, चरिया सेज्जा रोगप० तणफासेवि जल्लप० वधपरीसहो एते एकारस वेदणिज्जे, एवं पगडीसु समोतारो भाणितो । इदाणिं पुरिसेसु-यावीस बादरसंपरागे' गाहा (७९.७६ ) सचविहअविहवंधगाणं पमत्तसंजतप्पभितीणं जावबादरसंपरागो ताव चावीस परीसहा भवंति, छबिहबंधगस्स मुहुमसंपरागस्स उपसा-15 मिगसेढिस्स वा मोहणिज्जपभवा अदु परीसहा वज्जिऊण सेसा चोइस परीसहा, एवं एगविहबंधगस्स वीतरागस च्छउमत्थ51 स्स उवसामगस्स खमगरस वा चोइस एक, एगविहबंधगस्स सजोगीभवत्थकेवलिस्स एकारस परीसहा वेदनीयाश्रयाः, शेषा नास्ति, पुरिसेमु समोतारो यदारं गतं,इदाणिं अधियासणा,कहं परीसहा अहिवासिया भवंति?, एसणमणेसणेज्ज'माहा(८०-७६) तत्थ तिहं आइल्लाण णयाणं जो एसणिज्जं वा अणेसणिज्जया ण पडिग्गाहेति ण वा भुजति ततो अहियासिया भवंति, उज्जुसुतस्स तिण्हं सद्दणयाणं च जो फासुतं गेण्डइ तेण परीसहा अहियासिया भवति, अहियासणेतिगतं । इयाणि णया, को गयो के परीसह लाइच्छइ ?-'जं पप्प णेगमणयो' गाहा ( ८१-७७) णेगमणयस्स जं पण सीतउसिणादिपरीसहा उदीरिज्जति स एव तस्स परी ||४८...|| दीप अनुक्रम [४८...] व [54] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं H / गाथा ||४८.../४८...|| नियुक्ति: [६५-८५/६५-८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सत्रांक - गाथा ||४८...॥ SCRECE श्रीउत्तरा० सहो भवति, संगहयवहाराणं जे पप्प परीसहा भवंति वेयणा य तं दोवि इच्छति, उज्जुसुयस्स वेदनं प्रतीत्य जीवस्येत्यादि जीवे || नयैः चूर्णी परीसहा भवति. तिण्डं सहणयाण आत्मैव परीसहोपयुक्तः परीषहो भवति,णयत्ति गतं । इदाणि वत्तणा-एकस्मिन् काले एगपुरिसे l सहा कति परीसहा वर्तते ? 'वीसं उक्कोसपदे' गाहा (८२-७७ ) जस्स बावीस परीसहा तस्स उकोसपदे वांसं परीसहा उदेज्जेज्जा, ध्ययने कह?, जेण सीतोसिणा चरियाणिसीहिया एते दो दो जुगवं एगसमए ण संभवंति, जदा सीतं न तदा उसिणं उदेज्जेज्जा, सीतो॥५०॥ सिणा चरियाणिसीहिया सपडिवखेणं, जस्स चउद्दस तस्स उकोसपदे वारस, जस्स एकारस परीसहा तस्स उक्कोसपदे दस परिसहा उदेज्जेज्जा, सीतोसिणपडिवकूखेणं, सब्बास एतेसिं जहवेण एका परीसहो उदेज्जा,वत्तणेतिगतं । इदाणिं काले, केच्चिरं | | काले एको परीसहो भवति ?-'वासग्गसो तिण्हं' गाथा (८३-७८ ) तिण्हं आदेल्लाणं णयाणं वासग्गसो जाव सम्मतो परि यातेति, अत्रोदाहरणं जहा सणंकुमारस्स सत्त वरिससयाणि परीसहो, जहा 'कंडू अ भत्तच्छंदो' गाहा (८४-७८) उज्जुसुतस्स माअंतोमुहुत्तं, तिहं सद्दणयाण एग समयं परीसहो भवति,कालेत्तिगतं । इदाणिं वेत्तत्ति, कतरमि खेते परीसहा? केवतिए वा खेते | भवति?-'लोगे संथारंमि यगाहा(८५-७९)अत्र नयाः-अविसुद्धो नेगमो भणति-तिरियलोए परीसहा, विसुद्धतरो उ भणति-जंबुद्दीवे | परीसहे, विसुद्धतरो भणति-दाहिणद्धे, विसुद्धतराओ भणति-पाइलिपुत्ते, विसुद्धतराता भणति-देवदत्तगिहे, विसुद्धतराओ भणति-जमि उवस्सए साधू भवति तंमि परीसहो, एवं बबहारस्सवि, संगहस्स संथारए परीसहो, उज्जुसुतस्स जेसु आगासपदेसेसु अप्पा ओगाढो | ॥५०॥ ४ा तेसु परीसहो, तिण्हं सुद्धणयाणं आतभावे परीसहो भवति, खेत्तोत्ति गतं। 'उद्देसो गुरुवयण' गाहा(८५-७९) उद्देसो जहा इमे खलु बाबीसं परीसहा, पुच्छा कतरे ते पायीसं परीसहा'णिदेसो 'इमे खलु ते बाषीसं परीसहागतो णामणिफण्णो, % दीप अनुक्रम [४८...] E0%ARRES %ACASSA [55] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा ||४८...|| दीप अनुक्रम [४८...] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [२], मूलं [ १ / ४९] / गाथा ||४८... / ४८...|| निर्युक्तिः [६५-८५/६५-८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीउत्तरा० चू २ परीपहाध्ययने ॥ ५१ ॥ क्षेत्रे परीषदाः सूत्रं च इदाणिं तेरसमं दारं सुत्तफासेत्ति, तं च सुतं उच्चारेऊण भणति, तं च इमं सुतं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खातं' श्रुतं मया आयुप्मन्! अजजंबु!, सुहम्मो अअजंबुणामं आमंतित्ता एवं भणति, एवं मया श्रुतं भगवता आयुष्मता एवमक्खायं, अथवा आयुषि सति जीवता, अथवा पादसमीचे अधिवसता, अथवा गुरुपादानामुपवसता, श्रुतमेतं न स्वच्छंदविकल्पत उच्यते, गुरुपारम्पर्यागतमेतत्, भगवता इति, भगो जस्स अस्थि भगवान्, अत्थजस धम्मलच्छी रूवसत्तविभवाण छण्ड एतेसिं भग इति णामं, जस्स संति सो भण्णति भगवं तेण भगवया, 'एवमक्स्वायं एवंशब्दो प्रकाराभिधायी, एतेन प्रकारेण योऽयं भणिहिति तं हृिदये काऊण भष्णति एवमक्खातं अक्खातं कहितं, 'इह खलु ' इह आरुहे सासणे, खलुसद्दो विसेसणे, अमेवि तित्थयरा भगवंतो समाणविष्णाणात तेहिवि एमेव, 'बावीसं परीसहा ' बावीस इति संख्या परि सर्वतोभावे, मार्गाच्यवनार्थं निर्जरार्थं च परिषोढव्या परीसहाः, 'समणेण भगवता महावीरेण सममाणा समणा, भगवता इति भणितं, पहाणो वीरो महावीरो, एवमक्खातमिति भणितेऽवि पुणो विसेसिज्जति समणेणं भगवता समणभावो केवलिता य दरिसिज्जितित्ति, णामठवणदव्वसमणविसेसणत्थं वा, एवं भावसमणेण एव भगवता महावीरेण 'कासवेण ' कार्श उच्छु तस्य विकारः कास्यः रसः स यस्य पानं स काश्यपः उसमसामी तस्स जोगा जे जाता ते कासवा तेण वद्धमाणो सामी कालवो तेरा कासवेण, 'पवेदिता विद् ज्ञाने साधु वेदिता पवेदिता, साधु वर्णिता, 'जे भिक्खू' जे इति अणिदिट्ठस्स णिसे, भिक्खणसीलो भिक्खू, अहवा खुर्ध-कम्मं तं ॥ ५१ ॥ भिंदतित्ति भिक्खू' सोच्चा णच्च क्रमदर्शनं, पूर्वं श्रूयते पश्चाद् ज्ञायते, अनुक्तमपि चैतद् ज्ञायते, पूर्वमधीयते पश्चात् श्रयते १ ज्ञायते वा, श्रूयते अर्थतः ज्ञायते च, अथवा कश्चित् न तावदधीते उपदेशेन श्रुत्वा जानीते तेन समस्तः क्रम उपदिश्यते, [56] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [१/४९] / गाथा ||४९-५१/५०-५२|| नियुक्ति: [८५....८६...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: [१] गाथा ॥४९ ५१|| श्रीउत्तरा० जिच्चा' ते जिणित्ता, कथं ?,'अभिभूय' ति पराजिणित्ता अभिमुखी भृत्वा, अभिभूय इत्यर्थः, चरणं चर्या भिक्षोश्वर्या II क्षुधा चूणा भिक्षुचर्या तया भिक्षुचर्यया, समंताद् वजतो परिव्रजतो. विविधैः प्रकारैईन्यते विनिहन्यते, अमानोनाः प्रतिषेधे, णो विहन्यते, परीषहः ध्ययने IHIगतो उद्देसो । इदाणिं पुच्छा, 'कतरे ते बावीसं परीसहा जाव णो विणिहण्णेज्जा' पुच्छा गता, इदाणि णिद्देसो इमे खलु ते बावीसं जाव णो बिहण्णेज्जा, तं०-दिगिंछापरीसहो जाव दंसणपरीसहत्ति त्ति 'परीसहाणं पविभत्ती ॥५२॥ (४९सू.८३) विभजनं विभक्तिः प्रकर्षण विभक्तिः प्रविभक्तिः कासवेण प्रवेदिता एवं भणितं तं ते(भे) उदाहरिस्सामि, व्याख्या स्यामीत्यर्थः, तत्र तावत् क्षुधापरीसहजयोपायः दिगिंछापरिगते देहे' सिलोगो (५० सू० ८३) दिगिंछा णाम | देसीतो खुहाअभिहाणं, परि समंतात्तापः परितापः, दिगिछया परितापो, तेण हि दिगिच्छापरितापेन तपस्सी भिक्खू थामवं, तपस्विग्रहणं आहारायचत्वात् प्राणिनां सर्वतपसां हि अनशनमेव सुदुष्करं तपः, आह हि-'क्षुधासमा नास्ति शरिवेदना इति वचनात, आदिकरणमपि चास्य परीषहस्यायमेव हि सर्वपरीपहाणामादितो भवति, कथं', आहारपज्जती पढम होइ, IP उक्तञ्च-"माउउयं पितुसुकं तप्पढमाए आहारमाहारेत्ता गम्भत्ताए बक्कमह" ति, भिक्खुरिति भिक्षुनिर्देशः,थामवं नाम प्राणवान्, सति थामे जोगसमत्थो खुध अहियासेज्जासि, जतिवि ण सकेसि छुहं सहेउं तहावि फासुएसणिज्ज अंतपडिप्पंतो | ( झिएहिं आ) हारेहिं चउत्थादीहिं तवस्सी अत्थामो छुहापरिगतो होति, पच्छा छुहापरिगतेण भिक्खुणा गवेसितव्या णव कोडीपरिसुद्धा, ण छिदावए ण पए ण पयावए ण किणे ण किणावए, एता णव कोडी पुइताओ, छिनति पाहणंति वा एगहुँ, तेण .. ण हणावए हर्णतं णाणुमोदए अग्गि, तहेव मृलपलंबादि ण छिदे ण छिंदावए छिदंतमवि णाणुमोदए, पुवच्छिदियमपि ण | ॥५२॥ %**RESESERIES XXSEX दीप अनुक्रम [५०-५२] ** [57] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [१...] / गाथा ||४९-५१/५०-५२|| नियुक्ति: [८५...८६...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक गाथा ॥४९ ५१|| श्रीउत्तरामपए ण पयावए पयंत णाणुमोदए, तहेव फासुगं वा ण किणे ण किणावए किणतं णाणुमोदए, एवं एसणिज्जं अंजमाणेण खुहा- क्षुधा __ चूर्णी परीसहो अहियासितो भवति, यद्यपि तेन क्षुत्परीसहेण सम्यग सहमानेन सरीरदौर्बल्यात् 'कालीपब्वंगसंकासे' सिलोगो मिलोगो परीषह: २ परीपहाता(५१ सू० ८४) काली नाम तृणबिसेसो, केइ काकजंघा भणंति, तीसे पासतो पच्चाणि तुल्लाणि तणूणि, कालीतृणपर्वणः । ध्ययने 1 पर्चभिरंगानि संकाशानि यस्य स भवति कालीतृणपर्वागसंकाशः, तानि हि कालीपाणि संधिसु प्राणि मध्ये कशानि, एवमसा-15 लावपि भिक्षः लहाए जानुकोप्परसंधिषु धरो भवति, जंघोरुकालायिकवाइस कशः, धम्यतः इति धमन्यः धमनिभिः संततः-11 | सचेतस्ततः । अस्यामप्यवस्थायां यदाहारयति तदाह-'मायणे असणपाणस्स' मीयत इति मात्रा तां जानातीति मात्रा, यया | देहधारणं भवति, दीयते इति दीन:, दुर्भिक्षोपहतद्रमकवदनाथः, पिंडमलभमानो न दीनमणा भवे, एतेसिं बावीसाए परीसहाणं लाइमा उदाहरणगाहा-तंजहा- 'कुमारए णदी लेणे' सिलोगो (८७.८६) 'वणे' गाहा (८८-८६) तत्थ दिगिछापरी-15 सहे कुमारण उदाहरण, तत्थ गाहा-'उज्जेणि हस्थिमित्तो' गाहा (८९८५) तेणं कालेण तेणं समएणं उन्जेणीए नयरीए । हरिथमेतो नाम गाहावती, सो मतभज्जिते, तस्स पुत्तो हत्यिभूती नाम दारगो, सो तं गहाय पन्चतितो, ते अनया कयायि 31 उज्जेणीतो भोतकडं पत्थिता, अडविमज्झे सो खंतो पाए खयकाए विद्धो, सो असमत्थो जातो, तेण साहुणो वृत्ता-बच्चह 15 तुम्भेऽवि ताव णित्थरह कंतारं, अहं महया दुक्खेण अभिभतो, जति ममं तुम्भे वहह तो भन्जिहिह, अहं भत्तं पच्चक्खामि, निबंधेण ठितो एगपासे गिरिकंदराते भत्तं पच्चक्खाउँ, साधु पद्विता, सो खुट्टओ भणति-अहपि अच्छामि, सो तेहिं चला णीओ, जाहे दूरं गतो ताहे वीसंभऊण पच्चइए णियचो, आगतो संतगस्स सगासं, खंतएण भणितो-तुम कीस आगतो, इई मरिहिसि, दीप अनुक्रम [५०-५२]] [58] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||५१-५२/५३-१४|| नियुक्ति : [९०1८७-८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सत्राक [१] गाथा ध्ययने ॥५१ श्रीउत्तरा। सोऽवि थेरो वेयणत्तो तदिवसं चेत्र कालगतो, खुडगो न चेव जाणति जहा कालगतो, सो देवलोएसु उववण्णो, पच्छा तेण ओही | पिपासाचूर्णा 5 पउत्ता, कि मया दत्तं भुत्तं वा जाव तं सरीरगं पेच्छद, तं खुडगं च, सो तस्स खुइगस्स अणुकंपाए त चेव सरीरगं अणुपवि-18 परीषहः २ परीषहा ME सेत्ता खुडुगण सद्धिं उल्लवतो अच्छति, तेण मणितो-चच्च पुत्त ! भिक्खाए, सो भणति-कहिी, तेण भण्णति एते धवणणिग्गो का हादी पायवा, एतेसु तनिवासी पागवतो जे तव भिक्खं दाहंति, तहत्ति माणित्तुं गतो, धम्मलामेति रुक्खहेढेसु, ततो साल॥५४॥ कारो हत्थो निग्गच्छिउं भिक्खं देति, एवं दिवसे दिवसे मिक्खं गिण्हंतो अच्छति, जाव ते साधुणो तंमि देसे दुभिक्खे जाते ५ *पुणोवि उज्जेणिगं देस आगच्छंता तेणेव मग्गेण आगता वितिए संवच्छरे, जाव गता तं पदेसं, खुहगं पेच्छति बरिसस्स अंते, पुच्छितो भणति-खंतोऽवि अच्छति, गता जाव सुक्क सरीरगं पेच्छंति, तेहिं णायं-देवेण होइऊण अणुकंपा कएल्लिया होहिचि, खंतेण अहियासितो परीसहो, म खुड़एण, अहवा खुइएणवि अधियासितो, ण तस्स एवं भावो भवति जहाऽहं न लभेस्सामि भिक्खं तओ फलाई गिहिस्स, पच्छा सो खुडगो साधूहिं नीतो । दिगिच्छापरीसहो गतो। इदाणिं पिवासापरीसहो, 'ततो पुष्टो पिवासाए' सिलोगो (५१ सू०८६) ततो छुधापरीसहातो, अहवा भुत्तस्स संभवति पातुमिच्छा पिपालिसा ताए स्पृष्टः, परिगत इत्यर्थः, दुगुंछत्तीति दोगुंछी, अस्संजमं दुगुंछती, लद्धो संजमो जेण स भवति लद्धसंजमः, पठ्यते च लज्जसंजते 'लज्जा एव संजमो, लजाते वा असंजमं काउं, तया लञ्जया संजमतीत्यर्थः, 'सीतोदगं न सेवेज्जा' सीतोदर्ग नाम अफासुगं, सेयणापाणाधोयणाभिसेयणादि, विगतजी, विगतजीबंपि एसणीयं चरेदिति ॥ अवस्था गृयते 'छिन्नावानेसु पंथेसु ' सिलोगो (५२ सू०८६) आपतत्यनेनेत्यापासः तेसु छिन्माचातेस, निरंतराम्यानेष्विल्पर्यः, अत्यर्थे तरतीत्यातुरः, ५२|| AAAAAEE दीप अनुक्रम [५३-५४] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किञ्चित् स्खलना दृश्यते, सूत्रांक-५१ द्विवारान् अलिखित [59] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] | गाथा ||५१-५२/५३-५४|| नियुक्ति: [९०/९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: पिपासा गाथा ||५१ ५२|| श्रीउत्तरा० सुष्टु पिवासा सुपिवासा यद्यपि जाताऽस्य, तेन तु छिमावातेसु पंथेसु कृष्णया परिपुष्यते मुखं, तथाप्यसौ परिसुफमहो दणिो । चूणौँ शुष्क(प्य)ते स्म शुष्कः सर्वतः शुष्कमुखः परिशुष्कमुखः, बहिरंतश्चेति, दीयते दीनमान चा दीनं, न तो तृष्णां तितिधन , सहमाम : २ परीषहा- इत्यर्थः, सर्वतो ब्रजते परिबजते, ग्रामे नगरे पथि वा सर्वत्र सर्वतः । जहा केण अहियासितो?, तत्र नदी इति दारं, उदाहरणध्ययने BI'उज्जणी धणमित्तो' गाहा (९०-८१), एत्थ उदाहरणं किंचि पडिक्षेण किंचि अणुलोमेण, उज्जेणी नगरी, तस्य धणमित्तो M णाम वाणियगो, तस्स पुत्तो सम्मधम्मो(धणसम्मो)णाम दारओ, सो घणमेचो तेण पुत्तेण(सम)पव्यइतो, अभया ते साहु ममण्ड वेलाए एलकच्छपहे पट्टिता, सोऽबि खुडतो तण्हाइतो मग्गतो जाते, सोऽवि से खंततो सिणेहाणुरागेण पच्छतो एइ, साहुणोऽवि पुरतो वच्चंति, अंतराचि नदी समावडिया, पच्छा तेण बुच्चति-एहि पुत्त ! इमं पाणियं पियाहि, सोवि खंतो नदि उचिण्णी, | चिंतेइ य-मणागं ओसरामि जावेस खुडओ पाणियं पियइ, मा मम सकाए न पाहिति, एगते पडिच्छद जाव खुडओ पत्ते णदी, ण पिबतित्ति, केई भणंति-अंजलीए उक्खित्ताए अह से चिंता जाता-पियामिचि, पच्छा चितेति-कहमह एते हालाहले जीवे पिविस्सी, ण पीयं, आसाए छिन्नाए कालगओ, देवेसु उववन्नो, ओही पउत्ता, जाप खड्गसरीरं पासति, तहि अणुपचिट्ठो, खतं ।। हालयति, खंतो एतीति पत्थितो, पच्छा तेसिं तेण देवेण साधूर्ण तिसिताणं गोउलाणि विउब्धियाण, साधूवि तासु वदियाई सु तकादीणि गेण्हंति, एवं वइयापरंपरएण जाव जणवयं संपत्ता, पच्छिल्लाए वइयाए तेण देवेण वेंटिता पम्हुसाविया जाणणा. माणिमित्र, एगो साध णियत्तो, पेच्छति बेढिय, पत्थि बइया, पच्छा तेण णायं सादेवत्ति, पच्छा तेण देवेण बंदिया साहणो, न खंतो, तं च सन्यं परिकहेति, भणति-तेण अहं परिचत्तो, तुम एतं पाणियं पिबाहिचि, जद मे तं पीतं होतं तो संसारं भर्मतो, पडिगतो, CRECRUSHBOX दीप अनुक्रम [५३-५४] [60] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||५५-५७/५५-५७|| नियुक्ति: [९१/९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक [१] गाथा ||५१५२|| श्रीउत्तरा। एवं अहियासतव्वं, पिवासापरीसहो गतो ॥ इदाणि सीयपरीसहो 'चरंतं विरयं लूहं सिलोगो ५६सू०८८) गामाणुगाम शीतचूणौँ । परीषहः २ परीपहा । माधम्म वा चरंत, विरतं अग्गिसमारंभातो गृहारंभतो वा, बादाभ्यंतरस्नेहपरिहारा, स्निग्धाहारस्य हि अभ्यंगितस्य वा नातिधीतं ध्ययने । RTA भवति, (अणेरिस) अनातीतं शीतं स्पृशति-अभिद्रवति एगता-सिसिरे, अहवा एगता रात्री, यद्यप्यहनि सीतेण परिताविज्जतोs- मावि, णातिवेलं विहन्नेज्जा, न प्रतिषेधे, वेला सीमा मर्यादा सेतुरित्यनर्थातरं, तामतीत्य वेला विहन्येत-विविधैः प्रकारैः हन्येत, | ॥५६॥ यद्यपि शरीरतो विहन्येत अप्रावृतत्वात तहाविण विद्दण्णज कंपनपनादिभिः, पासयति पातयति वा पापं, दर्शनं दृष्टिः,पापे यस्य । दृष्टिः स पापदिट्ठी, योऽभियोगं मन्यते, अविदितपरमार्थत्वात सः,न पापरष्टिः, संसारसद्भावदर्शनात् न शीतादुद्विजते,इदं हि शीतं 8 सकामस्य सहनीयं, (अकामेन) नरकेप्वपि, काश्यपेनोच्यते चान्यथा'णातिवेलं मुणी गच्छे, सोचाणं जिणसासणं' जिनानां शासनं जिनशासनं तत् जिनशासनं श्रुत्वा, तत्र हि विचित्रसंसारस्वभावं नरकेषु अतिशीतवेदना, तथा तियक्ष्वपि निष्परित्राणेन | शतिान्यनुभूतानि, नो चैवं कदाचिदपि चिंतयति-'ण मे ति णिवारणं अस्थि सिलोगोत्५५सू०८८) बियते येन तद्वारणं नियतं | निश्चितं निपुणं वा वारणं निवारणं प्रावरणमित्यर्थः कंबलालिया, छवित्राणाय भविष्यति ततोऽपदिप्य(श्य)ते-छविखाणं न विद्यते | छयति छिद्यते वा छवि त्वगित्यर्थः, असौ हि शीतोष्णादीनां ग्राहिकेतिकृत्वा न शीतत्राणाय,तदेवमत्राणः अशरणच शीतवातानुगतः र अहं तु अग्गि सेवामि, अहं तु अनुमनार्थे संप्रेषणे वा, किमिदानी करिष्यामि अत्राणो अशरणश्च । तदिदानिमग्गि सेवामि, I|॥५६॥ इति भिक्खू ण चिंतए, अत्रोदाहरणं, लेणंदि दारं, तत्थ गाहा 'रायगिहंमि वयंसा' गाहा (९१-८९) रायगिहे। नगरे चत्तारि वयंसा वाणियगा सहबतिया, ते भदपाहुस्स अंतिए धर्म सोच्चा पब्वइया, ते सुत्तं बहुं अज्जिता अण्णया दीप अनुक्रम [५३-५४] [61] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||५५ ५७|| दीप अनुक्रम [५५-५७] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [२] मूलं [१... ] / गाथा ||५५-५७/५५-५७|| निर्युक्ति: [९१/९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण ॥ ५७ ॥ कयाति एगल्लविहारपडिमं पडिवना, ते समावतीए विहरंता पुणोवि रायगिहं नगरं संपत्ता, हेमंतो बट्टति, ते य भिक्खं काउं ततियाते पोरिसीए ( निग्गता ) तेसिं वे भारगिरिंतेण गंतव्वं, तत्थ पढमस्स गिरिगुहाबारे चरिमा पोरिसी ओगाढा, सो तत्थेव २ परीषाठितो, चितियस्स उज्जाणे, ततीयस्स उज्जाणसमीवे, चउत्थस्स णगरम्भासे चेव, तत्थ जो गिरिगुहन्भासे चैत्र तस्स निरायं सीयं, ध्ययने ४ जो सम्मं सहंतो खमंतो य पढमजामे चेव कालगतो, एवं जो णगरसमी सो चत्थे जामे कालगतो, तेर्सि जो नगर| म्भासे तस्स नगरुम्हाए ण तहा सीतं, तेण पच्छा पच्छा कालगता, ते समं कालगता, एवं समं अहियासेयव्यं जहा तेहि चहिं अहियासियं, सीयपरीसहो गतो । सीयपडिपक्खे उण्हं, तदेव उच्यते- 'उसिण परितावेण सिलोगो (५६ सू० ८९) उपतीत्युष्णं समयकृता वा उसिणमिति (संज्ञा ), उष्णाभिधानमेव, सर्वतः तापः परितापः, बाह्याभ्यंतर इत्यर्थः, 'उवीरं तावेइ रवी रविकर परिताविता दहद भूमी । सव्वादो परदाहो दसमल परिगंतगा तस्स ॥ १ ॥ तृष्णया च सम्बंगितो दाहो परि दाहो, तर्जितो भत्सितः स्यात् - उष्णं कस्मिन् काले भवतीत्युच्यते-' घिनु परितावेणं ' प्रसत इति ग्रीष्मः धिंसु वा देशतः समयतो वा स्यात्, किमत्रापि, उक्तं येन ग्रीष्मे विशिष्यते ?, उच्यते, शरदिव तस्मिन् ग्रीष्मे शरदि वा उष्णपरितापितः 'सातं णो परिदेव' सब्बैज्जं सातमिति सातं, परिदेवनं क्रन्दनं स्थानं आह्नानमित्यर्थः, कथं मे सातं स्यात्, शीतसुखमित्यर्थः, | शीतलो वा कालः स्यादिति । ' उण्हाभि ' सिलोगो ( ५७ सू० ९० ) दहति तेनेत्युष्णं तेण उण्दाभितप्तेन, मेहया धावतीति मेधावी, स्नायते येन सर्वाङ्गिकं स्नानं अभिमुखं प्रार्थयेत् (भ)शं वा अर्थयति, देशस्नानमपि प्रासुकेनांभसा, 'गायं नो परि सिंजा ' सर्वतः सिंचति, गोव वीएजा हस्तवस्त्रपात्रादिभिर्ण वीएज्जा य अप्पगं, जहा केण अहियासि तत्थ सिलाह [62] उष्ण परषहः ।। ५७ ।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||५५-५७/५५-१७|| नियुक्ति: [९१-९२/९१-९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सत्राक [१] गाथा ||५५ الواو श्रीउत्तरासारणस्स इमा उदाहरणगाहा-- 'तगराइ अरिह' सिलोगो (९२-९०) तगरा णगरी, तत्थ अरिह मित्तणाम आय- उष्ण| रिओ, तस्स समीचे दत्तो नाम वाणियओ भद्दाभारियओ पुत्तेण य अहंभगेण सद्धिं पच्चइतो, सो तं खुड्डगं ण कइयाइ II लापरीपहा २ परीषहाध्ययने | भिक्खाए हिंडावेति, पढमालियादीहि किमिच्छिएहि पोसेति, सो सुकुमालो, साहूण अप्पत्तियं, ण तरति किंचि भासिउं, || अन्नया सो खंतो कालगतो, साधुहिं तस्स दो तिमि व दिवसे दाउं भिक्खस्स उत्तारिओ, सुकुमारसरीरो सो गिम्हे उवरि ॥५८॥४ाहेढा डझंतो पासे य, तहाभिभूतो छायाए पौसमंतो पउत्थवइयाए वणियमहिलाए दिट्ठी, उरालसुकुमालसरीरचिकाउं तीस || तहिं अज्झोववातो जातो, चेडीए सद्दाविओ, 'किं मग्गसिचि', भिक्खं, दिना से मोयगा, पुच्छिओ-कीस तुमं धर्म करेसि ?, भणति-सुहनिमित्तं, भणति-तो मए चव समाणं भोगे झुंजाहि, सो उण्हेण तज्जितो उवसग्गिजतो य पडिभग्गो, भोगे मुंजति, सो साहूहिं सबहिं मग्गिओ, न दिडो, अप्पसागारियं पविट्ठो. पच्छा से माता ओमत्तिया जाता, पुत्तसोगण, णगरं भमति अरहण्णय बिलवंती, जहिं पासति तं तहिं सव्वं भणति-अस्थि ते कोइ अरहनतो दिट्ठो, एवं विलवमाणी भमति, जाव अन्नया तेण पुत्तेण ओलोयणगतेण दिवा, पच्चभिण्णाता य, तहेव उत्तरित्ता पाएमु पडितो, तं पेच्छिऊण तहेव वीसत्थचित्ताका जाता, ताए भण्णति पुत्त ! पब्बयाहि, मा दुग्गतिं जाहिसि, सो मणति-ण तरामि काउं संजर्म, जइ परं अणसणं करेमि, एवं करेहि, मा य असंजमो भवाहि, मा संसार भमिहिास, पच्छा सो तहेव तत्ताए सिलाए पाओवगमणं करेति, मुहत्तेण सुकुमाल- ॥५८॥ सरीरो सो उपहेण विराओ,पुव्वं तेण णाधियासितो पच्छा अहिआसीओ,एवं अधियासितम्ब,उसिणपरीसहो गती।इदाणि दंसा 15 मसगपरीसहो 'पुट्ठोय दसमसएहि' सिलोगो (५८ सू०६१) स्पृष्टत्वात् स्पृष्टः, सहारिभिः समरं, वक्ष्यति 'नागो व' चि, दीप अनुक्रम [५५-५७] [63] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||५८-५९/५८-५९|| नियुक्ति: [९३/९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: दशमशकपरीषहः [१] गाथा IY % ॥५८ ५९|| ला श्रीउत्तरा०व्यवहिताभिधानमेतत् , महान्तं मुनतीति महामुनिः, 'नागो संगामसीसे वा' नास्य किंचिदगम्यं नागः, समं प्रात इति चूर्णी संग्रामः, शीर्यत इति शिरः श्रिताः तस्मिन् इति प्राणा वा शिरा, शवत्यसौ युद्धं मुंचति वा तामिति शूरः, यथाऽसौ नागः सौर २ परीपहा- शरैरभिहन्यमानः शूरो वा योधः परानभिहंति, परे नाम शत्रवः, एवमसामपि दंशमशकैः तुद्यमानोऽपि मोहशत्रु विजिगीषुः ध्ययने तान गणयति, अन्येऽपि युकामत्कुणादयोऽवगृह्यन्ते, स तेस्तुचमानोऽपि न संतसे ण वारेज्जा' सिलोगो (५९ सू०९.)। ॥५९॥ संत्रसति अंगानि कंपयति विक्षिपति वा, न चैव हस्तवखशाखाधूमादिभिस्ताभियारणोपायैर्वारयति, न चैषामसंज्ञित्वात् आहारकांक्षिणां, मुंजमानानां मच्छरीरं साहारणं, यदि भक्षयन्ति किं ममात्र प्रद्वेषोत्पाते?,ण 'मणपि ण पदोसए' अपि पादार्थादिषु, किमुपायेन वा नियारणमभिधाते?, 'उहण हणे पाणे' उचेहा णाम उपेक्षा, न वारयति खाद्यमानं शरीरं, हणे पाणे 'हन Mहिंसागत्योः प्राणा अस्य संतीति प्राणी, अतस्तेन प्राणे न हिंसेत इत्यर्थः, ते हि केवलमेव मांसशोणीतं भुजते, न मामात्म द्रव्यं वा, अत्रोदाहरणं पथेत्ति, अत्रोदाहरणगाहा-'चंपाए सुमिणभद्दा' गाहा (९३-९२) चंपाए नयरीए जियसत्तुस्स 13 रनो पुत्तो सुमणभद्दो जुवराया, धम्मायरियस्स अंतीए धम्म सोऊण निविनकामभोगो पब्बइतो, तहशेव एगलविहारपडिम | लिपडिवनो, पच्छा हेहाभूमीए विहरंतो सरयकाले अडवीए पडिमागतो, रति मसएहिं खअति, सो ते ण पमजति, संमं सहति, रति पियमाणितो कालगतो, एवं अहियासेतब्ब, बंसमसगपरीसहो गतो । इदााणि अचेलगपरीसहोऽवीय इति, अचेल-अचेलगत् परीसहतीति अचेलगपरीसहो, तस्य हि स्वयमेव अचेलगत्वमभ्युपगम्य नैवमुपपद्यते-' परिजुम्नेहि वत्थेहिं 'सिलोगो (६०सू ९२) वस्त्र इति यत्रं परि सर्वतोभावे सर्वतो जीर्णानि परिजीर्णानि, परिभुज्यमानानि परिजुमाणि से बस्थाणि, अतो तेहिं परिजुन्नेहि, दीप ||५९ ॥ अनुक्रम [५८-५९] [64] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [...] / गाथा ||६०-६१/६०-६१|| नियुक्ति: [९४-९७/९४-९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: - गाथा % ६०. श्रीउत्तरा०होकखामित्ति अचेलए, तस्स एवं अधिति भवति-परिजीणेषु सत्सु अचेलगो इदाणि भविस्सामित्ति, यच्च दुःखमचेलकत्वं, कथ- अचेलकचूणा II मिदान शिष्यो इमं दिद्रुतं अंगीकरतुं अहियासेज्जा, यथा यस्य वित्तं नास्ति स हि न विचनिमित्तरुपद्रवर्षाध्यते, उक्तं हि परीपहा २ परीषहाध्ययने 'परिग्रहेष्वप्राप्सनष्टेषु कांक्षाशोकः अपि च-'कतिया बच्चति सत्थो? किं भंड?' कत्थी केत्तिया भूमी' । को कयविकय-12 | कालो णिविसति किं कहि? केण? ॥१॥ अयं चापरो गुणः स्वयमेवाचेलत्वे प्रत्यागते 'अथवा सचेलगो सोमि' ति,13 ॥६ ॥ तस्य हि अचेलकत्ये सति न कदाचित् अप्युपपद्यते-अहं वस्त्रवान् शोभामीति, अन्यानि वा शोभनतराणि वस्त्राणि मृगयिष्ये यैः शोभिष्ये, इत्येवमसी भिक्षुर्न चिंतयात, उक्तं च-पंचहि ठाणेहिं संमं परिमपच्छिमाणं अरिहंताण भगवंताणं अचेलगे पसरथे भवति || मातं. अप्पा पडिलेहा१ विसासिए रूपरतवे अणुमये श्लाघवे पसत्थेविपुले इंदियणिग्गहे५ । अतिप्रसक्तार्थनिवृत्तये व्यपदेश्यमाने मा भूदपर्याप्तोऽपि अचेलकत्वं करिष्यतीत्यर्थः ।। 'एगता अचेलगे भवति' सिलोगो (६१ सू० ९२) एगता नाम जदा ५ जिणकप्पं पडिवज्जति, अहवा दिवा अचेलगा भवति, ग्रीष्मे वा, वासासुवि वासे अपडिते ण पाउणति, एवमेव एगता अचेलगो का भवति, 'सचेले यावि एगता' तंजहा-सिसिररातीए वरिसारचे वासावासे पडते मिक्खं हिंडते, पठ्यते च 'अचेल ओ सयं। होई अचेलओ स्वयमेव, नाभियोगत इत्यर्थः, अहवा यदाऽस्य चीराण्युत्पद्यते तदा सचेलको जीणे अलभ्यमाने वा अचेलका, सर्वथाप्यचेलकत्वमेव स्यात्, कमालंबनं कृत्वाञ्चलकत्वेन सहितः, उच्यते, 'एयं धम्महितं णच्चा, 'णाणी णो परिदेवए ॥६ | एतदिति यदुपदिष्टं धर्मस्य हिताय, न धर्मापरोधायेत्यर्थः, धम्मोवग्गहकार णाऊणं, पाणी णो परिदेवए, पाणिग्गहणं विदित-IN ला परापरत्वान्न लज्जते, प्रायस्तिर्यञ्चो नग्रा, नारकास्तु नना एव, न हि ते लज्जते, न चैवं(पां)शीतवातपरित्राणानि संति पासांसि, % % दीप अनुक्रम [६०-६१] % [65] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||६०-६१/६०-६१|| नियुक्ति: [९४-९७/९४-९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: अरति श्रीउत्तरा PM मयापि च नारकतिर्यग्भवभयादेच विद्यमानान्येव स्वयमपोहितानि इत्यतः शीतवातादिभिरभिहन्यमानोऽपि णाणी नो परि देवए, परिदेवणं णाम अहं अचेलो सीएण उण्हेण दंसेहिं वा पीडिज्जामि, जिण्णाणि पोचाणि, अतो अण्णाणि भविस्सति,दा परीपहः २ परीपहा- एत्थ उदाहरणं महल्लेति दारं, सोवि अज्जरक्खिअपिता तस्स पुण आदी 'वीयभयं देवदत्ता' 'दहण चेडिमरणं' 'माया य ध्ययने सदसोमा सीह गिरि महगुत्ते (९४-९७।९६) चत्वारि गाहाओ जियपडिमाउप्पत्ति कहेऊण दसपुरुष्पची अज्जरक्खितपब्वज्जा ॥६॥ | दिद्विवाताधिगमो जाव अज्जरक्खितेण पिया पवापिओ जाव चोलपट्टगो कओ,तेणं पुर्व अचेलगपरीसहो णाधियासिओ, पच्छा | अधियासिओ, अचेलगपरीसहो गती । इदाणि अरतिपरीसहोगामाणुगाम रीयंतं'सिलोगो(६२सू०९७)असते बुद्धयादीन गुणानिति ग्रामः, प्रामादन्यत् पथि अनुलोम वा गच्छतो अनुग्रामः, अगा वृक्षाः तैः कृतमगारं नास्य अगारं विद्यत इत्यनगारः तं पुण| अणगारं अकिंचन' नास्य किंचनं सोऽयमकिंचनः निष्कांचनो वा,स हि सुखेन रीयति अप्रतिबद्धः गृहबानपि, सकिंचन दुःखं रीयति, उदाहरणं तच्चन्त्रिकेतओ,आयरियं उद्दिस्स पच्छतो गच्छमाणेण नउलओ दिडो, सो तेण गहितो,भयतः आचार्य समेत्य प्रवीति-विभमि पच्छतो, पुरतो गच्छामि, उज्म भयंतीत्युक्तः, पुरतो भिति, आयरियसमीपत्थो विभेमीत्याह, उज्झ भयामिति पुनरप्युक्तः, 11 तस्य धर्मसंज्ञा सुज्झिता, दूरतोशितः, आचार्येणोक्ता-किमिदानि न विभोस !, जं तुरंतो ता गच्छसि, सो मणति-उज्झितं | मे भयं, इत्येवं अकिंचणो मुहं विहरति । तमेवं परीयंत यदि नाम अरती अणुपविसज्ज, पश्चाद्धि अरतीत्यनु, विभ्रतामिति संजमे IN अरर्ति, तितिक्खे णाम सहमानस्तां परिव्रजेत, अरतस्य हि नापि धर्मों, नो तद्वतपि नरः शक्तो व्यवस्थापयितुं धम्मे इति अतो ल धम्मचिप्पकारिणी मत्वा तां' अरतिं पिट्टतो किच्चा' सिलोगो (६३ सू०९९) पृष्टतो नाम दूरतः उज्झित्ता, विरतवान् बाबस्वस्त दीप अनुक्रम [६०-६१] ESCUBREGIS - [66] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥६२ ६३|| दीप अनुक्रम [६२-६४] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२] मूलं [१...] / गाथा ||६२-६३/६२-६४|| निर्युक्ति: [ ९८-९९ / ९८-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउचरा०) चू १२ परीषदाध्ययने ॥ ६२ ॥ विरतः, विरतस्य हि सतः कुतोऽरतिः संयमे स्यात्, आत्मैवात्मानं रक्षतीत्यात्मरक्षितः, किमभिप्रेतं ?, आत्मसमुत्था दोसा अरतिः, आत्मनि च वैराग्यमस्योत्पन्नं किं वारतिं प्रयोजयेत्, अरतिः स्यात्कुचरतः तदिदमुच्यते-' धम्मारामे ' अत्यर्थं रमति तस्मिन् इत्यारामः धर्म एवाराम धर्मारामः, श्रुतभावनादध्ययनादिषु, आरंभ्यत इत्यारंभः, आरंभो नास्तीति कृत्वा, कृत्येष्वारंभवतां रतिर्भवति, 'उवसंते मुणी ' उपेत्य शांतः उपशांतःप्रशांतः, अकषायवानित्यर्थः, अत्रोदाहरणं तापसेन, तत्थ गाहा-'अयलपुरे जुबराया' (९८-९९ ) अयलपुरं नाम अहिद्वाणं, तत्थ जियसत्तु राया, तस्स पुत्तो जुवराया, सो राहायरियाण अंतिए पब्वइतो, सो य अण्णया विहरंतो गतो तगरिं णगरि, तस्स य राहायरियस सज्यंतेवासी अज्जराहखमणा णाम उसेणीए विहरंती, तो आगता साहुणो तगरं गता राइस्लमीवं, पुच्छिता णिरूवसग्गं ते भति- रायपुचो पुरोहियपुत्तो य बाहेति तस्स जुवरायापव्वतियगस्स सो रायपुत्तो भत्तिज्जतो भवति मा संसारं भमिद्दितित्ति आपुच्छि - ऊण आयरिए गतो उज्जेणिं, भिक्खवेलाए उग्गाहऊण पट्टितो, आयरिएहि भणितो- अच्छाहि, सो भण्णति-ण अच्छामि, णवरं दाएह तं पडिणीतं घरं, चलगो भणितो- वच्च दाएहि, तेण दाइतं, सो तत्थ गतो, बीसत्थो य पविट्ठो, तत्थ ते दोऽवि अच्छंति, ते तं पेच्छिऊण उडिता, तेणवि महासदेण धम्मलाभियं, ते भांति अहो लडं, पब्बइगो अहंतेण (आ) गतो, चंदामति, भणति तेआयरिया ! तुभे गायितुं जाणह, तेण भणियं आमं जाणामो, तुम्हे वाएद, ते आढत्ता, जाव ण जाणंति, तेण भष्णतिएरिसगा चैव तुम्मे कोलिया, ण किंचिवि जाणह, ते रुट्ठा उद्धाइया, तेण घेत्तुं तेसिं णिजुद्धं जाणंतएण सच्चे संधी खोहिता, पढमं ता पिट्टियता, ने हम्मता राडिं करेंति, परियणी जाणइ - सो एस पञ्चद्दओ हम्मतो राडिं करे, सोऽवि गतो, पच्छा तेहि [67] अरवि परीषदः ॥ ६२ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥६२ ६३|| दीप अनुक्रम [६५-६६] अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||६२-६३/६५-६६|| निर्युक्तिः [९८-९९/९८-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण २ परीपहा ध्ययने ॥ ६३ ॥ “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अ दिट्ठा, गवि जीवंति, गवि मरंति णवरिं निरिक्खति एकमेकं दिए, पच्छा रण्णो सिहं पुरोहितस्स य, जहा इत्थ उ कोइ पव्वइतो, तेण दोवि जणा विसंखलिऊण मुका, पच्छा राया सब्वचलेण आगओ, पव्वइतगाण मूलं गतो, सोवि साहू एगपासे अच्छति परियतो राया आयरियाणं पादेर्हि पंडितो, पसाय मावज्जह, आयरिएहिं मण्णति अहं ण याणामि, महाराय ! एत्थ एगो साहू पाहूणगो आगतो, जति परं तेणं होज्जा, राया तस्स मूलं समागतो, पञ्चभिण्णातो य, ततो तेण साहुणा भणितो- धिरत्थु ते शयत्तणस्स, जो तुम अप्पणो पुत्तभंडाणवि णिग्गदं ण करेसि, पच्छा राया भणति- पसायं करेह, मणति-जति परं पव्ययंति दोन्हं मोक्खो, अन्नहा नस्थि, रायणा पुरोहिएण य भण्पति एवं होउ, पन्चयंतु, पुच्छिया भणति - पब्ययामो, पुब्वं लोओ कओ, पच्छा मुका, पव्वइया, सो य रायपुत्तो निस्संकिओ चैव धम्मं ( कुणति ) पुरोहितपुचस्स पुण जातिमतो, अम्दे य मड्डाए पश्वाविया, एवं ते दोवि कालं काऊण देवलोगे उचचत्रा, इतो य 'कोसंबीए सेट्ठी' गाहा ( ९९ - ९९ ) कोसंबीए नयरीए तावसो नाम सेड्डी, सो मरिऊण निययघरे सूयरो जातो, जाईसरो, ततो तस्स चैव दिवसगे पुत्तेहिं मारितो, पच्छा तहिं चैव घरे उरगो जातो, तर्हिपि जाइस्सरो जातो, तत्थवि अंतो घरे मा खाहितित्ति मारितो, पच्छा पुणोवि पुत्तस्स पुत्तो जातो, तत्थऽवि जाई सरमाणो चिंतेड़ कई अहं अप्पणो सुन्हं अम्मति बाहरीहामि, पुतं वा तार्ततिः, पच्छा मूयत्तणं करेति, पच्छा महन्तीभूतो साधूणं अलीणो, धम्मोऽणेण सुतो, सायगो जातो, इतो य धिज्जाइय देवो महाविदेद्दे तित्थगरं पुच्छति किमहं सुलहबोदिओ दुन्नभवोहियति, ततो सामिणा मणिओ-दुल्लभवोहियोऽसि, पुणोवि पुच्छति कत्थाहं उववज्जिस्सामि, भगवया मण्णति-कोसं बीए मूयस्स भाया भविस्ससि, सो य मूओ पव्यइस्पति, सो देवो भगवंतं वंदिऊण गतो सूयगस्सगार्स, तस्स सुत्रहुयं दव्य [68] अरति परीषदः ॥ ६३ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||६२ ६३|| दीप अनुक्रम [६५-६६] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||६२-६३/६५-६६ || निर्युक्तिः [९८-९९/९८-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : २ परीपहा ध्ययने ।। ६४ ।। श्री उत्तरा० ॐ जातं दाऊण भणति अहं तुम्भ पिउघरे उववज्जिस्सामि, तीसे य डोहलओ अबहिं भविस्सति, अनुगे य पव्वते मया अंबगो चूर्णी | सदापुप्फफलगो कतो, तुम तीए पुरओ णामं लिहिज्जासि जहा तुब्भं पुत्तो भविस्सति, जब तं मम देसि तो ते आणामि अंबफलाणिति, ततो ममं जातं संतं तहा करेज्जासि जहा धम्मे संयुज्यामित्ति, तेण पडिवण्णे गतो देवो, अण्णया कथवयदिवसेसु चहऊण तीए गन्मे उबवनो, अकाले अंचडोहलो जातो, स मृगो णामगं लिहति, तहेब कहेइ, ताए भष्णति दिज्जति, तेण आणीताणी अंचफलाणि, विणीतो डोहलो, कालेण दारगो जातो, सो तं खुडलयं चेव होतं साधूण पाएसु पाडेति, सो धाहाओ करेति ण य चंदति, पच्छा संतपडिततो भूयमो पचइओ, सामनं काऊथ देवलोमं गतो, तेण ओही पउचा, जाव णेण सो दिट्ठो, पच्छा णेण तस्स जलोदरं कतं, जेण ण सकेति उडेडं, सव्ववेज्जेहिं पच्चक्खातो, सो देवो डोम्बरूचं काऊण घोसंतो हिंडति--अहं वेज्जो सब्ववाही समेमि, सो भणति मम पोट्टं सज्जावेहि, ( जइ समं वयसि ) तेण भण्णति वच्चामि तणे सज्भवितो, गतो तेण सद्धिं तेण तस्स सत्यगोसगो अलवितो, सो ताए देवमायाएऽतीव भारितो, जाव य पव्वतियगा एमि 'पदे से पद्धति, वेज्जेण सो भण्यति-जति पव्वयसि तो तं सुयामि, सो तेण भारेण परिताविज्जतो चिंतेति वरं मे पञ्चइउं, भणति पव्वयामि, पव्यइतो, देवे गते णाचिरस्स उप्पय्यइतो, तेण देवेण ओहिणा पेच्छिऊण सो चेव से पुणोऽवि वाहि कओ, तेणेव उवाएण पुणोवि पव्याविओ, एवं एकसिं दो तिन्नि वागओ पत्रइतो, तइयावाराय गच्छति देवो तेणेव समं, तणभारं गहाय पलियन्तयं गामं पविसति तेण भण्णति-किं तृणभारएण पलित्तं गामं विससि १ तेण भण्णइ-तुमं कई कोहमाणमावालोभसंपलितं गिहवासं पविससि, तहावि ण संबुज्झति, पच्छा पुणोऽवि दोषि जणा गच्छेति णवरं देवो अडवीए उप्पद्देण पट्टितो, तेण भष्णति [69] अरवि परीषदः ॥ ६४ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [...] / गाथा ||६२-६३/६५-६६|| नियुक्ति: [९८-९९/९८-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सत्राक [१] गाथा ध्ययने ॥६२ श्रीउत्तरा तुम कई मोक्खापदं मोजूण संसाराडपिं पविससि , तहाविण संबुज्झति, पुणो एगमि देवकुले वाणमंतरो अच्छि(च्चिाओ चूणोंलहिहाहुत्तो पडति, अहो वाणमंतरो अधण्णो अपुण्णो य जो उपरिहुत्तो कोच्चिय अतो य हेटाहुत्तो पडिति, तेण देवेण भण्यति- परीपहा २ परीषहा- अहो तुमंपि अहलो जो पराहुलो ठवितो अच्चणिज्जे य ठाणे पुणो पुणो उप्पव्ययसि, तेण भण्णइ कोऽसि तुम , तेण मूबरूवं दंसियं, पुथ्वभवो य से कहितो, सो भण्णति-को पच्चओ जहाऽहं देवो आसी १, पच्छा सो देवो तं गहाय गतो यहूं पन्धयं सिद्धाययणकूडं च, तत्थ तेण पुच्वं चेव संगारो कहल्लओ, जहा जति जहं ण संयुज्झज्जा तो एयं ममच्चयं कुंडलजुयलं सनामसाकियं सिद्धाययणपुक्खरणीए दरिसिज्जासि, तेण से तं दसियं, सो त कुंडलं सनामक पेच्छिऊण जातिस्सरी जातो, संयुद्धा पब्बइता, संजमे य से रती जाता, पुत्वं अरती आसी, पच्छा रती जाता, अरतिपरीसहो गतो। इदाणि इत्थिपरीसहो, स्यारिकसमुन्था अरतिः ?, उच्यते, स्त्रीसमुत्था, 'संगो एस मणुस्साणं' सिलोगो (६४ सू०१०३) सज्यते इति संगः, एष इति प्रत्यक्षीकरणे, एप एव सर्वसंगानां संग इति, कश्चासौ !, 'जाउ लोगंसि इस्थितो' जा इति भनिर्दिष्टस्य निर्देश, लोगो | तिविहो- उद्धलोगो अहोलोगो तिरियलोगो, अस्मिन् लोगे इत्यिओ तिरिक्खजोपीओ मणुस्सीमो देवीओ, जस्सेया परि&णाता नाम लहुसियाए "एता हसंति च रुदंति च अर्थहेतोविश्वासयति च परं न विश्वसंसि । तस्माचरेण कुलशीलसमवितेन, नार्यः स्मशानसुमना इव वर्जनीयाः ॥ इति, समुद्रवीचीचपलस्वभावाः, संध्याभ्ररेखा व मुहूर्तरागाः। खियः कृतार्थाः५ ॥ पुरुष निरर्थकं, निपीडितालक्तवत् त्यति ॥२॥" एवं जाणणपरिणाए परिजाणिऊण चत्ता पच्चक्खाणपरिणाए इत्यतो जस्सेता परिण्णासा, उभयथावि परिण्णाता, 'सुकडं' सुक्खं क्रियत इति सुकडं, सुट्ट वा कयं सुकडं, निष्ठार्थग्रहणं परिजाणिऊण 65-16 दीप अनुक्रम [६५-६६] Rites [70] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||६४-६५/६५-६६|| नियुक्ति: [१००-१०५/१००-१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: २परी गाथा xx ॥६४६५|| श्रीउत्तरा० सव्यसंगपरिमुकस्स, किंच समणतणस्स दुकरी, समणभावं सामण्णं ।। 'एवमाताय मेधावी' सिलोमो, (६५ सू० १०६)। तपरीषहः एबमनेन प्रकारेण एवमाशाय-एवमुपलभ्येत्यर्थः, पठ्यते च-'एचमाधाय मेधावी' एतत्परिक्षानमादायेति जहा एया लहुस्सिगा | इत्यादि, पंकण तुल्या पंकभूता जहा पंके णिमज्जते मच्छंते, एवमेता बालिशाः सक्ताः संसारपके णिमजते, 'णो ताहिं विनिध्ययने हन्निज्जा चरेज्जत्तगवेसए, घातो नाम तासु अभिस्संगो तनिमिचो वा धम्मपरिचागो, चरे इति अनुमतार्थे, आत्मानं ॥६६॥ गवेसयतेचि अत्तगवेसए, कथं ते आत्मा न संसारायेति, कथं वा में चरित्रात्मा तामिन हन्येत इति । अत्रोदाहरणं-'पडि-4 माए मूलभवो वत्त' गाहा 'उसभरं' पंच गाहाओ (१००। १०४-१०६) भाणियवाओ, एतं च अक्कापाणयं, जक्खाए. थूलभद्दो गणियाघरे बुच्छो, सेसा तिमि साधू. एगो सप्पवसहीए एगो चग्धवसहीए एगो कूचतडे, जाव कंबलरयणं अचंदणियाए छूट, जहा थूलभदेण अहियासियं तहा अहियासेयध्वं, ण जहा तेण साहुणा न अधियासियं तहा णाहियासेयव्वति इत्थिपरीसहो गतो । इवाणिं चरियापरासहो 'एग एव' सिलोगो (६६सू० १०७) एगो णाम रागहोसरहितो, अहवा |एगो 'जणमझेवि वसंतो' गाहा ( ) एगे पुण पदति ' एग एगो चरे लाढे' एगो नाम असहायवान्, एगस्थविहारी, रितियमेकग्रहणं अरागद्वेषवान्, चरेदित्यनुमतार्थे, लाढे इति फासुएण उग्गमादिशुद्धण लादेति, साधुगुणेहि वा लाढय इति । ज्ञापयतेति, अभिमुखं भूत्वा सोढवान्, न तैरभिभूत इत्यर्थः, कुत्र चरेत?, किमरण्ये, नेत्युच्यते-'गामे वा नगरे या' असति ॥६६॥ बुद्धयादीन् ग्राम इति, नात्र करो विद्यते इति नगरं, नयन्तीति निगमास्त एव नैगमाः, नानाकर्म शिल्पजातय इत्यर्थः, ते यत्र संति तं निगम, राज्ञः धानी राजधानी, स्याद् बुद्धिः - किमरष्णे न वसतीति?, उच्यते, लोकायत्ता हि तस्य प्रासुकाहारवृत्तिः, E-%A5%25 दीप अनुक्रम [६५-६६] [71] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||६६ ६७|| दीप अनुक्रम [६७-६८ ] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [२], मूलं [ १... ] / गाथा ||६६-६७/६७-६८ || निर्युक्तिः [१०६-१०७/१०६-१०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण ॥ ६७ ॥ सेन जनपदे वसति, तत्रापि वासो वसन् ' असमानो घरे भिक्खु ' सिलोगो (६०सू० १०७) असमान इति असमादि(नि) कः, असंनिहित इत्यर्थः, यथा असमानिकत्वात् गृहवान्, तस्स बद्धमणी ण वहति, एवं सोऽपि जन्थ वसति तत्थ ण सडितस्स २ परीहा-पडियस्स वा उदंतं वहह, अहवा असमाण इति नो गृहितुल्यितः, न हि तदुदंतप्रवृत्ता मूर्च्छिताश्चास्मिन्, अथवा असमानः अतुल्यध्ययने विहारः, अन्यतीर्थिकः, परिग्रहो नामो उवस्सगस्सेव तदुपकारिणं या कोपादीनां धनधान्यस्य वा मूछी परिग्रह इतिकृत्वा यैः सह वसति तैः ग्राम्यैर्नगरैः प्रातिवेशकैः वा, तेसिं 'णेव कुज्जा परिग्गद्द' ममीकारमित्यर्थः, ग्रामादिष्वपि च वसन् नासने, गृहादीनामारामोपानादिषु 'असंसत्तो गिहत्थेहिं' असंसत्तो असंसक्त इत्यर्थः, गृहे तिष्ठतिर, कथंचिन्नाम आसन्नोपि वसन् तैर्न भावतः संसज्जेत, निकेतं गृहं नास्ति निकेतनमस्येत्यनिकेतः अणिययवासो वा अत्रोदाहरणं सीसे (ण) हिंडगेण, तत्थ गाहा, कोल्लयरे' गाहा ( १०६ - १०७ ) कोल्लयरे वत्थब्बो संगमथेरो आयरिओ, जंघावलपरिहिणो, दुम्भिक्खे न हिंडतो, तस्स सीसो आहिंडको दत्तो नाम, जहा पिंडनिज्जुतीए तहा वाच्यं एत्थ य तस्सायरियस्स गववसहिभागिस्स जयणाजुत्तस्स अच्छंतस्सवि एकहिं भावचरिया एव, जेण जुट्ठो, दत्तस्स पुण दव्यचरिया अविसुद्धा, जेण न जुट्टो, चरियापरीसहो गतो, इदाणिं निसिहियापरीस हो, तप्पडिवक्खेण णिसीहियत्ति वा ठाणंति वा एगहूं, तं तु तस्स साधोः कुत्र स्थाने स्याद, णिसीहियमित्यर्थ: : 'सुसाणे सुन्नगारे वा' सिलोगो ( ६८ सू० १०८ ) सुसाणं सुन्नागारं रुक्खस्स आसनं रुक्खमूले, एतागीअसहायगो रामदोसविरहिओ वा अकुक्कुओं निसीएज्जा, विविधं श्रासनं वित्रासनं । 'तत्थ से अच्छमाणस्स' सिलोगो ( ६६ सू० १०९ ) तत्थित्ति तस्मिन् सुसाणादिषु, उपसज्यंत इत्युपसर्गाः, विविधाः समस्ताः प्रत्येकं सोढा, अभिधारणा नाम [72] श्री परीषदः ॥ ६७ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७०-७१/७१-७२|| नियुक्ति : [१०८-१०९/१०८-१०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक सी परापहः गाथा ||७० श्रीउत्तरा०प्रार्थना, अभिमुखं वा धारयंतीति अभिधारणा, केचिनु पठंति-'उवसग्गभयं भवे स तैः प्रार्यमानो वझमाणो वा संका चूणा तीतो या गच्छेज्जा, संका अण्णाणतो देवं पेच्छेज्जा भावसका सा घेप्पति, ताए संकाए भीतो ण गच्छेज्जा, अत्रासंका, पस भापनीत्यर्थः, भयं, आसंकितं वा भयं, किमत्र भयं स्यात्, न बिभेति, भयं तु प्रत्युत्तममेव येनाभिद्रुतः स्यात. पलायति वा । ध्ययने विक्रोशति वा, एवं गावि हितोत्पत्तौ अणुपविसति, एत्थोदाहरणं- 'अगणि' ति, तत्थ गाहा-णिक्खतो गयपुरातो'। ॥६॥ गाहा (१०७-१०९) कुरुदत्ततो णाम इन्भपुत्ता, तहारूवाणं थेराणं अंतीए पन्वइतो, सो कयाए एगनविहारपडिमा पडिवो, साएतस्स गगरस्स अदरसामन्ते पोरसी ओगाढा, तत्व पडिम ठितो पचरे, ततो एकाओ गामाओ गावीओ साहिरिज्जतिओ तेणोगासेण णीताओ. कुडिया मग्गमाणा यागता पेक्खंता पदेण जाव साधू दिट्ठो, तत्थ दुवे पंथा, पच्छा। ते ण तेण जाणंति-कतरेण पंथण णीतातो, ते साहू पुच्छति-कयरेण पहेण गावीतो गीतातो', सो भगवं न वाहरति, तेहि रुडेहिं ण वाहरतीतिकाऊण तस्स सीसे मड्डियाए पालिंबंधिऊण चितआओ अंगारा घेतूण सीसे छूटा गया य, सोऽवि भगवं संमा सहति, तेण णिसीहियापरीसहो अहियासिओ, निसीहियापरीसहो गतो, इदार्णि सज्जापरीसहो'उच्चावयाहिं' सिलोगों 81(७० सू० ११०) उच्चा अवचाच, उर्द्धचिता उच्चा, उपचिता गुणैः उच्चत्तण वा, अथानेकप्रकारासु उच्चावयामु शेते तस्या-13 मिति शय्या भिक्खु थामवां णातियेलं विहणिज्जा, वेला सीमा सेतुमर्यादेत्यनान्तरं, अतिवलं विहणेज्जा, विविधं हन्यते विहन्यते, विघातो णाम जेण संजमजीवियाओ हन्यत, उच्चाए अहो इमा शीतला उतुक्खमा, अवचाए अहो इमा पावा सेज्जा & अऋतुक्खमा, एवं पावदिट्टि विहण्णति, पापदृष्टिः, अभियोगमित्र मन्यते, बारसमालंबा जति महो जस्सेसा पवाता वा दीप अनुक्रम [७१-७२] ॥६॥ [73] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७०-७१/७१-७२|| नियुक्ति : [१०८-१०९/१०८-१०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: परापहः [१] गाथा श्रीउत्तराणिवाता वा पतिरिका वा, एवं अवचितासु, उच्चासु त अहो मे मणुना सेज्जा, एवं पावदिहि विहण्णति । स एवं अपाप-10 चू! | दिट्ठी “पयरीक्कुषसयं णच्चा' सिलोगो (७१सू०११०) पयरेको णाम पुण्णो, अच्वाबाहो वा असु(भुण्णवो वा, ण किचिति || २ परपहा- तत्थ ठविया, जे निमित्तं तत्थागच्छिस्संति. अयं ऋतुखमितो, ण कप्पडियादिहिं य उवभुज्जति, कल्यतामानयतीति कल्याण, ध्ययने ४ पापको नाम पांसु कूरे वा अरितुक्खमो वा पापका, पहरिकेऽपि वसन्-'किं मज्झ एगरातीए? ' किमिति परिप्रश्ने, किमेकरात्र्यां ॥६९॥ | भविष्यति, सो हि एगल्लविहारी गामे एगरातीए णगरे पंचरातीए, रमणीए तावत् अवैवायं रमणीयः उपाश्रयः, हिजो अमो भवति सोभणो असोमणो वा,पापकोऽपि अद्यैवायं ममाशोभनो,हिज्जो अन्नो भविस्सति,पत्रापि चिरं वसति तत्राप्यालंधते किंमझ एगरायाए' किमियं एगरात्री देरात्री भविष्यति, बद्धोऽपि एकरात्रं लंघयति, एवं आलम्बनं कृत्वा एवं तत्थऽधियासए, ॥5 अत्रोदाहरणं 'णिवेगं', तत्थ गाहा-'कोसंविजण्णदत्तो' गाहा (१०८-१११) कोसंबी णयरी, जण्णदत्तो धिज्जाति| तो, तस्स दो पुत्ता-सोमदत्तो सोमदेवो य, ते दोचि निविनकामभोगा पब्बया, सोमभूतिस्स अणगारस्स अंतीए, बहुसुता। बहुआगमा य जाता, ते अभया सनातयपल्लिमागता, ते य तेसि मातापितरो उज्जणि गतिल्लिया, तेहिं पबसिए हिज्जाइगिणिओ वियर्ड आवियति, ताहे तेसि वियर्ड अण्णदब्वेण मेलेऊण दिन, केई मणंति-वियर्ड चेव अयाणतीए दिलं, तेहिविय तं विसेसं अयाणमाणेहिं पीयं, पच्छा वियडचा जाया, ते चितंति-अम्हेहिं अजुत्तं कत,पमाओ एस, वरं भत्तं पच्चक्खाय-* * ४ा ति ते एगाए णदीए तीरे कट्ठाण उरि पाओवगया, तत्थ अकाले बरिस पडियं, पूरो य आगतो, हरिता बुज्झमाणा य उदएण || ल समुदं णीया, तेहिं सम्मं अहियासियं, अहाउयं पालियं, सेज्जापरीसहो अहियासिओ समविसमाहिं सेज्जाहिं, एवं सेज्जापरी ||७० । PEDNEKADASHANANES- IN दीप अनुक्रम [७१-७२] CCCE ॥६९॥ le%EG [74] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [...] / गाथा ||७२-७३/७३-७४|| नियुक्ति: [११०/११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: [१] गाथा ||७२ श्रीउत्तरासहो गतो। इदाणिं अक्कोसपरीसहो 'अकोसेज परो भिक्खू सिलोगो ( ७२सू०१११) आक्रुस्यते यतस्स आक्रोश: आक्रोश या अनिष्टाभिधान, परे गामाधमो बहिरात्मानं व्यवस्थाप्य भिक्षणशीलो भिक्षुः एतेसिं अकोसंताणं पडिसंजले, प्रति सजलतीति परीपहा TAM प्रति संजलेत्ति,समस्तं वा जलति संजलति, इंधणे वा अग्गी, संजलियलक्खणं तु पडिअकोसंति आहणंति वा, जो एवं पडिसजध्ययन |लति सो सरिसो होइ बालाणं, जो पडिअकोसेति आहणति वा, अत्रोदाहरण- देवता उपसंता, सा अभिक्खणं बंदिता एति, बदइ य-ममं कज्जमाणेज्जासि, सो एएण धिज्जातीएण सह असंखडं लग्गो, सो तेण बलवतेण खामसरीरो पाडितो तालिओ य, | रत्ति देवता तं वंदिया आगता, चंदति, खमगो तुसिणीतो अच्छति, सा भणइ-कोइ मम अवराधो ?, सो भणति- तुमे ण किं तस्स घिज्जातियस्स कत, सा भणति-अहं तत्थ विससं चेव ण याणामि-को धिज्जाइओ खमगो वचि, दोऽवि तुल्ला तुज्झे, ल सम्म पडिचायणत्ति पडिवन, इत्यतः सरिसो होइ बालाणं, तत्थ ण पडिसंजले, यतत्रैवं 'सोच्चाणं फरुसा भासा' सिलोगो (७३ सू०११२) फरुसा निःस्नेहा अनुपचारा, श्रमणको निल्लज्जा इत्यादि, मणं दारयतीति दारुणा, असत इति प्राम:-इंद्रिय-| |ग्रामः तस्य इंद्रिग्रामस्य कंटगा, जहा पंथे गच्छंताणं कंटगा विमाय, तहा सद्दादयोषि इंद्रियग्रामकटया मोक्षिणां विनायेति, ताणेव कंटकान तुसिणीओ उवेहेज्जा, उपेक्षा नामैतेस्खनादर, मनःकरण नाम तदुपयोगः, मनसोऽसमाधिरित्यर्थः, एत्थ अज्जुण उदाहरणं, मोग्गरेचि दारं । तत्थ गाहा- 'रायगिह मालगागे' गाहा-(११०-११२) रायगिद्दे णगरे अज्जुणओ ॥७ ॥ नाम मालागारो परिवसति, तस्स भज्जा खंदसिरी णामा, तस्स रायगिहस्स नगरस्स बहिया मोग्गरपाणी णाम अज्जुणकस्स कुलदेवतं, तस्स य मालागारस्स आरामपंथे चेव जक्खो, अण्णदा खंदसिरी भत्तं तस्स भत्तारस्स णेतुं गता, अग्गाई पुष्फाईदा EASEAREA5 दीप अनुक्रम [७३-७४ [75] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [...] / गाथा ||७२-७३/७३-७४|| नियुक्ति: [११०/११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: आक्रोश परीपहा गाथा ||७२ श्रीउत्तराघरे घेत्तुं गच्छति, मोग्गरपाणी घरए य विभाए बूढा, सा ताए गोट्ठीए छहि जणेहिं दिवा, चिंतीत-एसा अज्जुणगस्स भज्जा चूर्णी पडिरूवा गिण्हा मो . तेहिं सावि गहिया, छवि जणा तस्स जक्खस्स पुरतो भोगे झुंजंति, सो हि मालागारो निश्चकालमेव २ परीपहा- अम्गेहिं बरेहिं पुप्फेहि जक्खं अच्चीत, अच्चिउकामो सो ततो आगच्छति, ताए ते भणिता-एसो मालागारो आगच्छति, तुम्भे ध्ययनमए किं विसज्जेह, तेहि णातं-एताए पियं,तेहिं भणियं एतं मालागारं बंधामो, तहिं सो बंदो अवउडएण, जक्खस्स पुरतो ठवे॥७१॥४ाऊग पुरतो चेव से भारियं भुजंति, सावि तस्स भत्तारस्स मोहुप्पाइयाई इस्थिसहाई करेति, सो मालागारो चिंतेति-एयं अहं जक्खं निरुचकालमेव अग्गेहिं बरेहिं उतुगेहिं पुप्फेहि अच्चमि तहावि अहं एतस्स पुरतो चेव एवं कीरामि, जति एत्थ कोइ जक्खो होतो तो अहंण कीरिंतो एवं, सुन्वतं एतं कहूँ, णस्थि कोई मोग्गरपाणी। ताहे सो जक्खो अणुकंपंतो मालागारस्स सरीरमणुपविट्ठो, तडपडस्स बंधाण छित्तूण लोहमयं पलसहस्सनिष्फन मोग्गरं गहाय अण्णाइट्ठो समाणो तत्थ छप्पित्थिसत्तमे | । पुरिसे घातेति, एवं दिणे दिणे इत्थिसत्तमे छ पुरिसे यातेमाणो विहरति, जणवतोवि रायगिहाओ णगराओ ताव ण णिग्ग- | च्छति जाव न सत्त घातिता। तेणं कालेण तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरति जाव सुईसणो सेट्ठी बंदओ णीति, अज्जुणएण दिडो, सागारयडिम ठितो, ण तरति अतिकमेडे, परिपेरंतेहिं भमेत्ता परिसंतो अजुणओ, सुदंसणं अणिमिसाए दिट्ठीए पलोएति, जक्खो य मोग्गरं गहाय पडिगतो, पडिओ अज्जुणगो, उडितो य तं पुच्छति-कहिं गच्छासि ?, भणतिH सामिपंदओ, धम्म सोच्चा पच्चइतो, रायगिहे य भिक्खं हिंडतो सयणमारगोत्ति कोगेण अक्कुसति णाणापगारेहि, सो सम्मं सहति खमति, सम्म सहतस्स केवळनाणं उप्पन्न, एवं अक्कोसपरीसहो गतो। इदाणिं वह परीसहो-'हतोण दीप अनुक्रम [७३-७४ ॥७१।। RH 2.X- 176] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७४-७५/७५-७६|| नियुक्ति: [१११-११३/१११-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: वध परीषहः %EGOR गाथा ||७४ ७५|| श्रीउत्तरा० संजले भिक्खू सिलोगो ( ७४ सू०११४) हन्यते स्म हतः, संजलनं नाम रोषोद्मो मानोदयो बा, संजलितलक्षणं “के पूणा I पति रोपादग्निः संधुक्षितवञ्च दीप्यतेऽनेन । तं प्रत्याक्रोशत्याहंति च मन्येत येन स मतः॥१॥"मपि न पदोसए, किमु | 1 प्रत्याहणणं?, अथवा मनःप्रदोषा एव कायेन प्रत्युद्गच्छत्याक्रोशति वा, स्यात्-किमालंबनं कृत्वा न पडिसंज्वलेदिति ?, उच्यते, | "तितिक्वं परमं णच्चा' तितिक्षणं सहणमित्यर्थः,परं मानं परमं, नातः परं निर्जराद्वारमस्ति, भिक्खुधम्म विचितए, इमा॥७२॥ | तो य आलंबणातो सहियव्यं 'समणं संजयं दहूंछ' सिलोगो (७५ सू०११४) समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति सासू *समणो, सम्म जतो संजतो-हस्तपादातिसंजतो, को णाम दुज्जणो से दोपोपहतात्मानं हन्यात जाहम्ममाणोषि, स एव हत्थ पायाइसंजओ, ण पच्छा सूरयतीति, दुज्जणा हि पच्छा सूरणभयादेव ण परं वावाययंति, उक्तं हि- " अविनयमनसो हि | दुर्जनः, क्षमिणि जनेऽप्यधिक हि बर्तते । जनमिह तु समेत्यकर्कशः, परिशुद्धेऽश्मनि न प्रवर्तते ॥१॥ कोऽपीति कषिद्वालः, कत्थवित्ति गामे नगरे वा उपस्सए वा, तत्थालंवणं ' अक्कोसहणणमारणधम्मम्भंसाण बालसुलभाणं । लाभ मनति धारो | जहुत्तराणं अभामि ॥१॥ अकोसति कोति विद्यते एवं बालेसु, अयं तु लाभोज मेण तालीत, तालेंति जे मे ण मारेति, | मारेंति जं मे धम्मातो ण भैसद, नित्यत्वात् अमूर्तत्वाच न शक्नोति जीवं नाशयितु, एवं 'णत्यि जीवस्स णासे' ति जाऊण | 'ण ता पेहे असाधुवंति, साधू हि सति सीए न प्रत्युद्गमनायोपीतष्ठीत, असत्तो पुण जो न मणसा सकिलिस्सति, अथवा माण य पेहे असाधुत्वं' असाधुभावो असाधुता, पठ्यते च 'णत्थि जीवस्स णासोत्ति एवं पीहज्ज संजए पीहेज्ज-चिंतेज्जा,एत्थ M उदाहरणं वणेत्ति दारं, तत्थ गाहा-'सावत्थी जियसत्तु' गाहा 'मुणिसुब्वयंतेवासी ' गाहा 'पंच सया जंतेण गाहा २ दीप अनुक्रम [७५-७६] ॥७२॥ SC-CREX 177] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७४-७५/७५-७६|| नियुक्ति : [१११-११३/१११-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत [१] गाथा ||७४ ७५|| श्रीउत्तरा०11(१११ । ११३-११५) सावत्थीनयरीए जियसत्तू राया, धारिणी देवी, तीसे पुत्तो खंदओ नाम कुमारो, तस्स भगिणी | चूणौँ । पुरंदरजसा, कुंभकारे णगरे दंडी णाम राया, तस्स दिना, तस्स य दंडगिस्स रणो पालगो नाम पुरोहितो, अण्णदा साव-14 परीषहः २ परीषहा- थए मुणिसुब्वयसामी तिथंकरो समोसरितो, परिसा निग्गता, खंदओऽवि णिग्गतो, धर्म सुच्चा साचगो जातो, अअया है ध्ययने | सो पालकमरुओ दूध चाए आगतो सावधि नगरि, अत्याणिमज्झे साधूण अवण वयमाणो खदएण णिप्पिट्टपसिणवागरणो कतो पदोसमावण्णो, तप्पभिई चेव खंदगस्स छिद्दाणि चारगपुरिसेहिं मग्गावेतो विहरति, जाव खंदओ पंचजणसएहिं कुमारोलग्गएहिं सर्द्धि मुणिमुव्वयसामिसगासे पन्चतितो, बहुस्सुतो जातो, तहेव सो पंच सताणि सीसत्ताए अणुण्णाताणि, अण्णया खंदओ सामि पुच्छति-वच्चामि भगिणिसयासं, सामिणा भणिय-उबसग्गो मारणंतिओ, भणति-आराहगा विराहगा वा!, सामिणा भणियं-सम्चे आराधगा तुर्म मोत्तुं, सो भणति-लट्ठ जति एत्तिया आराधगा, गतो कुमकारकर्ड, मरुएण अहिं उज्जाणे ठितो तहिं आयुहाणि सूणूमिताणि, राया बुग्गाहितो, जहा कुमारो परीसहपराइतो एवण उवातण तुमं मारेता रज गिहिहिति, जइ विपच्चइओ उज्जाणं पलोएहि, आयुधाणि ओलइताणि दिवाणि, ते नंधिऊण तस्स चे पुरोहितस्स समप्पिता, तेणं सव्वे | पुरिसजतेण पीलिता, तेहि सम्म अहियासियं, तेसिं केवलनाणमुप्पणं, सिद्धा य, खंदोऽवि पासए धरिओ लोहितचिरिकाहि सामरिज्जतो सध्यपच्छा पीलिओ,णिदार्ण काऊण अग्गिकुमारेहिं उवचनो,जीप से रजोहरणं रुधिरलिन परिसहत्थउत्तिकाउं गिद्धेहिं(गहियं ॥३॥ पुरंदरजसाए पुरतो पाडितं, सावि तदिवसं अधिति करेति, जहा-साधु ण दीसंतितं पणाए दिई, पच्चभिन्नातो कंबलओ, णिसि-13 ज्जाओ तीए चेव दिनाओ, तीए नायं, जहा ते मारिया, ताए खिसितो राया-पाव! विणडोसि, ताए चिंतिय- पन्चज्जामि, देवेहि। ARREARRCECRECE दीप अनुक्रम [७५-७६] [781 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७४-७५/७५-७६|| नियुक्ति: [१११-११३/१११-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक [१] गाथा ||७४ ७५|| श्रीउत्तराः मुणिसुव्वयसामीसगासं गीता, तेण देवेण णगरं दव, सजणवा,अज्जवि डंडगारणं मण्णति,अरण्यास्स य वणक्खा भवति, एत्थ यांचा चूणा तेहिं साधूहि वधपरीसहो अहियासिओ, एवं सम्म अहियासितब्ब,ण जहा खदएण णाधियासियं वधपरीसहो गतो।इदाणि जायणा-18 परीपहा २ परीषहाध्ययने परीसहो- 'दुक्करं खलु भो नि,'सिलोगो(७६२.११६)दुकरक्खिं कज्जतिचि दुक्कर,खलु विसेसणे,किं विसेसेति!,दुक्खं हि णिरुपकरिणा Mसता प्रतिदिवसं हि पिंडाथै परः प्रणयितुं, भो इत्यामंत्रणे, णिचं नियतं कालं, आहारायत्तत्वात् प्राणीना, यावज्जीवमित्यर्थः, नास्य ॥ ७४ ॥12 अगारं विद्यते अनगारः, भिक्खणसीलो भिक्खु, अण्णेवि अणगाराः संति मृगचरोइंडिगाद्याः तद्व्युदासार्थ भिक्षुग्रहणं, तत्रापि च ये || HIभिक्षवः शाकादय:ति)अफासुगाहारत्वात उदकादिस्वयंग्रहात् द्रव्यभिक्षवः,भावभिक्षुस्तु उद्गमउप्पायणेसणासुद्ध भिक्षणशीलत्वाद् भिक्षु अतस्तस्य भिक्षोः सव्वं से जाइयं होह'सध्यंति-आहारोपकरणसेज्जादि अथवा अस्य घरीरोपकरणत्वात् देतशोधनायपि, अदचे | कल्पनीयं, न प्रतिषेधे, अपरिग्रहस्यापि अदत्तादानविरतेश्र, नास्ति किंचिदयाचितं ॥ 'गोयरग्गपविष्ठस्स' सिलोगो (७७-14 सू. ११६) गोरिव चरणं गोयरो, जह सो वच्छतो सदादिविसयसंपउत्ताएवित्थीए अमुच्छिओ, एवं साधूवि गोयरस्स अम्गं। | गोयरग्गं, अग्गं पहाणं, जतो एसणाजुतं, ण जहा चरगादीणं परिक्खे तोसलिणं, आगतो गोयरपविट्ठस्स पाणी णो सुप्पसारए पातेति पिबति वा तेणेति पाणी, पो सुप्पसारए जहा मम देहित्ति, अवि य-'धणवइसमोऽपि दो अक्खराई लज्जं भयं च मोत्तूर्ण।। देहित्ति जाव ण भणति पडद मुहे नो परिभवस्स ।। १।। स एवं तेण जायणापरीसहेण तज्जिओ 'सेओ आगारवासे'त्ति अयंति ॥७४॥ तमिति श्रेयः, सेयो आगारवासो, यत्र हि अयाचितमेव उदकादि, यत्र वा वेदादिकर्मभिः स्वयमुपायं मृतवान्धवैश्च पूर्वकमुपनीत साधुजनदीनानाथकृतसंविभागैर्भुज्यते, एवं चिंतए भिक्खू न, एत्थ रामेण उदाहरण, तत्थ माहा- 'जायणपरीसई' गाहाद दीप XXXBA अनुक्रम [७५-७६] 179 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७६-७९/७७-८०|| नियुक्ति: [११४/११४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: [१] गाथा ||७६ श्रीउत्तरा (११-११७) सो सिद्धत्थेण देवेण चोधितो तदा कण्हयासुदेवस्स सरीरगं सकारेऊणं कयसामाइओ लिंग पडिवजिउं तुंगीसिहरे अलाभ चूणों त तप्पमाणो, माणेण कह भिच्चाण भिक्खडाए अल्लिस्सन्ति तेण कट्टहाराईण भिक्खं गिण्हद, न गामं नयरं वा अल्लियद, तेण | परीपहः परापहात माहियासिओ जायणापरीसहो,अग्ने भणति-बलदेवस्स भिक्खं हिंडतस्स बहुजणो स्वेण उम्मत्समो, वा ण किंचि अण्णं जाणति, ध्ययने तच्चिताए अच्छति, तेण सो ण हिंडति, एस जायणापरीसहो। इयाणि अलाभपरिसहो 'परसु घासमेसेज्ज' सिलोगो, ॥ ७५॥५(७८सू.११७) परे णाम असंयता पापकर्माणो, अस्यत इति प्रास:-आहारोवकरणं च, भुज्जत इति भोयणं,परिणिडिय-फासुगीकृतं, च अप्पणो अट्ठाए तम्मि सुलद्धे पिण्डे अलद्धे वा अनुगतातापाअनुतापःअथवा अंत:तप्त पश्रा घटित्वेति तप्यति-अहो मया न लब्धमित्यनुतापः, स्याद् बुद्धिः-अलन्भे ताव तप्यते, लब्धे कथं तप्यते', उच्यते, अल्पे वा सम्धे, संजत एव, संजतेन निरुपकारिणा को | नाम दद्यात्, तदालंबनं तु 'अज्जेवाहंण लन्भामि' सिलोगो. (७९२.११७) अस्मिनहनि अद्यैव, किं, मया न लब्धं,यद्यपि तथावि लाभःश्वो भविष्यति, परस्वके सिया, अथवा किमभिप्रेती, गुरो! यदि मयोद्धाटन लन्ध स्थाप्यो निजेरालाभस्तु मया लब्ध एव* असणादि परिहरता, 'जो एवं पडिसंविक्खे'य एवं प्रति संप्रतिष्ठति रिपोरिवोदीर्णस्य तमलाभकस्स परीसहो तं न तज्जति, यस्तु दैन्यं गत्वा परिदेवति स तेनालाभकपरीसहेणाभिभूयते, लोइयमुदाहरणं-वसुदेवसच्चगदारुगा आसावहिगा अडवीए | निग्गोहपादवस्स अधे राति बासो गता, जामग्गहर्ण, दारुगस्स पढमो जामो, कोधो पिसायरूवं काऊण आगतो, दारूगं मणति- ।। ७५ ॥ आहारपत्थी इहमागतो एते पासुत्चे भक्खयामि, जुई वा देहि, दारुगेण भणितं-बाद, तेण सह संपलग्गो, दारुगो य तं पिसायं जहा ण सकेति णिहणिउं तहा तहा रूसइ, जहा जहा रूस्सइ तहा तहा सो कोहो बङ्गति, एवं सो दारुगो किच्छपाणी तंजाम णि- RECAREACT दीप अनुक्रम [७७-८०] 1-441 IFE-मन [80] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७६-७९/७७-८०|| नियुक्ति: [११४/११४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक गाथा ||७६ श्रीउत्तरा बाहेति, पच्छा सच्चगं उहवेति, सच्चगोवि तहेब तेण पिसाएण किच्छप्पाणो कतो, ततीए जामे बलदेवं उद्यवेति,(चउत्थे वासुदेवं 2|| चू! उट्टचेति) वासुदेवो (बलदेवो वासु) देवोऽवि तेण पिसाएण तहेव भण्णति, वासुदेवो भणति-ममं अणिज्जितुं कई सहाए साहिसि, परापहः २ परीषहा राष्हान । जुद्धं लग्गो, जहा जहा जुज्झते पिसाते तहा तहा वासुदेवो आह-अतिवतसंपनो अयं मल्लो इति तुस्सते. तहा तहा पिसाओ परीहिध्ययने र यति,सोतेण एवं खतितो जेण पित्तुं उवाट्टयाए छुढो, पमाते पस्सते तित्रिवि ते भिमजाणुकोप्परे, केणंति पुट्ठा भणंति-पिसाएण, वासु-र ॥७६ ॥ देवो भणति-से एस कोऽवि पिसायरूवधारी मया पसंतयाए जितो, उवडियाओणीणेऊण दरिसितो, एस अलाभपरीस्सहो गतो, जेण जेतब्बो एत्थ सुयगमुदाहरणं पुरेति, पुराणिवद्धस्स तत्थ गाहापच्छदं 'किसिपारासरढंढो अलाभए होइ आहरणं, ४(११४-११८) एगमि गामे पारासरोणाम, ताम्म य अन्नेवि पारासरा अस्थि, सो पुण किसो तेण किसीपारासरो से णाम, अहवा 4 &किसीए कुसलो तेण किसीपारासरो, सो तमि गामे आगत्तियं राउलियं चारि वाहावेति, ते य गोणादी दिवसं छातेल्लया भत्तवेलं पडिच्छति, पच्छा ते भत्तेऽवि आणीते मोएउकामे मणति-एक्केक्कं हलयं देह तो पच्छा मुंजहा, हिंवि छहिं हलसएहिं बाहिता, तेण तहिं बहुयं अंतराइयं बद्धं, मरिऊणं सो संसारं भमिऊणं अण्णण मुकयविसेसेण वासुदेवस्स पुत्तो जातो ढंढो नाम, अरहतो | अरिडनोमसामीसगासे पवइतो, तं अंतराइयं कर्म उदित्रं, फीताए बारवतीए हिंडतो न लम्भइ कहिँचि, जदावि लब्भति तयावि जंवा ते वा, तेण सामी पुच्छितो, तेहिं कहितं-जहावतं, पच्छा तेण अभिग्गहो गहितो, जहा मे परस्स लाभो न गिहियव्यो, ॥७६॥ अण्णया वासुदेवो पुच्छति तित्थगरं-एतासि अट्ठारसण्हं समणसाहस्सीणं को दुक्करकारओ?, तेहिं भणितं-जहा ढंढो अणगारो, अलाभकपरीसहो कहितो, सो कहिी, सामी भणति-णगरि पविसतो पिच्छिहिसि, दिडो पविसतेण, हत्यिखंघाउ उत्चरिऊण वंदितो, दीप अनुक्रम [७७-८०] BABASNETELERS [81] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७६-७९/७७-८०|| नियुक्ति: [११४/११४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक परीपहः [१] गाथा ||७६ श्रीउत्तरासो एक्केण इन्भेण दिट्ठो, जहा महप्पा एसु जो वासुदेवेण वंदितो, सो य तं चैव घरं पविट्ठो, तेण परमाए सवाए मोयगेहि चू! || पडिलाभितो, भमिउण सामिस्स दावेति, पुच्छइ य-मम अलाभपरीसहो खीणो',सामिणा भण्णति-ण खीणो, एस वासुदेवस्स लाभो, २ परापहा तेण परलाभं न उवजीवामित्तिकाउं अमुच्छितस्स परिहातस्स केवलनाणं उप्पन, आधियासेतव्वो पलाभपरीसहो जहा ढंढेण। ध्ययने अणगारेण ॥ इदाणि रोगपरीसहो-'णच्चा उप्पतितं दुक्खं' सिलोगो (८०पू०११९) उत्पत्ति रोग दुक्खं वा, ॥७७॥18 स तु रोगो वातिकः पैत्तिकः श्लप्मजथेति, वेचत इति वेदनाः ताभिर्वेदनाभिः आतीकृतः वेदनादुहडितो 'अदीणो' न दीयते || स्म, तिष्ठति काचित, प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा, स्पृष्टवान् पुट्ठो, 'तत्थे ति तत्व वेदनायो (अध्यासीत) अथवा अदीनता थाप-17 मा यति प्रज्ञा, अथवा प्रज्ञालक्षणं ज्ञानमागमस्य हि फलं ।। कथं अधियासितं भवति ? तेइच्छिन्नाभिणंदिज्जा' सिलोगो (८१ स.12 ४ १२०) चिकित्सितं चिकित्सा रोगप्रतीकार इत्यर्थः, अभिमुखो नन्दते आभिनंदते, सम्यक् तिष्ठते संचिक्खे, ण कूजति कक्कराय ति वा, आत्मानं गवेषयतीत्यात्मगवेषकः चरित्रात्मानं, चारित्रात्मनि गवेष्यमाणे द्रव्यात्मापि गविष्ट एव, न परित्यक्त इत्यर्थः, स्यात्कथं , एवं खु तस्स सामण्णं एतदिति प्रत्यक्षः, श्रमणभावः श्रामण्यं, यदुत्पन्नेषु तत्प्रतिकारायोधर्म न कुरुते, तंत्रमंत्रयोगलेपादिभिः स्वयं करणं, न स्नेहविरेचनादिना स्वयं करोति, कारापणं तु वैद्यादिभिः, शक्यं हि निरोगेण श्रामण्यं कर्तुं, यस्तु | रोगवानपि न सावधक्रियामारभते तं प्रतीत्योच्यते- एवं खु तस्स सामन्त्र, जहा केण ण कर्त? केण वा ण कारावियं , भिखाए ॥७७॥ 18 ओसह दिव, जहा कालासवेसियपुत्स्स, तत्थ गाहा-'महुराए कालवेसिय' (२१५.१२०) गामे महुराये जियसत्तुरण्णो काला णाम वेसिया, पडिरूवत्तिकाउं ओरोहे इढा, तीसे पुत्तो कालाए कालवेसिउति कुमारो, सो तहारूवाण थेराण अंतिए । - - दीप अनुक्रम [७७-८०] - [82] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८०-८१/८१-८२|| नियुक्ति : [११५/११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सत्राक [१] गाथा ||८० श्रीउत्तरा०का धम्म सोऊण पवइतो, एगविहारपडिमं पढिवयो, गतो मुग्गसेलपुरं, तस्स सदि भगिणी हतसत्तुस्स रणो महिला, तस्सा तणस्पश चूणों ला साधस्स अंसिया उवलंबंति, सो य तिगिन्छ ण कारवेति सावज्जेति, पच्छा तीसे भगिणीए वेज्जो पुच्छितो, तेण केचिदन्यसंजोगा राह पहा संजोएऊण सा भणिया-आहारेण से सयं देज्जाहि, तो भिक्खाए समं दिणं, ताहे ताओ अंसियाओ पडिबद्धा गंधण चेव, ध्ययन पच्छा सो चिंतेइ-मम णिमिचेण राया भगिणी विज्जा य आरंमंति, किं मम जीविएण', भत्तं पच्चक्खामि मुग्गसलसिहरे, तेण ॥७८॥ कुमारचे रति सियालाण सई सोउं पुच्छिता ओलग्गगा-के एते जेसि सहो सुब्बति, ते भणंति-एते सियाला अडविवासिणो, तेण भण्णति-एतं मम बंधिऊण आणेह, तेहिं सियालो बंधिऊण आणीतो, सो तं हणति, सो हम्मंतो खिक्खियति, तत्थ सो रति विंदइ, सो सियालो साहम्मतो मओ, अकामनिज्जराए वाणमंतरो जातो, तो वाणमंतरेण सो भचपच्चक्खाओ दिट्ठो, आहिणा आभोतित्ता इमो सोति आगंतूण सपेल्लियं सियालि विउविऊण खिंखियंतो खाति, राया तं साधु भत्तपच्चक्खाययतिकाउं रक्खावेति पुरिसेहिं, मा कोइ से उबसग्गं करेस्सइत्ति, जाव ते पुरिसा तं ठाणं एति तावताए सियालीए खइओ, जाहे ते पुरिसा ओस्सरेन्ता होंति ताहे सई करेंती खाइ, जाहे आगता ताहे न दीसह, सोवि उपसग्गं सम्मं सहति खमति, एवं अहियासेयब्बो, रोगपरीसहो सोलसमो समतो ॥ इदाणि तणफासपरीहो-तृणानि स्पृशेतीत्यतो तणफासपरीसहो-'अचेलगस्स' सिलोगो (८२ सू. १२१) नास्य ॥ ७८ ।। चलमस्तीति अचेल: अतस्तस्य अचेलगस्स, 'लूहस्स' ति रूक्षो बाबाभ्यन्तरतः, संजतस्य, तपोन्वितः तवस्सी,तवास्सिग्गहणं तपोयुक्तस्य हि रूक्षा तनुर्भवति, तस्य चास्तरणविवर्जितस्प आर्द्रभूम्यादिषु 'तणेसु सुयमाणस्स' तरतीति तृणं, तत्तु कुशादि, नतु | 5- दीप अनुक्रम [८१-८२]] [83] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८२-८३/८३-८४|| नियुक्ति: [११६/११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक गाथा ॥८२ और श्रीउत्तरा०पलालादि, झुसिरः,तेर्विषमसंधिभिः तीक्खशिखैश्च होज्जा गातविराहणा, गच्छति गत इति वा गात्रं आविराधितं भवति,विविधराई | चूर्णी । परीषदः कृतं विराइत-पंडरास्तस्य राजयो रूक्षस्योपतिष्ठति, फालिज्जति य दम्भेहि, स्निग्धगात्रस्य हि पंडरा रेखा न भवति, हिणिल्ल-14 २ परीपहा समाणेहि य ण तहा लंछिज्जति, स ताओ लीहाओ ण संलूसेति समहरवेति, ण वा भीतो तेसिं तणेसु ण सुविज्जा || किंच- तेसु ध्ययने तणक्खएमु गीम्हे सरदि वा 'आतवस्स णिवातेणं' सिलोगो, (सू०८३-१२१) आताप्यते येन स आतपः, निपतनं | ॥७९॥ |निपातः,निपातो नाम स्वेद एवं विशेषितः,तेन च निपातेन तृणक्षतेषु पुंडरेसु 'तिउला होइ वेदणा' तुदतीति तिउला वेदना, यं च सह [मान]माणे सोढो तणफासपरीसहो भवति, नतु भयमानस्य, एवंणच्चा ण सेवंति तंतुजं एवं-इमं उपदेस अथवा एवमपि ज्ञात्वा वेदणोदयामिमं तथावि अक्षुरणट्ठाण सेवेज्जा तंतुजं, तनोत्यसो तन्यते वा तंतु, तंतुभ्यो जातं तन्तुज, अथवा तन्यत इति । र तंत्र-वेमविलेखनंछनिकादि तत्र जातं तंत्रज, तनुवखं कंबलो वा, तंण सेवंति, जिणकप्पिया जे अचेला, 'तणतज्जिता' मानः विषमैच दार्जिता-भसिता, सा यथा केन सहिता?, एत्थ संथारोत्ति दारं, तत्थ गाथा 'सावत्थीऍ कुमारों' गाथा (११६-१२२) सावत्थीए नयरीए जियसत्तुस्स रनो भद्दो नाम कुमारो, सो पब्वइतो, एगल्लविहारी पडिमं ठितो, सो विहरंतो वेरज्जे चारिउत्ति-12 काउं गहितो, सो बंधावेऊण खारेण तच्छितो, सो दम्भेहिं वेडिऊण मुक्को, सो दम्भेहिं लोहितसीमलितेहिं दुक्खबिज्जतो सम्म सहति, एवं सहितन्वं, 'तणफासपरीसहोगतो॥इदाणिं जल्लपरीसहो-'किलिन्नगाए मेधावी सिलोगो (८४ सू० १२२) अस्नातस्य सुक्खेषु तनेसु स्वपतः स्वेदसंबंघाव जल्लेन क्लिन्नः कायो भवति, पठ्यते च- 'किलिहगाते' क्लिष्टो नाम रजोमलपरितापितः स एव किलिट्ठगाए, मेहया धावतीति मेधावी, पतंत्यस्मिन्निति पंका, पंको नाम स्वेदाबद्धो मलः रजस्तु सर्वशुष्क, HECRex दीप अनुक्रम [८३-८४] C %E4 [84] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८४-८५/८५-८६|| नियुक्ति: [११७/११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: A [१] गाथा ||८४ A5% श्रीउत्तरा कमढीभूतो जल्लो शुष्कमावस्तु रजा, पंकेन वा रएण वा, रज्यत इति रजः, यदा तु पंको भवति तदा न रज इत्यतो विपाकेा सत्कार चूणा M'प्रिंसु वा परितापेणं' प्रिंसु वा नाम ग्रीष्मे, समततो तापः परितापः, सज्जत इति सादा, अमानोनाः प्रतिपेधे, परिदेवनं नाम 16 सातमाह्वयति, जहा जलाश्रयाः होन्ति नगो वेति, तहा चन्दनोसीरोरक्षीपवायवः, एवं परिदेवति, न परिदेवमानः अपरिदेवमानः।। ध्ययने बास एवं अपरिदेवमानः सातं 'चेदेज्ज निज्जराण्ही' सिलोगो (८५ सू० १२३) वेदेज्ज इति अनुगतार्थे, सम्यग् वेदेज्जा सि, | नो तस्स पडिकार करेज्जा सि, किमर्थ वेदेज्ज ?-निज्जरं पेहीति, जल्लं धारयतो हि बिउला निज्जरा भवति, एवं निज्जरां पेहमाणो, पेहति अभिलपतीत्यर्थः, 'आयरियं धम्माणुत्तरं धम्मं ज्ञानं पश्यति चेति वाक्यशेषः, अथवा 'विद ज्ञाने वेदेज्जा निज्जरापेही, शुद्धनयान प्रतीत्योच्यते-वेदेज्ज निज्जरापही, वेदितो जाणतो इत्यर्थः, चरेति धम्म, अथवा जल्लधारणमेव धर्म, तंतु 'जाव शरीरभेदाए, यावत्परिमाणावधारणयोः, भिद्यतीति भेदः, जायते लीयते वा जल्लं 'जल्लोकाए ण उवहे' उद्वत्तमित्यर्थः, किमंगद पुण सिणाणादिः, पठ्यते च 'जल्लं कारण धारए ' एस दब्बमलो भावमलनिन्जरणत्थं धारिज्जति, न च शक्यते निर्मलं शरीरं कर्तृ, यदि वाद्यवदंतओ, एत्य दारं 'मलधारणे' ति, तत्थ गाहा 'चंपाए' गाहा (११७-१२३) चपाए सुणंदो णाम बाणियओ,18 सावओ, आवणाओ चेव जो जं मग्गति साह तस्स तं देइ ओसहमेसज्जं सत्तुगादीयं च, सबमंडिओ सो, तस्सऽण्णता गिम्हेसुलै साहूणो जल्लपरिदिद्धंगता आवणं आगता, तेसिं गंधो जल्लस्स ताण सव्वदब्बाण गंधे भिंदिउं उब्बरति, तेण सुगंधदव्वभाचिएण? चिंतितं-सव्वं लटुं साहूणं, जति णाम जल्लं उपता तो सुंदरं होतं, एवं सो अणालोइयपडिकतो कालगतो कोसंबीए नयरीए इन्भकुले पुत्तत्ताए आयाओ, णिग्विनकामभोगो धर्म सोऊण पन्चतितो, तस्स तं कर्म उदिष्णं, दुब्भिगंधो जातो, जतो जतो % दीप अनुक्रम [८५-८६] 95 [85] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८६-८७/८७-८८|| नियुक्ति: [११८/११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रज्ञा चूणों परीपहा % गाथा %A5 ||८६ श्रीउत्तरागच्छति तओ तओ उडाहो, पच्छा सो साधूहिं मणिओ-तुम मा निग्गच्छसि, उड्डाहो, पडिस्सए अच्छाहि, रति देवताए काउस्सम्ग करेति, पच्छा देवताए सुगंधो कतो, से जहानामए कोहपुडाण वा०, पुणोऽपि उद्दाहो, पुणो देवताए आराधणं, सामा M वियगंधो जातो, तेण णाहियासितो जल्लपरीसहो, एवं णो णाधियासेतब्वं, जल्लपरीसहो गतो॥ इदाणिं सकारपुरकारपरीसहो, ध्ययन | करणं कारः,शोभनकार सकार: सकारमेव पुरस्करोति सकारपुरस्कारपरीसहो भवति,सत्तेवं सोढव्यः, स सत्कारः एवंविय अभिवादण' ॥८१॥ |गाहा (८६ सू०१२४ ) ' अभिवादणं' अभिमुखं उट्ठाणं 'सामी कुज्ज' ति राया कुज्जा एताणि, णिमंतणं वसपात्र| लेद्यावसधिभ्योराजाऽमात्यो वा मरुयाणं पासंडीण वा अण्णं वा सकारं कुज्जा'जे ताई पडिसेवंतिय इति अणिदिदुस्स उद्देसे ताई। ताणि अभिवादणादीणि प्रतिसेवंति-पडिसेविति पण तेसिं पहिए मुणी' अहो इमे सुहिया राजादिभिः पूज्यंते वयं नेति, कथ| मस्माकमप्येवंविधा पूजा स्यादिति, स तेर्सि अपीहमाणो' अणुकसाय' गाहा (८७ मू०१२४) 'अणुक्कसायो' अणुशब्दा स्तोकार्थः, अतो नेत्यनु, कषयंतीति कषायाः क्रोधायाः, न रुष्यत्यपूज्यमानः, न वा मानं करोति, मां लोका पूर्व पूजितवान् इदानी न* पूजयतीति ' अमहेच्छ ।' अल्पेच्छ इत्यर्थः, न पूजासत्कारमासंशयति, अज्ञातैषी, न ज्ञापयत्यहमेवंभूतः पूर्वमासीत्, न वा थपको | बहुश्रुतो वेति, आहारोपकरणादिपु अलोलुपः, न लोभ इत्यर्थः, भूयिष्ठत्वादाहारे लोप्यमस्य अंतोर्भवतीतिकृत्वा व्यपदिश्यते 'रासिएसु णातिगिज्झेज्ज'रससहिताणि रसियाणि तेसु रसिएसु णोभिगिज्झेज्ज,अहवा रसेसु णाणुगिज्झेज्जा, रसाई आर्द्रतादयः स्वस्थानपटवः यदा ये चानुकूलाः तेषु यथा पूर्व गृद्धवान् तथा न गृध्येत, येच रसानुत्कृष्टा नाहारयति लभंति वा परं तत्र 'ण तेसि पीहए मुणी' पठ्यते चान्यथा 'नाणुतप्पेज्ज पण्णवं' वा, यथा मया दुष्टुं कृतं इह लब्धिपापंडे सर्ववेरिणि वा प्रव्रजता, तत्रो %-5 - दीप अनुक्रम [८७-८८] ॥८१ 4543% [861 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||cc ८९|| दीप अनुक्रम [८९-९०] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८८-८९/८९-९० || निर्युक्ति: [११९/११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूण १२ परीपहाध्ययने ॥ ८२ ॥ दाहरणं ' अंग विज्जं ' ति 'महुराए इंददत्तो' गाहा ( ११८-१२५ ) अरहंतपडीताए महुराए नगरीए इंददचेण पुरोहितेणं पासात गतेणं हेद्वेणं साधुस्स वच्चतस्स पाओ लंबितो सीसे कउत्तिकाउं, सोय सावएण सेट्ठिणा दिट्ठो, तस्स अमरिसो जातो, दिहं भो एतेण पावेण साधुस्स उवरिं पादो कतोति, तेण पइण्णा कया अवस्सं मए तस्स पादो छिंदियच्यो, तस्स छिद्दाणि मग्गति, अन्नया अलभमाणो आयरियसमासं गंतूण बंदिता पडिकहेति, तेहिं भण्णति का पुच्छत्ति, अधियासितव्यो सकारपुरकारपरी सही, तेण भणियं मए पतिष्णा कतेलिया, आयरिएहिं भण्णति--एयस्त पुरोहियस्स घरे किं वट्ट १, तेण भण्णइ एयस्स पुरोहितस्स पासादो कतेलओ, तं तस्स पवेसणे रण्णो भत्तं कीरति, तेहिं भण्णति-जाहे राया पविसति तं पासाद ताहे तुम रावं हत्थे गहेऊण अवसारेज्जासि, जहा पासातो पडति, ताहेऽहं पासातं विज्जाए पाडिस्सं, तेण तहा कयं सेट्टिणा राया भणिओ- एतेण तुम्भे मारिता आसि, रुद्वेण रण्णा पुरोहितो सावगस्सेव अप्पितो, तेण तस्स इंदकीले पादो कओ, पच्छा छिन्न एव काउ लोहमआ काऊण सो छिन्नो, इतरो विसज्जितो, तेण णाधियासिओ सकारपुरकारपरीसहो । इदाणिं पण्णापरीस हो, प्रज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, प्रगता ज्ञा प्रज्ञा, प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि सति प्रज्ञाने तेण गव्वितो भवति तस्य प्रज्ञापरीपहः, प्रतिपक्षेण प्रज्ञापरीषहो भवति, अविण्णाणमंतो हि ण अद्धिति करेंति यथाऽहमविज्ञातवानिति, शक्यं मज्ञानं, दुःखतरं पुनरज्ञानं, सो बुद्धिमिति विचितयति, उच्यते कथं १ 'किं कठ्ठे अण्णाणं' गाथा, तथा चोक्तं ' नैवंविधमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरंतमतिदुर्जयम् ॥ १ ॥ इति, पण्णाणं जह सहमाणस्स परीसहो भवति तथा अप्रज्ञानमपि सहितव्यं ततो परीसहो भवति, तद्यथार्थमेवोच्यते ' से णूण मए पुब्बि' गाहा (८८ सू० १२६ ) से इति पूरणे आत्मनिर्देशे वा णूणमनुपाये 'मये ' ति आत्मन्युपगमे, [87] प्रज्ञा परीषदः ॥ ८२ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [...] / गाथा ||८८-८९/८९-९०|| नियुक्ति: [११९/१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: गाथा ||८८ श्रीउत्तरायथा कृतानि कर्माणि पूरयतीति पूर्व-पूर्वजन्मनि पूर्व, क्रियंत इति कर्माणि, फलतीति फलं, अज्ञानं फलतीति अण्णाणफला, अज्ञानं प्रज्ञा चूर्णी फलमेषां, तदुदये सति येनाहं नाभिजानामि, अभिमुखं जानामि अभिजानामि 'पुट्ठो केणति कण्हुई' पृच्छयते स्म पृष्टः 'कण्हुयी ४ ला परीपहः २ परीपहा सुत्ते अत्थे वा, तत्रालंबनं--एतानि हि प्रज्ञानवध्यानि, मयैतानि प्रागुपात्तानि बध्धानीतिकृत्वा तद्भयात् पुनः प्रज्ञा बाध्यति तं न ध्ययने करिष्ये, यानि पूर्व बद्धानि तानि 'अथ पच्छा उदेज्जंति' सिलोगो (८९ सू० १२६) अथेत्यव्ययं निपातः पूर्वकृतापेक्षा, किमपेक्षते ?, वेदितव्यं, उक्तं हि-पावाणं खलु भो कडाणं कम्माणं पुचि दुश्चिण्णाणं दुप्परकताणं वेदायित्ता मोक्खो, णथि। अवेदइत्ता, तवसा वा जोसइत्ता' न च सर्व बद्धं क्षयमत्रामोति, प्राप्तकालमुदीयते, यानि तु अवश्यं वेदनीयानि तानि 'अह पच्छा उदिज्जंति' अज्ञानफलानि, तानि सम्यक् सहामीति वाक्यशेषः, यथैवायमेतेषां उदयः प्राप्तः एवं तत्क्षयोऽपि भविष्यतीतिकृत्वा 'एवमस्सासेति अप्पाणं' आश्वासनमाश्वासः आत्मनमात्मना, 'णच्चा कम्मविवागतं ' विविधः पाके विपाकः, | तत्स्वभावो हि विपाकता ता, अवश्यं हि कर्म, चैतन्यवन्तमवश्यमन्वेति इति वाक्यशेषः, अथवा विपाकता णाम विलक्षणंति, पाकानि हि कर्माणि यथा कृतानि उच्यते इति, अत्रोदाहरणं 'सुत्ते 'ति, एत्थ गाहा-'उज्जेणी कालखमणो' गाथा (११९-१२७ ) उज्जेणीए अज्जकालगा आयरिया बहुस्सुया, वेसिं सीसो न कोइ नाम इच्छइ पढिउं, तस्स सीसस्स सीसो बहुस्सुओ सागरखमणो नाम सुवनभूमीए गच्छेण बिहरह, पच्छा आयरिया पलायितुं तत्थ गता सुवष्णभूमी, सो य सागर- ॥८३॥ काखमणो अणुयोग कहयति, पणापरीसहन सहति, भणति-खंता! गतं एवं तुम्म सुयक्खं जावोकधिज्जतु, तेण भण्पति-गतंति, & तो मुण, सो सुणावे पयत्तो, ते य सिज्जायरणिबंधे कहिते तसिसा सुबन्नभूमि जतो वलिता, लोगो पुच्छति तं वृंदं गच्छंत %ESTRARAKASI. दीप BREACKERA% अनुक्रम [८९-९० [88] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा Ice ८९|| दीप अनुक्रम [८९-९०] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८८-८९/८९-९० || निर्युक्ति: [११९/१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा चूण २ परीषहाध्ययने ॥ ८४ ॥ को एस आयरिओ गच्छति ?, तेण भण्णति--कालगायरिया, तं जणपरंपरेण संतं कोई सागरखमणस्स संपत्तं, जहा कालगाय रिया आगच्छंति, सागरखमणो भणति खंत! सच्च मम पितामहो आगच्छति १ तेण मण्णति-मयावि सुतं, आगया साधुणो, सो अट्टितो, सो तेहि साधूर्हि भण्णति खमासमणा केई इहागता १, पच्छा सो संकितो भणति खतो एको परं आगतो, ण तु जाणामि खमासमणा, पच्छा सो खामेति, भणति-मिच्छामिदुकडं जं एत्थ मए आसादिया, पच्छा भणति खमासमणा ! केरिसं अहं वक्खाणेमि ?, खमासमणेण मण्णति--लडं किंतु मा गव्वं करेहि, को जाणति कस्स को आगमोत्ति, पच्छा धूलिणारण तू चिक्खिलपिंडएण य आहरणं करेंति, ण तहा काय जहा सागरखमणेण कर्त, ताण अज्जकालगाण समीवं सको आगंतु | णिगोयजीवे पुच्छति, जहा अज्जरक्खियाणं तथैव जाव सादिव्वकरणं च, पण्णापरीसहो गतो । इदाणिं णाणपरीस हो, सोऽवि जहा पण्णापरीसहो तहा उभयथा भवति, गाणपरसहो अण्णाणपरीसहो य, तत्थ णाणपरीसहं पटुच्च मण्णति णिरस्थयं मि विरतो' सिलोगो (९० सू० १२८) रयत्ति रत्थइ वा अर्थो, नास्य अर्थो विद्यत इति निरर्थकमिति, रतोऽसि लोगो (१) निरर्थके अर्थे, विरतः, विरतिः, पंचप्रकाश, तत्र तु गरीयसी मैथुनाद्विरतिर्येनापदिश्यते 'मेहुणातो सुसंवुडो' मुट्ठ संवुडो, यतः संवृतत्वे सति किं भवति- 'समक्ख' णाम सहसाक्षिभ्यां साक्षात् समक्षं तो साक्षात्, अभिमुखं जानामि, त्रियते स्म धर्मः, स्वभाव इत्यर्थः, कः कल्याणधर्मः कः पापधर्म ? इति काणि वा कल्लाणाणि वा कम्माणि काणि वा पापगाणि कम्माणि १, किमभिप्रेतं? - केवंविधानि कल्लाणफलनिर्वर्त्तकानि कर्माणि येनासौ कल्याणो जायते यैर्वा पापक इत्यर्थः, ताणि वा (न), अर्थतश्च अर्थो विद्यत इति निरर्थकं, मित्ति तो 'तबोवहाण' सिलोगो (९१ सू० १२८ ) तप्यत इति तपः, उपधीयत इत्युपधानं तपोपधानानीत्यर्थः, [89] ज्ञान परिषः 1168 || Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||९० ९१|| दीप अनुक्रम [ ९०-९२] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१... ] / गाथा ||९०-९१/९१-९२ || निर्युक्ति: [१२०/१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० घृण १२ परीपहाध्ययने ।। ८५ ।। पडिमा नाम मासिकादिता, तपेोपधानपूर्वकाः प्रतिमाः पडिवज्जतो, इतरथावि तपोपधानानि करोमि ग्रामनगराणि च अभ्युद्यतविहारेण विहरामि, तहाथि 'एवंपि मे विहरतो' एवं अनेन अप्रतिबद्ध विहारेण, छादयतीति च्छद्म:, छादयतीत्यर्थः, नियतं वर्त्तते न निवर्त्तते, 'परिसंती' गाहा (१२०-१२९) अत्रोदाहरणं-- गंगाकुले दोवि साहू पञ्चश्या भातरो तत्थेगो बहुस्सुतो एगो अप्पसुतो, तत्थ जो सो बहुस्सुओ सो सीसेहिं सुत्तत्थणिमित्तं उपसंपन्नेहिं दिवसतो विरगो गत्थि, राचपि पडिऊच्छण सिक्खादीहिं सोवितुं ण लहइ, जो सो अप्पसुओ सो सव्वं रचि सुब्बइ, अण्णया सो आयरिओ निहापरिकखेदितो चिंतेति--अहो अयं साहू पुण्णमंतओ जो सुब्बइ, अम्हे मंदपुण्णा न सुविउँपि लब्भति, एवं नाणपउत्तेण णाणावरणीज्जं कम्मं बद्धं, सो तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिकतो कालमासे कालं किच्चा देवलोगे उबवण्णो, ततोवि चुओ समाणो इहेव भरवासे आभीरकुले दारओ जातो, कमेण संबद्धितो, जोवणत्थो य विवाहितो, दारिका य से जाता अतिरूविणी, सा य मदकलगा, अन्नया कयाइ ताणि दोवि पियापुताई अनहिं आभीरेहिं समं सगडं घयस्स भरेऊण नगरं विकिणणाए पत्थिताणि, सा कय (भद्द) कन्नगा सारहितं सगडस्स करेइ, ततो तं गोवदारगा तीए रूपेण अक्खित्ता तीसे सगडस्स अन्भासयाई सगडाई खेडंति तं पलोएंताणं ताई सयलाई सगडाई भम्गाई, तीए नाम कयं असगडा, असगडाए पिता असगडपिता, तस्स तं चैव वेरगं जातं तं दारियं परिणावेऊन सन् घरसारं दाऊण थेराज समीचे पञ्चरतो, तेण तिनि उत्तरज्झयणाणि जाव अधीताणि, असंखते उद्दिट्ठे तं णाणावरणं उदिष्णं गता ॥ ८५ ॥ दोषि दिवसा अभिलछट्टेण, न आलावगो ठाइ, आयरिएणवि भण्णति-उडिद्दि, जा ते एयं अज्झयणं अणुष्णवेज्जति, सो भणतिएयस्स के रिसो जोगो ?, आयरिया भणति- जाव ण उट्ठेति ताव आयंबिलं, सो भणति--अलाहि मम अणुष्णागति, एवं तेण [90] प्रज्ञा परीषदः Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९०-९१/९१-९२|| नियुक्ति: [१२०-१२१/१२१-१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: २ परीपहा गाथा ॥९० ९१॥ श्रीउत्तरा० अदीणेण आयंबिलाहारेण चारसहिं संबच्छरेहिं अधिज्जियं असंखयं, उवसंत, सेसं लहुंचेव अधिज्जित, एवं पण्यापरीसहो शानान न ध्यास चूणा अहियासेयब्यो जहा असगडपिउणा, तप्पडिवखे इमं उदाहरणं, एगो धूलिभद्दो नाम आयरिओ बहुस्सुतो, तस्स एगो पुनमित्तो ध्ययने आसि सण्णावगोवि य, सो तस्स घरं गतो, महिलस्स पुच्छति--सो अमुगो कहिं गतो', सा भणति-बाणिज्जेण, तं च घरं | पुर्य लट्ठ आसि.पच्छा सडितपडियं जातं, तस्स य पुव्वएहिं एगस्स खंभस्स हेड्डा दव्य णिदेल्लयं, तं सो आयरिओ नाणेन जाणति, || ॥८६॥ पच्छा तेण तओहुत्तो हत्थं काऊण भण्णति-' इमंच एरिसंतंच तारिसं' गाथा ( १२२-१३० ) इमं च इत्तियं दव्वं, सो य अण्णाणेण भमिति, सो य आगतो, महिलाए सिर्दु, थूलभद्दो आगतो आसित्ति, सो भणइ-कि थूलभदेण भणियं, सा भणइ-ण| किंचि,णवरं खंभहुतं दायतो भणति-इमं च एरिसं तं च तारिसं, तेण पंडितण णातं, जहा- अवस्सं एत्य किंचि आत्थि, तेण खतं, राणवरं णागापगाररयणाण भरिता कलसा अच्छंति, तेण णाणपरीसहो णाधियासिओ, एवं ण णाधियासितब्बं ॥ इदाणि दमण-14 परीसहो, ऐहिकामुष्मिकं च तपोफलं अपश्यतः कस्सति दिहिवामोहो होज्ज, तत्रैहिकं धीराअवभरणादि पारलौकिकं देवेन्द्रादि, तत्सर्व मिथ्या, एवं दरिसणपरीसहो भवति, स तु अदर्शनपरीषह एबोच्यते, को दृष्टान्तः ?, यथा वध्यमानः साधुर्यदा न क्षुभ्यते । जातदाऽस्य वधपरीषहो भवति, एवमवश्यं तपोफलानि सति, यो हि दर्शनान मद्यते तस्य दर्शनपरीषहो भवति, तत्रोवदेहिक 18॥८६॥ मधिकृत्यापदिश्यते 'णस्थि गूणं परे लोए ' सिलोगो ( ९२ ० १३१) कथं ?, यस्मात्तपःफलं प्राप्य देवा इह नागच्छति,* | नैव दृश्यते, इत्यतः परलोको नास्ति, कश्चित्तु जातिस्मरणादिभिः परलोकास्तित्वमभ्युपेत्य इदं न प्रतिपद्यते इड्डीवावि तवस्सिणों' न हि तपस्विनो देवलोकोपपत्तिरस्ति, न चैपां खेचपि सति ऋद्धिरस्ति, न तु परलोकस्याभाव एव धर्मफलस्प बा, यत्तु इह दीप अनुक्रम [९०-९२]] %ECRECRACT - - [91] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९०-९१/९१-९२|| नियुक्ति: [१२०-१२१/१२१-१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा चूर्णी २ परीपहाध्ययने दर्शनपरीपहः PCCC गाथा ॥९० ९ ॥ | नागच्छति परलोकादल्पर्द्धित्वात् परायत्तत्वाञ्चेति, यद्येवंविधं परिज्ञानमेव न समस्ति नेषां, यथा वयममुक स्थानादागता इति, यतश्चैवं ततः 'अहवा वंचितो मित्ति' अदुवेति अथशब्दः,भो अहं बंचित इति कथं वंचित इति?, न भोगा भुक्ता, न च परलोको अस्ति, धर्मफलं वा विशिष्टं 'इति भिक्खू ण चिंतये', व्यपदिश्यते-'अभू जिणा' गाथा ( ९३ सू० १३२ ) अभू जिणा इति ऋषभादयः, अस्थि महाविदेहे,भविस्संति महापउमादयो,यच्चान्यदेवमिति तत्सर्व मृषा वदंति अक्खातं ,ण यतं एवं,सांप्रत प्रज्ञापयंतियथा अभू जिणा, एप तु अजिनकाले परीपहा, एवमन्यदपि यत्परोक्षं जिनोक्तं तदश्रद्दधतः दसणपरीसहो भवति, तत्रोदाहरणं | 'ओधाविउकामोऽविय' गाहा (१२२-१३३) वत्थाभूमीए अज्जासाढा णामायरिया वहुस्सुता, तत्थ गच्छे जो कालं करेइ | निज्जाविति, भत्तपडियाइक्खितातो बहुया णिज्जाविता , अप्पाहि ता पज्जवति , अण्णया एगो अप्पणो सीसो तेण आदरतरेण भणितो-देवलोगाओ आगंतु मम दरिसावं देज्जासित्ति, न य सो आगच्छति, पच्छा सो चिंतेति-सुबहुं कालं किलिट्ठोऽहं, सलिंगेण चेव ओधावति, पच्छा तेण सीसेण देवलोगगतेण ओघाइतो आभोइतो, पेच्छति ओधावंत, तेण तस्स पहे| | गामो विउव्यिओ, गडपेच्छा य, सो य तत्थ छम्मासे अच्छितो पेच्छंतो, ण छुहं ण तण्हं कालं वा दिवपभावेण वेदेति, पच्छा देवेण तं साहरिउं गामस्स पहिला विजणे उज्जाणे छ दारए सस्थालंकारविभूसिए विउष्वति, सो चिंतेति--गिण्हामि तेसि | आभरणयाणि. बरं मुहं जीवंतोत्ति, सो एतं दारगं भणति- आणेहि आभरणगाणि, सो भणति--भगवं! एगं ताव मे अक्खाणयं सुणेह, पच्छा गण्हेज्जासि, भणति--सुणेमि, एगो कुंभकारो सो मट्टियं खणतो तडीए अर्कतो, पच्छा एसो भणति-'जण भिक्ख पलिं देमि' गाथा (१२३-१३४) एवं भगवं अम्हे धारणचया तुम्भे सरणमुवगता, तेण भन्नति-अतिपंडितवादिओऽसि, घेत्तूणा 496 दीप अनुक्रम [९०-९२]] [92] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९२-९३/९३-९४|| नियुक्ति: [१२२-१३९/१२३-१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: गाथा ॥९२९३|| श्रीउत्तराभरणानि पडिग्गहे एढाणि,पुढाविकायो गतो । इदाणि आउकाओपितियोमणति, सोऽनि प्रस्खाणयं कहेति, जहा एगो तालायरो आयोषाढा: चूणा पाडलो नाम, सो अन्नया गाउचरंतो उपरि बुट्टोदएण हीरति, तं पासिय जालो भवधि- 'बहुस्सुतं' गाथा (१२४-१३४) सह-पच्छा तेण पडिभाणितं गाथा 'जण रोहंति बीयाणि' गाथा (१२५-१३४) तस्सवि तहेव येण्हति, एस आउक्कातो।।इदाणि ध्ययने उक्कातो ततिओ, ताहे अक्खाणयं कहेति-एगस्स तावसस्स अग्गिणा उडओ दडो, फछा सो भणति-'जमहं दिया य राओ ॥८८॥ य' गाहा (१२६-१३४ ) अहवा 'वग्घस्स मए भीएणं, पावगो सरणं कतो । तेण अंग महं दर्दू, जातो सरणतो भयं १२७-१३५) तस्सवि तहेब गेण्हति, एस तेउक्काओ । इदाणि बाउक्काओ चउत्थो, तहेव अक्खाणय कहेति, जहा-एगा। जुवाणो घणणिचियसरीरो, सो पच्छा बाएहिं गहिओ, अण्पोण भण्णति- 'लंघणपवणसमत्यो पुब्धि होऊण संपयं कीस। दंड लतियग्गहत्थे वयंस ! किनामओ वाही ।।(१२८-१३५) पच्छा सो भणति- 'जट्ठासादेसु मासेम्' गाहा (१२९-१३५) अहवा जेण जीवति सत्ताणि, निराहमि अनंतए । तेण मे भजती अंग, जातो सरणओ साभयं ( १३०-१३५) तस्सवि तहेब गिण्हा, एस वाउकाओ । इदाणि वणस्सतिकाओ पंचमो, तहेव अक्खाणं कहेइ, जहा। एगमि रुक्खे केसिंचि सउणाणं आवासो, तहिं अंडपेल्लगाणि सर्व च अच्छति, पच्छा रुक्खाभासातो बल्ली वट्टिता, रुक्खंद वेढंती उरि विलम्गा, वल्लीअणुसारेण सप्पेण विलग्गिऊण ते पेल्लगा सऊणा य खतिया, पच्छा सेसगा भणति-'जाव बुच्छ ८८॥ सुहं वुच्छं' गाहा (१३१-१३५ ) तस्सचि तहेव गेण्हइ, एस वणस्सतिकाओ गओ ॥ इदाणि तसकायो छट्ठो, तहेव अक्खाणयं कहेति, जहा एगं नगरं परचक्केण रोहिज्जति, तत्थ य बाहिरीयाए हरिएसा, ते अभितरएहिं विणिज्जंति, बाहिरि CARE दीप अनुक्रम [९३-९४] [93] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९२-९३/९३-९४|| नियुक्ति: [१२२-१३९/१२३-१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्रा ९) गाथा ॥९२ ९३ श्रीउत्तरायाए परचक्केण घेप्पति, पच्छा केणति अमेण भणति-'अभितरगा खुभिता' गाथा (१३२-१३६ ) अहवा एगत्थ धिग्जाति चूर्णी हाणगरे राधा सयमेव चोरो, पुरोहितो भंडेति, पच्छा दोवि हरंति, पच्छा लोगो भणति-'जत्थ राया सयंच रो' गाहा(१३३-१३६) पुत्रीउदा० २ पराष्हा अहवा एगस्स धिज्जाइयस्स धूया, साय जोव्वणत्था पडिरूवदरिसणिज्जा, सो धिज्जाइओ तं पासिऊण तीए धूयाए अझोववभो, छगलोदाध्ययने | | तीसे तणएण अतीव दुबलीभवति, बंभणीए पुच्छिओ णिबंधेण, कहात, ताए भण्णति-मा अधिीत करेसि, तहा कमि जहा ॥८९॥ | केणइ पओगेण संपत्ती भवति, पच्छा धूतं भणति- अम्ह पुच्वं दारियं जक्खा भुजंति, पन्छा देज्जति, तब कालपक्खचाउद्दसिए । जक्खो एहिति, मा णं विमाणेहि, संमाणहिसि, मा य तत्थ तुम उज्जोत काहिसि, टीएवि जक्सकोऊहल्लेण दीवओ सरावेण | ठइतो, सो य आगतो, सतं परिभोत्तूण रतकीलचो पसुत्तो, इमावि कोउगेण सरावगं फडिती, णवरं पेच्छति ताय, ताए नाय, | जे होउ तं होउ, पुत्वं भुंजामि भोगे, पच्छा ताई रतिकिलंताई, उग्गतेवि सूरे ण विज्ांति, पच्छा संभणी भणति- 'आचिरुग्गतए व सूरिए, मागहिया (१३४-१३७) पच्छा सा तीसे धूया तं सुणेत्ता पडिभणति-'तुमए व अम्म ए लवे' मागहिया (१३५-१३७) पच्छा सा धिज्जाइणी भणति 'नव मास कुच्छीइ धालिता' मागहिया (१३६-१३७) अहदा एगेण धिज्जाइतेण तलागं खणावियं, तत्थवि य पालीए देउलं आरामो य कतो, तत्थ य तेण जण्णओ पवचितो, छगलगा एत्थ मारे ज्जति, अण्णया य कयाइ सो धिज्जातिओ मरिऊण छगलिओ चेव आयातो, सो य घेनूण अप्पणिज्जएहि पुत्तेहिं तत्थ चेव | |८९॥ | तलाए जण्णि मारिउज्जति, सो य जातिस्मरो णिज्जमाणो अपणोच्चियाए भासाए बोब्बुयति, अप्पणा चेव सोयमाणो, 1 |जहा मए चेव पवानिय एयं, सो य चुब्धिएमाणो साधुणा एगेण अतिसीसएण दरसति, तेण भण्णति'सयमेव य लुक्ख लोविया' दीप अनुक्रम [९३-९४] । [94] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९२-९३/९३-९४|| नियुक्ति: [१२२-१३९/१२३-१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सत्राक परीपहाध्ययनोपसंहार [१] गाथा ॥९२ ९३|| श्रीउत्तरा मागहिया (१३७-१३८) सो त सोऊण तुहिकको चेव ठितो, तेहिं धिज्जाइएहिं चितिय- किमिह पञ्चइएणं पढियं तेण एस| चूणा ट्रिगलओ तुहिक्को ठितो, ततो साधूणं गंतु भण्णति- किं भगवं! एस छगलओ तुम्हेहिं पढियभेचेहि तुहिक्को ठितो, तेण | २ परीषहा THIसाधुणा तेसि कहितो सम्भावो, जहा-एस तुज्झ पिया, किं अभिण्णाण १, तेण भण्णति- अहंपि जाणामि, किं पुण एसो चेव ध्ययने कहेहिति, तेण छगलेण पुण्यभये तेहिं पुत्तेहिं समं णिहणयं णिहतं तं गतूण पाएहिं खलवलेति, एवं अभिण्णाणं, पच्छा तेहिं । ॥२०॥ मुक्को, स साधुसमीचे धम्म सोऊण भत्तं पच्चक्खाइऊण देवलोगगं गतो, एवं तेण सरणमिति काउं तलागासमे जण्णा पवतिआ तमेव से असरण जातं, एवंविधोत्र समवतारः एवं तुम्मे इमे म्हे सरणं गता, तहेव तस्सवि आभरणगाणि घेत्तूण सिग्धं गंतु माढतो पंथे, णवरं संजति पासति मढितढिकिता, तेण सा भण्णति- 'कडगा य ते कुंडला' गाथा ( १२८-१३८) पच्छा वाए ल भण्णति-'समणो असि संजतो असि' गाथा ( १२९-१३९) एवं ताए उवदिवो समाणो पुणोषि गच्छति, गवरं पेच्छति पुणोषि खंधाबारं एतं, तस्स णिवट्टमाणो इंडियस्सेव सवडिहुत्तो आगतो, तेण हत्थिखंधाओ उरुहित्ता वंदितो, भणितो य- भगवं साअहो मम परं मंगलं निमित्तं च जे साधू मए दिहो, भगवं! मम अनुग्गहनिमिर्च फासुगसणिज्ज इमं मोदकादि संबलं घेप्पत, लामम अणुग्गहत्था, सो णेच्छति, भायणेसु आभरगाणि छूढाणि मा दिस्संति, तेण दंडिएण बलामोडिए पडिग्गहो गहितो जाच मोदगे छुभामि, णवरं पेच्छति आभरणगाणि, तेण सो खिज्जितो उवालद्धो य, पुणोवि संबोधितो, पच्छा दिव्वं देवरूवं काऊण वंदिऊण पडिगतो, तेण पुव्वं दसणपरीसहो णाधियासिओ पच्छा अधियासिओ, बंसणपरीसहो बावीसतिमो समत्तो।। 'एते परीसहा' सिलोगो (९४ सू०१४०) एते जहुदिहा सवसि पुरतो कासवो भगवं बद्धमाणसामी तेण पवेदिता दीप अनुक्रम [९३-९४] ॥९ ॥ [95] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||९४|| दीप अनुक्रम [९५] मूलं [१...] / गाथा ||९४/९५|| निर्युक्तिः [१३९.../१४१...] अध्ययनं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४३ ], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण चतुरंगी ये ॥ ९१ ॥ “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) कहिता 'जे भिक्खु ण चिण्णेज्जा' मिहणणा-पराजिणणा 'केण३'त्ति बावीसाए एगतरेण 'कण्डुवि' त्ति क्वचित् । इति बेमि, गया जहा विषय सुते । परीसहज्झयणं समत्तं २ ॥ एवं परीसहा अधियासेतव्या इमं आलंबणं काउं जहा दुल्लभा हमाणि चत्तारि परमंगाणि, एतेणाभिसंबंधेण चातुरंगिज्जं आगतं, चउसु अंगेसु हितं चातुरंगेज्जं एतस्स चत्तारि अणुयोगदाराणि जहा विणयसुते तहा वनेऊण जहा णामनिष्फलो निक्खेवो चउरगेज्जं दुपदं नाम, चत्तारि णिक्खिवितव्यं तत्थ एगस्स अभावे फतो चतुद्वाणं, तेण एगस्य क्खेिवो कायव्वो, तत्थ गाहा- 'णामं ठबणा' गाथा (१४१-१४१ ) नामटवणाओ गताओ, दव्वेकगं तिविहं, तंजहा एक दब्बं सच्चित्तं अचित्तं मीसगं च सच्चित्तं जहा एगो मणूसो, अचित्तं जहा एगो कारिसावणो, मीसं जहा पुरिसो वत्थाभरणविभूसिओ, मातुपदेकगा उप्पण्णेति विगतेति वा धुवेदि वा एते तिनि दिट्टिवादे मातुपदा, अथवा इमे मातुगपदा अआइ एवमादि, संगहेकगं जहा दव्यसंचयमुद्दिस्स एगो सालिकणो साली भण्णति, बहवो सालयो साली भण्णति, जहा निष्कण्णे साली, तं संगहेकयं दुविहं आदि अनादि च तत्थ अणाइडं अविसेसियं, आदि णाम विसेसियं, अणाइङ्कं णाम जहा साली सालित्ति, आदि कलमो, पज्जविषयं दुविहं आदि अणादि च पज्जया गुणादिभेदा परिणति, तत्थ अणादिहं गुणोति, आदिवं वण्णादि, भावेकगमवि | आदि अणादिट्ठे च, अणादिट्ठे भावो आदि उददओ उवसमिओ खड़ओ खओवसमिओ पारिणामिओ, उदश्यभावेकगं दुविहं आदिमणादि च, अणादिहं उदयितो भावो, आदि पसत्यमप्यसत्थं च पसत्थं तित्थकरनामोदयादि, अपसत्थं कोहोदयादि, उपसमियस्स खइयस्स अणादिडादिड्डा भेदा सामण्ण विसेसाणमभेदे न संभवति, केइ खयोवसमियपि एमेव इच्छंति, अध्ययनं -२- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३- “चतुरंगिय" आरभ्यते [96] एककनिक्षेपाः ॥ ९१ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९४.../९५...|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: अंग सूत्राक [१] % गाथा % 9 ||९४...|| श्रीउत्तरात ण भवति, जेण सम्मदिट्ठीण मिच्छादिट्ठीण य खओवसमलद्धिओ बहुधा संभवंति, तासां दुविहाणं चेव, जाओ सम्मदिट्ठी-18 चूणा | ताउ पसत्थाओ, जाओ मिच्छादिट्ठीणं लद्धीओ ताओ अप्पसस्थाओ, पारिणामियभाविक्कयं दुविह-आइटमणाइ8 च, अणाइतुं पारिणामियभावो, आदिट्ठ सातियपारिणामिओ य अणादियपरिणामिओय, तत्थ सातियपारिणामिएक्कगं कसायचतुरंगीये परिणयो जीयो कयायी, अणादिपरिणामियएक्कयं जीवो जीवभावपरिणतो सदा एवमादि, इह कतरेण एक्कएण अधिकारो', ॥ ९२॥ाटा उच्यते, भिन्नरूवा एक्कगा चत्तारि सदेण संगहिता भवंति, तेण संगहिक्कएण अधिकारो, सुयणाणं भावे खोबसमीए बमृतित्तिट भावेक्कएण अधियारो, दुयादि परूवणावसरे परूवेज्जति, एवं सेस परूवितं भवति, तम्हा चउक्कणिक्खेबो, सो सत्तविधो-'णाम २ ४ठवणा' गाथा (१४२-१४१)णामचत्तारि ठवणा० दब्ब० खेत्त० काल गणण० भावच०, णामठवणाओ गयाओ, दवचउक्के | है। चत्तारि दन्वाणि सचित्ताचित्तमीसगाणि, सचिचे चत्तारि मणसा अचित्ते चतारि करिसावणा मीसे चत्तारि मणूसा सालंकारा, खत्ते चत्तारि आगासपदेसा, जमि वा खत्ते चउक्को परूविज्जति, काले च परि समया आवलियाउ वा एवमादि, जीम वा काले । ४ चत्तारि परूविज्जति, गणणा एक्को दो तिनि चत्तारि, भावे एताणि चेव चत्तारि परमंगाणि, एत्थ गणणाचउक्केण अधिकारो, चत्तारित्ति गतं । इदाणिं अंगत्तिदारं, तत्थ गाहा-'णामं' गाहा-(१४३-१४१) णामठवणाओं गताओ,दध्वंग इमा दारगाहा'गंधंग ओसंधंग' गाहा- (१४४-१४१) दव्वंग छविह, तं०- गंधंग ओसंघर्ग मजंग आउज्जंगं सरीरंग जुद्धंग, एत्थ एगेग अपि | अणेगप्पगारं, तत्थ गंधगे इमा गाथा 'जमदग्गि'गाहा (१४५१४२) जमदग्गिणाम वालओ रिणुगा हरेणुगा चेव संवरणियं-1 |सिय णाम तमालपणं विणियाण मज्झो, मगंगो- गंधद्रव्यं रुक्खतणे मोचायं एताणि मल्लियावासिताणि कोडिं अग्पति, कोडी % दीप अनुक्रम [९५...] %94% 4 %A ॥९२॥ % % % % % [97] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९४.../९५...|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: सूत्राक गाथा ||९४...|| श्रीउन ग्रहणमित्युपमा, महायों अर्यो(हो) अथवा इमं गंधगं 'ओसीर हिरिबेराणं' गाथा(१४६ १४२) उसीरं उसीरमेव हिरिघरै बालओटांगानित चौँ । भद्रदारुसतपुष्पाणं भागो य तमालपत्तस्स तमालपत्रमेव ' एवं पहाणं एवं बिलेवणं' गाहा (१४७१४२) एतं गंधंग, भावांगानि ___३ इदा ओसधंगं 'दो रयणीओ' गाहा (१४८ १४२) दो रयणीओत्ति दारुहरिद्रा पिंडहरिद्रा य. महिंदफलं णाम इंद्रजवा, तिीन चतुरंगांया | उसिणंग इति तिकडग, कणगभूल नाम बिल्खमूल, उदगओ अट्ठमं, 'एसा हणतो कंहू' गाहा (१४९१४२) पूती एसा, गधग| गतं । इवाणि मज्जंग'सोलस दक्खाभागा' गाथा (१५०-१४२) कंठया, इदाणि आयोज्जंग 'एगमुकुंदा तुरं' गाथा (१५१-1 १४३) एगा एव हि मुकुंदा तूर्य, यथाभिमारकमगणी य, सरीरंग 'सीसमुरोय' गाथा (१५२-१४३) कंठया, जुद्धंगाण, 'जाणावरण' गाहा (१५२-१४३) जाणं रहे आसो हत्थी य, जदि एताई णत्थि किं करेउ पाइक्को, लद्धसुवि जइ आवरणं कव-| याई णस्थि तापि ण सेज्झति, सति आवरणे पहरणेण विणा किं सक्का हत्थेहि जुझिउं?, सति प्रहरणे जति कुसलत्तर्ण गस्थि |8 णवि जाणति- किध जोद्धातव्यं, सति कोसल्ले णीतिएवि विणा किं करेतु ?, समूहे मारेज्जत्ति अवक्कमणं उबक्कमणं च अयाणती, जहा अगडदत्तो दक्खतणेण फेडति डेविति वा, तेसु सब्बेसुवि लद्धेसु जति विवसायो णस्थि व जुज्झति अणिन्वेयं, सइवि | बवसाए सरीरेण असमत्थो किं करेउ ?, तेण जाणं आवरण पहरणं कुसलतं णीति दक्खत्तं धवसाओ सरीरमारोग्यं एताणि जुद्धू-IX| गाणि ॥ श्वाणि भावंगाणि 'भावंगं बिय दविध' गाथा (१५४-१४४) भावंग दुविध-सुत्तंग नोमुत्तंगं च,सुत्तंगं बारसंगाण, IN||९३ ॥ हायोसत्तंग चउम्यिहं तंजहा-माणुस्सं धम्मसुती सद्धा तवसंजमंमि पीरियं च । (१५५-१४४) एते भावंगा दुल्लभया संसारे, 12 तत्थ सरीरदवंगस्स इमाण एगडियाणि-'अंग दस भाग' गाहा (१५६-१४४) अंगति या दसत्ति वा भागति वा भेदेति वा दीप अनुक्रम [९५...] [98] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||९४...|| दीप अनुक्रम [९५...] अध्ययनं [3], मूलं [१... ] / गाथा ||९४.../९५...|| निर्युक्तिः [१४२-१७८/१४२-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूर्णी चतुरंगीया ॥ ९४ ॥ । “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) -32% कर | अवयवेत्ति वा पुण्णेति वा खंडेति वा देसे पदेसा पब्बे साहा पउला पज्जवेति वा खिलेत्ति वा भावंगस्स इमाणि एगट्टियाणि 'दया य संजमो' गाहा, दयत्ति वा संजमोति वा दुर्गुछा लज्जा हलणा तितिक्खा अहिंसा विरति वा, तत्थ माणुस्सं पढमं अंग, तं च दुल्लभं, कथं १- 'माणुस्स खेत जाती' गाथा ( १५८-१४५ ) तत्थ माणुसतं दुल्लभं इमेहिं दसहिं हि परुविज्जति, तं०- 'चोल्लग पासग' गाहा ( १५९-१४५ ) एसा गाहा जहा सामाइए, एवं आयरियं खतंपि आयरिया जाति कुलं रूवंति आरोग्गं आउगं बुद्धि सवणं धम्मस्स कहणं पियसड्डा संजमो तमि य असढकरणं, तं एताणि लोगदुल्लभगाणि, अथवा अन्नपरिवाडीए गाथा, चत्तारि अंगाणि दुल्लभाणि 'इंदियलद्धी णिअत्तणा य' गाथा, भावओ इंदियाणि, लभित्तावि कोइ अणिव्वत्तिएहिं चैव मरति, णिव्यत्तेपि केईण सव्वपज्जतीहिं पज्जयतं, पज्जतसुंपि पुणरवि उवघातो भवंति कुंटादिभिः अहवा णिव्वारीज्जमाणाणि उवहम्मन्ति वी (थि) बाहुगअबाहुगजातंच खुज्जादिसु, सध्धनिव्वत्तीयवि खेमं दुल्लभं खमो घातं विभवं सुभिक्ख दुल्लभ, अथवा घातं विभवो, आरोग्गं विरोगता, सड्डा- धम्मसद्धा, गहणेत्ति गाहको उपयोगी, अट्ठेति संजमो अड्डे, अथवा इमेहिं दुल्लभं 'आलस्स' गाहा (१६०-१५१) आलस्सेण साधूणं पासे न अल्लीयति, अहवा णिच्चत्तमपत्तो, मोहाभिभूतो इमपि काय नत्थचि सुणे न अहवा अवज्ञा किं एते जाणंतगा हिंडति ?, अथवा थंभेणं थो ण किंचि पुच्छति, अहवा अडविहस्स मदस्स अन्नयरथंभेण अहवा दण चैव पव्वइए कोहो उप्पज्जति, पमादेण पंचविहस्स पमादस्स अन्नतरेण, अहवा किविणत्ता मा एतेसिं किंचि दायचं होहिति तेण ण अल्लियति भए वा एते णरगतिरियाणि दायंति अलाहि तो एतेहिं सएहिं, अण्णाणेण वा कुप्पदेहिं मोहिओ इमंभि से ण चैव धम्मसन्ना उप्पज्जर, अहवा वक्खेबो अप्पणी निच्चमेव आउलो, कोउहल्लेण गडपच्छादिसु [99] 196-196% आलस्यादयो धर्मविप्राः ॥ ९४ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९४.../९५...|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० घणों गाथा चतुरंगीया Rex अहया रमणसीलो वट्टगुलियादीहि, एते हि कारणहि' गाहा (१६१-१५६) कंठया, धम्मंतराइयाण कम्माणं उदएणं दुल्लभ संजममिवि | वीरियं, सरीरहीणताए, जो पुण मिच्छादिही सो पुण धम्मसुतिपि लणं ण तं सद्दहति, तत्थ गाथा 'मिच्छादिट्ठी जीवा' दुर्लभता ।(१६२-१५१) मिच्छादिट्ठी उवदिई पक्यणं न सहति, असम्भावं प्रण उवदिट्ट वा अणुवदिट्ट वा सद्दहति, जो पुण सम्मदिट्ठी सो। उवादिट्ठ पवयणं सदहति,असम्भावं पुण अणाभोगेण (गुरुनिओगेण) वा सद्दहेज्जा, तत्थ अणाभोएण अविकोविओ गिहिएसु संकितो | अहिं पण्णवेज्जमाणो अपणो य दिडिएसु एसो जिणोवएसत्तिकाऊण अविकोविओ सदहेज्जा, गुरुणिआगेणंति गिबहइ ई)सि सो त निण्हयदिदि गुरुणाऽऽणवेज्जिता सद्दहेज्जा, जहा व 'ततेणं तस्स जमालिस अणयारस्स एषमाइक्खमाणस्स||| एवं भास० एवं पण्ण० एवं परूवमाणस्स अत्थेगतिया समणा णिगंथा एयम९ सद्दहंति, तत्थ गंजे य एयमहूँ ण सद्दहति । ते णं समर्ण भगवं महावीर उपसं० विहरति, ते पुण निण्हया इमे 'बहरय पदेस' गाहा (१६४-१५२) बहरय ज-II मालीपभवा' गाहा (१६५-१५३) 'गंगातो दोकिरिया' (१६६-१५३) एतेर्सि जत्थ उप्पना दिडिओ ता इमा णगरीओ 'सावत्थी उसभ' गाथा (आव० ), इदाणि एतेसिं कालो भण्णति 'चउद्दस सोलस वीसा' गाहाउ दो, इदाथि भणति- 'चोइस वासा तइया' गाथा, अक्खाणयसंगहणी, 'जेहा सुदंसण' गाहा (१६७-१५३)| एवं सत्ताहवि निण्हयाण वत्तन्वया भाणियच्या जहा सामाइनिज्जुत्तीए, के प्रण निण्डए एत्थ आलावगे पडिकहन्ति 'सोच्चा ॥१५॥ |णेयाउयं मग्गं, यहवे परिभस्सति एवं अंगति गतं, अस्स चतुरंगनिष्फणं चातुरंगिज्ज, णामनिष्फन्नो निक्खेवो गतो, सुत्ताणुगमे सुत्नं उच्चारतचं, चत्तारि परमंगाई सिलोगो(९५स.१८१)चत्तारीति संख्या,परि(२)मानं यस्य तत्परमं, अङ्ग्यतेऽनेनेत्यंग, दीप अनुक्रम [९५...] Sex EK [100] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ॥९५ ११४|| श्रीउत्तरा परमाणि च तान्यंगानि, अणुत्तराणीत्यर्थः, दुक्खं लभ्यत इति तैर्दुलभानि, इहेति इहलोके, दिह्यतीति देहं देही-जीवो भवति'माणुसत्तं चूणों सुती सड्ढा संजमंमि'मनसि शेते मनुष्यः, श्रवणं श्रुतिः, कस्यासौ?, श्रुतधर्मस्य, श्रद्धानं श्रद्धा, धर्मस्यैव, विराजयत्यनेनैव वीरियं, संजमे वीरियं, संजमे योगकरणमित्यर्थः, तत्र तावत् प्रथमं मानुष्यं, तस्मिन् सति शेषांगाणि स्युरिति, तदपिचापि दुर्लभमेव, चतुरंगीया । कथं ? समावण्णाण संसारे सिलोगो (९६सू.१८१) एगतो आवण्णा समावण्णा, संसरणं संसास, संसृतिर्वा संसारः, नानार्थी भवांतरत्वे सति जायत इति, जननं जातिः, नानागोत्रास्विति हीणमज्झिमउत्तमासु, कई णाणागोत्तामु संसरति, -कम्मा नाणाविधा कडा क्रियत इति कर्म नामार्थान्तरत्वे सति तद्धीनोचरजातिनिर्वर्तकं कर्म कृत्वा पृथक पृथक् पुढो । | अथवा पुणो २ विश्वनामकप्रकार प्रजायत इति प्रजा, विश्वसा भवंतीति विस्सभति वा, कथं विस्स भविस्सति', उच्यते. 'एगता देवलोगे' सिलोगो (९७ मू०१८२) एकस्मिन् काले एकदा, दीव्यंत इति देवाः देवानां लोको देवलोकः, नारकानां लोको नारकलोका, एगता आसुरे काये,अस्पत्यसावित्यमरः असुराणामयमासुरः, चीयत इति कायः, आहितैः कर्मभिरारोपि तरित्यर्थः,आधितो वा कर्मसु,अथवा कमेभिः शुभैरशुभेदेवत्वेऽपि सति उच्चस्थानवान् भवति, अशुभैनीचैः स्थानः,एवं स्थानादि-12 सखसंविदा यथाकर्मोपगाः, अशुभैरपि आभियोग्यकिविपादिषु सर्वदेवभेदाः यथाकर्मोपगाः॥मानुष्यमपि प्राप्य ' एगता स्वत्तिओ होई' सिलोगो ( ९८ सू०१८२) वतात् त्रायत इति क्षत्रियः, चंडो' इति चण्डाला, अहवा मुद्देण बंभणीए जातो चंडालो, कसो वर्णान्तरभेदः, यथा भणेण सुद्दीए जातो णिसादोति बुच्चति, भणण सीते जातो अबट्ठति गुपति, 12॥९६ तत्थ निसाएर्ण अंबडीए जातो सो बोकसो भवति, क्षत्रियग्रहणादुत्तमजातयो गृह्यन्ते, चण्डालग्रहणात्रीचजातयः, अथवा वाग्वि-8 दीप अनुक्रम [९६ ११५] [101] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा श्रीउत्तरा० चूणों ARRORECAR-% ॥९५ ११४|| भागादिषु अन्येऽपि नीचोत्तमा मानुष्यजातिभेदाः, तिरिएसु 'ततो कीड पतंगोय' केयं, एवं पृथिव्यादिवपि च ' एवमाव आवतजोणीसु' सिलोगो (९९ सू० १८३) एवमनेन प्रकारेण. आवर्तते यत्र स आवर्तः, द्रनावनों नदीसमुद्रादिषु, भावे संसार | योदिभ्रमः एव, पुन: पुनर्यथाऽऽवर्त्तते सचा यथायुपं तामिति योगः, आवर्च आवर्तस्य वा योनिषु, प्राणनं प्राणः, प्राणा येषां संतीति प्राणिनो, 'कम्मकिब्धिसा' इति कम्मेहि किविसा कम्मकिब्बिसा, कर्माणि तेषां किन्निसाणि कमकिन्धिसा, त एवं तासु आवतंयोनिषु पर्यटतोविण णिविज्जंति संसारे, न इति प्रतिषेधे, निवेदन निर्वेदः, संसरति तासु तासु गतिविति संसारः, संसरति। वा धावती तासु जातिषु सत्वः, सर्वे अर्था सम्वत्था, जे मणुस्सकामभोगोपकारिणः ते सर्व एव गृह्यते शब्दादयः, तेच पयोप्ता तस्य, न चासौ तान् भुजानो निर्वेज्जते, अप्येवासौ यथा यथा भुजते तथा तथा प्रतापोऽभिवर्द्धते, एवं संसारिणः संसरंतः संसारे दुःखः शारीरमानसैरभिभूयमाना न निविद्यते, अप्येव रंजंत एव, कोऽभिप्रायः, यतस्तत्प्रतिघाताय नोद्यमते, अथवा 'सम्वत्थ खत्तिय'त्ति सर्वेः कामयस्यार्थः स सर्वार्थः स हि भ्रष्टराज्यः, तस्याज्ञा वितथा, यो राजा, कामः सर्वैरेवा, स च तान् | प्राधेयन् न निविद्यते, एवमसावपि संसारी संसारे दुःखामिभृतः संसारसुखान्येव प्रार्थयेत, न तैः प्रार्थनासुखैनिर्विद्यते, ते एवं | संसरंत: 'कम्मसंगेहिं संमूढा' सिलोगो (१००पू०१८३ ) सज्यते यत्र स संगः, पंकादयो द्रव्यसंग, कामसगस्तु काम| भोगाभिलाषः, अथवा सर्व एवं कर्मसंगतैः कर्मसंगैः संमूढाः समस्तै मुद्यतेऽस्मात समूढा, दुःखमेषां जायते दु:खिता. पेद्यत इति वेदनाः शरीराया बहवो वेदना, अथवा अत एव दु:खिता येन बहुवेदना, अथवा क्षुत्पिपासायेव बद्दवो वेदना, 'अमाणुसासु जोणीसु'मानुपाणामियं मानुषी न मानुषी अमानपी, नियतं निश्चितं वा हन्यते निहन्यते, विशेषेण या हन्यते,'कम्माणं नु पहाणाए' % दीप अनुक्रम [९६११५] [102] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ॥९५ ११४शा श्रीउत्तराठ सिलोगो (१०१ सू०१८३) तु विसेसणे, किं विसेसयति , तेषां मानुसजातिनिर्वतकानां कर्मणां प्रहीयत इति प्रहाणा, आनु-12 चूर्णाट्री पूर्वी नाम क्रमः तया आनुपूर्व्या, प्रहीयमाणेषु मनुष्ययोनिघातिषु कर्मसु निवर्त्तकेषु वाऽनुपूर्येण उदीयमाणेसु, कथमानुपा P उदीयेते, उच्यते, उक्कडूते जहा तोप, अहवा कम्मं वा जोगं व भवं च आयुग चा मणुस्सगतिणाममोत्तस्स कस्मिंश्चित्तु || चतुरंगीया काले कदाचित् , तु पूरणे, न सर्वदेवैत्यर्थः, 'जीवा सोधिमणुप्पत्ता' शुद्धयते अनेनेति शोधिः तदावरणीयकर्मापगमादि॥९८॥ालात्यर्थः, मनुष्यभवो मानुष्यं तमपि च 'माणुस्सं विग्गहं लटुं' सिलोगो (१०२ सू०१८४) विगृह्यतेऽनेनेति विग्रहार सच यथा दुर्लभः तथा चोक्तं चोल्लगपासकादिभिः, इदानि द्वितीयमंग सुति, धम्मस्स श्रवणं श्रुतिः श्रूयते बा, ध्रियते वार धारयतीति या धर्मः, दुःखेन लभ्यते इति दुर्लभः, आह-श्रवणादस्य किं भवति !, उच्यते, 'जंसोच्चा पडिवज्जति' 13 लाइति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः 'सोच्चा' श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तवोबारसविधो, खंतिग्गहणेन दसविधो समणधम्मो गहितो, अहिंसाभागहणेण पंच महव्वयाणि | 'आहच्च सवर्ण लढुं' सिलोगो (१०३ सू० १८४) आहृच्च णाम कदाचित्, कस्य श्रवणं ?, धर्मस्य, श्रद्धा, संयमोद्यम इत्यर्थः, परमदुर्लभा नास्मात्परं किंचिदप्यन्यत् दुर्लभं परमदुर्लभा, कथं तर्हि , विषयतृषिता हि विला (सिनः सोच्चाणआउय मग्गं' नयनशीलो नैयायिका, यं श्रुत्वापि बहवो सर्वतो परिभ्रश्यन्ते, केचिचावत् दर्शनादपि परिभस्संति, केचित श्रद्धानात्, अथवा सर्वतो भ्रश्यते जहा णिहवा, येऽपि न भ्रश्यते तेषामपि 'मुर्ति व लटुं' सिलोगो (१०४ सू०१८४) विरायते येन तं वीरितं भवति, च पुनर्विशेषणे, सर्वदुर्लभं हि संजमीरियं शेषेभ्यः, अथवा पंडितवी रियमिति विशेष्यते, 4 लकुतः ?, जओ 'यहवे रोयमाणावि' केवलं रोचमाना एव सम्यग्दर्शने वर्तते, न तु चरित्रं प्रतिपद्यन्ते, एवमियं सामग्री दीप अनुक्रम [९६११५] ॥९८ ।। TH [103] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा CEOCHERE ॥९५ ११४|| श्रीउत्तरादुर्लभा, एकैकस्य चारित्रलाभायुपाये चोल्लगादयो वक्तव्याः, अथैषा सामग्री कथं भवति ?, उच्यते, एकैकावरणकर्मप्रहाणतः, चूणों 'माणुसत्तमि आयातो' सिलोगो ( १८५ सू०१८५) कंठ्य, 'तबस्सी वीरियं लटुं' तत् तपस्वीबीरियं लब्ध्वा सम्यम् दोलभ्यं तः संवृत्तः संयत इत्यर्थः, सुसंवृतात्मा तपोवीर्येण स क्षिपेद्रज इति संक्षिणुयादित्यर्थः । स्यात्-कथं संवरो भवति?, उच्यते, भावशुद्धितः । # शोधिचतुरंगीयायेनापदिश्यते सोधी उज्जुअभूतस्य'सिलोगो(१०६.१८५)शोधनं शुद्धिः,अर्जतीतिऋजुभूतः तद्गुणवतस्तु धर्मशुद्धिः,तप्यते शुद्धयते । साल शोभना वा शुद्धिः तिष्ठति, नावगच्छतीत्यर्थः, अशुद्धस्य हि अशोधितमलस्येवातुरस्य न शोभिर्भवति, स एवं भावशुद्धसंबरवानिहैव । | "णिव्वाणं परमं जातिनिर्वृत्तिनिर्वाणं,परमं णाम न तेन मुक्तिसुखनात्रत्यं संसारसुखं तुल्यमस्थि कहापि, दार्शतिकोऽर्थः न शक्यते | दृष्टान्तमंतरेणोपपादयितं, एकदेशेनोपनयः क्रियते, जहा'चतसित्ते व पावए'जघार्च घरत्ति वा घतं, पावं व हव्वं सुराणं पावयतीति पावकः, एवं लोइया भणंति, वयं पुण अविससे दहण(ण दहे)इति पावकः, यथा घताभिषिक्तः पावकः परां निवृत्तिमामोति तथाऽसाथजुभावोऽपि इहैव तावत् विभुक्तामृतपानेन निवृत्तिमामोति च, उक्तं हि- 'नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव | साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ।। १॥ स्यात्-कधं जायते निवृत्तिः पावकस्य घृतेनेति ?, उच्यते, येन तुणतुपपलालकारीपादिभिरीधनविशेषरिध्यमानो न तथा दीप्यते यथा घृतेनेत्यतोऽनुमानात् ज्ञायते यथा घृतेनाभिषिक्तोऽधिकं भाति, तथा निर्माणस्य घृतेंधनादिकमेव, न तणा, पठ्यते 'घतसित्तेव पावर', नागार्जुनीयास्तु पठति एवं 'चतुद्धा संपदं लहूं, इहैव ताव भायते । तेयते तेय- ॥१९॥ संपन्ने, घयसित्ते व पावए ॥१॥ एतत्तावदिहैव फलं चतुरंगस्य, पारलोकिकं तु 'विकिंच कम्मुणा' सिलोगो, (१०७ सू० १८६) अथवा अयमुपदेश:- स एवं निवृतात्मा विकिंच कम्मुणा हेउँ, विचिर पृथक्भावे, पृथक् कुरुष्व अहया विगिचेति उज्झित इत्यर्थः, दीप अनुक्रम [९६११५] [104] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ब ॥९५ CEOste ११४॥ श्रीउत्तरा०हिनोतीति हेतुः, कर्महेतुरिति कर्मनिदान, रागाद्याः कर्महेतवः, अथवा मिथ्यादर्शनाविरतिमादि, यमो नाम संयमः तं संयमशीलवैषम्य चिराहि, केण ?, 'खतीए' क्षमण क्षान्तिः आदिग्रहणात् दशप्रकार श्रमणधर्मः, स एवं यशस्वी विकिंच कर्माणि 'पाढवं शरीरं हिच्चा ' पुहवीए भवं पाढवं, तत्र पृथति पृथते वा तस्यामिति पृथिवी, पृथिव्यां भवं पार्थिवं, वैशेषिकसांख्यानां हि पार्थिवे । " शरीरं, चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनादि आकाशाप्लेजोवायुराज्योतिश्च, स्वसमयसिद्भितोपि- पार्थिवमिव पाढिवं, तद्धि शैलेशी प्राप्तस्य | ॥१०॥ भगवतः शैलभूतं भवति, स च पार्थिवः शैल इत्यतः पाढवं शरीरं हित्वा, येऽपि न निर्वान्ति तैरपि संलिहितात्माभिः तदुत्सृष्ट पृथिवीतुल्यं भवतीत्यत पाढवं शरीरं हित्वा, अथवा सुखदुःखविकल्प विकल)त्वात् पाढवं शरीरं, उक्तं हि-'पुढवीचिव सम्बसहेण भग वता', शीयेत इति शरीरं, हेत्वा णाम हेत्वा, ऊयमिति माक्षः भृशंक्रमति इति चतुरंगफलमुक्तं ॥ये पुनः पूर्वकर्मावशेषतः न तत्फलं 31वाप्नुवंति तेऽपि चतुरंगहेतुकर्मत एव संसारफलमासाद्य 'विसालिसेहिं सीले' सिलोगो (१०८ सू०१०८) समानं सदृश, I न सदृशं विसदृश्य(शं), रलयोरैक्यमितिकृत्वा, ते हि विशालिसा हि शीलयंति तमिति शील, विसरिसाणि, कह विसदृशानि, न साहि सर्वे तुल्यतपोनियमसंजमा भवति, उक्तं हि- "जहा जहा ण तेसि देवाणं तबनियमभचेराणि ऊसितानि भवति, जस्स जारिसं 8 जासीलमासि तारिसो जक्खो भवति" यांति क्षयमिति यक्खा, उत्तरुत्तराणाम तपोषिशेपैः स्थान: रिद्विसुखसंपदः प्राप्नुवंति, यथा || सौधर्मेसाणादी, महासुक्का व जलंता'शोमत इति शुक्राचंद्रादित्यग्रहगणादि महाशुक्ला,प्रत्यक्षत्वाच्च चंद्रादित्यानां न हीनोपमा, | केन वाऽन्येनोपमीयते ?, चयनं चयः, पुनश्च्यवतीति पुनश्च्यवं, न हि तस्मिन् देवलोके, दीर्घायुत्वाच्च मन्यन्ते यथा वयं न च्यो ॥१०॥ ष्यामः, अथवा तेषां नित्यमुखसक्तानां चितवेयं न भवति च्योप्यामो क्यामिति, 'अर्पिता देवकामानां सिलोगो(१०९ सू०१८६) दीप अनुक्रम [९६११५] ReatehREE : Kite [105] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||९५ 5 ११४|| श्रीउत्तरा० अर्पितमस्यास्तीत्यर्पितः अर्पितवानित्यर्थः,अर्पित गमितं दर्शितमित्यर्थः,ते हि पूर्वोक्तपनत(तपोऽव) स्थामिव तपउपनता इव तेषां देव- प्रेत्यदर्शाचूणों ही कामानां अर्पिता इव अर्पिता,यथा भवद्भिर्ललयितव्या एते,काम्यते कमनीया वा कामाः,रोचत रोचयति वा रूपं, कामतो रूपाणि विकु-8 मानि पितुं शीलं येषां ते इमे कामरूपविकुर्विणः, अष्टप्रकारैश्वर्ययुक्ता इत्यर्थः, न चैषामल्पकालिक सौख्यमित्यतोऽपदिश्यते-'उहं कप्पेसु चतुरमायाचिट्ठति' ऊदमय कल्पाः२ तेष उईकप्पेस, अहवा उवरिमेस कप्पेस, पूरयतीति पूर्व, आवर्षतीति वर्षः, बहणि पूर्वाणि च शतानि च, 121 ॥१.१॥1 अप्रत्यक्षत्वात् न पल्योपमसागरोपमानि, क्रियत धर्मधारणा, देशकानां च पूर्वायुपं मनुष्यमारभ्य यावर्षशतायुष इत्यतः तत्प्रत्य-18 Hधीकरणामपदिश्यते पुन्वावास सता बहू । 'तत्व ठिकचा जहा ठाण' सिलोगो (११० सू०१८७) तत्थेति तस्मिमिति, यथाव स्थानमिति इंद्रसामानिकान्यायुष्कत एति, नहि तेपामुपक्रमो अस्तीत्यतःआयुष्कक्खया ओवेति माणुसं जोणि उपन्यायान्तीत्युपति, | मनुष्यानामियं मानुषी, बुपति जुषति वा तामिति योनि से दसंगेऽभिजायति' दशानामंगानां समूहो दशांग, तद्यथा 'खतं वत्धु | सिलोगो (१११२० १८७) चीयत इति क्षेत्र-ग्रामनगर, ययादिसस्यानि वा यत्रोत्पद्यन्ते, अथवा(आर्य)क्षेत्रमित्यर्थः,राजगृहमगधार्य, वसति तस्मिभिति वस्तु, तत्र घेत्र सेतुं केतु सेतु केतु वा सेतुं रहट्टादि, केतुं वरिसेण निष्फज्जते, इक्ष्वादि सेतु केतु, अहबा वधुपि | सेतु भूमिधरादि,केतुं यदम्युरितं प्रासादाचं, उभयथा गृहं सेतुकेतुं भवति,अथवा पत्थं खाय ऊसयं खासिय, खातं भूमिघरं ऊसितं |पासाओ खातूसित भूमिधरोपरि पासादो, हिरण्णग्रहणेण रूप्यसुवण्णं गहित, पश्यते तमिति पशु, से सब चउप्पयं गहिये ।। | 'दासपीकसं' दयित इति दासः, पुरे शयने पुरुषः, एते चत्तारिवि खेत्तवत्धुहिरण्णपसबो दासपौरुषं च एक कामंगखधं, 'जस्थ से 13 | उववज्जति' जेसु जेसु कुलेसु एताणि चत्तारिवि सदा सुचीण्णाणि वधू विजंति, इतरत्थ हि दुक्खं विभवहीनं स्यात् , किं तर्हि , %-9 दीप अनुक्रम [९६ 6 4 ११५] -%20% [106] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] प्रमादा गाथा ॥९५ ११XII श्रीउत्तरा भावना-येनासो गर्भलालितमेव भवति, एकमंगमुक्तं, 'मित्त णातवं होइ' सिलोगो (११२ सू० १८७) मज्जति मज्जंति वा चूणों लातमिति भित्र मित्रमस्यास्तीति मित्रवान् , जातका अस्यास्तीति ज्ञातवान्, मित्ता सहवाड्डितादि, णातगता तऽम्मापिद संबद्धा असंस्कृता. वा,गूयति इति गोत्रं उच्चागोतं राजाराजामात्यो वा, वृणीते वृणोति वर्णयति वा तमिति वर्णः (तद्वान रूपवानित्यर्थः, अप्पातंकेमहा पन्नो' अप्पातको नाम अरोगा, क्षुत्पिपासाद्या हि नित्यं अनुगता एव शरीररोगाः, आमयास्तु नैबोत्पद्यन्ते, उक्तं हि-'कच्चिचना॥१०॥ रोग्यमतीव मेधा' महती प्रज्ञा यस्य स भवति महाप्रज्ञः, पंडितः इत्यर्थः, अविजातो नाम विनीतः अनुकूल इत्यर्थः, यशस्वी बलवं, एतानि दश 'भोच्चा माणुस्सते भोए' सिलोगो (११३ सू०१८८) अपडिरूने असरिसे अमेहिं अहाउय पालित्ता पुच्चाविसो-1 हिं पुण बोहिं लभेत्ता । तम्हा 'चउरंगं दुल्लभं मत्ता' सिलोगो (११४सू०१८८) मचा थातुं संजमं पडिवज्जिया तवसा धुतकम्मसे सिद्ध भवति सासते, इतिवम । नयाः पूर्ववत् , चातुरंगिज्जं सम्मत्तं ३॥ एवं चरणं दुल्लभं जाणेत्ता अप्पमातो काय वो, जहा तेसु ण परिभस्सति, तेण इमं पमादऽपमादणाम अायणमागतं, तस्स पाचचारि अणुयोगदारा जाव णामणिप्फन्ने निक्खेवे पमादऽपमादं, पमादे वर्णिते तप्पडिवक्खो अप्पमादो वार्णत एव भवति, सो 5 तापमातो चव्यिहो- 'णाम ठवणा' गाथा (१७९-१९० प्र०) तत्थ दब्बपमादो जेण भुत्तेण वा पीवेण वा पमत्तो भवति, जाणि वा अण्णाणि वत्थूणि पमादकर्तृणि णिज्जासगंधर्वआलस्यादीनि, भावप्रसादस्तु आत्मव प्रमत्तः, स च पंचधा प्रमद्यते 'मज्जं विसय कसाया' गाहा (१८०-१९० प्र०) मज्जपीतस्य हि भावप्रमत्तत्वात् न कार्याकार्यदक्षो भवति, 'कार्याकार्ये ण जानीते, बाच्यावाच्ये तथैव च। गम्यागम्येऽति(वि)मूढच, नापेयं मज्जमित्यतः ॥ १॥ तथा विषयप्रमत्तोऽपि कृत्याकृत्यानभित्रो RECESSARIES दीप अनुक्रम [९६ ॥१०॥ ११५] अध्ययनं -३- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -४- “असंस्कृत” आरभ्यते [107] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] करणनिक्षेपाः गाथा |११५ १२७|| Re श्रीउत्तराभवति, कसाएमृ विविह आहणइ हिंसति अक्कोसति कलहसाहसीहोति, णिहापमत्तोवि पलीवणगादिषु विणस्सति, इंदियप्रमत्ताचूणों वि मगादयो विणासं पार्वति, जहा 'सहेण मिगों', गाहा, एस पमादोऽवि पंचविहो भणिओ, तस्स य पडिवस्खे अप्पमादो, सोवि ४ पंचविहो, एस चे अप्पमादेण भणितब्बो, 'पंचविहो य पमादो' गाहा (१८१-१९१) किंच गतो णामीनप्फणो, सुत्तालावगअसंस्कृता. निफण्णो, सत्तं उच्चारतव्य 'असंखतं जीवित मा पमादए' वृत्तं ( ११५० १९१) संस्क्रियते स्म संस्कृत, न संस्कृतं अस१३स्कृ तं, यतः पूर्वकृतकारणं कतरतो विनाशमाप्यत् पुनः संस्कार्यते तत् संस्कृतं भवति, पथा छिद्रपटः पुणोवि संविज्जति तुनिज्जति इवा, जंतु विणद्वैपुण न सकति संस्कर्तुं तदसंस्कृतं भवति, यथा घटभेद इत्यादि, अथवा आकाशादीनि चा नित्यद्रव्याणि असं. स्कृतानि, तत्थ इमा गाहा 'उत्तरकरणेण' गाहा (१८२-१९४ प्र०) संस्कृतति वा करणंति वा एगहुँ, तेण करणेन तमेव निक्खिवतन्वं-'णाम ठवणा' गाहा (१८३-१९४) णामकरणं जस्स करणामिति णाम, अथवा णामस्स णामतो वा जंतं करणं तं णामकरणं, अक्खणिक्खेवो जो जस्स करणस्स आगारबिसेसोत्ति, दचस्स दव्वेण वा दन्चमि वा जे करणं तं दबकरणंति, नातं दुविहं- आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए अणुवउत्ते, णोआगमतो जाणगसरीर० भवियसरीर तब्बहरिनं, वतिरित्तं दुविहं- सण्णाकरणं णोसण्णाकरणं च, तत्थ सण्णाकरणं अणेगविहं च, जीम जैमि दवे करणसण्णा भवंति तं सण्णाकरणंति, तंजहा- कडकरणं अद्धाकरणं पेलुकरणं एवमादि, 'सण्णा णामति मती तं णो णाम जमभिहाणं ।। जंवा तदत्थवियले कीरति दव्यं तु दविणपरिणामं । पेलुकरणादि गहितं तदत्यहीणं ण वा सद्दो ॥१॥ जति ण तदत्वविहीणं तो किं दबकरणं जतो तेणं । दिव्वं कीरति सद्देण करणंति य करणरूढीओ ॥२॥ इदाणिं पोसण्णाकरणं, तं दुविहं, तं०- पयोगकरणं वीससाकरणं च, विस्स 535 दीप अनुक्रम [११६१२८ -A2004 ॥१०॥ SRO [108] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक [१] गाथा |११५ १२७|| श्रीउत्तराना सेति कोऽर्थः, विति विपर्यये, अन्यथा भाव इत्यर्थः, स गती, विविहा गती विश्रसा, तं दुविध-सादीय अणादीयं च, करणअणादीयं जहा धम्माधम्मागासाण अण्णोण्णसमाधाणंति, 'गणु करणमणादीयं च विरुद्धं भण्णती ण दोसोऽयं । अण्णोष्ण-हू निक्षेपाः * समाधाण जमिहं करणं ण णिवत्ती॥१॥ अहवा पदपच्चयादुपचारमात्रं करणं, यथा गृहमाकाशं कृतं उत्पमकमाकाश असंस्कृताः विनष्टं गृहं, गृहे उत्पन्ने विनष्टं आकाशं । इदाणिं साइयं वीससाकरणं, तं दुविह-चम्सुफासियं अचक्खुफासियं च, चक्खुफासियं ॥१०॥ लाजं चमबुसा दीसइ, तं पुण अन्मा अन्भरुक्खा एवमादि, सक्खसा जं न दीसद तं अचक्खफासितं, जहात दुपएसियाणचि परमाणुपोग्गलाणं एवमादणि जे संघातेणं भेदेण संघातमेदेण वा उप्पज्जति तं ण दीसति छउमत्थणति । पातेण अचक्खुफासितं, बादरपरिणतस्स अणंतपएसियस्स चमनुफासियं भवति, पयोगकरणं दुविध-जीवपयोगकरणं अजीव-18 पयोगकरणं च, होइ पयोगे जीवविवागो, तेण विणिम्माणे सजीब अजीव वा पयोगकरणं, तं दुविहं-मूलपयोगकरणं उत्तर|पयोगकरणं, मूलपयोगो णाम मूलं आदिरित्यनांतर, तत्थ मूले ओरालियादीणि पंच सरीराणि, पयोगकरणं नाम जो निष्फो तो निष्फज्जति, तं तेसिं चेव उरालियवेउब्धियआहारयाणं तिण्डं उत्तरकरणं, सेसाणं तत्थि, तत्थ मूलकरणं अङ्क | | अंगाणि अंगोवंगाणि उर्वगाणि य, जहा 'सीसं उरो य उयर पट्टी बाहा य दोषि उरुया त । ते अटुंगाणी पुण सेसाणि तहेवु| वंगाणि ॥१॥ होंति उवंगा अंगुलि णासा कण्णा य जहणं चेव, महदंतमंसकेसु अंगोवंगा एवमादीणि, अहवा इद उत्तरकरणं दंतस्स रागो कंणवणं नहकेसरागो, एवं ओलियविउब्वियाणि, आहारए नस्थि ताणि, इमं वा आहारगस्स गमणादी[81 इति, अहवा ओरालियस्सेवेगस्स उत्तरकरणविसेसेण ओसहेण वा पंचण्ह य इंदियाणं विणवाणं पुणो घरणा णिरुवहताण वा दीप अनुक्रम [११६१२८ CLEAR : [109] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक न [१] गाथा |११५ * 55-55%-94%AE% श्रीउत्तरा०विणासणं एवमादि, तत्थ पुण ओरालियवेउब्वियआहारयाणं तिविहं करणं-संघातकरणं पडिसाडणाकरणं संघातपरिसाडणा-15 करणाचूणौं करणं च, दोडं सरीराणं संघातणा णस्थि, उवरिल्लाणि दोन्नि अणातीणि, तित्रिवि करणाणि कालओ मग्गिज्जति, तत्थो- धिकार: रोलियसरीरसंघातकरणं जं पढमसमयोववनगस्स, जहा तेल्लि ओगाहिओ छुढो तप्पढमताए आदियवि, एवं जीवोवि उव-IN असंस्कृता. वज्जति पढमे समये गेण्हइ ओरालियसरीरपयोगाई दवाई, ण पुण मुंचति किंचि, परिसाडणार हि समयो मरणकालसमए, ॥१०५|| एत्थं च सो मुंचति ण गेण्हति, मज्झिमे काले किंचि गिण्हति किंीच मुंचति, तं च जहणेणं खुड्डायभवग्महणं तिसमऊणं, उकोसेणं तिनि पलितोवमाणि समऊणाणि, दो विग्गहमि समया समयो संघायणाते तेहूणं । खुड्डागमवग्रहणं सम्बजहण्णो ठिती कालो ॥१॥ उक्कोसो समयूणं जो सो संघातणासमयहीणो । किह ण दुसमयविहूणो ? साडणसमएज्वनतिमि ॥२॥ भण्णति भवचरिमंमिवि समए संघातसाडणे चेव । परभवपढमे साडणमओ तद्गो ण कालोत ॥ ३ ॥ जति- परभवपढमे साडो णिव्विग्गहतो त तमि संघातो । णणु सव्वसाडसंघातणायो समतं विरुद्धाओ ॥ १ ॥ जम्हा विगच्छमाणं विगतं उप्पज्जमाण उप्पन्न । वो परभवादिसमये मोक्खादाणाण ण विरोहे ॥ ३ ॥ तिसमए णेहभवो इह देहविमोक्खतो जहा तीए । जति तंमि) ण परभवोवि तो सो को होउ संसारी ॥४॥ गणु जह विग्गहकाले देहाभावि द्विवो परभवो सो। चुतिसमएवि ण देहो ण विग्गहो जति स को होतु ॥६॥ इदाणि अंतरं, संधार्ततरकालो जहण्णगं खुडगं तिसमऊणं । IA||१०५॥ दो विग्गहमि समया ततिओ संघायणासमयो ॥१॥ तेहणं खुडूम धरिउ परभवमविग्महेणेव । गतूण पढमसमए संघातं. तो स विष्णेतो ॥ ७॥ इदाणि संघातपरिसाङतर, जे 'उभयंतरं जहन्न समयो निम्विगहेण संघातो । परमं सतिसमयाई ते. १२७|| दीप अनुक्रम [११६१२८ % [110] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक गाथा असंस्कृता |११५ १२७|| श्रीउत्तरा० तीसं उदहिणामाई।९। अणुभवितुं देवादिसु तेत्तीसमिहागयस्स ततियमि। समए संघातातो दुविहं साडंतर वोच्छ।।१०। खुड्गयभवग्गहणं करणाचूणों धिकार: जहण्णमुक्कोसयं च तेतीसं। तं सागरोचमाइं संपुण्णा पुन्चकोडी य|११||इदाणि वेउब्वियस्स-उब्वियसंघातो समयो सो पुण विउव्वणादीए। IN ओरालियागमहवा देवादीणादिगहणंमि।।१२।।उक्कोसो समयदुर्ग जो समयं वेउब्विय मतो बितीए । समए सुरेसु वचति णिव्विग्गहतो यत | तस्स ॥१३।।उभयजहण्णं समयो सो पुण दुसमयवेउब्वियमतस्स। परमतराई संघातसमयहीणाई तेत्तीस॥१४॥वेउब्वियसरीरपरीसाडण॥१०६॥ कालोवि समय एव । इदाणि अंतरं, बेउब्वियसरीरसंघातंतरं जहण्णेणं एग समयं सोय पढमसमयवउव्वितमतस्स विग्गहेण ततिए समये बेउम्बिएस संघातेंतस्स भवति अहवा ततिए समए वेउब्वियमतस्स अविग्गहेण देवेसु संघातेंतस्स,संघातपरिसाडंतरं जहण्णेण समय एवासौ पुणरवि घेउब्बियमतस्स अविम्गहेण संघातस्स भवति,साडस्स अंतरं जहष्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कोसेणं अणंतं कालं,वणस्सतिकालो, 13इदाणिं आहारयस्स, आहारे संघातो परिसाडो य समयं समं होति । उभयं जहण्णमुक्कोसयं च अंतोमुहुत्तस्स ॥१॥ बंधणसाडुभयाण जहण्यामंतो मुहुत्तमंतरयं । उकोसेण अबई पोग्गलपरियट्टदेसूग।शतियाकम्माणं पुण संताणाणादितो ण संघातो। भवाण होज्ज साडो सेलेसीचरमसमयमि ॥ ३॥ उभयं अणाइनिहर्ण संतं भवाण होज्ज केसिंचि । अंतरमणादिभावादच्चंत वियोगतो सि ॥ ४॥ जीवमुलपयोगकरणं गतं । इदाणि जीवउत्तरपयोगकरणं,तत्थ गाहा 'एत्तो उत्तरकरणं गाहा(१९३-२०१) संघातणा या गाथा (१९४-२०१) संघायणाकरणं जहा पडो तंतुसंघातण णिव्वत्तिज्जति, परिसाडणकरणं जहा संखग परिसाडणाए। |णिबत्तिज्जति, संघातपडिसाडणाकरणं जहा सगडं संघायणाए य परिसाडणाए य णिव्वत्तिज्जति, ण च संघातो ण च परि- १०६॥ साडो जहा धूणा उड्डा तिरिच्छा वा कीरति, अजीवप्पयोगकरणं' गाथा (१९५-२०१) निज्जीवाणं कीरति जीवपयोगयो हा SCRESCRISORSESORGESESSES दीप अनुक्रम [११६१२८ [111] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक -16 श्रीउत्तरा० चूर्णी 6 [१] गाथा 2- |११५ असंस्कृता॥१०७॥ १२७|| तं तं । वण्णादि रूपकम्मादि वावि तदजीवकरणंति ॥ १॥ दबकरणं गतं । इदाणि खेतकरण- 'ण विणा आगासेणं' गाथा करणा(१९६-२०१) खेतं आगासं तस्स करणं णत्थि तहावि बंजणतो परियावणं, जम्हा ण विणा खेतेण करण कीरति, अहवा धिकारः खेतस्सेव करणं, वंजणपरियावष्णं नाम जं करणेणं अभिलप्पति, अह जहा उच्छुकरणादीय, बहुधा, सालिकरणं तिलकरणं एवमादि, अथवा जम्मि खत्ते करणं कीरति वणिज्जति वा, खत्तं करणं आगासेवि, तस्स बंजणपरियावनं। इदाणि कालकरणं 'कालो जो जावतिओ' गाथा (१९७-२०२) कालकरणं जं जावतियकालेण कीरति, जंभि वा कालंमि, एतं आहेण, अहवेह कालकरणं बवातिजोतिसियगासेसेणं घेतवं, तत्थ चरं सत्तविहं चउम्बिह थिरमवक्खायं, एवं गाथा (१९८-२०३) 'साणे' गाथा (१९९-२०२) 'पक्वतिधयो दुगुणिता' गाथा । इदाणिं भावकरणं, भावस्त भावेण भावे वा करणंति, भावकरण(च) दुविहं' गाथा ( २०१-२०३) 'वण्णरसगंध' गाथा (२०२-२०४ ) अप्पप्पयोगजं जं अजीवरूवाति पज्जवावत्थं । तमजीवभावकरणं तप्पज्जायप्पणावेक्खं ॥१॥ को दब्बवीससाकरणातो विसेसो इमस्स ? णणु भणितं । इह पज्जयवेक्खाए दवडियणयमयं तं च | ॥ २ ॥ 'जीवकरणं तु गाथा (२०३-२०४) जीवभावकरणं दुविध- सुतकरणं असुतकरणं च, सुतकरणं दुविध- लोइयं लोउत्त-13 | रियं घ, एकेक दुविहं-बद्धं अबद्धं च, बद्धं णाम जत्थ जत्थ सुओवणिबंधो अत्थि, जं एवं चेव पढिज्जति उवरियं ताणि अबद्धं, तत्य बद्धसुतकरणं दुविधं-सहकरण णिसीथकरणं च, 'उत्तीत्थ सद्दकरण पगासपाढं च सरविसेसो वा। गूढतं तु निसीहं बंधस्स सुतत्थजं अधवा॥१॥ जे लोईयं धत्तीसं अडियाओ छत्तीस पच्चहियाओ वा सोलस करणाणि लोगप्पवातबद्धाणि, (अहवा संगामे पंच) तंजहावइसाई समपायं मंडलं आलीढं पच्चालीढं , एताणि पंच लोगप्पवाते सुयकरणे निबद्धाणि, तत्थाऽऽलीढं दाहिण पायं अग्गतो दीप अनुक्रम [११६१२८] MOREGIECORE SHREE [112] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा |११५ १२७|| श्रीउत्तरा हुत्तं काऊं वामपाद पच्छाहुत्तं ओसारेति , अंतरं दोहवि पादाणं पंच पदा, एवं चेव विवरीयं पच्चालीढं करणाचूर्णी | वइसाहं पण्हीउ अभंतराहुत्तीओ समसेढीए करेति आम्गिमतले चाहिराहुत्तो, मंडलं दोवि पाद समे दाहिण- | धिकारः असंस्कृता. वामहुत्ता ओसारेत्ता उरुणोवि (तहा) आउंटावेति जहा मंडलं भवति, अंतरं चत्तारि पादा। समपदं दोवि पादे सम | निरंतरं ठवेति, आरुहतपवयणे पंच आदेससताणि जाणि अबद्धवाणि, तत्थेगा मरुदेवा, णवि अंगे जवि उबंगे पाढो अस्थि जहा ॥१०८ मरुदेवा अच्चंतथावरा होऊण सिद्धत्ति, सयंभुरमणसमुद्दे मच्छाण पउमपचाण य सव्वसंठाणाणि अत्थि, णवरि बलयागारसंठाणं | |णस्थि, करडकुरुडाण य कुणालाए तेर्सि णिद्धमालूणमूले वसही देवाणुकंपणं, रुद्वेदि पण्णरसदिवसेहि परिसणं, कुणालाणगरीकविणासे ततिए वरिसे सातेते णगरे दोण्हवि कालकरणं, अधे सत्तमपुढवीए कालणरगे गमणं, कुलाणाणगरीविणासणकालातो तेरसमे बरिसे महावीरस्स केवलनाणुप्पत्ती, एवमादि अणिबद्धं, एतं सुतकरणं, जोसुतकरणं दुविध-जुजणाकरणं गुणकरणं च, गुणकरणं दुविह-तवकरणं सजम च, दोषि बिसेसितव्या, जुजणाकरणं तिविधं-मणझुंजणाकरणं चउम्बिई मणोसच्चादि, एवं का बयीवि , कायजोगो सत्तविधो ओरालियादीओ, एन्थ कतरेणाधिकारो', उच्यते, दबकरणंण, तत्थवि मूलप्पयोगकरणेण, ID तत्थवि णोसनादव्यकरणेन, तत्थवि पयोगकरणेण, तत्थवि जीवपयोगकरणेण, तत्थवि मूलप्पयोगकरणेण, तत्थवि आयुकरपिण, तत्थ गाथा 'कम्मगसरीरकरणेण' गाथा (२०५-२०५) कंठ्या, असंखतंति पदं गतं, जीवितमिति जीवते जीवित वान् जाविष्यति वा, जीवः,आयुःकर्मजीवनादि जीवितं भवति,तत्थेदमायुष्कं कर्म असंस्कृतं भवति,कोऽभिप्रायः नहि जीवितं तुटितं &ा तुीयते वा न शक्यते पुनः संस्कर्तु छिन्नवस्त्रवदित्युक्तं तम्हा चरिचमि अप्पमादो कातथ्यो, जीर्यते येनेति जरा, जरामुप दीप अनुक्रम [११६१२८ ॐ4--10% [113] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: ४ असंस्कृता. *) ॥१०९ ॥ श्रीउत्तरा० ) नीतो जरोपनीतो येन, यतो न तत्र त्राणं, कोऽभिप्रायः १, न जराप्राप्तस्य पुनयवनं भवति, 'अहण उज्जेणिं वस्तु' सव्यं अक्खाचूण णगं माणितब्धं, जाव फलहिमल्लेण मच्छियमल्लं निहणावेऊणं णियगं घरं गतो, तत्थ विमुक्कजुद्धवावारी अच्छति, सो महल्लोचिकाउं परिभूयते सयणवग्गेण, जहाऽयं संपदं ण कस्सति कज्जस्स खमोति, पच्छा सो मागेण तेसिं अणापुच्छाए कोर्सव णगरिं गतो, तत्थ वरिसमेतं उवरगमतिगतो रसायणनुवजीवति, सो बलड्डो जातो, जुद्धगपव्वते रायमल्लो रिंगणो णाम तं णिहणति, पच्छा राया मुणइ, तो मम मल्लो आगंतुएण णिहत्तोत्ति ण पसंसति, रायाणगे य अपसंसंते सब्बो रंगो तुहिको अच्छति, ततो अट्टषेण राहणो जाणणाणिमित्तं भण्णति- 'सहस्रयाण सउणाणं साहह तो निययस्यणयाणं (च ) हितो णिरंगणो अट्टणेण णिक्खित्तसत्थेणं ॥ १ ॥ एवं भणियमेत्ते रायणा एस अट्टणोत्तिकाउं तुट्टेण पूइतो, दव्वं च से पज्जावइओ, | आमरणयं देण्णं, सयणवग्गो य एतं सोउं तस्स सगासमुवगतो, पायवडणमादीहि पचियाविओ, दव्वलोभेण अल्लियावितो, | पच्छा सो चिंतेति-मम दव्वलोभेण अल्लियावेंति, पुणोवि ममं परिभविस्संति, जरापरिगतो बाढं ण पुण सुमहल्लेणावि पयत्तेण सकिस्से जुवा काउं, तं जावहं सचेट्ठो ताव पव्वयामित्ति संपधातु पव्वइतो, एवं जरोवणीतस्स गस्थि ताणं भवति 'एवं विचाणाहि जणे पत्ते' एवमित्यवधारणे, नेव जरोवणीतस्स हुत्थि ताणं, जरया वा उवणीतस्स एवं विषयमिति, अथवा एवमित्यनुमाने, केनानुमिनोति, जहा सो नलदामो चाणकेण घातितो सपुत्रदारं घोरान् घादित्वा, एवमेव जणोवि, आयारमरमम् परलोगनिरवेखो पुत्रभणिएहिं पमादेहिं प्रमत्तवान् प्रमत्तः प्रमादवानित्यर्थः, विविधं जानिहि विशेषेण वा जानीहि किमिति परिप्रश्रे, नु वितर्के, कतरानं कण्णु, विविधं हिंसंतीत विहिंसा, 'अजता गहिन्ति' न यता अयता असंजता इत्यर्थः, गहितो गृहंति गृहिष्यंति वा तामिति, | ॥ १०९ ॥ [114] अट्टनमछकथा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा |११५ श्रीउत्तरा. विहिंसो काई गिहिस्सांतत्ति गमिष्यति वा, कहिं गच्छिस्संति त विहिंसा ?, अथवा जरोवणीतस्स हु पत्थि ताणमिति, एवमचिज धनं न चूणों जाणेमाणो न जराप्रहाणायोद्यतो,केवलं हिंसादिपमुखकम्मसु पव्वंतो (पमत्तो),एवं(अ)संताणुकंपणं विहिंसा,स्यादेतत् कथमयमेवमना, त्राणाय तत उच्यते 'जे पावकम्मेहिं । वृत्तं ( ११६-२०६) जे इति अणिदिवस्स णिसे, पातयते तमिति पापं, क्रियत इति असंस्कृता. कर्म, कर्माणि हिंसानृतस्तेयानह्मपरिग्रहादीनि, धणं हिरण्णसुवण्णादीणि, समस्तमादीयंति समादीयंति, गृढ़तीत्यर्थः, अशो-|| ॥११॥ &भना मतिः अमतिः, यथा अशोभनं वचनमवचन, कथं, प्राणिनां निरपेक्षत्वात निस्तृशो निरनुकोशो त्यक्तपरलोकभयः, एवं विधा अमतिं गृहीत्वा, अथवा णस्थि परलोगे णत्थि सुक्कडदुक्कडाणि कम्माणित्ति, पठ्यते च 'अमयं गहाय' अशोभनं मतं अम अवचनवत्, अथवा अमृतमिव गहाय, अमृतेनेवार्थः संगृह्यते इत्यर्थः, तमेवं धणमुवज्जिणिऊणं 'पहाय ते पास पयट्टिए जनरे' भृशं हिच्चा अपहाय कृत्स्नमित्यर्थः, पस्सत्ति श्रोतुरामंत्रणं, त इति पावकर्मिणो, पयट्टिते पवृत्ते, तत्तु (न तु) मुई, 'मरे' इति - पुरुषस्याख्या, वरेणं णासकत्वं अनुगता अनुमता अनुबद्धा इत्येकोऽर्थः णरंग उति-गरंग-गच्छति, अत्रोदाहरणं जे पाचकम्महिं | घणं मणुस्सा' इति- एगमि णगरे एक्को चोरो, सो रति विभवसंपन्चेसु घरेसु खत्तं खणिउं सुबहुं दविणजातं घेत्तुं अप्पणो घरेगदेसे कूवे सयमेव खाणित्ता तत्थ दव्यजात पक्खियति, जाहिच्छितं व सुकं दाऊण कण्णगं विवाहेउं पसूतं संति उद्दवेत्ता तत्थेवल अगदे पक्खिवति, मा मे भज्जा अवच्चाणि वा परूढपणयाणि हतूण रयणाणि परस्स पगासेस्संति, एवं कालो बच्चति, अण्णता ॥११॥ तेणेगा कष्णगा विवाहिता अतीच रूविणी, एसा पसूता संता तेण ण मारिता, दारगो से अट्ठवरिसो जातो, तेण चिंतियअतिचिरकालं विधारिता, एवं पुत्रं उद्दवेउं पच्छा दारय उद्दविस्सति तेण सा उद्दवेउं अगडे पक्खिचा, तेण दारगण गेहातो १२७|| acca5% दीप अनुक्रम [११६१२८ AN [115] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक * गाथा |११५ एगमि णगरे गोटे छेदा १२७|| श्रीउत्तराणिगच्छिऊणं कहा (धाधा ) कया, लोगो मिलितो, तेण भण्णति- मे माता मारितत्ति, रायपुरिसेहिं सुतं, तेहिं गहिओ, दिट्ठो भाइहलोकेचूर्णी 18 क्यो दब्वभरितो, अट्ठियाणि य सुरहूणि, सो बंधेऊण रायसगासे समुवणीतो, जायणापगारेहि सम्बं दव्यं दवावेऊण कुमारेण पिधनमनमारितो, एवं पहाय ते पास पयट्टिते गरे,एवं वणिजादयोऽपि कल्कादिविर्दैन (भिर्धनं) उपाज्य उत्प्रहाय परलोके वैरिविघातमा नुवंति, थायू स्वअसंस्कृता. न केवल परलो कर्मणा न केवल परलोके चेव ते दुक्खाई पार्वति, इहपि ते दुक्खाई पाविति, दिलुतो 'तेणे जहा संधिमुहे गहीते' वृत्तं | ॥१११॥ (११७-२०७) स्त्यायत इति तिणं, येन प्रकारेण यथा, संघानं संधिः, क्षेत्रमखमित्यर्थः, अत्रोदाहरणं-एगमि णगरे एगो चोरो, तेण अभिज्जतो घरगस्स फलगचितस्स पागारकविसीसंग खणित्तुं खत् खतं, खत्ताणि य अणेगागाराणि कलसागितिदिगवत्तसंहित(ताणि) पयुमामि(सुमागि)ति पुरिसाकिति वा,सो यतं कविसीसगसंठितं खत्तं खणतो धणसामितेण विनातो, ततो तेण अपविट्ठो पाएमु गहितो, मा पविट्ठो संतो आयुषेण वावाइस्सति, पच्छा चोरेण बाहिरठिएण हत्थे गिहितो, से हिंदोहिवि | बलवतेहिं उभयथा कडेज्जमाणो सतकितपागारकविसीसगेहि फालेज्जमाणो अत्ताणो विरवति, एवं स्वकर्मभिः कृत्यते पापकारी, IX एस दिट्ठतो, अयं अत्थोवणयो, 'एवं पया पेच्च इहंपि लोए' एवमवधारणे, प्रज्ञा(जा)यंत इति(प्रजा) कहाण कम्माण न-मोक्खो अत्यि', इह परत्र च , इहलोके तावत् पियविप्पओगअप्पियसंपयोगरोगदारिद्ददोभग्गदुक्खदोमणस्सादि , परलोके पुण नरगतिरियकुमाणसेसु सारीरमाणसाणि दुक्खाणि अणुभवंति, अवस्सवेदणीयाणि कर्माणि, अथवा 'एवं पया पेच्च इहपि लोए, ॥११॥ पण कम्मुणा बीहइ नो कतायि' प्रजा इत्यामंत्रणे, प्रजा इह परत्र च कर्मभिः कृत्यन्ते, तेनैवंविधानां कर्मणा(न) पीहयेत् कदा चित्, न प्रतिषेधे, क्रियत इति कर्म, पीहनं अभिलसनं प्रार्थनमित्यर्थः, यैः स्तेयादिभिः पापभिः कर्मभिः इह परत्र च पीड्यन्ते दीप अनुक्रम [११६१२८ A [116] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक सपरो [१] गाथा SAR |११५ १२७|| श्रीउत्तरा० तद्विधानां कर्मणां पीहनमपि न कुर्यान, किं पुनः करणमिति, अत्रोदाहरणं-एगंमि णगरे एगेण चोरेण रचिं दारोहे पासादे | आरोढुं खत्तं सतं, सुबहुं च दव्यजात णीणित, णिययघरं व संपाउं पमाताए स्पणीए पहातसमालो सुद्भवासो सो तस्थ भयाथे कृतस्य गतो, को किं भासतित्ति जाणणत्थं, जइ तावऽज्ज लोगो में न याणिस्सइ पुगोवि पुन्वठिाते चोस्पिं करिस्सासित्ति संपहारेऊण, असंस्कृतार वंदन तत्थ य लोगो बहू मिलितो संलवति-कधं दुरारोधे पासादे आरोदु विसत्येण खत्तं खत?, कहं च खुडूलएणं खचदुवारेण पविट्ठो, ॥११२॥ पुणोचि सह दव्वेण णिग्गतोत्ति, सो सुणिउ हरिसेउं चिंतेति-सच्चमेत, किं बहिं एतेण णिमातोचि अप्पणो उदरं कडिं च पलोएडं 4 खत्तमुहं पलोयति, सो रायनिउत्तिएहि पुरिसहिं कुसलाह जाणित्ता गहितो, राहणो उवनीतो सासितो य, एवं पावकम्मपत्थ-11 णेऽपि दोसे, किमु करणे, देहे वा हिंसादीणि पावकम्माणि, पमचा पावेहिं कम्मेहिं बझंति, तेवि पावगं च पाविति, जं च परस्स | |चोएति पावं कर्म कज्जति तस्स अप्पणा चेव वेदितव्यमिति, अत्रोच्यते, 'संसार' गाथा (११८-२०९) वृत्त, संमृतिः। संसरणं वा संसारः नरकादि, अथवा कोहादीय कम्मं, सो संसारो, समापनवान् समापन, परंपरेणति पुत्तस्स भज्जाए णट्ठाए एवमादि, उच्यते च 'संसारसमावो परस्स अट्ठाए 'परो णाम पुत्तबंधवादि, साधारणं नाम सव्वसामन्नं आत्मनिमिचं बंधुराज-16 ब्राह्मणनिमित्तं वा, 'कम्मस्स तो तस्स तु वेदकाले' तस्यति आत्मनिमित्तस्य साधारणस्येति वा, वेद्यते इति वेदः उदय इत्यर्थः, वेदस्स | कालः २, दानमानक्रियया बनातीति बंधु, पंधुः किल अहितनिग्रहहितग्रवृत्यर्थ, न बासी तदहितं कमें निगृहीतुं समर्थः, उक्तश्व-INMan 'सव्वस्स सयणमझे, एगो कस्सति दुहिडितो संतो । सयणोऽवि य से रोग ण विरिंचति व नासेति ॥१॥ इत्यनेन (न) बांधवा बांधवत्वं उचिंतित्ति-करेन्ति, अत्रोदाहरण- एगमि नगरे एगो वापिओ अंतरावणे संडवहरति, एगागी आमीरी उज्जुगा दो रूवमे --- - दीप अनुक्रम [११६१२८ AE%ER-SCHECCATE CRE [117] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूण ४ असंस्कृता. ॥११३॥ वेण कप्पासणिमित्तमुवट्टिता, कप्पासो य तदा समग्घो वहुति तेण वाणिएणेगस्स रूयगस्स संमितं लार्ड कप्पासो दिष्णों सो, जति दोण्हवि रूबगाण दत्तोति सा पोट्टलयं बंधेऊण गता, पच्छा वणियतो चिंतेति एस रूबगो मुद्दाए लद्धो, ततोऽहं एव उबजामि, तेण तस्स रूपगस्स समत्तघयगुलाइ किणिउं घरे विसज्जितं, भज्जा संलता- घयपुत्रे करिज्जासित्ति, ताए घतपुष्णा कया, इत्थंतरे उस्सुगो जामाउओ सवयंसो आगतो, से ताए परिवेसितो घयपूरेहिं, सो जिउं गतो, वाणियओ व्हायप्पवणो भोयणत्थमुवगतो, सो य ताए परिवेसितो साभाविएण भरोण, तेण भण्णति किं न कया य घयपूरा ?, ताए मण्णति कया, ते जामाउएतेण तेण सवयंसेण खइया, सो चिंतेति पेच्छ जारिसं कयं मता, सा बराई आभीरी वंचेतु परनिमित्तं अप्पा अपुष्णेण संजीइओ, एसो सचितो सरीरचिंताए णिग्गतो, गेम्हो य बट्टति, सो मज्झण्हवेलाए कयसरीरचितो एकस्स रुक्खस्स हा बीसमति, साधू य तेणोगासेण भिक्खाणिमित्तं जाति, तेण सो भण्णति भगवं । एत्थं रुक्खछायाए विस्सम, धम्मुवसमणंति, साधुणा भणियं ते व बक्खेवाइ, अहं अप्पणीचय कम्मं करोमि, तेण भण्णति-भगवं ! को वा परायत्तं कम्मं करेति १, जणु एस सव्वलोगो सकम्मउज्जुत्तो, साधुणा भणितं पणु तुमं चैव भज्जादिहेतुं किलिस्सति स मर्मणीव स्पृष्टः तेणेव एक्कवयणेण संबुद्धा, भगवं! तुम्हं कत्थ अच्छह?, तेण भण्णति उज्जाणे, ततो सो तं साधु कउज्जमत्ति य जाणिऊण तस्स सगासं गतो, धम्मं सोऊण भणति पव्वयामि, जाव सयणं आपुच्छिउं एति (मि), गतो शियगबंधवं भज्जं च भणति जहा आव विवहरंतस्स तुच्छो लाभगो होति, ता वणिज्जं करेमि, दो य सत्थवाहा, तत्थेगो आदातुं पक्खेवयं लाभं मग्गति, एगो पुण पक्खेवयंपि देति लाभगं च ण मम्गति, तं करणेण (कतरेण) सह वच्चामि १. ते भांति विवरण सद्धिं तेहिं सो समणण्णातो बंधसहितो गतो उज्जाणं, तेहिं भण्णः कतमो सत्यवाही ?, एस साधू [118] परार्थपापेकार्पासिकः ॥११३॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा |११५ पुत्रदृष्टान्तः १२७|| थाउत्तराळा असोगच्छायाए उवविट्ठो, णिययघरे बवहारावेति, ण य लाभयं गेण्डइ, एतेण सह सण्णेज्जाणपट्टणं आमित्ति पब्वइतो, जहेव ण | वनहराप चूणों बंधवा त्राणाय भवंति कम्मविवागकाले, एवमेव 'वित्तण ताणं ण लभे' वृत्तं (११९५० २२१) वियत इति विस-धणसुवण्णहि-15 पुरोहितअसंस्कृता. Hरणगाविभवणसयणादि, त्रायतीति त्राण ,ण हि तेण वित्तण लहते, कः ?, प्रमत्तः-पमत्तो विसएसु, पुब्वभाणितेण वापमाएण, इहापि | " तावलोके वित्तं न प्राणाय, किमंग पुण परलोगे',अत्रोदाहरण-एगो किल राया इंदमहादीणं कम्हिवि उस्सवे अंतेउरे विणिग्गच्छंतो | ॥११४॥ घोसणं घोसावति, जहा-सव्वे पुरिसा नगरातो निग्गच्छंतु, तत्थ पुरोहितपुत्तो रायवन्लभत्तण वेसाघरमणुपविट्ठो घोसिएवि ण HIणिग्गतो, सो य रायपुरिसेहिं निग्गहितो, तेण य रायवल्लभत्तणेण तेसिं किंचि दाऊण अप्पा ण मोइतो, दप्पायमाणो विवदंती IK मारायसगासमुवणीतो, राइणा बज्झो आणची, पच्छा पुरोहितो उवहितो- सबस्संपिय देमि, मा मारेज्जसु, सोवि ण मुक्को, मलाए भिण्णो, एवं विचेण ताणं न लभे पमत्तो, इहलोकिकमुक्तमुदाहरणं, 'अदुवा परत्थ' अदुवेत्यथवा, यदि वित्तं न त्राणाय इहलोके, कथं नु परलोके त्राणाय भविस्सति ?, उक्तश्च- अत्थेण दराया ण रक्खिओ गोहणेण कुइकनो। धनेण तिल्लयसेट्ठी पुत्तेहिं ॥ण ताइओ सगरो॥ १॥ एवमत्राणः शारीरमानसैदुःखरभिहन्यमानः न तस्स दुक्खस्स ग्रहणद्वारमुपलभते, को दिट्टतो', उच्यते, 'दीवे पणट्टे व अणंतमोहो'दीप्यते इति दीपः,सो दुविहो-दव्वदीयो भावदीयो य, तत्थ य दब्बदीवो दुविधो-आसासदीवो पगास दीवो य, तत्थ आसासदीयो समुदमझे जो दीवो वुज्झमाणा पासिउ पाविउं च आसासेदी सो आसासदीयो, पगासदीवो या हाता जोतनं पगासेति, तत्थ जो सो आसासदीवो सो दुविधा-संदीणो असंदीणो य, तत्थ संदीणो णाम जो जलेण छादेज्जति, सो णि जीवितत्थसंताणाय, जो पुण सो विच्छिण्णतणेण उस्सितत्तणेण य जलेण" छादेज्जति सो जीवितस्थीणं त्राणाय, असंदीणो GAPERENERA दीप अनुक्रम [११६१२८ [119] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा |११५ १२७|| श्रीउत्तरामदीयो जहा कोंकणदीवो, पगासदीयो णाम जो उज्जोयं करेति, सो दुविधो- संजोइमो सो तृणपुलकवर्तिअग्निकर्डसमवायेन | चूर्णी निष्पद्यते, असंजाइमो चंदादिच्चमणिमादि, एस दव्वदीयो । इदाणिं भावदीवो, सो दुविहो- आगासदीको पगासदीयो य, तत्थ स्वरूप आगासहीवो सम्मईसणं जं पाविऊण भविया जीवा संसारमहासागरे सदाकुवादिमहीवीयीहि अवुज्झमाणा आससंति, पगासदीवो 3 भदाद असस्कृता. णाम पंचप्पगारा गंदी, तस्थ आसासदीवो दुविहो- संदीणो असंदीणो य, तत्थ खओवसमियसम्मईसणदीवो पडिवातित्तिकाउं । संदीणो, असंदीणो तु खायगसम्मईसणदीबो, पगासभावदीचोवि दुविहो-विघातिमो संघाइमो य, तत्थ संघातिमो अक्खरपदपाद सिलोगो गाथाउद्देसगादिसंघातमयं दुवालसंग सुतज्ञानं, असंघातिम केवलनाणं, एत्थ दव्वदीचे पगासदीवमधिकरेऊण भण्णतिदीव पणटे व अर्णतमोहो, एत्थ उदाहरणं, जहा-केई धातुवाइया सदीवगा अग्गि इंधणं च गहाय विलमणुपविट्ठा, सो तेसिपमादेणं दीवो अग्गादओ य विज्झायाओ, ततो ते विज्झातदीवग्गिया गुहातममोहिता इतो ततो सवतो परिभमंति, परिभमंता य अप्पडिगारमहाविसेहिं सप्पेहिं डक्का, दुरुत्तरे य अधे संणिवतिता, तत्थेव निधणमुवगया, एवं दीवप्पणद्वेण तुल्लं दीपपणद्वेव, अमणमंतः अम्यते वा अन्तः नास्यांतोऽस्तीति अनंतः, जहा तेसिं गुहापविट्ठाणं विज्झातदीवग्गाणं दुवारमलभमाणाण तस्स तमसो अंत एव णस्थि, एवमेव संसारीणवि दीवपणहे वा अणंतमोहो भावदीवपणहाणं, 'अर्णतमोहे' ति मुखते +येन स मोहा, तकच ज्ञानावरणदर्शनमोहनयिमिति , अहवा अदुप्पगारं कम्मं सव्वमेव मोहो, तच्चास्यानतमित्यतोऽनन्त- * ॥११॥ मोहे, नयनशीलं नैयायिकं, मग्गामिति वाक्यशेषः, तं नेआउअमग्गमसौ दट्ठपि अदट्ठमेव भवति, जहा सो दीवपणट्ठो तं मग्गं दट्टणवि अदछ एव भवति, एवमसाववि अनंतमोहवान् संसारी आजवंजवीमावात् जगति दृष्ट्वा अदृष्ट एव भवति, दीप अनुक्रम [११६१२८ SAMAC-Set [120] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] चूणौँ 37-5 गाथा |११५ १२७|| * थीउत्तरा० किमभिप्रेतं ?, यतस्तमोऽभिघाताय नौद्यमते, अथवा नैयायिक मार्ग कश्चित् दृष्ट्वापि पुनर्मोहोदयात् पतति, जंहा ते विशा-II प्रतिबुद्ध जीवित्वं तपदीवा न जानंति कुतोवि लद्धार (तं दारं ), एवं पुत्रदारादिआसक्ता नैयायिक रष्ट्या अदृष्ट एवेति, मिथ्यादर्शनादभिनिवेशादा असंस्कृता | आइयं ददुमदट्ठमेव , एवंविधेसु संसारिमु ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयमहानिद्राकारिषु 'मुत्तेसु याविपरिषुद्धजीव। वृत्तं (१२०-२१३) सुपने सुप्तं सुप्तमस्यास्तीति सुप्तः, सुप्तवानित्यर्थः, चशब्दोऽधिकवचनपादपूरणेषु, सो दुविहो सुत्तो॥११६॥ |णिद्दामुत्तो भावमुत्तो य, तत्थ णिई पति सुत्तो जागरो य, एवं भावेवि, तत्थ णिहाजागरणे उदाहरणं अगलदत्तो, सा तेसु | चोरेसु (पुण पसुत्तेसु मुत्तेमु मु(स)खोडिपत्तेण पाउणिउं एगते जग्गंतो अच्छति,ते य चोरा परिच्चायगेण गिद्दापमत्तत्ति जाणिऊण सच्चे सिरच्छिण्णा कया, अगलुदत्तट्ठाणेवि किच्छेण पाउतेण पहारो दत्तो, तेणवि जग्गंतेण रुक्खगामज्झे ठितो, भगिणी भूमिगिहिपवेसणं, तापीय अप्पमत्तत्ताए व ण सकितो बंचेउं, एस दिटुंतो भावे समोतारिज्जति, पसुत्ता चोरा घातिता सोडू एगो ण धातितो, एवं जे मिच्छादिठीणो अविरता य भावतो पसुत्ता धम्मकज्जाई ण पेक्वंति, तेसु सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी, | अपि वाढाथै, भावसुनेसु वा जागरेण होयचं, मुच्चेसुधि च नातिनिद्राप्रमादवान, भावप्रतिबुद्धो नाम भावजागरः, प्रतिबुद्धजीवनशील: प्रतिबुद्धजीवी, ण विस्ससेज्ज कसायिदिएसु, 'पंडिते व 'पापाडू डानः पंडितः,आसुपति आसुप्रज्ञा नाम G संयम प्रति क्षणलवमुहुर्तप्रीतबुद्धमानता, आसु प्रज्ञा पस्य, क्षिप्रं प्रज्ञा उत्पयते तेण ण विस्ससतितव्ब, जहा कण्हकहाण 4 ॥११६॥ ४ा (ग)पक्खो, कम्हा ?'घोरा मुहुत्ता' घूर्णत इति घोरः, निरनुक्रोश इत्यर्थः कोऽभिप्रायः, पणु जाते पृथ्वण्हे अवरहे वा|| काएवि बेलाए मच्चू आगच्छति, अतः अल्पकालायुषकत्वात अनियमितकालत्वाच्च पुंसा निरंतरमेव संजातपनो भवेत, दीप अनुक्रम [११६१२८ - 11-24TAASA [121] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक 4 [१] गाथा %AE% |११५ १२७|| % श्रीउत्तरा० तमेव मुहुर्त न घोरत्वात् गत्वा पुनरत्येति, अथवा सगोचरप्राप्तस्य मर्थतीत्यतो घोराः, यथैप मगोचरं प्राप्ता, अस्य तावत् मामारंडवदचूणौं हमारेण भयमस्तु, एवं घोरा मुहूर्ताः, शरीरमपि अवलं, अल्पेनापि उपक्रमेणं उपक्रम्यते, एवं मत्वा- 'भारंडपक्खी व चरऽप्प प्रमत्तता | मत्तो', पक्ष्यतेऽनेनेति पक्षः, पक्षावस्यास्तीति पक्षी, तेसि किर दोण्डं तिपादा, जो मज्झिमतो पादो सो सामण्णो, पच्छा ते अप्प-। असंस्कृता. | मत्ता चरंति, मा एको वा एकको वा पच्छा पज्जुपेच्छा, पादो हीरेज्जा, अथवा मा पडिहामो, एवं साधूवि 'चरे पदाणि ॥११७॥ | पडिसंकमाणों' वृत्तं (१२१-२१६० युगपत्संभृतानि तस्येन्द्रियाणि, कपायाश्रितान्येव चापराधपदानि, उक्तं हि-'इन्द्रियविषयकषाया एतान्यपराधपदानि', यतोऽपदिश्यते 'चरे पयाई पडिसकमाणो' वृत्त, चरेदित्यनुमतार्थे, किं कुर्वन्?, पदानि परि परि संकमानो, पद्यते अनेनेति पद, परि सर्वतोभावे, सर्वतो संकमाणो परिसकमाणो, मा मे मूलगुणउत्तरगुणपदेसु छलणा होज्जत्ति, पाश्यते येन पाशः बंधनमित्यर्थः, जांकचि अप्पणा पमादं पासति दञ्चितितादि, दुविचितिएणावि बज्झति, किं पुण जो चितित्तु कम्मुणा | सफलीकरेति, एवं दुम्भासितदुच्चतिताति जे किंचि पास 'इहे 'ति इह प्रवचने मण्णमाणो, जाणमाण इत्यर्थः, स्यान्मति:-एवम-1 प्रमत्तः कह चरेत् 'लाभंतरे जीवित वूहहत्ता'लम्यंत इति लाभार, अंतरा छिनत्ति प्रयच्छति वान्तरं, लाभप्रयच्छतीति लाभान्तरं, | लाभ घरेति वा दातुं कातुं वा, जीव्यते येन तज्जीवित, 'वृहि वृद्धौ वृहयित्वा, कोऽभिप्रायः, जाव निज्जरालाभसमर्थ जीवितं | ताव वूहयामि, समानकर्तृकयोवृहयित्वा, पश्चात् किं कुर्यात् , उच्यते, 'पच्छा परिणाय मलावधंसी' पच्छा इति जाहे ण ॥११॥ णिज्जरालाभसमत्थं ताहे व जाणिऊण जाणणापरिणाए मलावधंसी भवति, कथमिदानी मह महतीए जराए वाघिणा वा | अभिभूतस्स अस्थि निज्जरालाभेचि जाणणापरिणाए जाणिऊण पच्छा सत्तधारणाए मलं अबद्धसेति- सूदेति तमिति, मले अष्ट PEAREECREOGRECARSACH % दीप अनुक्रम [११६१२८ % [122] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१... ] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा ० चूण ४ असंस्कृता. ॥११८॥ प्रकारं शोधयतीत्यर्थः, 'संसुध्वंसु अवस्रंसने ' लाभान्तरे, एत्थं मंडितचोरेण दिडंतो- बेचायडे नगरे मंडिओ नाम तुष्णाओ परदव्वहरणपसतो आसी, सो य दुट्ठरोगमिति जणे पगासंती जाणुसु दोसु णिच्चमेव अदपलेवालिचेण रायमग्गे तुष्णागसिप्पं उवजीवति, चकमंतोविय दंडधरिएण पादेण कथंचि किलिस्संतो चंकमति, रवि खाणिऊण दध्वजात घेतूण जगरसन्निीगडे ठ इआणेगदेसे भूमिधरं तत्थ णिक्खियति, तत्थ य से भगिगी कष्णगा चिट्ठति, तस्स भूमिधरस्स मज्झे कूबो, जं च सो चोरो दब्वेण य लोभेउं सहायं दब्बवोढारं आणेति तं सा से भगिणी अगडसमिवे पुथ्वणत्थासणे निवेसितुं पायसोयलक्खणं पादे गिण्हेऊणं तंमि कुवे परिक्खिवति, तत्थ य मूलदेवो रातो, सो तत्थेव विज्जति, एवं कालो वच्चति नगरं मुसंतस्स, चोरगहा य तंण सर्कैति गिव्हिउं, ततो नगरे उबरवा जातो, तत्थ य मूलदेवो राया, सो कथं राया संयुत्त १, उज्जेणीए नयरीए सब्बगणियाणं पधाणा | देवदत्ता णाम गणिया, ताए सद्धिं अचलो नाम वाणियदारओ विभवसंपन्नो मूलदेवो य सेवंति, दत्ताए मूलदेवो इट्ठो, गणियामाऊए अयले, सा भणति पुति ! किं एतेण पीतिकरणंति ?, देवदत्ताए भण्णति-अम्मो ! एस पंडिओ, तीए भण्णति-किं एस अमहियं विष्णाणं जाणतिः, अयलोवि मावणार कसा (लक्खितो) पंडितो वा, तीए भण्णति-अर्ध्यते, वच्च अयलं भण-देवदत्ताए उच्छु हाइउं सद्धा, तीए गंतूण भणितो, तेण चिंतियं-कतो पुनाई अहं देवदत्ताय पणवेत्ति, तेण सगर्ड भरेऊण उच्छुलकीण उवणीतं, ताए भण्णति-किं अहं इत्थिणी ?, तीए भण्णति वच्च, मूलदेवं भण-देवदत्ताए उच्छु खाइउं अभिलासचि, तीए गंतुण से कथितं, तेण कवि उच्छुलडी उच्छेदेत्तुं कंदादिया काऊण चाउज्जातादिसु वासिताउ काउं पेसियाओ, तीए भण्णति- पेच्छ विष्णाणंति, सा तुण्डिका ठिता, मूलदेवस्स पदोसमावण्णा, अयलं भणति अहं तहा करेमि जहा तुम मूलदेवं गण्हसित्ती, तेण असयं दिणाराण तीए [123] मंडिकचौरदृष्टान्तः ॥ ११८ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूर्णौ ४ असंस्कृता. ॥११९॥ माडिणिमित्तं दिनं ताए गंतुं देवदत्ताए भण्णति- अज्ज जयलो तुमं समं वसहितित्ति, इमे दिणारा दत्ता, अवरण्ड्वेलाए आगन्तुं भणति - अज्ज अयलस्स तुरियं कज्जं जायं, तेण गामं गतोसि देवदत्ताए मूलदेवस्स पेसितं, आगतो मूलदेवो, ताए समाणं अच्छति : गणियामाऊए अयलो संवाहितो अण्णातो पविट्ठो बहुपुरिससमग्गो, वेढियं तं गन्भगिहं, मूलदेवो य अहसंभ्रमेण सयणीयस्स हेट्ठा णिलुक्को, तेण अलक्खितो, देवदत्ताएवि दासचेडीओ संदिट्ठाओ अयलस्स सरीरमभंगादि घेत्तणुवट्ठिताता, सोवि तंमि चैव सयणिए ठियनिसन्नो भगइ - एत्थ चैव समणीए ठियं अब्भंगेह, ताओ भणंति--विणासेज्जति सयणीयं, सो भणति एतो उक्किद्भुतरं दाहामि, मया एवं सुविणो दिट्ठो जहा सयणीअभंगणउचलणण्हाणादि कातव्यं, तो तहा कयं, ताहे णिण्हाणगोन्लो मूलदेवो, अयलेण वालेसु यकसाय (पगहाय) कड्ढितो, संलतो य अणेण वच्चसु मुक्कोसि, इहरहा ते अज्ज अहं जीवितस्स विवसामि जति मया जारिस होज्जाहि तो एवं मुच्चज्जादि, ततो मूलदेवो अवमाणितो लज्जाते णिग्गतो उज्जेणीओ पत्थयणविरहितो, वेण्णायडं जतो पत्थितो, एगो य से पुरिसो मिलितो, मूलदेवेण पुच्छितो कहिं जासि १, विनायडंति, मूलदेवेण भण्णति-दोवि सम्मं वच्चामोत्ति, तेण संलतं- एवं भवतुति, दोवि पट्टिता, अंतरा य अडवी, तस्स पुरिसस्स संबलं अस्थि, मूलदेवो चिंतेति — एसो मम संघलेण संविभागं करेहित्ति, एहि सुए परे वा एताए आसाए बच्चति,ण से किंचि) देति, ततो ततियदिवसे छिन्ना अडवी, मूलदेवेण पुच्छितो णत्थि एत्थ अन्मासे गामो, तेण भण्णइ - एस णाइदूरे पंथस्स गामो, मूलदेवेण भण्णति तुमं कत्थ वससि ?, अनुगत्थ गामे, मूलदेवेण भणिओ तो क्खाइ अहं इमं ग्रामं वच्चामि तेण से पंथो उवदिट्ठो, गतो तं गामं मूलदेवो, तत्थ णेण भिक्खं हिंडतेण कुम्मासा लद्धा, पवण्णो य [124] मंडिकचौरदृष्टान्तः ॥ ११९॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा |११५ १२७|| श्रीउत्तरा कालो वदति, सो गामातो णिग्गच्छति,साधू य मासखमणपारणनिमित्त (आगतं) पासति, तेण य संवेगमावण्णेण भिक्ख पराए भत्ती-1 मंडिका चूर्णी ए तेहिं कुम्मासहि सो साधू पडिलाहितो,भणियं च णेण-'धण्णाण म नराणं कुम्मासा होज्ज मासगस्स पारणए',अविय देवताए अहासन्निहि- दृष्टान्तः ४ असंस्कृता LAIयाए भण्णति-पुत्त। एतीए गाहाए पच्छिमद्धेणं जे मग्गसि तं देमि, 'गणिय च देवदत् दंतिसहस्स प रज्जं च ' देवयाए भण्णति-IN म अचिरा से भविस्सतित्ति, ततो गतो मूलदेवो बिनायड, तत्थ खत्तं खणंतो गहितो, वज्झो णीणेति, तत्थ य अपुत्तो राया मतो, ॥१२॥ आसो अधियासितो, मूलदेवसगासमागतो, पडदावणं, रज्जे अभिसित्तो, राया जातो, स पुरिसो सदावितो जेण सह उज्जेणीए आगतो, सो पेण भणितो-तुभंतणियाए आसाए आगतो अहं, इतराऽहं अंतरा चेव विवज्जतो, तेण तुज्झ एसऽमुय गामो दत्तो, मा य मम समासं एज्जसुत्ति, पच्छा उज्जेणीएण रण्णा सद्धि पीति संजोएति, दाणमाणेण संपूरियं च काउं देवदत्ता णेण मग्गियति, तेण पच्चुवकारसंधिएण दिन्ना, मूलदेवेण अंतेउरे छुढा, ताए समं मोगे भुजति, अण्णया य अयलो पोतवहणेण तत्थ । आगतो, सुके विज्जते भंडे, जाई पोते दवणूमणाणि ठाणाणि ताणि जाणमाणेण मूलदेवेणं सोऽवि गिहावितो, तुमे दवं णूमीजंति, पुरिसेहिं पंधिऊण रायसगासमुवणीतो, मूलदेवेण भण्णति-तुम मम जाणेसि ?, सो भणति-तुभं राया!, को तुम ण याणति ?, तेण भण्णति- अहं मूलदेवो, सक्कारेउं विसज्जितो, एवं मूलदेवो राया जातो, ताहे सो अण्णं णगरारक्खितं ठोति, | सोऽवि ण सक्केति चोर गिहिउं, ताहे मूलदेवो सयं णीलकंबलं पाउणिऊण रति णिग्गतो, अणज्जतो एमाए सभाए निवण्णो अच्छति जाव सो मंडितचोरो आगंतु भणति-को एत्थ अच्छति ?, मूलदेवेण भण्णति-अहं कप्पडितो, तेण भण्णति-एह मणुस्सं ॥१२०॥ ते करीम, मृलदेवो उडितो, एगमि ईसरघरे खच खयं, सुबहुं दबजातं जीणेऊण मूलदेवस्स उवार चडावितं, पहिया णगरवा दीप अनुक्रम [११६१२८ [125] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : ४ असंस्कृता. ॥१२१॥ श्रीउत्तरा०हिरियं, जातो मूलदेवो पुरतो, पच्छतो चोरो, असेणा कड्डिएण पट्टितो एति, संपता भूमिघरं, चोरो तं दन्वं निहणिउमारद्धो, चूण भणिता यणेण भगिणी - एतस्स पाहुणस्स पादे सोएहि, ताहे कूवतडसंनिविट्टे आसणे उबवेसितो, ताए पाय सोयलक्खेण गहितो, जाय अतीव अतीव सुकुमारा पादा, ताए णायं जहेस कोति भृतपुण्यो विहलितगो ताए अणुकंपा जाता, ताए पादतले सणितो-नस्सत्ति, मा मारेज्जिहिसि, पच्छा सो पलातो, ताए बोलो कतो-गट्ठोत्ति, सो असिं कड्डिऊण मग्गिउं लग्गो, मूल| देवो रायपछे अतिसष्णिकिहुं गाऊण चच्चरि सिवतरितो ठितो, चोरो तं सिवलिंग एस पुरिसोत्तिकाउं कुंकुगिणेण असिणा दुहाकाऊण पभातार स्थणीए ततो निग्र्गतूण गतो बीहिं, अंतराचणे तुण्णगतं करेति, राइणा पुरिसेहि सहावितो, तेण चिंतितं - जहा सो पुरिसो णूर्ण ण मारितो अवस्सं स एत्थं राया भविस्सतिति तेहिं पुरिसेहिं आणितो, राइणा अन्डाणेण संपूइतो, आसणे णिवेसावितो, सुबहुं च पिये आभासिउं लग्गो, मम भगिणीं देहित्ति, तेण दिन्ना, विवाहिता य, रायणा भोगा य से संपदत्ता, कवि दिवसेसु गतेसु राइणा मंडितो भणितो-दब्वेण कज्जति, तेण सुबद्धुं दव्वजातं दत्तं, अण्णया रायणा संपतो. अन्नया पुणो मग्गितो, पुणो दिष्णो, तस्स चोरस्स अतीव सक्कारसम्माणं पउंजति, एतेण पगारेण स दव्वं दवावितो, भगिणी य से पुच्छिता, ताए भण्णति एत्तियं वित्तं ततो पुब्वावेदितलक्खणाणुसारेण दवं दवावेऊण मंडितो सुलाए आरोवितो, एस दिडतो, जहा मंडितो तेण ताव पूइतो जाय तत्तो लाभगो आसि, एवं सरीरमादि ताव आहारादीविधिहिति घेप्पति जाव निज्जरालाभो, सम्मत्ते पच्छा परिवज्जति, स्यादेतत्-- कोऽसौ परिज्ञाय मलं अवध्वंसयेदिति १, उच्यते, णणु छंदणिरोधो परिण्णा इत्यतोऽपदिश्यते छंदो आहारे जीविते शरीरे अनेसु य बाहिर मंतरेसु एतस्स छन्दस्स निरोषेण उवेदि मोक्खं, [126] छन्दोनिरोधः ॥१२१॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा |११५ १२७|| श्रीउत्तरा०को दिवतो ?, उच्यते, 'आसे जधा सिक्खितवम्मधारी' अनाति अनुते या अधानमिति अश्वः, येन प्रकारेण यथा, शिक्षित-18/ पश्चाद्विवे. चूणा दावान, वियतेऽनेनेति वारयते वा वर्म तं वर्म धारयतीति वर्मधारी, दिलुतो- एगेण राइणा दोण्डं कुलपुत्ताणं दो अस्सा दिण्णा, काभावः .४ तत्थेगो जहिच्छितावसधं च जहाकालोवगेण इद्वेण जबसजोग्गासणेण संरक्खमाणो चचुच्चितलालतघाइयजइणबंगाअसंस्कृता.IN दीणि सिक्खाविति, वितिओ को एयस्स इट्ठ जवसजोग्गासणं दाहितित्ति घरटे बाहेऊण ततो चेव जवसं जोगासणं देति, तुसे | ॥१२२॥ खारेति, सेसं अप्पणा अंजति, संगामकाले उबट्टिते रण्णा वुत्ता-तेसु चेव आसेसु आरूढा संगाम वा पपिसह, तत्थ जो सो पुग्ध खारेति. सेसं अण्णा । वणितो आसो सो सारथिमणुअत्तिमाणो संगामपारतो जातो, इयरो य असम्भावभावणाभावितत्वात् गोधूमर्जतज्जुत्त इव तत्थेव भमिउमाढत्तो, तं च परा उवलक्खेउ हतसारथिं काउं गृहीतवंतः, एत्थ पसत्थेण उवमा, आसे जहा सिक्खितवम्मधारी, पास्यान्मतं-केवचिरं सिक्खावेतवा, उच्यते, ण हि संगामंसि खित्तो जह सिक्खविज्जा, णिक्खिउं ण पुण सिक्खिज्जति, ण एवं इह, दुविहंपि सिक्खं सिक्खमाणो 'पुब्वाणि वासाणि चरप्पमत्तो' पूरयंतीति पूर्व, वर्षतीति वर्ष, ताणि पुन्वाणि वासाणी, का का भावना , पुच उसो जया मणुया तदा पुष्वाणि, जदा परिसायुसो तया परिसाणि, चरेदित्यनुमताथ, अप्रमाद एव इहाध्यलायने वयेते,तेनाप्रमत्तः मधादिभिः, तस्मादेतदप्रमादात् मुनिरिति, साधुरेव जणोर, खिप्पमिति एगेण भवेण उबेति-गच्छति मोक्ख सिद्धिमिति । अत्राह चोदक:- सकते मुहुर्त दिवसं वा अप्पामादो काउं, जं पुण भण्णति-पुव्याणि चासाणि चरप्पमत्तो, एव-| १२२।। पतियं कालं दुक्खं अप्पमादो कज्जति, तेण पच्छिमे काले अप्पमादं करेस्सामि, उच्यते, 'सपुब्वमेवा ण लभेज्ज पच्छा,"। वृत्तं (१२३सू २२४ ) स इति निर्देश, तस्स पुर्वकालपमातिणो, एवमवधारणे, नैवासौ, न लभते, समाधिमिति वर्तते, आराधणं | दीप अनुक्रम [११६१२८ RSE C [127] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक वृद्धत्वे [१] गाथा ||११५ १२७|| श्रीउत्तरा काच, अहवा एव उपमाने, एवमसौ पूर्वकालप्रमादी अकतपरक्कमो ण लभे पच्छिमे काले समाधिमिति, उक्तब्च- 'पुव्वमकारितचूणौँ जोगो पुरिसो मरणे उबहिते संते । ण चइति व सहितुं जे अंगहि परीसहणियादे ॥ १ ॥ 'एसोवमा सासतवातियाणं' युज्जत दीक्षाss. Hइति बाक्यशेषः, एप इति प्रत्यक्षीकरण, उपमीयते अनयेति उपमा, शश्वद्भवतीति शावतं तेषां एपा उपमा युज्जते, यथा-पच्छा दशावैफल्यं असस्कृता. धम्मं करेस्सामी, के य सासयवादिया ?, उच्यते, ये निरुव्यक्कमायुणो, ण तु जेसिं फेणबुब्युयभंगुराणि जीविताणि, अथवा अविवेके सासयवादी णिण्ण अप्पमत्तो कालो मरतो जसिं एसा दिट्ठी, जो पुष्वमेव अकयजोगो सो ‘विसीयइ सिढिले आउयम्मि' त्राझणी विसेसेण सीदति सिढिलं सोचकर्म बहुअपार्य, कालं काले कालेण वा उवणीतः कालोवणीतः, मरणकालमित्यर्थः, 'शरीरस्य भेदो'त्ति शीर्यत इति शरीरं शरीरस्य शरीराद्वा भेदः, अथवा जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ भेदो-भिद्यत इति भेदः, एत्थ दिटुंतो एक्केण राहणा. मेच्छाणं आगमणं जाणिऊणं विसए उग्घोसावितं, जहा पुरिसा (णाणि)णि दुग्गाणि य समस्सीयउ, मा णे मेच्छेहिं विणासिज्जिहिय, तस्थ केइ अवहाय बयणसम चव दुग्गमस्सिया, अण्णे पुण सयणासणवसहधण्णांइसु गिदा असद्दहता ण खिपं दुग्गाणि समस्सिया, मेच्छा य उवगया, तत्थ जे दुग्गाणि न समस्सिया ते तु सयणभोगावभोगादिगिद्धा रायवयण असद्दहंता, ते मेच्छेहि बेढिया विसदिति , पुचदारविभवभेदे बढ़ते, एवमकृतपरिकर्मणि आयोज्यं । किंचान्यत्- स एवमकृतपरिकर्मा 'खिप्पं ण सकेति' वृत्तं ( १२ सू०२२४) क्षिप्रमहीनकालं, विविच्यते येन स विवेगः, १२३॥ आहारोपकरणादिपु सक्तः पच्छिमे काले खिप्पं ण सकेति, अथवा सन्चस्सामण्णा एतप्पमादप्पमादावितिकाउं गिहस्था-1 विहु परं परारित्ति पथ्यइस्सामो सोऽवि जरापत्तो मरणकाले वा खिप्पं ण सकेति विवेगमेतुं पुत्रकलत्रादिसक्तः, जरादि २-२ दीप अनुक्रम [११६१२८ 4- मकर Ekt. . [128] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा e dar |११५ १२७|| श्रीउत्तरापरीसहासहिष्णुः, तस्मात् ज्ञात्वा सम्यगुत्थानेन समुत्थाय, अन्यान्यपि मिथ्योत्थानानि भवंति चोरादिक्रियासु कुप्रवचनेषु | आत्मचूणों इहापि च निदानशल्योवहतानि, इदं तु परलोकाशंसां पति प्रहाणतण 'पयहाहि कामे' प्रकर्षेण जहाहि कामा इत्थिIविसया सेंसदियभोगा, कामग्रहणेण भोगावि भणति, खिप्पं ण सकेति विवेगमेतुंति एत्थ उदाहरण- एगो मरुओ परदेसं प वधूदाहरणं असतीगंतूण साहापारओ होऊण चिसयमागतो, तस्सण्णेण मरूएण खद्धपलालिगचिकाउं दारिका दचा, सो य लोए दक्षिणातो ॥१२॥ सम्भति, परविभवे बद्धति, तेण तीसे भारियाते सुबहुत अलंकारं कारियं, सा णिच्चमंडिता अच्छति, तेण भण्णति-एस पच्चंतगामो तो तुम एताणि आभरणगाणि तिहिपव्वणीसु आधिाहि, कहिंवि चोरा उवागच्छेज्जा तो सुई गोविज्जति, सा भणति- अहं ताए वेलाए सिग्धमेव अवणेस्संति, अण्णया चोरा तत्थ पडिता, ता तमेव य णिच्चमंडितागिहमणुपविट्ठा, सा तेहिं सालंकिता गहिता, सा य पणितभोयणत्वात् मंसोपचितपाणिपादा ण सकेति कडगादीणि अवणेऊ, तओ चोरेहिं IAL तीसे हत्थे छित्तण अवणीता, गिहिउं च अवकता, एवं पुथ्वं अकयपरिकम्मा पत्ते काले ण सक्वेति विवेगमेतु, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे, प्रजहाय कामान् किं कर्तव्यं ?, उच्यते, समेत्यैव लोक, अहवा जेण कामा चत्ता भवंति तेण समिश्रो भवति, ते पुग समिच्च लोग, सम्यक् एत्य समेत्य, ज्ञात्वेत्यर्थः, पृथिवीकायादिलोकं, समभावो समता 'जह मम ण पियं दुक्वं' इत्यतः प्राणिनां दुक्खं न कर्तव्यं, महतं एसतीति महेसि, मोक्ष इच्छतीत्यर्थः, आत्मानं रक्षतीत्यात्मरक्षा, चरेदित्यनुमतार्थे, अत्रोदा-14 1 हरणं-एगा बणियमहिला पवसितपतिया सरीरसुस्मसापरा दासभतकगम्मकरे निजणियोगेमु ण णियोजयति, ण य तेसिं3. ॥१२४॥ कालोचनं जहिह आहार भतिं वा देति, ते सम्बे णडा, कम्मतपरीहाणीए विमवपरिहाणी, आगतो चाणियो, तहाविधं पस्सिऊण | Remak दीप अनुक्रम [११६१२८ ह- [129] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा -ACA-NERA- ||११५ १२७|| श्रीउत्तरा०पच्छा सा तेण निच्छुढा, अनं तु सुपुक्खलेण मुंकेण वरेति, लद्धा यऽणेण, तेण तसे नियगा भणंति- जति अप्पाणं स्पर्शजया चूर्णी रक्खा तो परिणेमिति, तंचव दुग्गतकण्णाए सोतुं णियगा भणति- रक्खीहं अप्पगंति, सा तेण विवाहिता, गतो वाणि-II तुच्छ ज्जेणं, सावि दासकभयकम्मगराण त संदेसं दाउं तेसि पुन्वण्हिकायि काले भोयणं देति, महुराहिं च वायाहिं बउहेति, मति है जुगुप्सा असंस्कृता. वा तेर्सि अकालपरिहीणं देति, ण य सरीरसुस्मसापरा, एवमप्पाणं रक्खंतीए भत्ता उवागतो, सो एवंविहं परिसऊण तुहो, ॥१२५॥ IXI तेण सव्वसामिणी कया, एवमिहापि पसत्यापसत्थे समोतारेयवं, कथमप्रमत्तमात्मानं रक्षेद, उच्यते, क्षणलवमुहूर्तमप्रमादयन्, । | अप्रमत्तस्य हि सतो यद्यपि 'मुई मुहं मोहगुणे जयंतं' वृत्त (१२५ सू०२२५) मुहरानेडिते पुनः पुन मुंबते मुहूमई, मोह-1 | गुणाः शब्दादयः जतंवन्ति, अणेगा इति अणेगलक्षणा, इट्ठा ये रोचयति रोचते रूवं 'समणमिति समणाणं तरंतं कर्म, फासा | फुसंति-स्पृशंति, असमंजसा णाम अननुकूला, अनभिप्रेता इत्यर्थः, अथवा शीतोष्णदंशमशकादयः, ण तेसु भिक्ष मणसा पदुस्से, | यदा से असमंजसाः स्पृशति जहा सणा(दो), सेसावि विजया, एतसि पुणो विसयाण सम्बेसि दुरधियासतरा फासा, जतो व.IN |वदेस्सते ' मंदा य फासा बहुलोभणिज्जा' वृत्तं (१२६ सू०२२६) मंदा णाम अप्पा, अथवा मंदंतीति मंदाः खियः, मंदाणं 5 दाकासा २, मंदबुद्धित्वात, मंदा मंदा य फासा मंदसोक्खा बह फासा, पायाइबक्खालाश्च मंदार, पठ्यते च मंदाउ तदा हियस्स बहुलोभणेज्जा' मंदाः स्त्रियस्ते हि बहूनां कामिना लोभं कुर्वति, विभ्रमेंगिताकारादिभिः प्रकारों में कुर्वति, तेन प्रकारेण मनाता तन अकारण ॥१२५॥ तथा, तहप्पगारा- तहावस्था, अंत दुःखदा इत्यतः तासु मणपि न कुज्जा, किं पुण आसेवर्ण , एग्गगहणे तज्जातीयगहणंति, दासेसेचि वयातियारे ण कुज्जा, उक्ता मूलगुणरक्खा, इमं तु सम्मइंसणरक्षत्थं उपदिस्सति 'जे संखता' वृत्त, (१२७ मू० २२७) दीप अनुक्रम [११६१२८ BASTAR [130] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||११५ १२७|| श्रीउत्तराजे इति निर्देशे, संस्कृता नाम संस्कृतवचना सर्वज्ञवचनदत्तदोषाः, अथवा संस्कृताभिधानरुचयः, तुच्छा णाम आसिक्खिता इति, मरणे चूर्णी प्रवदनशीलाः प्रवादिनः, ते पेज्जा प्रेम्णो भावः पेज्ज, दोषण दोषः, अनुमता अनुसृता, परज्झा परवसा रागद्दोसवसगा अजिति निक्षेपा ५ अकाम- दिया, अतो 'एते अधम्मात्ति दुगुंछमाणा 'एते इति ये ते रागदोसपरज्झा अधम्मा य ते, न मोक्षाय, अथवा जो एतेसिं भेदाच मरणे सह संसर्गः तद्दशर्नाभिरुचिर्वा एतं अधम्मोत्ति दुगुंछमाणो, उक्तं हि. 'शंकाकांक्षाजुगुप्सा' 'कंखे गुणे' णाणसणचरित्त॥१२६॥लागुणे, केच्चिर फुच्छितब्ब १, उच्यते, 'जाव सरीरभेदो' तिबेमि, भिद्यते इति भेदः जीवो वा सरीरातो सरीरं वा जीवातो || | तिमि णयाः पूर्ववत् । असंखतं सम्मत्तं । इइ असंखयाहिहाणचउत्थायणस्स चुण्णी समत्ता॥ एवं अप्पमत्तेण जाव मरणता ताब कुच्छितब्बति णाम, मरणान्तमितिकृत्वा मरणविधिरभिधातव्यत्यनेनाभिसम्बन्धेलानाध्ययनमायातं, तस्स चत्तारि अणुयोगदाराणि, सच परवेऊण णामणिप्फमो निक्खेवो अकाममरणेज्ज, ण कामं अकाम, तत्थेग कामं निक्खितव्वं 'कामाणं तु णिक्खेवो' गाहा (२०८-२२९) कामा चउबिहा- गामादिकामा 'पुब्बु दिहि' ति जहा सामन्नपुव्वए, णवरं एत्थ अभिप्पेतकामेहिं अधिकारो, अभिप्पेतं णाम इच्छाकामो, अकामो सकामो लावा जो मरणं मरति तं मरणं छन्विहं- णाममरणं ठवणा० दब. खेत्त० काल० भावमरणं, णामठवणातो गतातो, 'दब्यमरणं कुसुम्भादिएसु' गाथा (२०९-२२०) दवमरण जहा- मतं कुसम्भगमरजगं, मृतमन्नमव्यंजनं, एवमादि, खेत्तमरणं जो जीम खेते मरति जैमि वा खेत्ते मरणं वबिज्जति, कालमरणं वा (जो जमि) काले मरति जमि ॥२६॥ वा काले मरणं वन्भिज्जति, भावमरणं वाऽऽयुखयो, तं भावमरणं दुविध-ओहमरणं तब्भवमरणं च, ओघमरणं ओघः संक्षेपः। दीप अनुक्रम [११६१२८] RE अध्ययनं -४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -५- “अकाममरणीय" आरभ्यते [131] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक मरणे [१] निक्षेपा भेदाच गाथा ||१२८ Xxx ॥१२७॥ १६o. श्रीउत्तरा पिंड इत्यनर्थान्तरं, जहा सबजीवाणवि य णं आयुक्खए मरणंति, तम्भवमरणं जो जंमि भवग्गहणे मरति मेरइयभवग्गहणादि, चूणीं टू एत्थ पुण मणुस्सभवम्गहणेण अधिकारो।। तस्स पुण एयातो दो दारगाथाओ, तंजहा 'मरणंमी(प)विभत्ती' गाहा(२१०-२३०) ५ अकाम-IA'मरणंमिवि एकमेके' गाहा(२११-२३०) मरणविभत्तिपरूवणा, अणुभावो, पदेसग्ग३ कइ मरतित्ति, कतिखुत्तो वा एक मरंति, मरण एकेके मरणे कतिभागो भवति सबजीवाण६,अणुसमयं समयंसंतरं वाटएककं वा केच्चिरं कालं मरति९,एवमेदाणि णव दारााण, तत्थ पढम दारं मरणविभत्तीपरूवणति, एयाण तीहिं गाहाहिं उवसंगहिताणि भवति-तंजहा 'आवीई' (२१२२३०)'छउमस्थ (२१३-२३०, सत्तरस'(२१४-२३१)आवीचियमरणं अवधिमरणं आदियंतियमरणं वलायमरणं वसट्टमरणं५ अंतोसनमरणं तब्भवमरप्पं बालमरणं पंडितमरणं वालपंडितमरणं १०छउमत्थमरणं केवलिमरणं वेहाणसमरणं गद्धपद्रुमरणं भत्तपरिबा१५ इंगिणी पाउवगमणत्ति, तथा आवीचीमरणगाहा-'अणुसमय णिरंतरं' गाहा (२१५-२३१)आवीचीनाम निरंतरमित्यर्थः, उपवनमत्त एव जीवो अणुभावपरिसमाप्तेः निरंतरं समये समये मरति, तं च पंचविध-दब्वाचीचियमरणं खेत्तावी० कालावी. भवावी. भावाचीचियमरणं, दबाबीचियमरणं चउबिह. तं०-णेरइयदव्वावीचियमरण जाव देवदव्याविचीयमरणं, जं रहया गेरइयदन्वे बट्टमाणा जाई दवाई लागेरइयाउअचाए गहिताई ताई दवाई आवीचि अणुसमयं णिरंतरं मरतीतिकटुणेरइयदव्यावीचीमरणं, एवं जाव देवाणवि । खेत्ता वीचियमरणं चउबिह- तंजहा- नेस्यहखेत्तावीचियमरण,जे ण नेरइया नेरइयखेते बद्दमाणा जाई दवाई गेरदयाउयत्ताए गहिताई सेसं जहा दवावीचियमरणे, कालेवि चउब्बिहो, नपरं जं नेरइयकाले वट्टमाणो जाई दव्वाई सेसं तहेव, एवं भावावीचिमरणेवि, लणवरं जण्णं णेरइयभारे वट्टमाणा जाई दवाई सेसं तहेव । इदाणि ओहिमरणं, (२१५||-२३२) अवधिमर्यादायां, अवधिनाम यानि दीप अनुक्रम [१२९१६० ॥१२॥ [132] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१२८ १६०|| दीप अनुक्रम [१२९ १६०] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा || १२८-१६०/१२९-१६०|| निर्युक्तिः [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूर्णां ५ अकाम द्रव्याणि साम्प्रतं आयुष्कत्वेन गृहितानि पुनरायुष्कत्वेन गृहीत्वा मरिष्यति इत्यतो अवधिमरणं, तंपि पंचविधं तं० द०वी० खेो० कालो० भवोधि० भावोहिमरणे, दव्वोधिमरणे चउच्विधे णेरहया रहयदच्वे वट्टमाणा जाई संपई सरंति, जण्णं णेरड्या ताई दब्वाई अणागते काले पुणोवि मरिस्संति नेरहए, एवं सेसावि, खेत्तोवधिमरणं चउब्विहं एमेव, णवरं जण्णं णेरड्या णेरइयखेत्ते वट्टमाणा मरणे एवं रइयकाले वट्टमाणा णेरइयभवे णेरइयभावे बट्टमाणा. ओहिमरणं गतं । इदाणिं आदियंतियं मरणं (२३३-२३१) आत्यंतिक ॥१२८॥ ॐ अवधिमरणविपर्यासाद्धि आदियंतियमरणं भवति, तंजहा- यानि द्रव्याणि सांप्रतं मरति, मुंचतीत्यर्थः, न सौ पुनस्तानि मरि ध्यति, तंपि पंचविहं णेरहयदव्यातियंतियमरणं, जे पेरश्यदव्ये वट्टमाणा जाई दवाई संपयं मरंति ताई दब्वाई अणागते कालेण पुणो ण मरिस्संति तं णेरइयदब्वातियंतियमरणं भवति, एवं सेसाणवि, एवं खेतेवि कालेवि भवेऽवि भावेवि, आतियंतियमरणं गतं ॥ इदाणिं बलायमरणं- 'संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं बलायमरणं, जेसि संजमजोगो अत्थि ते मरणमन्वगच्छति, ण सव्यथा संजममुज्झति से तं बलायमरणं, अथवा वलंता क्षुधापरीसहेहिं मरंति, ण तु उवसग्गमरणंति तं बलायमरणं । इदाणिं वसट्टमरणं'इंदियावसतवसगता' गाहा ( २१७-२३२ ) जे इंदियविसयवसट्टा मरंति तं वसमरणं तद्यथा- वलभो रुववग्गो चक्षुरिंद्रियवशार्त्तो त्रियंते, एवं शेषैरपीद्रियैः (शेषाः) । अंतोसल्लमरणं 'लज्जाए गारवेण' गाहा (२१८-२३२) 'गारव' (२१९-२३२) एवं समल्ल ( २२०-२३३ ) गाहातयं सिद्धं, एवं अवोसल्लमरणं, इदाणिं तन्भवमरणं भवति, तं केषां भवति केषां न भवतीत्युच्यते'मोतृण कम्मभूमय' गाथा ( २२१-२३३ ) कंठ्या केसिंचिति मनुष्याणां तिरिक्खजोणियाणं च केसिंचि ण सब्वेसामेव, गतं तन्भवमरणं । इदाणिं बालमरणं, असंजममरणमित्यर्थः । पंडिताण मरणं पंडितमरणं, विरतानामित्यर्थः, मिस्सा णाम बालपं [133] मरणे निक्षेपा भेदाव ॥१२८॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक - [१] गाथा - ||१२८ - १६०|| श्रीउत्तरा०डिताः, संयतासंयता इत्यर्थः, तस्स मरणं बालपंडितमरणं, छउमत्थमरणं छउमत्थसंयताण मरणं जाव मणपज्जवणाणीण केवलिणं मरणे दा निक्षेपा चूर्णी मरणं केवलिमरणं ।। गेद्धपढे गाम मृतशरीरमनुप्रविश्य गृद्धद्वाराऽऽत्मानं भक्षयति, वेहाणसं नाम उबंधणं, आदिग्गहणणं उस्सासणि-181 भेदाच ५ अकाम- रोधा, एते उण गिद्धपुट्ठवेहाणसमरणा कारजाते अणुण्णाता, 'भत्तपरिषणा इंगिणि' गाथा (२२५-२३५) भचपच्चक्खाणं णाम | मरण केवलमेव भत्तं पच्चक्खातं, ण तु चक्रमणादिक्रिया, पाणं वा ण णिरुमति, इंगत इति इंगिणी, चलतीत्यर्थः, न चाहारयति चतुर्वि॥१२९॥ ४ धमपि,पायव इव (उवगमणं) पाओवगमनं, हत्थाइहि छिनो दुमो वन चलति,मरणविभत्तिपरूवणत्ति पढम दारं गत।। इदाणि | अणुभागति, तत्थ गाहा-'सोवक्कमो य निरुवकमो य' गाथा (२२६-२३७) दुविहो मरणाणुभागो भवति, तंजहा-सोवक्कमो निरुवक्कमो य,अणुभा गोत्ति वितिय दारं गत।। इदाणि पदेसग्गा, अर्णताणता आयुगकम्मपोग्गला जेहि एगमेगो जीवपदेसो वेढियपरिवेढितो,पदेसग्गत्ति तइयं दारं गतं ॥ इदाणिं कति मरति एगसमएणंति-'दोन्नि व तिमि य' ( २२७-२२९ । २३७) तत्थावीयीयमरणं ताव णियमा मरंति सचे, तव्यज्जा शेसेसु आदिअंतिएसु सिया मरंति, जत्थ पुण ओही तत्थ आइयंतिये | णस्थि, जत्थ वेहाणसं तत्थ गद्धपटुं णस्थि, एवं पालपंडितमिस्साणिनि परोप्परविरुद्धवाणि, छउमत्थकेवलिमरणा य विरुद्धा, सेसाणि बुद्धया पेक्षाणि, कह मरति एगसमएणति चउत्थं दारं गतं । इदाणि कतिखुत्तो एफेके मरंति,एत्थ अप्पसस्थाण संखेज्जाPIणि वा असंखज्जाणि वा, संखेज्जआणि ताव पंचीदयाण देसविरतदसणसावगस्स, सेसाग पुढविआउतेउवाउपादियतदिय चउरिदियाइएमु असंखेज्जाणि, वणस्सइकाइयाण अर्णताई अप्पसस्थाई, पसत्थाई सत्त अहवा, अहवा केवलिमरणं एगे, कइखुत्तो एक.क.मरइत्ति गये । इदाणि कतिभागी एक्कक्के मरणं मरइत्ति, तत्थ पढमे मरणे अणंतभागूणसधजीवाण मरणं, दीप अनुक्रम [१२९१६० CRI [134] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||१२८ १६०|| श्रीउत्तरा० सेसेसु पुण मरणेसु अर्णतभागो मरइ, तत्थ गाहा-'मरणे (२३१-२३९) बुद्धया प्रेक्ष्यं । इदाणिं अणुसमयंति, पढम जाच आयुग | जिनोक्तता चूणा धरेति, सेसाणं एक्कसमयं जहिं मरति । इदाणिं अंतरं-पढमचरिमाणं णत्थि अंतर, सेसाण जच्चिरं काळं अंतर होति । ५ अकाम HIइदाणिं केवइयत्ति केवतिय काल भवति, चालमरणाणि अणादीयाणि वा अपज्जवसिताणि, अणादियाणि वा सपज्जमरणे बसिताणि, पंडितमरणाणि पुण सातियाणि सपज्जवसियाणि, 'सव्ये दारा एते' गाथा (२३२-२४०) कंठ्या । ॥१३०॥ 'एत्थं पुण अधिगारो गाथा (२३५-२४१) एत्थ अहिगारो मणुस्समरणेणं, (त) दुविध- सकामं अकामं च, मोत्तुं अकाममरणं | सकाममरणेण मरियव्य । गतोणामनिष्फण्णो, सुत्ताणुगम सुचमुच्चारतव्वं, तं इम-'अण्णवं' सिलोगो (१२८सू०२४१) अणेवो सामन्यते मन्यति वा तमिति महान् महंति वा तमिति, महांबासौ ओघश्च महौधः, तत्र द्रव्यमहाण्णवः समुद्रो भावमहाणेवा भवा, लमहौषो नाम अनोरपारो, अगाधं अप्रतिष्ठानमित्यर्थः, तस्मिन् अर्णवे महौषे बहुसु पवादिषु एगोतरति दुत्तरं,एगो नाम रागदोस-14 विरहितो, अहवा कम्ममलावगमना यदा शुद्धमेवेग जीवदन्वं भवति तदा तरति, दुक्खं उत्तरिज्जतीति दुरुत्तरं, कर्मगुरुत्वात् । संसारिभिः अपरिमाण्यात् , अनुमानतब यस्तु तरति तीणों वा तत्धेगे महापणे, वर्तमानकालग्रहणं तरबेवासी धम्मदेसर्ण ल| करोति, ये तु निष्ठोच्चारणं कुर्वते ते अज्ञानोघतीर्थादुत्तर(चीणाः)तत्र तरबपि सर्व एव धर्मदसणं करेति,जतो विरुद्धं धीयमानं,तत्थेगे ॥१३॥ FIमहापण्णा, तस्मिनिति संसाराणये व्यवस्थितः, एक इति स एव रागद्वेषरहितः, न अन्नपाणादिहेत, अथवा संसारार्णवं तमवाप्यापि । कश्चित् एव धर्म देशयति, तद्यथा-तीर्थकरा, अपरे हि केवलमवाप्यापि नैव धर्म देशयंति, तद्यथा- प्रत्येकबुद्धा, वित्थकरो णियमा धम्म देसति, सेसा साधु भयणीया, स एकः महती प्रज्ञा यस्य स भवति महाप्रज्ञा,'इदं पहमुदाहरे स्पष्टं नामासंदिग्धं उदाइतवा. दीप अनुक्रम [१२९१६०] -% A [135] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] चूर्णी गाथा ||१२८ -k १६०|| श्रीउत्तरान , पठ्यते च 'इदं पण्हमुदाहरे' पृच्छंति तमिति प्रश्नः, किमुदाहेर?, 'संतिमे खलु दुवे ठाणा सिलोगो (१२९० २४१) संति विद्यते, दुवे इति संख्या, तिष्ठति यत्र तत् स्थान, आख्याताः प्रथिता, मृत्युमरणं अमनमंतः मरणांते भवा मारणान्तिकाः, तद्यथा काम विमागः १ अकाम-4 अकाममरणं चेव सकाममरणं तथा, अकामस्स मरणं अकाममरणं,सकामस्स मरणं सकाममरणं, एतं दुविहंपि मरण कस्स भवति, मरणे तत्स्वाNउच्यते 'यालाणं अकामं तु' सिलोगो (१३०२० २४२) द्वाभ्यामाकलितो वालो, रागद्वेषाकुलित इत्यर्थः, ते हि बाला अकामा मिनः ॥१३शामरंति, न उस्सवभूतं मरणं मन्नति, तत्थ असकृत्-अनेकशः, पापा डीनः पंडितः, पंडा वा बुद्धिः तया इत:-अनुगतः पंडितः तेसिं पंडितानां सकाममरणं, तं तु सति-उक्कोसेण एकसि भवति, तं केवलिना, असौ हि तं मरणं नेत्येव इत्यतः सकाममरणं, कामं जीविते मरणे वाऽप्रतिबद्धाः अकेवलिनोऽपि, तहाविदीह संजमजीवितमपि नेच्छति, किमु भवग्गहणजीवितं , एतेसि अकामसकाममरणानां किमंग पढम भाणितव्वंति, उच्यते, 'तथिमं पढ़मं ठाणं' सिलोगो (१३१ सू०२४२) तस्मिन्निति-तस्मिन् मरणविभागे | इममिति-प्रत्यक्षं हदि व्यवस्थाप्य भणति- पढममिति, यतो द्वितीयाद्यत् प्रथमं तत्, स्थाप्यत इति स्थानं, महंत बीरियं जस्स सो महावीरो तेण महावीरेण, देसियं परूवितं अक्खातमिति, काम्यत इति कामः, गृध्यते स्म गृद्धा,यथा येन प्रकारेण वालो भवति, संति अत्यर्थ अतिरुद्राणि कर्माणि कुव्वति-कुर्वति ।। 'जे गिद्धे कामभोगेहिं' सिलोगो (१३२ ० २४२) जे इति अणिहिस्स उद्देशे,ळू गृध्यते स्म गृद्धा,काम्यन्त इति कामा,भुजंत इति भोगाः,कामा इति विसयाः,भोगाः सेसिदियविसया,कामा य भोगाय कामभोगाः तेसु॥॥१३१॥ कामभोगसु,एगो एको नाम बालः,अथवा एकं मरणमवाप्य सुहृद्धनधान्यान्यवहाय कूडाय गज्छति, कूडं नाम एव ( यंत्र) यत्र ते पाषाकर्मण्यव्योध्य(भिर्याध्य)ते,तत्र कूडबद्ध एव मृगानरकपालव्याधैर्हन्यमानो दुःखमुत्तरति,अथवा कुडं दुविहं दव्यकूडं च भावकूडं च, दीप अनुक्रम [१२९१६० ROPEG-4 - - MECCSCARDCORRO -on-M [136] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१२८ १६०|| श्रीउत्तरा०दवकूडं यत्र मृगादयो बध्यन्ते, भावकूडं विषयापातो, तानासवतेत्यर्थः, स च कामभोगातिप्रसक्तः यदि परेणोच्यते ( तदा बक्ति-बाल प्रवृत्तिा चूर्णी न मया दृष्टः परो नरकादिः लोको भवो, विषयरतिस्तु दृश्यते, पश्यति ) येन तच्चक्षुः तेण देहा चक्षुदिट्ठा, इमा इति प्रत्यक्षीकरणे, ५ अकाम कायेयमिष्टविषयप्रीतिप्रादुर्भावात्मिका रतिः, अप्येवं 'हत्थागता इमे कामा' (१३३ सू०२४३) हसंति येनावृत्य मुखं प्रति हंति | माणे वा हस्ताः, कश्चित्तु जातिमरणादिभिरुपपादितपरलोकसद्भावः ब्रूते- कामं परलोकोऽस्ति, तथापि हस्तागताः- हस्तप्राप्ता, न दूरस्था ॥१३२॥ इत्यर्थः, कालेन भवाःकालिकाः, इमे हि आता प्रत्युत्पन्नाः साम्प्रतमेव भुंजंति, दिव्यास्तु कालान्तरेण भविष्यति वा नवा, न हि | कश्चित मुग्धोऽपि ओदनं बद्धेलनकै मुक्त्वा कालिकस्योदनस्यारंभ करोति, अबरस्तु संदिग्धपरलोक आह-को जाणाति परे लोको, जानातीत्याशंकायां, को जानातीति तत्त्वतः, तेण परलोको अस्थि वा पत्थि वा, इत्येवमस्मिन् संदिग्धेऽर्थे णणु 'जणेण सद्धिं होक्वामि' सिलोगो (१३४सू०२४४) जायत इति जनः तेन सह परत्र भविष्यामि, एवं बाले पगम्भति, प्रगल्भति णाम धृष्टो भवति, करिष्यमाणकुर्चत्कृतषु च प्रगल्भीभूतो कामभोगाणुरागण कामणुरागेण केसं संपडिवज्जीत इह परत्र च ।। ततो से दंड मारभति' सिलोगो (१३५५०२४४) प्रगल्भभावात् असाविति स वाला, देव्यतेऽनेनेति दण्डा, समित्येकीभावे, एकीभावन आर13मति समारमति 'तसे सुधावरेसुप' प्रसी उद्वेजने, वसंतीति त्रसाः, ठा गतिनिवृत्ती, तिष्ठतीति स्थावराः 'अट्ठाए अणहाए य'। Mइयनि तेन इच्छति वा तमिति अर्थः, अट्ठाय नाम यदात्मनः परस्य चोपयुज्जते, तद्विपरीतमनाय, केवलमेवमेव इति न सदुपभोग ८ ॥१३॥ ४ करोति, अत्रोदाहरणं-जहा एगो पसुवालो प्रतिदिन प्रतिदिनं मध्याहगते रवी अजासु महान्यग्रोधतरुसमाश्रितासु तन्थुत्ताणओ & निवन्नो वेणुविदलेन अजोद्गीर्णकोलास्थिभिः तस्य वटस्य पत्राणि छिद्रीकुर्वन् तिष्ठति, एवं स वटपादपः प्रायसः छिद्रपत्रीकृतः, दीप अनुक्रम [१२९१६० [1371 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] श्रीउत्तरा चूणौँ ५ अकाम अनर्थे पशुपाल: गाथा मरणे ||१२८ ॥१३३॥ १६o. अण्णदा य तत्थेगो राइयपुत्तो दाइयधाडितो तं छांय समस्सितो, पेच्छते य तस्स वडपादवस्स सव्वाणि पत्ताणि छिद्दिताणि, तेण सो पसुपालतो पुच्छितो- केणेताणि पत्ताणि छिद्दीकताणि, तेण भण्णति- मया एतानि कीडापूर्व छिद्रितानि, तेण सो बहुणा दबजातेणं विलोभेउ भण्णति-सक्केसि जस्स अहं भणामि तस्स अच्छीणि छिद्देउं?, तेण भण्णति-वुडन्भासत्थो होउ तो सकेमि, तेण णगरं णीतो, रायमग्गसंनिकिटे घरे ठवितो, तस्स य रायपुत्तस्स राया स तेण मग्गेण अस्सवाहणियाए णेज्जति, तेण भण्णतिएयरस अच्छीणि फोडेदि, तेण गोलियधणुयएण तस्स हिगच्छमाणस्स दोवि अच्छीणि फोडिताणि,पच्छा सो रायपुत्तो(राया) जातो, तेण पशुपालो भण्णति-मूहि परं, किं ते प्रयच्छामि?, तेण भण्णति-मज्झ तमेव गामं देहि, तेण से दिनो, पच्छा तेण तम्मि पच्चतगामे उच्छु सोषियं तुंचीओ य, निष्पन्नेसु तुम्बाणि गुले सिद्धित्तु तं गुडतुम्बयं भुक्त्वा भुक्त्वा गायते स्म 'अमरपि सिक्खेज्जा, सिक्खियं न निरस्थयं । अट्टमट्टप्पसाएण, मुंजए गुडतुंबयं ॥१॥ तेण ताणि वटपत्राणि अणट्ठाए छिद्रितानि, अच्छीणि तु अढाय, भूतग्गाम चोद्दसविहं-- मुहुमा पज्जत्तयापज्जत्तया बादरा पज्जत्तयापज्जत्तया में दिया पज्जचयापज्जत्तया तेइंदिया पज्जत्तयापज्जत्तया चउरिदिया पज्जत्तयापज्जत्तया असन्निपंचेंदिया पज्जत्तयापज्जत्तया समिपंचेंदिया पज्जत्तयापज्जत्तया एवं चोइसविहंपि विविधं अनेकप्रकारे हिंसा, एवं सो रहा (५) 'हिंसे वाले मुसाबादी' सिलोगो (१३६ सू०२४५) जहा से | अडाणडाए हिंसति तथा मुसावाते अट्ठाणहाए कूडसक्खिमाति करेति, मीयतेऽसौ मीयते वाऽनयेति माया, प्रीतिशून्य इति पिशुन:, शठ्यते शठयतीति वा शठः, शठो नाम अन्यथा संतमात्मानमन्यथा दर्शयति, मौ(मोडिकचौरवत्, भुंजमाणे सुरं मंसं मन्यते स भक्षयिता येनोपभुक्तेन बलवन्तमात्मानमिति मांस, एतदेव श्रेयो मन्यन्ते, परलोक सुखान्यपि तावन्न प्रार्थयति, दीप अनुक्रम [१२९१६० ॥१३३ kik% __r [138] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक अल्स्सकवत गाथा पापानां मला ||१२८ १६०॥ श्रीउत्तराकिम मोक्षामिति, स एवं भोगेऽवितृप्तात्मा 'कायसा वयसा मत्ते' सिलोगो (१३७ सू०२४५)अहो मम सरीरबलं पीरिय-10 चूणा बलं वा, तथा बुद्धिर्मनो वाग्वा शोभितेति मत्या मत्त, विच नाम धणं विभवो वा तेण वा मत्तः, गृहश्च स्त्रीपु, 'दुहतो मलं मरणे | संचिणति' द्विधा दुहओ मृद्राति तमिति मलं, स्वयं कुर्वन् परैश्च कारयन्, अथवा अंतःकरणेन बाह्येन चा, तत्रान्तःकरण नाम मनः पाद्यं वाचिक, अथवा रागेण द्वेपेण च, अहवा पुग्नं पाषं च, अहवा इहलोयबंधणं पेज्जं च, सम्म चिणीत संचिणाति, शंसति || ॥१३॥ व तेनेति शिशुः वाल इत्यतः, नास्य अगम किंचित्रागः, शिशुरेव नागः२ गंडूपद इत्यर्थः, मृचंति तामति मृत्तिका, स हि शिशु नागः मृदं भुक्त्या अंतो मलं संचिणति चहिया भावत्वाद् देहस्य, स हि पांशूत्करेषु सर्पमाणः सर्वो रजसा विकार्यते, ततो। धर्मरश्मिकिरणैरापीतस्नेहः तामिव बहिरंतश्च प्रतप्ताभिमुद्भिः, शीतयोनिनिदह्यमानो विभाव्यमामोति, एष दृष्टांता, उपनयस्तु | एवमसावपि बाण(ल)स्वेऽपि सुसंचितमलः इहैव मारणांतिक रोगैरभिभूयते, कथं तत्र भविष्यामः, न हि पापकोणः सुख-18 मृत्यवो भवंति, ते हि तैः पापकर्मभिः प्रत्युद्गतैरिहैव शुष्यति ॥ ततो पुट्ठो आतकेहिं' सिलोगो (१३६ सू०२४५) ततःतस्मादिति प्राक्पापकर्मोदयात् स्पृष्टवान् स्पृष्टः, तैस्तैर्दुःखप्रकारैरात्मानं तंकयतीत्यातंका, तथाप्यंतकाले सर्वग्लानवान् ग्लानः। समंताचप्पत इति परितप्यति, बहिरंतश्चेत्यर्थः, एवं 'पभीतो परलोकस्स' भृशं भीतः प्रभातः, परलोकभयं नाम नारकादि|प्वनिष्टवेदनोदयः, 'कम्माणुप्पेही ताणि विहिंसादीनि दुश्चरितानि कर्माण्यनुप्रेक्षमाणः अनुचितयन् इत्यर्थः, अप्पा आत्म 6 निर्देशः, यद्यप्यसद्गृहात् विषयभयाद्वा प्राक् परलोकं न गणितवान् परलोके भयंति च, तथाऽप्यंतकाले सर्वस्यासन्नभयस्य(स्यात् उत्पद्यते परलोकभयं वा, तथापि भूयिष्ठेषु नरकदुःखेषु भयमुत्पद्यते, तद्यथा- 'सुता मे णरए ठाणा' सिलोगो | XIE% % दीप अनुक्रम [१२९१६०] % ॥१३४॥ % % [139] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक १) गाथा ||१२८ १६०|| श्रीउत्तरा०२(१३९सू०२४६) दीर्यते पापकर्माण इति नरकाः, तिष्ठति तस्मिन्निति स्थानं, तत्र रौरवमहारौरवलोलुगक्खदुक्खडादीनि | पापाचूर्णी अथवा कुंती चेयरणी य वा, शीलयतीति शीलं, अशोभनशीला इत्यर्थः, अथवा शुभ शीलं येषां नास्ति तेऽशीला, तुर्विशेषणे || नामपि ५अकाम परलोक किं विशेषयति ?- निरयगतिगमण, अशीलानां तुजा गति 'बालाणं कूरकम्माणं' कंतन्तीति क्रूराः पापा इत्यर्थः, हिंसाकम्मे | मरणे प्रवृत्ताः क्रूरकर्माणः, पगाढा णाम निरंतराः, तीवाः उक्कडा, जत्थेति यत्र, वेद्यत इति वेदनाः शीता उष्णा च, अथवा शारीर-1 ॥१३५॥ मानसाः, 'तत्थोववातियं ठाणं' सिलोगो ( १४० सू०२४७) तत्थेति नरकेषु, उपेत्य तस्मिन् प्रपततीति प्रपातः, उपपातासं जातमौंपपातिक, न तत्र गर्भव्युक्रांतिरस्ति येन गर्भकालान्तरितं तन्त्ररकदुःखं स्यात्, ते हि उत्पनमात्रा एव नरकवदनाभिरभिभूयन्ते, यथा-येन प्रकारेण 'मे' इति मया 'त' मिति तं नरकदुःखं अणुस्सुतं परलोकभीरुभिः साधुभिराख्यायमानं अनुश्रुतं, अथवा बालादयोऽपि सम्प्रतिपद्यन्ते यथा पापकर्माणो नरकोपगा भवति, ते य 'आधाकम्मे हिं गच्छन्ति' आधाय कर्माणि आधाकम्माणि अतः तेहिं आधाकम्मेहिं यथाकर्मभिः, आधाकम्मेहि तीस्तीनवेदनेषु चिरस्थितीयेषु च, एवंविधमध्यमामध्यमेष्वपि, स एवं परितप्पति, को दृष्टान्तः- 'जहा सागडिओ जाणं' सिलोगो | (१४१सू०२४१) येन प्रकारेण यथा, शक्यते धनं धान्यादि वोढुं शकटं,शकटेन चरति शाकटिका, जानन्निति जानानः, सम्ममिति पतगर्तारहितं, हिच्चा नाम हित्वा,महंतीति महान,पथ्यतेऽनेनेति पथः, महांश्चासौ पधश्च२ राजवर्तिनीति शकटपथो वा, पिसम |॥१३५।। | मग्गमोगाढा अयाणओ थाणुबहुले पत्थरखाणुबहुले वा आरूढः प्रपत्र इत्यर्थः, अहवा उगाढे उचिनो वा, अश्नुत इत्यक्षः | अक्षस्य भंगे शोचत इति शोचयति-जतिऽहं खु एएण पहेण ण गच्छंतो ण मे सगडभंगो दव्वविणासो वा होतो,एवं सोयति, दिटुं दीप अनुक्रम [१२९१६० - on-CRESIDEOS [140] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा मरणे 3 ||१२८ १६०॥ श्रीउत्तुरा शतस्स उवसहारो हमा- 'एवं धम्मषियो' सिलोगो (१४२ सू०२४१) एवं अनेन प्रकारण, धारेति संसारातो पडमाण धम्मो, सपुण्यचूर्णी ला Pा मरणं 18सो दसविधी समणधम्मो, विविध प्रकार उत्क्राम्य, अधम्म-धम्मपडिबक्खो अधम्मो, सो य हिंसे पाले मुसाबादी, तं पडिव५ अकाम |ज्जिया, पालो मच्चुमुहं पत्तो मरणं मृत्यु,खद्यते तत् खतंते वा तं इति मुखं,मृत्योर्मुखं२,प्राप्तवान् प्राप्तः, स यदा मृत्योर्मुखं प्राप्तः | 'अक्खभग्गे व सोयति' एवं-सोवि एवं मरणसंनिधौ वेदनादिभिः स्वकर्मभिरात्मानमनुशोचमानः॥'ततो से मरणतंमि' ॥१३६॥ सिलोगो (१४३ सू०२४८) तत इति तस्मात्,मरणमेवांतः मरणांतः, वाल उक्तः,समंता त्रसति संत्रसति, विभ्यते येन तद्भय, कतर *स्मान, परलोकभयात्, मारऊण अकामतु- मरमाणे अकामत एव प्राप्ते, अतिक्रांतकालग्रहण क्रियते, कश्चिदिह भूयिष्ठपापकर्मा | नैव परितप्पते, सतु मरिऊणं अकाम तं नरकं प्राप्य परितप्यतीति वाक्यशेषः, भृशं तप्यति परितप्यते, धुत्ते वा कलिणाऽनुजितोऽनुशोचति, 'एयं अकाममरणं' सिलोगो (१४४ सू०२४८ ) एतोऽस्मान , शेपं कंव्यं, 'मरणंपि सपुन्नाणं' सिलोगो (१४५ सू०२४८) म्रियते येन तन्मरण,पुणातीति पुण्य, सह पुण्येन सपुण्य, अपिरनुज्ञायां, मरणमपि तेषां जीवितवद्भवति, न हि ते तस्मात उद्वित, उक्तं हि-' पूर्वप्रेषितपरिजनमुपवनमिव सर्वकामगुणभोज्ज। सुखमभिगच्छति पुरुषः परलोकसु(क) संचितैः पुण्यैः॥१॥'जहा मेतमणुस्सुतं' ति यथा मया तदेतदनुश्रुतं आचार्यपारंपर्यात, स्यादेवत्-कैराख्यातं ?, उच्यते, 'सुप्पसनेहिं अक्वातं' सुष्ठु प्रसन्नाः सुप्रसना वीतरागा इत्यर्थः, अजातदकागमा द्वादश इदा इव सुप्रसन्नाः, ततोऽनंतराग-1॥१३६॥ | समर्थ गणधराः सूत्रीकुर्वतः एवमाहुः, सुप्पसनेहिं अक्खातं, पठ्यते वा 'विप्पसनमणाघातं शिविधैः प्रकारैः प्रसन्नाः, काही भावना, न हि ते म्रियमाणा व्याकुलचतसो भवंति, अत्यर्थ घातः आघातः न त्वापात: अनाघात, नासौ तस्य विधि CREX दीप अनुक्रम [१२९१६०] E [141] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक सपुण्यमरण [१] गाथा ||१२८ १६०|| श्रीउत्तरा० वत्संलिखितात्मनः प्राणातिपातो गम्यते इत्यतो अनाघातं, इदं केषां ?, उच्यते-'संजताणं वुसीमतो' वशे येषामिन्द्रियाणि ते चूर्णी भवति बुसीम, वसंति वा साधुगुणेहि युसीमतः, अथवा चुसीमंतः ते संविग्गा, तेसिं बुसीमतां सचिग्गाणं वा स्यादिति, अन्येरि ५ अकाम- गेरुयलिंगमादिणो अणसणेण मरंति तत्प्रतिषेधार्थ भण्णति-‘ण इमंसव्वेसिं भिकावूर्ण' सिलोगो (१४६ सू०२४९) ण इति प्रतिमरणे षेधे, इममिति प्रत्यक्षभावे, सर्वेषां तावत् भिक्खुणं न भवति, शाकपरिव्राजकादीनां न भवति, भावभिक्खूण तु भवति, अगार॥१३७॥ मस्यास्तीति अगारी, अगरिणामपि सर्वेषां न भवति, ये हि लिंगमभ्युपेत्य संलखनाजापितात्मानः तेषां पंडितमरणं, न शेपाणां दृष्टीना, स्यादेतत्-कि सर्वेषां तदस्तीति निगद्यत 'नानासीलाय गारस्था' नानार्थातरत्वेन शीलयति तदिति शील-स्वभावः, अचार तिष्ट्रतीत्यागारस्था, ते हि नानाशीला, नानारुचयो- नानाच्छंदा मयंति, ये तावत् मिथ्यादृष्टयः ते काचित् मोक्षं नेवेच्छति, यथा) ९. मरुकाः, कुप्रबचनभिक्षवोऽपि केचिदभ्युदयावेच यथा तापसाः पांडुरागाश्च, येऽपि मोक्षायोस्थिता तेऽपि तमन्यथा पश्यति, केचि दारंभात केचिद्देसादिभ्यः सारंभादित्यतो णाणाशीला य गारस्था,लोकोत्तरघरत्था हि ण सब्वे सीलधणान स(च वब)सिता मरंति, रवि लोकोत्तरभिक्षवोऽपि ण सच्चे अणिदाणकरा णिस्सल्ला वा, ण वा सव्वे आसंसापयोगनिरुपहततपसो भवंति इत्यतो विसमसीला यभिक्षुणो। किंचान्यत्-'संति एगेहिं भिक्खूहि' सिलोगो (१४७ मू०२४९)संतीति विद्यते, एके नाम प्रवचनभिक्षक, नचरकादयः ते अगारत्था संजमुत्तरा, कतरति !, श्रावकाः, ते हि ज्ञानपूर्वक परिमितमेवारंभंते सघृणा, सातुरा न स्युः, इत्यतः संति एगति भिक्खूहि गारत्था संजमुचरा, उक्तंच-'देसेक्कदेसविरता समणाणं सावगा सुविहियाणं । जेसिं परपासंडा सपमपि कलन अग्बंति ॥१॥ स्वादेतत्-श्रावकसाध्वोः किमतर?, उच्यते,गारत्धेहि यसवेहिं साहुसावएहि परतिस्थिएहि व साधवः संजमुत्तरा, आहरणं, दीप अनुक्रम [१२९१६० ॥१३७१ [142] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा Rec%e ||१२८ १६o. श्रावक श्रीउत्तराएगो सावगो साधु पुच्छति- सावगाणं साधृण य किमतरंति?, साधणा भण्णति सरिसवमंदरंतरं, ततो सो आउलीभूतो पुच्छति ॥ सद्गतिः चूणा कुलिंगीण सावगाण य किमंतरंति ?, तेण भण्णति-तदेव सरिसवमंदरंतरं, स आसासितो। अत्राह-ननु कुलिंगिनोऽपि तलिंगमा | ५ अकाम II श्रित्य धमोथे घोराणि तपस्याचरन्ति, तेभ्यः कथं श्रावको गुणविशिष्टः, ण ताणि लिंगाणि भयात् त्राणाय इत्यताऽयदि मरण श्यते- 'चीराइणं' सिलोगो (१४८-२५०) चितंति तदिति चीर-वल्कलं, अजति तेनेत्यजिनं चर्मेत्यर्थः, णियणं णाम नग्गा ॥१३८॥ एव, यथा मृगचारिका उद्दण्डकाः आजीवकाच, जोयत इति जडाः, संघातीत्यत इति संघाटी, मुंडी आशिखः, एताणिपि ण ताणाए, ण य ताणि यावत् उद्दिष्टानि, अपिरनुज्ञायां, अन्यान्यपि यादृशानि, परिगमनं पर्याया, गिहत्थपरिआगतो अन्ना पीपरियाओ दुस्सीलाणं परियागता। आह- ननु तेऽपि धर्मार्थमेव पाकादिनिवृत्ता भिक्षाहारा एव, उच्यन्ते- 'पिंडोलपवि उदुस्सीलो' ॥१४९-२५०।। सिलोगो, पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगा,नयन्ते तस्मिन् पापकर्मा स्वकर्मभिरिति नारकाम, अत्रोदाहरणं- रायगिहे नगरे एको पिंडलओ उज्जाउज्जाणियाविणिगतो भिक्खं हिंडति, णय किणवि किंचिद्दिन्नं, | सो तेसि वेभारगिरिपब्वतकडगसन्निविट्ठाण पब्बतोवरि चडिऊण महतिमहालयं सिल चालेति, एतेसि उरि पाडेमिति रोद्द ज्झाई विच्छुट्टिऊण तओ सिलाओ पडितो णिविडो सिलातले, संचुणितसबकायो य मरिऊण अप्पइट्टाणे णरए उव|वण्णो, एवं पिंडोलओ दुस्सीले परगातो ण मुञ्चति 'भिक्खाए ति अकु भक्षणे, भिक्षामाकुरिति भिक्षाका, धमाथे । कामान् गृहातीति गृही, वियत इति वतं शोभनं व्रतं यस्य स भवति सुत्रतः, क्रमति गच्छति, दिव्यति तस्मिन्निति दिवं,81 न दिवं॥१३८॥ सुव्रते कमते दिवं, सुव्यतो दुविधो आगारी अनगारी च, किमनयोः फलमिति, गृहिसुव्रतस्य तावत् 'अगारि सामाइयंगाण' Date- - दीप अनुक्रम [१२९१६० - [143] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१२८ १६०|| दीप अनुक्रम [१२९ १६०] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा || १२८-१६०/१२९-१६०|| निर्युक्तिः [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३ ], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीउत्तरा० चूर्णी ५ अकाम मरणे ॥१३९॥ ।। १५०-२५० ।। सिलोगो, अगारमस्यास्तीति अगारी, अगारसामाइयस्स वा अंगाणि आगारिसामाईयंगाणि, समय एव सामाइयं, अङ्ग्यतेऽनेनेति अंगं, तस्स अंगाणि वारसविधौ सावगधम्मो, तान्यगारसामाइयंगाणि, अगारिसामाइयस्स वा अंगाणि, 'सी कारण फासए' श्रद्धा अस्यास्तीति श्रद्धी स चैवं धम्मंमि मोक्खे वा, 'कारण' ति कायो सरीरं तेण फासए, ते न केवलं कारण, मणसा वायाएवि, सब्वदुकरं कारण, 'पोसहं' इत्येतत् प्रोसहग्रहणात् । किंचान्यत् — पोसह उभयतो पक्षं, पतत्त्यनेनेति पक्षः, एकैकस्य द्वौ द्वौ, कृष्णशुक्लौ भवतः, रातीति रातिः, एपि राई ण हवेज्जा, चतुर्विधस्यापि पौषधस्य येन केनचित् समस्तेन व्यस्तेन वा पौषणगुणेण अवञ्झं दिवसं कुज्जा, रातादिग्रहणेणं जर दिवसतो ण सक्केति वातुलत्तणेण अ(पु) तत्तणेण वा, तहावि देसावगासियं, असति य तस्सेसं वा पच्चक्खाति, अथवा बंधानुलोम्यात् रात्रादेरेकतरग्रहणेऽपी| तरस्य ग्रहणात् वेदितव्यं भवति । एवं सिक्खासमावनो' ॥१५१-२५१॥ सिलोगो, एवम् अनेन प्रकारेण, शिष्यतेऽनेनेति शिक्षा, | सम्यगापनो, गिदेसु वासो गिवासो, शोभनान्यस्य (व्रतानि) सुध्वए य, 'छव्वाओं' छादयति छादयंति वा दमिति छिद्यते वाऽसौ छवि, पुज्जए एभिः शरीराणीति पव्वाणि इत्यर्थः, जाणुको परादयः कोऽभिप्रायः १, नासावन्यतमे च सपर्वशरीरे आगारी मुच्यते, किन्तु नासावनन्तरभविकं छविपर्वमासादयति, स हि पर्वसरीरं मुक्तत्वा 'गच्छे जक्खसलोगयं ' जयन्ति यान्ति | क्षयमिति यक्षाः तेषां सलोकतां समानलोकतां गतमित्यर्थः, तओ चुओ पुणो छविपव्वसरीरमासादेऊण चारित्रवान् भूत्वा सिद्धयति, उक्तं जगारिसामाइयंगाण फलं, एतदपि पच्छिमसंलेहणाजूस जूसितस्स सकाममरणमेव, अणगारसकाममरणफलप्रसिद्धये इदमुच्यते- 'अह जे संबुडे भिक्खू' ॥ १५२ ॥ सिलोगों, पुर्व प्रेक्षताऽपेक्षो अथशब्दः संवृत्तः 'दोहमे [144] श्रावक सद्गतिः ॥१३९॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक गाथा ||१२८ १६० श्रीउत्तरागयर सिया' अयं चान्या अयं चान्यः अयमन्ययोरन्यतरः, कतरसिं जेसि सो अनतरो भवति , ननु 'सव्वदुक्खप्प-10 अनगार सकामहीणे वा' सव्वाणि दुक्खाणि- सारीरमाणसाणि, महती ऋद्धिरस्य स मवात महड्डी, यः स्यादुदितः स कतरे उववज्जई, 20 ५ अकाम मरणं मरणे विमाणेसु, उच्यते-'उत्तराई' ।।१५३-२५२।। सिलोगो, उत्तराणि नाम सब्बोपरिमाणि जाणि, ताणि हि सव्यविमाणुत्तराणि | तेसिं तु अण्णाई अणु(उ)त्तराई णथि, इत्यतः अणुत्तराई,विमोहाई विमोहानीति निस्तमासीत्यर्थः, तमो हि वाद्यमाभ्यन्तरं च । ॥१४०॥ बाह्य तावदन्येष्वपि देवलोकेषु तमो नास्ति, किं पुनरनुत्तरविमानपु?, अभ्यंतरतममधिकृत्यापदिश्यते-सर्व एव हि सम्यग्दृष्टयः IM अथवा मोहयंति पुरुष मोहसंज्ञातः स्त्रियः, ताः तत्र न, सातं, द्योतते तेनेति द्युतिः द्युतिस्तेपो विद्यत इति युतिमतानि, अणुपुश्वसो नाम जारिसया सोहम्मईसाणेसु द्वितीओ एत्तो अणतगुणविसिहा अणुत्तरेषु,ताणि पुण विजयादीणि पंच, समाइण्णाइ जक्खेहि सर्वतः कामतस्तं वा आकीर्णानि समाकीर्णानि, अथवा सम्यगाकीर्णानि प्रतिभागशः तानि,सनिकृष्टविप्रकृष्टरि(नी)त्यर्थः आपसंति तेयपि आवासानि, अनुते लोकेबिति यशः, यश एषामस्तीति यशांसीति, न तेषु मनुष्यता कस्यचिदस्ति येन यशोभागिनस्ते नस्युरिति, येऽपि तत्र नोत्पीते तेऽपि कल्पोपगेषपपद्यमाना, तेऽपि तत्र यान्युत्तराणि तेषूपपद्यते, उक्ता विमानगुणाः । अथैषां के . गुणास्तत्रोपपन्नानां?, उच्यते-दीहाउया' ।।१५४|| सिलोगो, दीर्यत इति दीर्घः एति याति वा तस्मिन इत्यायुरित्यनेनेति, ऋद्धिः ॥१४०॥ सम्यक् ऋचन्ते समृद्धाः सर्वसंपदुपर्पता, कामतः रूपाणि कुर्वन्तीति रूपाः कामरूपाः, स्याद्-अनुत्तरा न विकुर्वन्ति, ननु तेषां तदेवेष्ट रूपं येन सत्यां शक्ती प्रयोजनाभावाच्च नान्यद्विकुर्वन्ति, अहुणोववन्नसंकासा अभिनवोपपन्नस्य देहस्य सवस्यैवाभ्यधिका रद्युतिभवति अनुत्तरेष्वपि, अनुत्तरास्तु आयुःपरिसमाप्नेः अहुणोक्वनसंकासा एव भवंति, स्यात्-तेषामाभिनयोपान्नानां कीडग प्रमाला दीप अनुक्रम [१२९१६० [145] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१२८ १६० श्रीउत्तरा० उच्यते- 'भुज्जोअम्चिमालिप्पभा' भूयो विशेषण, अर्चते अर्चिः अर्चयन्ति था तमिति अर्चिः अर्चीवास्यास्तीति अर्चिष्मा-IN चूर्णी हाली स चादित्यः, भूयोग्रहणादादित्यादप्यधिक एव। 'ताणि ठाणाई गच्छन्ति ॥१५५-२५२।। सिलोगो, 'ताणी' ति जाणि ताणि || मृतानां ५ अकाम- उद्दिहाण, तिष्ठन्तीति ठाणाणि, गच्छन्ति व्रजन्ति, सिक्खिता ज्ञात्ता, करेत्ता य, संजमो सत्तरसविहो, स तु को तत्र गच्छति , स्थान मरणे | उच्यते, 'भिक्वाए वा निहत्थे वा' अकु भक्षणे भिक्षा आकु: भिक्खाए, गिहत्थो भणितो, कि सर्व एव भिक्खागो गिहत्थो ॥१४१॥ | वा ?, नेति, 'जे संति परिनिबुडा' जे इति अणिद्दिट्ठस्स उद्देसे, शमनं शान्तिः उपशम इत्यर्थः,सर्वतो निवृतः परिनिर्वृतः, शान्ति-1 परिणिन्तुडे य, अक्रोधयानित्यर्थः, 'तेर्सि सोच्चा।।१५६-२५३|| सिलोगो, तेसिं-ते पुरुबुदिहाणं अगारीण अणगारीणं च सोभणा पुज्जा मज्जा सतां वा पुज्जा सपुज्जा, संजमतवे से चिट्ठति जेसि इंदियाणि वसंति वा जेसु गुणा गुणेसु वा जे वसंति से चुसि-10 Xमन्तः,'ण संतसंति मरणंते' ण इति पडिसेधे, समस्तं वसतिर, मरणमेव अंतो मरणंतो मरणे वा बसंतःमरणान्तः,आवीचिकमरणं | वाऽधीकृतं तदेव मरति इदमन्यत् अन्त्यमरणं येन भवः छिद्यते, ते हि कृतपुण्यत्वात् ण संतसंति मरणते, सीलवंता बहुस्सुता,उक्त । कासकाममरणं। इदानीमनयोः सकामाकाममरणयोः कतरेण मरितव्यमिति,उच्यते-'तुलिया बिसेसमादाय'१५७-२५३शासिलोगो, तोलयित्वा तुलया यत्र गुणैविशिष्यते युद्धथा आदाय-गृहीत्वा तेनैव मर्तव्यं, तदेव आदेयमिति, अहवा अयं विसेसो-बालमरणम-15 आणिच्छतो भवति, इयं तु सकामस्स, अधवाऽयं बिसेसो- दयाधम्मो खतीति, एवं विसेसमादाय बुद्धया 'विप्पसीइज्ज मेधावी' | |१४१॥ विविध पसीएज्जा मेराया धावतीति मेधावी, तथाभूतेन अप्पणा-तेन प्रकारेण भूतस्तथाभूतः, रागद्वैपयशगो यात्मा अन्यथा भवति,19 मद्यपानां विश्व(चित्त वत्,) तदभावे तु आत्मभूत एव, अथवा यथैव पूर्वमन्याकुलमनास्तथा मरणकालेऽपि तथाभूत एव महनरं तुलयि-R दीप अनुक्रम [१२९१६० अर - --* [146] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८ १६०|| दीप अनुक्रम [१२९ १६०] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा || १२८-१६०/१२९-१६०|| निर्युक्तिः [२०९...२३५/२०९-२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूर्णों ६ शुक निग्रंथी ॥१४२॥ देहभेदा त्वामहंतस्सकाममरणाति (न्तं) प्रपन्नः । 'तओ काले अभिप्पेर ।। १५८-२५४॥ सिलोगो, तत इति क्रमः, अभिप्रेतं यदाऽस्य तन्मरणं रुचितं भवति, कोऽर्थः ?, यदाऽस्य योगा नोत्सर्पन्ति तस्मिन् काले, अभिमुखं प्रीतिवानित्यर्थः, अभिप्रेत एवासौ तस्य मरण- कांक्षा कालः, योगहानिनिमित्ता, संलेखनादिभिः उपक्रमविशेषः उपक्रम्यात्मानं, श्रद्धा अस्यास्तीति श्राद्धी, रलयेोरेकत्वे तादृशः, यथा वाभ्युपगच्छतो, धर्म्मः संलेखना वा, तथा अंतकालेऽपि उक्तहि 'जाए सढाए णिक्खतो, तमेव अणुालेज्ज' तत्र चास्योत्कृष्टात्मनः यदि नाम तेषां उपसर्गा उत्पद्यन्ते क्षुधादयो वा आत्मसमुत्थाः ततस्तेषूपपन्नेषु 'विणएज्ज लोमहरिसं' विनयो नाम | विनाशः, यथा विनीता गौरिति, लुनाति लूयंते वा तानि लीयंते वा तेषु यूका इति लोमानि लोम्नां हर्षः २, सतु भयाद्भवति, अनुलोभैव उपसर्गेर्षाद् भवति तं चिनयित्वा उभयथापि, न केवलं 'भेद देहस्स कंखए भिद्यत इति भेदः, अष्टविधकर्मशरीरभेदं कांक्षिति, नतूदारिकस्य' अथ कालामे संपत्ते'॥ १५९-२५४ ॥ अथेत्यानन्तर्ये सलिखिताच्या मरणमपेक्ष्यते, सुठु अक्खार आदावेव तस्स मरणाभिधानमाख्यातं मुअक्खातं, सम्यक् आहितो समाहितो सुतकखातसमाहितो, केचित्पठन्ति 'आघायाए समुच्छयं अत्यर्थ घातः आघातः, आघातसमुच्छ्रयो णाम सरीरं, तद् बाह्यमाभ्यन्तरं वा बाह्यमौदारिकं तं संलिहिउं तेन च संलिहितेन द्रव्यतः भावतः अभितरं कम्मगसरीरं घातितं भवति अतो आघाताय समुच्छयंति, सकाममरणं मरति विण्हमन्नयरं मुणी, तंजहा भत्तपच्चक्खाणं इंगिणी वा पाओवगमणं वा, मनुते मन्यन्ते वा जगति त्रिकालावस्थान् भावान् मुनिरिति ॥ अकाममरणाध्ययनं सम्मत्तम्५॥ इदाणिं खुल्लयनियंठिज्ज, तस्स चत्तारि अणुओगदारा उवकमादि परूयेऊण जाव नामनिष्फनो णिक्खेवो लगनियठि ज्जंति, खुल्लयंति आवेक्खितं पदं महंत अवेक्ख भवति, तं पुण महानियंठिज्जे, तहा खुल्लयं निक्खियध्वं नियंठो निक्खिवियच्वो, अध्ययनं -५- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -६- "क्षुल्लकनिर्ग्रन्थिय" आरभ्यते [147] %% % ॥१४२॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१६० || وانا ؟ श्रीउत्तरा खुल्लगस्स पढम णिक्खेयो, तं महंत पडुच्च संभवतित्ति महंतमेव परूवेयव्वं तं महंत अट्ठविह,तत्थ गाहा-'नामं ठवणा॥२३६-२५५।। क्षुल्लकमह| गाहा, नामठवणाओ गयाओ, दब्बमहंत अचित्तमहाखंधो, सो मुहुमपरिणयाणं अर्णताणतपदेसयाणं खंधाणं तम्भावणापरिणामण |X विक्षेपाः लोग पूरेति जहा केवलिसमुग्घातो दंडे कवाडं मन्धुं अंतराणि चउत्थे समए पूरेति, एवं सोऽपि चउत्थे समए सब लोगं निग्रंथीय पूरेता पडिनिबत्तति एतं दब्बमहंतर्ग, खत्तमदन्तगं सबागासं, बालमहरम सम्बद्धा, पहाणमहंतं तिविह- सचिन ॥१४॥ अचित्तं मीसगं, तत्थ सचित्तं तिविहं- दुपदं चउप्पदं अपदंति , दुपदाण पहाणो तिस्थयरो, चउप्पदाण हत्थी! अपदाणं अरविंद, अचेदाणं बेरुलिओ, मीसगाणं भगवं तित्थगरो सविभूसणो, पड्डच्चमहंतं आमलकं प्रति बिल्लं महंत, एवमादि, भावमहंतं तिचिह- पाहण्णतो कालतो आसयतो, पाहण्णओ खइओ भावो महतो, कालओ परिणामिओ जीवो, जं जीवदम्बमजीवदनं वा सता तहा परिणमति, आसयओ ओदयितो भावो, तंमि भावे बहुतरा जीवा वदंति, महंतगं, तस्स पडिवक्खो खुल्लयं निक्विवियब्ब, तंपिअ छबिहमेष, णामठवणाओ गयाओ, दबखुट्टगं परमाणू, खेत्तखडगं आगासपदेसो, कालखुड्डयं समयो, पहाणखुड्डयं तिविहं-दुपयं चउप्पयं अपदं च, दुपदाणं पंचण्डं सरीराणं आहारग, चउप्पदाणं सुड्डयं सीहो, अपदाणं लवंगकुसुमं, अचित्ताणं वइरो, मीसगाणं तित्थगरो जम्माभिसेयकाले अलंकारसहिता, पटुच्चखुड्डयं आमलगातो सरिसवो, IX भावग्नुड्वयं सम्बत्थोबा जीवा खइए भावे, एत्थ पडुरुचखुड्डएण अधिकारो, खुल्लक इति गतं । इदाणि णियंठो, तत्थ |१४३।। गाथा-'निक्खेवो नियंठंमि' (२३७-२५५) नामठवणाओ गयाओ, दबणियंठो दुविहो-आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए अणुवउत्तो, णोआगमतो य 'जाणगसरीर' ।।२३८-२५६।। जाणयभवियबरीरवइरित्तो दवणियंठो णिहगादी, आदिग्गहणेण 48625582251009446 दीप अनुक्रम [१६१ kk%A4-% १७८] [148] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति : [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१६० الاوا؟ श्रीउत्तरा०पासत्थोसन्नकुसीलसंसत्तअहाछंदा, भावणियंठो दुविहो-आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणउवउत्तो, णोआगमतो 11 चूर्णौ णियंठयत्ते व हमाणा पंच, तंजहा-पुलाए बकुसे कुसीले णियंठे सिणाए । पुलातो पंचविहो, जो आसेवणं प्रति, णाणपुलातो दरि६क्षुल्लक सणपुलातो चरित्तपुलातो लिंगपुलातो अहासुहमपुलागोत्ति । पुलागो णाम असारो, जहा धनेसु पलंजी, एवं णाणदसणचरितनिग्रथायाणिस्सारतं जो उवेति सो पुलागो, लिंगपुलागो लिंगाओ पुलागो होतो, अहामुहमो य एएसु चव पंचमुनि जो थोष थोपं विरा-18 ॥१४॥ हति, लद्धिपुलाओ पुण जस्स देविंदरिद्धिसरिसा रिद्धी, सो सिंगणादियकज्जे समुप्पण्णे चक्कवटिपि सबलवाहणं चुपणेउ समत्थो। बउसा, सरीरोपकरणविभूषाऽनुवतिनः ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिताः अविविक्तपरिवाराः छदशबलचारित्तजुत्ता णिग्गंथा। | उसा भण्णंति, ते पंचविहा, तंजहा-आभोगवकूसा अणाभोगवकुसा संतुडवकुसा असंवुडवकुसा अहासुहुमबकुसा । आभोगवकुसा आभोगेण जो जाणतो करेइ, अणाभोगेण अयाणंतो, संवुडो मूलगुणाइसु, असंवुडो तेसु चेव, अहामुहुमबकृसो अच्छीसु दसि13यादि अवणेति, सरीरे चा धूलिमाइ अबणेति । कुत्सितं शीलं यस्य पञ्चसु प्रत्येकं ज्ञानादिपु सो कुसीलो, दुविहो-पडिसेवणा कुसीलो कसायकुसीलो य, सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेवणा पडिसेवणा, पंचसु णाणाइसु, कसायकुसीलो जस्स पंचसु आणाणाइसु कसाएहिं विराहणा कज्जति सो कसायकुसीलोत्ति । णियंठो अभितरवाहिरगंथाणिग्गतो, सो उपसंतकसातो खीण-17 14 कसातो वा अंतोमुत्तकालितो, सो पंचविहो-पढमसमयणियंठो अपढमसमयनियंठो, अहया चरमसमयनियंठो अचरमसमय-121 नियंठो, अहामुहुमणियंठोत्ति, अंतोमुहुत्तणियंठकालसमयरासीए पढमसमए पडिवज्जमाणो पढमसमयनियंठो, सेसेसु समयएम | 8॥१४४॥ वट्टमाणो अपढमसमयनियंठो, चरमे-अंतिम समए बमाणो चरमसमयणियंठो, अचरमा-आदिमज्झा, अहामुहमो एएसु सब्बे CHECENitsketche दीप अनुक्रम [१६१ १७८] [149] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] चूर्णी in सयमाद| भिर्निग्रंथविचार: गाथा ||१६० الا وانا ؟ - श्रीउत्तरासुवि । सिणातो-स्नातको, मोहणिज्वाइघातिय चउकम्मावगतो सिणातो भण्णति, सो पंचविहो-अच्छवी असबलो अकम्मंसो 18 संसुद्धणाणर्दसणधरो अरहा जिणो केवली, अच्छवी-अव्यथकः, सबलो-सुद्धासुद्धो, एगंतसुद्धो असबलो, अंशा-अवयवाः कर्म णस्ते अवगया जस्स सो अकम्मंसो, संसुहाणि णाणदसणाणि धारेति जो सो संसुद्धणाणदसणधरो, पूजामर्हतीति अरहा, अथवा निग्रंथीय | नास्थ रहस्य विद्यत इति अरहा, जितकपायत्वाजिनः, एसो पंचविहो सिणायगो । एस सहत्थोऽभिहितो, संयमश्रुतप्रतिसेवना॥१४॥ तीर्थलिङ्गलेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः, एते पुलाकादयः पञ्च निर्यन्धविशेषाः एभिः संयममंदिभिरनुगमविशेषः साध्या KI भवंति, तत्र च संजमे तावत् पुलागो बकुसो कुसीलो एते तिमिधि दोसु सबमेसु-सामाइए छेदोवट्ठावणिए य, कसायसीला दोसु-1 परिहारविसुद्धीए सुहुमसंपराए य, णियंठा सिणायगा य एते दोवि अहक्खातसंजमे । सुते पुलागवकुसपडिसेवणाकुसीला य उक्को| सेण अभिन्नदसपुग्वधरा, कसायकुसीलाणग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरौ, जघन्ये पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु नवमे पूर्वे, पकुसकुसील-1 निग्रेन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः, श्रुतादपगतः केवली स्नातक इति । इदानी प्रतिसेवना-मूलगुणानां रात्रीभोजनस्य च | | पराभियोगात् बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलागो भवति, मिथुनमेवेत्येके, पशो द्विविध:- शरीरवकुशः उप-1 करणबकुशश्च , तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तः विविधाह(वर्ण)विचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुविशेषयुक्तोपकरणकाक्षा युक्तः नित्यतत्प्रतिकारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति , शरीराभिषक्तचिचो विभूषितार्थो तत्प्रतिकारसेवी शरीरवकुशः । प्रतिसेवनाकुशीलः मूल गुणानविराधयन् उत्तरगुणेषु कांचिद्विराधनां प्रतिसेवते , कसायकुशीलनिग्रन्थस्नातकानां प्रतिसेवना नास्ति । तीर्थमिदानी, सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु भवंति, एके त्वाचार्या मन्यन्ते- पुलाकबकुशप्र दीप अनुक्रम [१६१ ||१४५॥ % १७८] -* COP -* [150] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा भिनिग्रंथ ||१६० १७७|| श्रीउत्तरा तिसेवनाकुशीलास्तीर्थे नित्यं, शेषास्तु तीर्थेऽतीर्थे वा । लिङ्गमिति लिङ्गं द्विविध- द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्ग च, संयमादिचूणों भावलिङ्ग प्रतीत्य सर्वे निग्रन्थलिङ्गे भवन्ति, द्रव्यलिङ्ग प्रतीत्य भाज्याः। लेश्याः पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । विचारः निग्रंथीयं बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः सर्वा अपि, कपायकुशीलस्य परिहारविशुद्धस्तिस्र उत्तराः, सूक्ष्मसंपरायस्य निग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैव केवला भवति, अयोगः शैलशीप्रतिपनोडलेश्यो भवति । उपपातः पुलाकस्योत्कृष्टस्थितिषु देवेषु सहस्त्रारे,बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोहा॥१४६॥ विंशतिसागरोपमस्थितिष्वच्युते कल्पे, कषायकुशालनिग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिंशतसागरोपस्थितिषु सर्वार्थसिद्धे, सर्वेषामाप जघन्य पल्यो-16 पमपृथक्त्वस्थितिषु सौधर्मे, स्नातकस्य निर्वाणमिति । स्थानम्-असंख्येयानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति, तत्र सर्वजघन्यानि ( संयम ) लब्धिस्थानानि पुलाककपायकुशीलयोः, तौ युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छतः, ततः पुलाको व्युच्छि15| यते, कपायकुशीलस्ततोऽसंख्येयानि स्थानान्येकाकी गच्छति, ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छन्ति, ततो बकुशो ब्युच्छिद्यते, तन्नोऽप्यसंख्येयानि स्थानानि गत्वा प्रतिसेवनाकुशीलो व्युच्छिद्यते, ततोऽसंख्येयानि स्थानानि गत्वा कपायकुशीलो व्युच्छिद्यते, अत ऊर्ध्वमकषायस्थानानि गत्वा निग्रन्थ प्रतिपद्यते, अत ऊर्ध्वमकषायस्थानं, गत्वा निग्रन्थः स्नातकः निर्वाणं प्राप्नोति,एषां संयमलब्धिरनन्तगुणा भवति, 'उक्कोसो उनियंठो'।।२३९.२६०॥ गाहा,जो उक्को|सएम संयमट्ठाणेसु वट्टति सो उक्कोसणियंठो भण्णति, जहण्णतो जहन्नएम, सेसा अजहण्णमणुक्कोस्सत्ति, जेतियाणि संजमट्ठा४ाणाणि तत्तिया णिग्गंथा,नास्य ग्रन्थो विद्यत इति निग्रन्थः, निगतो वा ग्रन्थतो निग्गंथो,सो गंथो दुविहो।।२४०-२६०॥अम्भितरो|४| बाहिरो य, अब्भतरो चोद्दसविहो, बाहिरो दसविहो, अम्भितरो इमाए गाहाए भण्णति-'कोहोमाणो माया॥२४१-२६१शागाथा, सलर दीप अनुक्रम [१६१ १७८] २ % [151] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक [१] गाथा ||१६० || وانا ؟ श्रीउत्तरा० कोहो अर्णतविधोवि चउहा, एवं माणो माया लोभोऽवि, मायालोभी पेज्ज,कोहो माणो य दोसो य,णस्थि ण णिच्चो ण कृणइ कयं भयसप्तकम् चूणों ण वेएति पत्थि णिव्वाणं । णस्थिय मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥१॥ इत्थवियाईओ तिविहो वेओ य होइ बोद्धव्यो । निग्रंथीय अरती य संजमंमी होइ रतीऽसंजमे यावि ॥ २ ॥ हासो उ विम्हयादिसु सोगो पुण माणसं भवे दुक्खं । भयगंथो सत्तविहो तत्व इमो होइ नायव्यो ॥ ३ ॥ इह परलोयादाणे आजीवऽसिलोय तहा अकम्हाणं। मरणभयं सत्तमयं विभासमेएसि वोच्छामि ॥ ४॥ ॥१४७॥ ४ इहलोगभयं च इमं जे मणुयाईओ सरिसजाईओ। बीहेड जं तु परजाइयाणं परलोयभयमेयं ।। ५॥ आयाणऽत्थो भण्णति मा लहीरिज्जाति तस्स जं चीहे । आयाणभयं तं तू आजीवोमे ण जीवेऽहं ॥६॥ असिलोगभयं अयसो होति अकम्हाभयं तु अणिमित्र ।। मरियम्बस्स उभीए मरणभयं होइ एवं तु ॥ ॥ एसो मुत्तविगप्पो भयगंथो वनिओ समासेणं । अण्हाणमाइएहिं साधु तु दुगुंछति दुगुछ।।८॥ति बाहिरग्रन्थे इमा गाहा-'खेत्तं वत्थु वत्५॥२४२-२६१।। गाहा, खेत्तं दुविहं-केतु सेतुं च, सेतुं अरहट्टादीणि-18 पज्जाई, केतुं बासेणं, वत्थु तिषिह-खातं ऊसितं खातोसितं, खातं भूमिधर, ऊसितं पासादो, खातोसित भूमिघरोवरि पासादो, धणं | हिरण्णसुवण्णादीणि, धन्न सालिमादि, दोवि एतं संचयोति एक्कं भन्नति, सहवड्डियादि सही,णादिसंजोगोत्ति माइपिइससुरकुलसं बंधो, जाणं रधादि, सयणं पल्लंकादि, आसणं पीढकादि, दासीदासं एकं,कुवियं लोहोबक्खरमादिहिं। सावज्जगंथमुक्का॥२४३॥ Mगाथा कण्ठ्या। गतो नामणिफण्णो जाच सुचाणुगमे सुत्तं उच्चारेयव्य-'जावंतऽविज्जा॥१६०२.२६२।।सिलोगो,यावत्परिमाणाच | |१४७॥ धारणयोः, णाणति वा विज्जत्ति वा एगहुँ, न प्रतिषेध, विद्यत इति विद्या नैषां विद्या अस्तीति अविद्या, पिवति प्रीणाति चात्मानमिति पुरुषः पूर्णो वा सुखदुःखानामिति पुरुषः पुरुषु शयनाद्वा पुरुषः, ससर्ति धावति वा सर्व, [सुखदुःखान्येषां संभवंतीति दुःख दीप अनुक्रम [१६१ १७८] [152] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ १७८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७ / १६१-१७८ || निर्युक्तिः [२३६... २४३ / २३६ - २४३] भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३ ] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीउत्तरा० 235) चूण ६ क्षुल्लक निग्रंथ ॥ १४८ ॥ सम्भवाः, कामं उभयथा प्याविरोधो दुःखानि सम्भवन्तीति, अथ समासः शालि (शक्ति) सम्भवात्परिगृह्यते, न तु ये दुःखाः संभूताशयत्वाद, अथवा अविद्या दुःखादेव संभृता, उक्तं हि 'नातः परतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगं, सर्वरोगप्रणायकं॥ १ ॥ एत्थुदाहरणं- एगो गोघो दोगच्चेण चइतो गेहाओ णिग्गतो, सव्वं पुहवि हिंडिऊण जाहेण किंचि लहति ताहे पुणरवि घरं जतो यित्तो, जाव एगमि पाणवाडगसभीवे एगाय देवकुलियाए एगराचं वासोवगतो, जाव पेच्छ ताव देवउलियाओ एगो पाणो निग्गतो चित्तघडहत्थगतो, सो एगपासे ठातिऊणं तं चित्तघडं भणति लहु घरं सज्जेहि, एवं जं जं सो भणति तं चिय घडी करेइ, जाव सयणिज्जं, इत्थीहिं सद्धि भोगे भुजति, जाव पहाए पडिसाहरति । तेण गोहेण सो दिट्ठो, पच्छा चिंतेइ किं मज्झ बहुएण भणि(मि) एण ?, एतं चैव ओलग्गामि, सो तेण ओलग्गिओ, आराहितो भणति - किं करेमित्ति, तेण भण्णति-तुम्ह पसाएण अपि एवं चैव भोगे जामि, तेण भण्णति किं विज्जं गेण्हसि १, उताह विज्जाएऽभिमंतियं घडं गेण्हसि १, तेस विज्जासाहणपुरच्चरणभीरूणा भोगतिसिएण य भष्णति-विज्जाभिमतियं घडयं देहि, तेया से विज्जाए अभिमंतिऊण घडो दिण्णो, सो तं गहाय गतो सगामं, तत्थ बंधूहिं सहवासेहिंपि समं जहारुदयं भवणं विगुरुव्वियं, भोगे तेहिं सह झुंजतो अच्छति, कम्मता य से सीदिउमारद्धा, गवादओ य असंगोविज्जमाणा प्रलयभूताः, सो य कालंतरेण अतितोसएण तं पदं खंधे काऊय एयस्स पभावेण अहं बंधुमज्झे पमोयामि, आसवपीतो पणच्चितो, तस्स पमाएण सो घडो मग्गो, सो य विज्जाकओ उपभोगो णट्टो, पच्छा ते गामेयगा प्रलयीभूतविभवाः परपेसाईहिं दुक्खाणि अणुभवन्ति, जति पुण सा विज्जा गहिया होता ततो भग्गेऽवि घडे पुणोऽवि करेंतो एवं अविज्जा णरा दुक्खाणि सम्भूताः क्लिश्यन्ते, अविद्यादनं (नरा) मिथ्यादर्शनमित्यर्थः तच्चेदं एते चैवऽनभिगता भावा [153] 6 **% *% নোতেনের विद्या मंत्रितो घटः ॥१४८॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ १७८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८ ||, निर्युक्तिः [ २३६... २४३ / २३६ - २४३] भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूण ६ क्षुल्लक निग्रंथीयं ॥१४९॥ विपरीततो अभिनिविडा | मिच्छादंसणमिणमो बहुप्पयारं वियाणाहि ||१|| ते सव्वे एव मिच्छादिट्ठी दुक्खाणि संभूओपाजीत, नागार्जुनीयाः पठन्ति ते सच्चे दुक्खमज्जिता। लंपंति बहुसो मूढा' तेहिं सारीरमाण सेहिं दुक्खेहिं लुपति, बहुसो नाम अणेगसो, बहूहिं वा दुक्खपगारेहिं वा अहवा इह परत्र च मुह्यन्ते संमूढा, जहा समुद्दे वाणिया दुब्बायाहयजाणवत्चा दिसामूढा खणेण अंतोजलगयपव्ययमासाएऊण भिन्नपोया महावीतिकलोलेहिं बुज्झमाणा कुम्मगमगराईहिं विलुप्यंति, एवं तेऽवि अविज्जा विलुप्पति बहुसो मृढा,सारीरमाणसेहिं महादुक्खेहिं विलुप्पति बहुसो मूढा, तत्त्वात स्वअजाणगा, संसारंमि अनंतए, अमनं अन्तः नास्य अंतो विद्यत इति अनन्तः, भणितं च-सूती जहा समुत्ता, ण णस्सती होइ ओवमा एसा । जीवो तहा ससुत्तो ण णस्सति गतोवि संसारे || १ || 'तम्हा समिक्ख मेधावी' ( समिक्ख पंडिए तम्हा ) ।। १६१-२६४ ॥ सिलोगो, अज्ञानिनामेवंविधं विपाकं ज्ञात्वा तस्मात् सम्यक् ईक्ष्य मेराया धावतीति मेघावी 'पास'ति पास, जायत इति जाती, जातीनां पंथा जातिपंथाः, अतस्ते जातिपंथा बहुं 'चुलसीति खलु लोए जोणीणं पमुहसयसहस्साई । तन्भरण अप्पया सच्चमेसेज्जा, अप्पणा णाम स्वयं सच्चो संजमो तं सच्चं अप्पणा एसेज्जा- मग्गेज्जा, अत्राह-सत्यमेवास्तु, आत्मग्रहणं न कर्त्तव्यं, न हि कश्चित्परार्थं किञ्चित् करोति उच्यतेमा भृत् कस्यचित्परप्रत्ययात् सत्यग्रहणं, तथा परो भयात् लोकरंजनार्थ पराभियोगाद्वा, आत्मग्रहणमित्यतः, स एगतो वा परिसा। गतो वा इत्युक्तं, नागार्जुनीयानां 'अत्तट्टा सच्चमेसेज्जा'न परार्थे यथा शाक्यानामन्यः करोति अन्यः प्रतिसंवेदयतीत्यत आचारवि (त्मार्थमिति), यः सांख्यानां वा प्रकृतिः करोति, स्यारिंक सत्यं', 'मितिं भूपहिं कप्पए' मेज्जतो मयंति वा तदिति मित्रं, मित्रस्येयं मैत्री, कल्पनाशब्दोऽप्यनेकार्थः, तद्यथा-'समार्थ्यं वर्णानायां च छेदणे करणे तथा । औपश्ये चाधिवासे च कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥ १ ॥' [154] सत्यषणा ॥१४९॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति : [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१६० १७७|| श्रीउत्तरासामध्ये अट्ठममासे वित्तीकप्पो भवति, वर्णने विस्तरतः सत्रं कल्पं, छेदने चतुरंगुलवज्जे अग्गकेसे कप्पति, करणे 'न वृत्ति चिन्त- मात्रादीनां चूणा | येत् प्राज्ञः, धर्ममेवानुचिन्तयेत् । जन्मप्रभृतिभूतानां, वृत्तिरायुश्च कल्पितम् ॥१॥' औपम्ये यथा चन्द्राऽऽदित्यकल्पाः साधवः, कारिता अधिवासे जहा सोहम्मकप्पवासी देवो । अत्र करणे कल्पः शब्दः । स्यात-किमातहाए केवलं सच्चो एसेज्जत्ति, जणु बंधुत्तरेण || निग्रंथीयं णिमिर्त्तमिबि सच्चो एसितम्बो, उच्यते- 'माता पिता पहुमा माया॥१६२-२६५।। सिलोगो, जहा एताणि न तव ताणाए वा181 ॥१५०॥ सरणाए वा एवं तुमंपि तेसिं ण ताणाए वा सरणाए वा, अयमपर कल्यस्तु न संयमः क्रियते, अयं हि बंधुनिमित्तमात्मानिमित्तं च, तत्र ता बहुभिरपि कारणविशेपैः संबद्धा माता पिता ण्हुसा, मातयति मन्यते वाऽसौ माता,(मिमीते)मिनोति वा पुत्रधर्मानिति माता, [पाति बिमा वा पुत्रमिति पिता, स्नेहाधिकत्वात् माता पूर्व, स्नेहेति श्रवन्ति वा तामिति स्नुषा, विभार्ति भयते वासी भार्या,161 पुनातीति पुत्रः, इयति अर्यतेऽनेनेति उरः उरसि भया औरसाः, अन्येऽपि सन्ति क्षेत्रजातादयः तत्प्रतिपेधार्थ औरसग्रहणं, 'णालं ते ममताणाए' अलं पर्याप्ती, न पर्याप्ताः त्राणादत्राणाय ते, त्रायते अनये(नेन)ति वाणं, कुतो तत् त्राणं?, 'लुप्पंतस्स सकम्मुणा आत्मानमपि तावते न त्रातुं समर्थाः, कुतस्तहि परेषां?, अथवा अविद्या उक्तास्तद्विपक्षे विद्या, सा च वैराग्यलक्षणा, तद्यथा- ननु । एवमुपलब्धा भवति तदा विरक्त इति बेयः, कथं , तदुच्यते- 'मातापिता बहुसा' आत्मदेशस्तु यदि केनचिदुच्यते- किमर्थ। बन्धुभ्यो भवान् विरक्तः, ततो चीति- माता पिता णालं ते ममं ताणाए सरणाए वा, यथैव बान्धवाः, एवं विभवा अपि, कथमात्मसंयमे प्रवृत्त इति । यतश्चैवं- एयमझु सपेहाए॥ १६३-२६५ ।। सिलोगो, एतदिति यदिदमुक्तं यथा बान्धवान || ॥१५॥ प्राणाय, सम्यक् प्रेच्या सपेहाए, पाश्यतेऽनेनेति पाशः, सम्यगिदं दर्शनं दंसणे, अथवा समिदं जस्स दसणं से भवति समिद 4-Diwasinterimiri दीप अनुक्रम [१६१ १७८] [155] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ १७८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, निर्युक्तिः [२३६... २४३ / २३६- २४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: दंसणे, आमन्त्रणे वा, एवं मत्वा यथा बान्धवा न त्राणायेति, 'छिंद गहिं सिणेहं च,' गृद्यतेऽनेनेति गृद्धिः, स्निह्यतेऽनेनेति स्निहः, तत्र गृद्धिः तीव्राभिनिवेशः, स्नेहस्तु तात्पर्य, अथवा गृद्धिः द्रव्यगोमहिष्यजाविकाधनधान्यादिषु स्नेहस्तु बान्धवेषु च स्यात् किं छिन्द ?, 'स्नेह', स्नेहलक्षणमुच्यते- 'ण कंस्त्रे पुत्र्वसंधवं' ण प्रतिषेधे, काङ्क्षा अभिलाषः पूरयतीति निग्रंथीयपूर्वः संस्तूयते येन संस्तवः, तद्यथा— देवदत्तपुत्तमातुल इति यथैव हि स्वजनो न त्रायते तथैव च - 'गवासं मणि ॥१५१॥ कुंडलं ।। १६४-१६५ २६५॥ सिलोगो, गच्छतीति गौः, अश्नुते अश्नाति वा अध्वानमित्यश्वः, मद्यते मन्यते वा तमलङ्कारमिति मणिः, कुण्डलहिरण्ये कण्ठ्ये, पश्यतीति पशुः, दासपुरुषौ कण्ठ्यौ, किल तव सुखोपकाराय, यदि तत् सांसारिकं परायत्तमुखं काम्यते, तेन यदन्यदेवंविधं तदपि ' सव्वमेयं चरि (ह) त्ताणं ' उज्झिउं, संजमं अणुपालिया, देवत्वं प्राप्य कामरूपि भविस्ससि, कार्म रूपाणि करोतीति कामरूपी, रोचति रोचयते वा रूपं यथा कामरूपं तथाऽनान्यपि ईशित्वप्राप्तिप्राकाम्यादीन्यैश्वर्याणि प्राप्स्यसि इत्यतः 'गवासं मणिकुंडलं, पसवो दासपोरुसं । सव्वमेयं चत्ताणं, संजमं अणुपालिया ॥ | १ || स चायं संयमः । 'अन्भत्थं सव्वओ सव्वं ।।१६६-२६५॥ सिलोगो, आत्मानमधिकृत्य यत्प्रवर्तते तदध्यात्मं, अथवा अब्भत्थं नाम यद्यस्याभिप्रेतं, अध्यात्मनि तिष्ठतीति अन्मत्थो, किं च तत् ?, सुखं यथा भवे अन्भत्थं, सव्वतो सव्वं, सर्वाभ्यो दिग्भ्यः सव्वं नाम सव्वं शरीरं माणसं सुहं तदुपकारिणी वा सातिविसयसुहाणि, जहा तवेदमि एवमेव ( परेसिं) 'दिस्स पाणे पियायए' प्रिय आत्मा येषां ते प्रियात्मानः, अन्यतोऽपि यदि एतदेवं 'णो हिंसेज्ज पाणिण पाणे' प्राणा अस्य विद्यन्ते प्राणी अतस्तेषां प्राणिनां प्राणाःआयुष्प्राणा बलप्राणा इन्द्रियमाणाः, विरस्यते येन परेषां वा भवति वैरप्रसूतिः तस्माद्भयत्रैरादुभय (पर) तः, उपेत्य रत उपरतः, श्रीउत्तरा० चूर्णों ६ क्षुल्लक [156] संयमरूपं ॥ १५१ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ १७८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, निर्युक्तिः [२३६... २४३ / २३६- २४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा चूण ६ क्षुल्लक निग्रंथ य ॥ १५२ ॥ भवं (य) वा यत्करोति प्राणिनां ततो वैरं भवति, इह च कलहादि परत्र च येन संसारमनुपरीति तस्मादुपरतः ॥ उक्तं प्राणातिपातवेरमणं, परिग्रहवेरमणं प्रतिसाधयति- 'आदाणं णरयं दिस्स' ।। १६७-२६६ ।। सिलोगो, आदियत इत्यादानं नरक उक्तार्थः, कारणे कारणो (य) पचारात्, आदानाद्धि नरको जायत इत्यतः आदानमेव नरकः, उक्तं हि - विषं विषकालं संचर्यादि, विषं व्याधिरूपेक्षितः ।। १ ।। (विषं कुपठिता विद्या, विषं व्याधिरूपेक्षितः । विषं गोष्ठी दरिद्रस्य, वृद्धस्य तरुणी विषम् ॥ १ ॥ ) तृणेहि तृण्वन्ति वा तृणं, तृणमात्रमपि नाददीत, प्रति (अपि) ग्रहणं अप्रतिसक्तलक्षणं निवृत्तये तु धर्मसाधणादिग्रहणार्थमपदिश्यते'दोगुंछी अप्पणी पाते' दुगुंछा- संजमो, किं दुर्गुछति १ असंजमं, पाति जीवानात्मानं वा तेनेति पात्रं, आत्मीयपात्र ग्रहणात् मा भूत्कचित्परपात्रे गृहीत्वा भक्षयति तेन पात्रग्रहणं, ण सो परिग्गह इति, जिनकल्पिकं वा प्रतीत्य पखते - अप्पणी पाणिपाते दिनं भुंजेज्ज भोयणं ' एवं मुसावादअदत्तादानमेहुणाणिवि ।। अत्राह- उक्तं प्रागविद्या, नतु तद्विधानानि उपदिशनि, तदुच्यते -' इहमेगे उ मन्नति' ।। १६८-२६६ ।। सिलोगो, अपरः कल्पः अविद्यां हित्वा विद्यापूर्विका निवृत्तिः कार्या सा चोक्ता, ' अन्मत्थं सव्यओं सव्वं एतच्छ्रुत्वा चरणादिपरः, ' इहमेगे उ मन्नंति ' ' इहे ' ति इह मनुष्यलोके, एगेति सांख्यादयः ते सच्चे 'अपथकवाय पावर्ग' पासयति पातयति वा पापं ते पुण आयरियं विदित्ता ' आचरंति वमित्या चारः, आचारे निविष्टसाचरितं, आचरणीयं वा तमित्याचारः, आचरणीयं वा विदिना सब्वदुक्खा विमुचद्द, नतु कृत्वा तेषां हि ज्ञानादेव मोक्षः, प्रकृतिपुरुषान्तरं यथा वेत्ति तमित्येवं विदित्ता अकरिता, यतस्तेषां यमनियमात्मको धर्मः, तं अकरेन्ता, अपरः कल्प आह- ये नाम ज्ञानं शीलमिच्छन्ति ते नाम मोक्षमाप्नुवन्ति, यथा शाक्यादयः, उच्यते, तेऽपि केवलमेव बदन्ति, नतु [157] অ ज्ञानक्रियै कान्तनिरासः ॥१५२॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] CARX ज्ञानक्रिये कान्तनिरास: गाथा ||१६० १७७|| श्रीउत्चराकुर्वन्ति, कथं, अहिंसामुक्त्वा पुनः पाकेषु स्नानादि विहारादमेष (दिकेषु) (दिमिषेण)प्रवर्तन्ते, एवं तो-'भणता अकरिता य चूर्णौ ॥१६९-२६७।। सिलोगो, मोक्षं प्रतिजानन्तीति मोक्षप्रतिज्ञावन्तो, पुण 'वाया वारियमेत्तेणं' वक्तीति वाक्, एवं चीरियं, मात्र६ क्षुल्लक- ग्रहणं केवलं ब्रुवन्ते, न कुर्वन्ति, आश्वसति कश्चित्तं समासासेति, तंजहा-वयं जानका इति सम्यगाश्वासयन्ति, यथाऽऽत्मानं तथा परमपि, स्याद् बुद्धिः-कथं भगंता अकरिता य बध्यते, ननु ते ज्ञानेनैव तार्यन्ते ?, उच्यते-'न चित्ता तायए भासा ॥ १ ४ ॥ १७०-२६७ ॥ सिलोगो, चित्रानाम धातूपसर्गसन्धितद्धितकालप्रत्ययप्रकृतिलोपापगमीवशुद्धया, 'कओ' कस्मात् कारणात्? उच्यते, विद्यानुशासनात, विद्याहितमनुशासनाय तमेव, तत्पूर्विका तु क्रिया मोक्षाय उच्यते, यथा गदपरिज्ञानं, ते पुनः चित्रवाविशारदाः यतो 'विसन्ना पावकम्मे हिं' ते न मोक्षाय(इति) वाक्यशेषः, विविध सभा विसना, पापान्येतत् कृत्यानि पावकिच्चाई, पावं वा हिंसादीनि तेसु सन्ना, न तानि शक्नुवन्तो कत्तुं, 'याला पंडियमाणिणो' स्यात् बुद्धिः- केनोच्यते १, स्पष्टरूक्ष्य हि दुक्खं कर्तुम्, अविशिष्टमुच्यते-"जे केई सरीरे सत्ता" ॥ १७१-२६८ ।। सिलोगो, ये इत्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः, शीर्यत इति शरीरं तस्मिन् सक्तिः, वृणोति वृणीते वर्णयन्ति वा तमिति वर्णः, रूप्यत इति रूपं, संसनिः धावते वा सर्वावस्थं सर्वतो, मणसा वयसा चेव, मणसा तावत्कथं रूपवन्तः स्याम इत्येवं चिंतयन्ति, वायाए भिषजोऽनुपानक्रियां पृच्छति, 'सब्वे ते दुवसंभवा' नाम | दुक्ख पस्यंते, एवमाद्या अन्याऽप्यविद्या संसारायैव, तेनाविद्यासंतानविद्यावता संसारोच्छेदाय प्रवर्तितव्यं, स चारमा संसारी मुक्तौ वा, तत्र योऽसौ संसारी स हि सति (अ)विद्माविगमे भिक्षुत्वमासाद्य-'आवण्णा दीहमद्धाणं॥१७२-२६८॥ सिलोगो, अथवा उक्ता अविद्या,तद्विपक्षभूता विद्या स च विद्यावान्'आवण्णा दीहमदाणे (१७२सू०२६८)आपनवान् आपत्रः,अणादि,दीघेते दीप अनुक्रम [१६१ rinkhara RECORDCR ॥१५३॥ १७८] [158] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति : [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१६० १७७|| श्रीउत्तरा वा दीर्घः, अधति प्राणीनिति अध्वा, दीर्घमध्वानं नाम संसार एव, न तत्रावस्थानमस्ति, अथवा जन्नं जायमानस्स वा कुतोऽय-दिकस्वरूप चूर्णी | | स्थानमित्यतो वा दीर्घः, उक्तं च-"अपना दीर्घमध्वानमनादिकमनन्तक । स तु कर्मभिरापना, हिंसादेरुपचीयते ॥ १॥ तेषां: ६ क्षुल्लक | स नरकादिषु विपाकः स चेदप्रियः तम्हा सव्वदिसं पस्स"तस्मादि' ति तस्मात् संसारभवा(या)त् सर्व उक्तार्थ, दृश्यते अनेनेति निग्रंथीय दिक,सा दिसा सत्तविधा-नामदिसा ठवणादिसा दव्व०खेत्तकालदिसा सव(ताव)खत्तदिसा भावखेत्त]दिसा पण्णवगदिसा,णामदिसा ॥१५४||जहा अनतरा दिसाकुमारी, ठवणादिसा अक्खनिक्खेवादिसु दिसाविभागो ठवितो, स तु सउणरूतपरूवणादिसु ठाविज्जति, टू | दवदिसासु सन्वपदेसयं वत्तं तेरसस चेव पदेसेसु ओगाढं, एयं दससम्वदिसागं जहण्णगं दवं, खत्त दिसा अद्वपदेसियो रुयगो, जतो इंदाइयाओ दस दिसाओ पबत्तंति, तावखेत्तदिसा जस्स जओ आदिच्चो उएइ सा पुवा, जतो अत्थमेति सा अबरा, 1 दाहिणपासे दक्षिणा, वामओ उत्तरा, पनवगदिसा जत्तोहुत्तो पण्णवगो ठाति सा तस्स पुन्वा, दाहिणेण सा दाहिणा, पच्छतो अवरा, वामओ उत्तरा, एयासिं च अंतरेणं अन्नाओ चत्तारि अणुदिसाओ भाणियचाओ, एतासिं चेवट्टण्ह अंतराओ अट्ठ दिसाओ, एताओ सोलस सरीरउस्सयबाहुल्लाओ सब्बाओ तिरियदिसाओ, पादतलहेडा अधोदिसा, सीसस्स उपरि उड्डा, एता अट्ठारसवि पण्ण बगदिसाओ भवंति, भावदिसा अट्ठारसविधा, तंजहा-पुढविकाइओ आउकाओ तेउकाओ. वाऊ४अग्गीया मूलबीया पोरचीया खंधीया८येईदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया तिरिक्खजोणिया१२सम्मुच्छिममणुस्सा कम्मभूमा अकम्मभूमगाई अंतरदीवया१६ | देवा नारगा१८,दिश्यते अनयेति दिसा,सा तस्य भाविनो भावस्तेन प्रकारेणोपदिश्यते तद्यथा-पृथिवीकायिको वा एवं यावद् देवो नारको ॥१५४॥ वा,पूर्व पश्यत इति पस्स, मा समारभस्व ,अत एव दृष्टाऽसौ दिग्भवति, यतो न सम्म आरभ्यते असमारभमानः, अप्पमत्तो परिवए' दीप अनुक्रम [१६१ १७८] [15] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक [१] चूणी Gors6 गाथा ||१६० % १७७|| श्रीउत्तरा०|| यथा कामपि दिशं न विराधयेत्, उक्तं प्राणातिपातविरमणं, अपरिग्रहप्रसिद्धये तु 'बहिया उड्ढमायाय' ॥१७३-२६८॥ सिलोगो, अपरिग्रह स्यात्-प्रागुपदिष्टं यथा अन्भत्थं सव्वतो सव',तथैव च आदानं नरकं दिस्सेति प्राणातिपातविरमण परिग्रहविरती य भणिता,कि तादि ६क्षुल्लक पुण भण्णति?, उच्यते, तत्र भेदा नोपदिष्टाः, इह तु अष्टादश दिश उक्ताः, परिग्रहेऽपि तत्राविशिष्ट मुक्तं-आदाणं णरकं, इह विनिग्रंथीयं शिष्यते-इदं ग्राह्यमिदमग्राह्यमिति, तद्यथा-'बहिया उड्ढमायाय' हेवा बहिया, उद्वियत इति उद्ध, ऊर्द्ध नामात्मानं वर्जयेत्यर्थः, ॥१५५॥ | यथा लोकायता प्रतिपन्नाः ऊर्द्ध देहात्पुरुषो न विद्यते, देह एव आत्मा, तत्रात्मानं शरीरोपचार कृत्वोपदिष्यते 'बहिया। उड्ढमायाय, नायकखे कयाइवि', स्यात्-शरीरात्मा किनिमित्तं धार्यते', उच्यते, 'पुव्वकम्मक्खयट्ठाए' पूरयतीति पूर्व, क्रियते इति कर्म, क्षेपणं क्षयः, 'इम' मिति इदं औदारिक सम्यक् उद्धरेत खुहादिपरिस्सहेहिं पड़माणं समुद्धरे, तस्यैवं पूर्वकर्मक्षयहेतोः तं देहं धारयतः साम्प्रतं कर्माऽनुपचयहेतोः इदमपि दिश्यते, किं, 'विविच कम्मुणो हेउं' ।।१७४-२६९।। सिलोगो, विविच्येत्यनुमतार्थे उपदेशो वा, क्रियत इति कर्म, हिनोतीति हेतुः, हेतुरिति यतः कर्म प्रसवति, स चाविथैव, उक्तं हि-* Bा "कहणं भंते ! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधंति, रागा दोसा वा" बन्धहेतवः एकैकस्य तु तत्प्रदोषनिहवादयः, एवं सर्वत्र, ट्र तेषु लोके वा केच्चिरं कालं णिकैभितव्या?, उच्यते-'कालखी परिवए' कालनाम यावदायुषः तं पंडितमरणकाल काङ्क्षमाणः सर्वत्रासम्बध्यमानः परिवजेत, सर्वासचरित्यर्थः, स एव निरुद्धाश्रवो यावत्काल काचतो आराच्छरीरधारणार्थमाहाराद्युपग्रहणं | ||१५५1 करोति, न हि निरुपग्रहाणि शरीराणि शक्यन्ते उद्बोद, तत्रोपग्रहमाहारः उपकरणं वा, तत्राहारपरिणामाथेमपदिश्यते-'मातं | पिंडस्स पाणस्स' मीयते मात्रा, पिण्डयति तमिति पिण्डः, पिण्डग्रहणात् त्रिविध आहारः, पाणग्रह्णात् पानकमेव, कडं नाम FAC- DAS-2 दीप अनुक्रम [१६१ १७८] 14 [160] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६११७८] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा || १६० - १७७ / १६१-१७८ ||, निर्युक्तिः [ २३६... २४३ / २३६- २४३ ], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३ ] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्रीउत्तरा० चूण ६ क्षुल्लकनिग्रंथीयं ॥१५६॥ निव्वत्तियं पासुगं कियं जं खीरादि फासुगं, तंपि (ण) अत्तट्टाए, दृढपुसलिं(१) न था, तदपि देष्णं भक्षयेत् खादियमेव, स्वादिममास्वादयेत्, अशनमश्नीयाद, पानकं पिवेत्, बन्धानुलोमात्तु भक्षयेत् तं तु शुक्तशेषमभुक्तशेषं वा - 'सन्निधिं च न कुव्विज्जा ० ' ॥१७५-२६९॥ सिलोगो, समिधानं संनिधिः न प्रतिषेधे, अणतीत्यणुः, मीयत इति मात्रा तिलतुसभागमित्तंपि 'लेवमायाय संजए' कोऽर्थः १, लेवेऽपि न संवसावे पत्ते वस्थे वा किमंग पुण असणादिअट्ठा, अतिप्रसक्तलक्षणनिवृत्तये मा भूत्तदुपकरणमपि न संवास्यति, तेन तदुपकरणं यत्र गच्छति तत्र तत्र 'पक्खीपत्तं समादाय' पक्षी पत्रसंभारं वा पतत्यनेनेति पत्रं पिच्छमित्यर्थः, विभर्त्ति तमिति भारः तत्तुल्यो, यथाऽसौ पक्षी तं पत्रभारं समादाय गच्छति एवमुपकरणं भिक्षुरादाय णिरवेक्खी परिव्वए, नास्याकाङ्क्षा विद्यत इति निश्वकाङ्क्षी, उक्तं पूर्वकर्मक्षयार्थं शरीरं धारयेत् तद्धारणोपायः, तद्यथा-आहार उपकरणं, तदपि 'एसणासमिओ लज्जू' ॥१७६-२७० ॥ सिलोगो, एसणासमिओ, लज्जू नाम लज्जावान्, लज्जुप्यमाण उक्तार्थः, 'अणियतवासी' अनियतः केवलं मार्स, न एसणासमित एव जाव इंदियादिपमादा परिवज्जए येनोपदिश्यते- 'अप्पमत्तो पत्तेर्हि' इंदियादिपमत्तेसु गिहत्थेसु, पिंडस्स पिंडयोः पिण्डानां वा पातः २ अतस्तं पिंडवातं ' गवेषयेत्' मार्गयेदित्यर्थः, 'एवं से उयाहु' ।।१७७-२७० ॥ सिलोगो, एवमर्थावधारणे, 'स' इति भगवान् तीर्थकरः, उदाहुरिति उदाहृतवान्, 'अणुत्तरनाणी ' ति केवलणाणी, नातो उत्तरोत्तरं अण्णं गाणं अस्थिति अणुचरणाणी, ' अणुत्तरदंसी' केवलदेसित्ति, अणुत्तरणाणदंसणधरो जाव से उदाहृतवान्, स्याद् बुद्धि:कोऽसौ ?, उच्यते, ' अरहा णायपुत्ते ' अर्हतीत्यर्छन्, नास्य रहस्यं विद्यते, गातकुलप्पभू (सू ) ते सिद्धत्थखत्तियपुत्ते, भगवान् भगोऽस्यास्तीति भगवान् ऐश्वर्यादि, 'वैसालीए 'ति, गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयः, विशालं शासनं वा, विशाले [161] 2-96-496 सनिधि - वजेनं ।।१५६।। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा श्रीया ||१६० الاوا؟ श्रीउत्तराना इक्ष्वाकुवंशे भवा वैशालिया, 'वैशाली जननी यस्य , विशालं कुलमेव च । विशालं प्रवचनं वा, तेन वैशालिको जिनका उपसंहारः चूणौं ॥१॥'वियाहिते' व्याख्याते, केचिदन्यथा पठन्ति- 'एवं से उदाह अरहा पासे पुरिसादाणीए भगवंते वेसालीए वुद्धे उरभ्र७और परिणिव्वुडेत्ति मि।। अर्ह पूजायां, पूजामहतीत्यर्हः, पश्यतीति पाशः, पुरुषग्रहणं सत्यपि त्रिलिङ्गग्रहणसिद्धत्वे पुरुष एव निक्षेपाः तीर्थकरो भवति प्राय:, स न द्वयोर्लिङ्गयो, आदातव्य आदानीयः, पुरुषों आदानीयः, ज्ञानदर्शनचारित्रसर्वपराक्रमवृत्यादि-| गुणा अस्य इति विशालीयः, शेपमुक्त, बुध अवबोधने, बुद्धवान् बुद्ध, समन्तानिवृत्तः, एवं जम्बोभगवान् आयुष्मान सुधा कथयति-एवं से उदाहु जाच परिणियुए इति बेमि ।। नयाश्च पूर्ववत् । खुङ्कगणिपंठिजं छट्टमायर्ण सम्मत्तम् ६ । उक्ता अविद्या सविद्याथ, ते तु अनिवृत्तात्मानो नोक्ताः, ऋरेषु कर्मसु प्रशस्य तद्विपाक नापेक्ष्यते उरभ्रवत् , इत्येपो क्रियते सम्बन्धः। तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा, उवकमादी, ते परवेऊण णामणिप्फणे उरम्भिज्ज, उरभ्राज्जातं औरप्रियं, उरभ्रस्येदं औरधीयं, सो उम्भो णामादि चतुर्विधो, दब्बे दुविहो बागमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणए अणुवउत्तो, णोआगमओ तिचिहो-जाणगसरीरादि ३, तत्थ 'जाणगसरीर॥२४५२७१||वतिरित्तो दबारम्भो तिविहो, तं०- एगभविओ बद्धवाउओ अभिमुहणामगुप्तो, भावोरम्भो दुविधो-आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए उवउत्तो, णोआगमेल्यादि, णोआगमतो भावोरम्भे इमा गाहा-'उरभाउणामगोयं॥२४६-२७१॥गाथा कण्ठ्या,एतस्स इमा अत्थाऽधिकारगाथा 'ओरम्भे य॥२४७-२७१।। H॥१५७ गाहा, ओरम्भे कागिणी अंबए यवहारो सागरो, एते पंच दिटुंता उरन्भिज्जे अज्झयणे वणिज्जति । 'आरंभे रसगिद्धि' M॥ २४८.२७२ ॥ गाहा, उरम्भारंभो कीस गते , उच्यते, सोऽप्यासितो २ मारिज्जति, ण य तत्थोवायो कोऽवि, एवं असंजता दीप अनुक्रम [१६१ १७८] - अध्ययनं -६- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -७- “औरभीय" आरभ्यते [162] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ७औरश्रीया ||१७८२०७|| श्रीउत्तराजीवा 'आरंभे' ति मैसरसगिद्धा, उरम्भमच्छमहिसादयो, तेसि दोग्गतिगमणपश्चवाया भवंति, इत्यत ' उवमा कया उरन्मे, उरभ्रचूणौं । | उरम्भिज्जस्स णिज्जुत्ती' णामणिप्फण्णो गतो ॥ जाव सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेयब, तं च इमं 'जहाऽऽएसं समुहिस्सादा दृष्टान्तः ॥१७८ सू.१७३॥ सिलोगो, येन प्रकारेण यथा, आएस जाणतिचि आइसो, आवेसो वा, आविशति वा वेश्मनि, तत्र आविशति | वा गत्वा इत्याएसा, शोभनं गतं संगतं तं वा उद्देश्य समुद्देश्य, कथमुद्देश्य', आएसो अभ्यरहितो यथा आगमिष्यति, अमुगो | ॥१५८ वा, तदा एवं मारता तेण सह मक्खिस्सामि, उच्छवदिने वा 'कोयि' त्ति कश्चित् , क्रूरकम्मी पापः, 'पोसेजा' 'पुष पुष्टी' एति एत्याकारितो एत्येलकः, कथं पोसयति ''ओयणं जबसे देति' उतचि उदात्त वा तमिति ओदनं ददाति, जवसो मुग्गमासादि, यानि चान्यानि तद्योग्यानि विसयणामादि, जो जस्स बिसाति स तस्स विसयो भवति, यथा राज्ञो विषयः, एवं यद्यस्य विषयो भवति, लोकेऽपि वक्तारो भवन्ति सर्वो यात्मगृहे राजा, अंगति तस्मिन्निति अंगनं, गृहांगनमित्यर्थः, अथवा | ताविषया रसादयः तान् गणयन् प्रीणितोऽस्य मांसेन विषयान् मोक्ष्यामीति, अथवा विषयान् इति, धर्म परलोकभयं वा, एत्थ | कप्पितं उदाहरण- एगो ऊरणगो पाहुणयनिमित्तं पोसिज्जति, सो पीणियसरीरो सुण्हातो हलिहादिकयंगरागो कयकण्णचूलतो, कुमारगा य तं नाणाबिहेहिं कीलाविसेसेहिं कीलावेंति, तं च वच्छगो एवं लालिज्जमाणं दट्टण माऊए हेण य गोवियं दोहएण य तयणुकंपाए मुकमवि खीरं ण पिबति रोसेणं, ताए पुच्छिओ भणति- अम्मो! एस दियगो सब्वेहिं | एएहिं अम्ह सामिसालेहिं इडेहि जबसजोगासणेहिं तदुवओगेहिं च अलंकारविसेसेहिं अलंकारितो पुत्त इन परिपालिज्जति, ॥१५८॥ अहं तु मंदभग्गो मुकाणि तणाणि काहेवि लभामि, ताणिीव ण पज्जतगाणि, एवं पाणियंपि, ण य में कोवि लालेति, ताए - दीप अनुक्रम [१७९२०८] - - +--- [163] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरा | मण्णति-पुत्त ! 'आउरचिनाई एयाई॥२४९-२७३॥ गाथा, जहा आउरो मरिउकामो जे मग्गति पत्थं वा अपत्थं वा त उरभ्रचूणौँ । | दिज्जति से, एवं सो पंदितो मारिजिहिति जदा तदा पेच्छिहिसि, उक्तो दृष्टान्तः। प्रकृतमुपदिश्यते- 'तओ से पुढे परि-द दृष्टान्ता ७ और-14 | बूढे ॥१७९-२७४|| सिलोगो, 'तत' इति ततो जवसौदनप्रदानात् पुष्यते वा पुष्टः परिवृहितः परिवृढः, मिद्यतेऽनेनेति मेदः। श्रीया उदीर्णान्तः उदीर्यते वा उदरं पीणिए' विपुलदेहे, प्रीणीत: तपित इत्यर्थः, विपुलदेहे नाम मांसोपचितः, 'आएस ॥१५९॥४॥ ला परिकखए। कर्मवत् कर्मकर्तेतिकृत्वाऽपदिश्यते-मांसोपचयादसौ स्वयमेव मेदसा स्फुटन्निव आएसं परिकखए, कथं सो|H आगच्छेदिति, उत्सवादिा , यत्रायमुपयुज्येत, अथवा परिकंखति, 'जाव न एजति आएसो' ।।१८०-२७४|| सिलोगो, याव-11 परिमाणावधारणयोः, कह दुही जबसोदनेऽपि दीयमाने ?, उच्यते, वधस्य वध्यमाने इष्टाहारे वा वध्यालंकारेण वाऽलीक्रयमाणस्स लाकिमिव सुख, एवमसौ जवसोदगादिसुखेऽपि सति दुःखमानेवा, 'अह पत्तंमि आएसे' अथेत्ययं निपात आनन्तर्ये, श्रिताः तस्मिन् प्राणा इति शिराः, ततो सो वच्छगो तं नंदियगं पाहुणगेसु आगएसु वधिज्जमाणं दई तिसितोऽवि भएणं माऊए माथणं णाभिलसति, ताए भण्णति-किं पुत्र ! भयभीतोऽसि , हेण पाहुयपि मंण पियसि. तेण भण्णइ- अम्म! कत्तो मे मज्ज थणामिलापो, णणु सो वच्छतो पीदतो अज्ज केहिवि पाहुणएहिं आगएहिं ममं अग्गतो विणिग्गयजीहो विलोलनयणो विस्सरं रसंतो अत्ताणो असरणो विणिहतोत्ति तब्भयातो कतो मे पाउमिच्छा ?, ततो ताए भणति- पुत्ता ! णणु तदा साचे ते कहिय, जहा आउरचिण्णाई एयाई, एस तेसिं विवागो अणुपचो । एस दिईतो 'जहा खलु से ओरन्भे ॥१८१-२७४॥ 8 ॥१५९।। सिलोगो, यथा येन प्रकारेण, खलु विशेषणे, स एव विशिष्यत इति स इति प्रागुक्ता, उरसा भ्राम्यति विभर्ति वा तमिति उरभ्रः, - दीप अनुक्रम [१७९२०८] - - [164] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] श्रीउत्तुरा नरकहेतवः गाथा आर भ्रीया० ||१७८२०७|| ॥१६॥ समीहितमिति सभ्यगीक्षितः, 'एवं बाले' एवमवधारणे, एवमुपमाने, द्वाभ्यामाकलितो बालः, अधम्मो इट्ठो जस्स स भवति अधम्मिट्ठो, 'ईहति' इहते नाम चेष्टते, नरका उक्तार्थः, आयुष्कमुक्तार्थः, नरकेषु आयुष कुत्सितं नरकायुष्क, अत्राह-16 यथाऽसौ मांसबंहितात्मा आएसं परिकखति एवमसौ बालः केन हितात्मा नरकायुः कखति?, उच्यते, 'हिंसे वाले मुसावाई। ॥ १८२-२७५ ।। सिलोगो, हिंसयति हिंस्रः, द्वाभ्यामाकलितो बाल:, रागद्वेषाभ्यामित्यर्थः, मृषा वदतीति मुसाबादी, अत्ती प्राणानिति अद्धा, विविधो लोक २, अद्धानंमि विलोकं करोतीति अद्धानंमि विलोकः, पन्धमोष इत्यर्थः 'अण्णदत्तहरे तेणे' अग्नेसि दत्तं हरतीति अन्नदत्तहरः, अहवा अमेसि दत्तं तं हरति, स्तेन स्त्यायत इति स्तेना, मायाऽस्यास्तीति मायी, कस्य | हरामि किन्नु हरामीति वा, किन्तुहरः, शठः कैतवो, पंचास्य(सुवि प्पमत्तो, 'इत्थीविसयगिद्धे य॥१८३-२७५।। सिलोगो, इस्थीणं विसया इस्थिविसया, इस्थिविसयभोग इत्यर्थः, इत्थीविसयगिद्धे, अथवा खीषु विषयेषु गृद्धा, गृध्यते स्म गृद्धः, महतो आरंभो परिग्गहो य जस्स (स) भवति 'महारंभपरिग्गहे' 'भुजमाणे सुरं मंसं' मन्यते तत् मन्यते वा तं मन्यते चा स भक्षयिता तेनोपभुक्तेन बलिनमात्मानं मांस, परिहितः-परिवृढः, तेन मांसेन परिबृंहिताः, परे य दमयतीति परंदमो, 'अयकक्करभोई य' ।। १८४ ।। सिलोगो, अजतीत्यजः, ककरं नाम महुरं दंतुरं मांस, अजा इव ककरभोजनशीला अयकक्करभोई, तुंदिल-| |मस्य जातं तुन्दिलः, चितं यस्य लोहित चियलोहितः, स तैरेव हिंसादिभिराश्रवैर्वृत्तः, मांसभक्षीयता आयुग नरए कंखे, एति ययाति वाऽऽयुः, आनीयते तस्मिन्नरकं, कांक्षतीय कांक्षते, का तर्हि भावना, नासी नरकस्याद्विजते येन नरकसंवर्तनीयानि कर्माण्यारभते, स एव दृष्टान्तः, जहाएसं व एलए॥ अन्नहिवि पगारेहिं निरयाउयंकं खति-'आसणं सयणं जाणं॥१८५-२७५।। दीप अनुक्रम [१७९२०८] ॥१६॥ [165] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] चूणों गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरासिलोगो, आसणं उवविसणपीढगादि, शय्यते तस्मिन्निति शयन-पल्लंकादि, जाणं-सगडहस्थिभस्सादि, दित्त-हिरण्णसुवण्णादि, भनरकहेतवः | तत्र गृद्धाः तदुत्पादयन्तः संरक्षमाणाच 'कामाई भुजित्ता' कामा-इस्थिविसया, एगग्गहणे तज्जातीयाना ग्रहणमितिकृत्वा | ७ और- सेसिदियविसयावि महता, तैर्भुजित्वा दुस्साहणं धणं हिच्चा' साहडं णाम उपार्जितं, दुई साहडं दुस्साहर्ड, परेसिं श्रीया० परेसिं उवरोधं काऊणंति भणितं होति, दुक्खेण वा साइडं दुस्साहडं, सीतवातादिकिलेसेहिं उवचितंति, अथवा कताकतं देत॥१६॥ ज्वमदेतवं खेत्थखलावत्थं दुस्साहडं, दुस्सारविर्तति भणितं होति, 'बटुं संचिणिया रयं' रीयत इति रजा, सो अहविहो | कम्मरयो। 'ततो कम्मगुरू जंतू ।। १८६.२७५ ।। सिलोगो, 'तत' इत्यानन्तर्येण क्रियत इति कर्म, गृणातीति गीयते वा गुरू:, 'जंतु' ति जीवस्याख्या, प्रत्युत्पन्ने मुखे रज्जते रलयोरक्यमितिकृत्वा 'पच्चुप्पणपराय(लज्ज)णे अएव्य आगयाएसे' अजतीत्यजः, अजेन तुल्यः अयच्च, जहा सो आयबद्धो मारेज्जिउकामो सोयति, एवं सोवि मारणंतियवेदणाभिभूतो परलोगभूतो ५ सोयति, एकाधिकारे प्रकृते अयमनेकादेशः। ततो आयुपरिक्खीणे (वले)खीणे ॥१८७-२७६|सिलोगो, एति याति चा,। आयुषि परिक्षीणे चुत्ता इतो, कुतश्रुतो?, देहात विविधम्-अनेकप्रकारं हिंसकाः विहिंसकाः 'आसुरियं दिसं चाला' नास्य सरो विज्जति, आसुरियं वा नारका, जेसिं चक्खिदियअभावे सूरो उद्योतो णत्थि, जहा एगेंदियाणं दिसा भावदिसा खेत्त-| दिसावि घेप्पति, असर्वात्यसुरः, असुराणामियं आसुरीयं, अधोगतिरित्यर्थः, अवसा णाम कम्मवसगा 'तम' मिति अन्ध-| |१६१॥ | कार, स तत्थ नरकगतिं गतो बहुं दुक्खमणुभवन्तो परितप्पति ॥ दिहतो-- 'जहा कागिणीए हेडं' ॥१८८-२७७। सिलोगो, येन प्रकारेण यथा, कागिणी णाम रूवगस्स असीलिमो भागो, वीसोवगस्स चतुभागो, अत्रोदाहरणम्-एगो दमगो, तेण वित्ति दीप अनुक्रम [१७९२०८] [166] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा श्रीया दृष्टान्त: ||१७८२०७|| % श्रीउत्तरा करेंतेण सहस्सं काहावणाण अअियं, सो य तं गहाय सत्येण समं सगिह पस्थितो, तेण भत्तणिमित्तं रूवगो कागिणीहि मिनो, काकिणी चूर्णी नसतो दिणे दिणे कागिणीए भुजति, तस्स य अवसेसा एगा कागणी, सा विस्सरिया, सत्थे पहाधिए सो चितेति-मा मे स्वगो || दृष्टान्तः ७और-मिदियब्यो होहित्ति णउलगं एगस्थ गोयेउं कागिणीणिमित्तं णियचो, सावि कागिणी अनेण इडा, सोऽवि णउलवो अण्णेण ते आम्रदिडो ठबिज्जतो, सोऽवि तं घेत्तण गड्डो, पच्छा सो घरं गतो सोयति, एस दिढतो, 'अपत्थं अवगं भुच्चा' अब कस्सइ रनोर ॥१६॥ी अंबाजिण्णण विसया जाया, सा तस्स बेज्जेहिं महता जत्तेण तिगिच्छिया, भणितो य-जइ पुणो अंबाणि खाहिसि तो विण स्ससि, तस्स य अतीव पियाणि अंअयाणि, तेण सदेसे सब्बे अंबा उच्छादिया, अण्णया अस्सवाहणियाए णिग्गतो, सह अम-4 चेण अस्सेण अवहरिओ, अस्सो दूरं गतूण परिस्संतो ठितो. एगमि वणसंडे चूयच्छायाए अमच्चेण वारिज्जमाणोऽवि णिविट्ठो, तस्स य हेट्ठा अंबाणि पडियाणि, सो ताणि परामुसति, पच्छा अग्याति, पच्छा चक्खिउं णिच् हति, अमचो वारेइ, पच्छा भक्खेउं मतो । भणितं दिद्वैतदुर्ग, कागिणीदिÉतोवसंथारप्पसिद्धीए भण्णति-'एवं माणुस्सगा कामा' ||१८९-२७७|| सिलोगो, जह णाम कोई मणुस्सकामा दिग्बकामाण अंतिए करेज्जा, अन्तिक समीपमित्यर्थः, ततो ते कागिणीओऽवि अप्पतरा होज्जा, | जहा कामा तहा आयुपि हो(जो)ज्जा, अनुवर्त्तमान एव श्लोका, एवं माणुस्सयं आयुं दिव्वमाउस्स यंतिए, दिव्या पुण 'सहस्स|गुणिता भुजो' ति, ण केवलं सहस्सगुणा, अर्णतगुणा चा दिव्या कामा, दिव्यं चायुः, बंधाणुलोमयाओ आउं कामा य | दिब्विया ॥ स्यात् कथमायुते जीच्यते?, उच्यते-'अणेगवासा नउता' ॥१९०-२७८॥ सिलोगो, न एगमनेक, वर्षतीति वर्ष, णउतं णाम चउरासीतिसयसहस्साणि (पुवाणि) से एगे णउतंगे, चउरासीतिणउतंगसतसहस्साणि से एगे णउते, चउरासीति 4-5 दीप अनुक्रम [१७९२०८] - R -% A -% [167] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१७८२०७|| % श्रीउत्तरा पउयसयसहस्साणि से एगे पउतंगे, एवं तव्वं, 'अणेगाई' ति असंखेज्जाई, ताई जाई 'पण्णवतो' प्रज्ञा अस्यास्तीति प्रज्ञा- वणिम्चूणौं । वान् अतस्तस्य ज्ञानवतः, स्थीयत इति स्थितिः, 'जाई जीयति दुम्मेहा' इमेहि अप्पकालिएहिं जीयंति 'दुम्मेह' ति दुम्युद्धि-15 दृष्टान्तः ७ और-1 गा 'ऊणे वाससयाउए' हीणवाससयाउए, भगवता परिससताउएसु मणुएस धम्मो पणीतो इत्यतः ऊणे वाससयाउए, भणितो | श्रीया कागिणी अश्वदिढतो य । इदाणि चवहारदिQतो, तप्पसिद्धिनिमित्तं मण्णति-'जहा य तिणि वणिया॥१९१-२७९॥सिलोगो, ॥१६३॥ जहा एगस्स वणियगस्स तिण्णि पुत्ता, तेण तेसिं सहस्सं सहस्सं दिनं काहावणाणं, भणिया य-एएण वबहरिऊण एत्तिएण। कालेण एज्जाह, ते तं मूलं घेसूण णिग्गया सणगरातो, पिथप्पिथेसु पट्टणेसु ठिया, तत्थेगो भोयणच्छायणवज्ज यमज्जम-11 सवेसावसणविरहितो वीहीए वबहरमाणो विपूललाभसमनितो जातो, वितितो पुण मूलमविद्दवतो(जहा)लाभगं भोयणच्छायणमल्लासंकारादिसु उब जति, पण य अच्चादरेण ववहरति, ततितो न किंचि संपवहरति, केवलं ज्यमज्जमंसवेसगंधमल्लतंबोलसरीरोपकारकियासु अप्पेणेव कालेण तं दवं णिपियंति,जहावाहिकालस्स सपुरमागया,तत्थ जो छिन्नमूलो सो सचस्स असामी जातो, पेसए उवचरिज्जति, बितितो घरवावारे णिउत्तो भत्तपाणसंतुट्ठो, ण दायब्बभोगब्वेसु ववसायति,ततिओ सबस्स घरबित्थरस्स सामीकतो, जा केई पुण कहंति-तिनि वाणियगा पत्तेयं २ धवहरांति, तत्थेगो छिन्नमूलो पेसत्तमुवगतो, केण वा संववहारं करेउ ?, अच्छिन्नमूलो र पुणरवि वाणिज्जाए भवति, इयरो बंधुसहितो मोदए, एस दिट्ठतो, अयमत्थोवण्णतो-'वहारे उधमा एसा, एवं धम्मे विजाणह। (१९२-२७९) एवामेव-तिथि संसारिणो सचा माणुस्सेसु आयाता, तत्थेगो मद्दवज्जवादिगुणसंपन्नो मज्झिमारंभपरिग्गहजुत्तो ।।१६।। कालं काऊण काहावणसहस्समूलत्थाणीयं तमेव माणुसचं पडिलहति, चितितो पुण सम्म ईसणचरित्तगुणसुपरिणिहितो सरागसंजमेण दीप अनुक्रम [१७९२०८] A7%% [168] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा || १७८ २०७|| दीप अनुक्रम [१७९ २०८ ] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१... ] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, निर्युक्तिः [२४५...२४८/२४४-२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा चूर्णौ ७ औरश्रीया० ॥१६४॥ लद्धलाभवणिय इव देवेसु उबबनो, ततितो पुण'हिंसे वाले मुसावाले' (१९३-२८०) इच्चेतहि पुण्वभणितेर्हि सावज्जजोगेहि बलिउ छिन्नमूलवणिय इव गारगेसु ( तिरिएस) वा उववज्जति । एतदेव पुरस्कृत्यापदिश्यते- 'दुहतो गती बालस्स' ॥१९४-२८० ॥ सिलोगो, तस्स पावरस कम्मस्स पवत्तमाणस्स दुहतोचि द्विधा, द्विप्रकारा इत्यर्थः, तद्यथा-नरकगतिः तिर्यग्गतिथ, बालस्येति रागद्वेषकलितस्य, सा तु 'आवती वधमूलिका' तत्र शीतोष्णाद्या व्याधयथ आवती व्यधस्तु प्रमारणं ताडनं वा, मूलहेतुं वा आदौ व्यध इत्यर्थः स तु 'देवत्तं माणुसतं च' तस्मात् कारणात् 'जिते' जितो लौल्यभावो लोलता शाख्येति शाममेवेति (ठयतीति वा शठः, न धर्मचरणोधमवान्, कोऽभिप्रायः १, यद्यसौ ते मनुष्य के कामभोगेण झुंजतो ण तेहिं देवतं माणुसतं च जिन्वंतो, णीओ वक्कतो इत्यर्थः, 'ततो जिए सई होई' ॥ १९५ २८०।। सिलोगो, तत इति दुर्गतिं गतः कुत्सिता गतिः दुर्गतिः इत्थं तस्तवि ततः 'दुलहा तस्स उम्मज्जा' उम्मज्जणं उम्मज्जा, उम्मज्जायति, 'अद्धा' कालः 'सुचिरादवि' यदुक्तं सुचिरकालादपि 'एवं जियं सपेहाए' ।। १९६-२८०।।सिलोगो, एवमनेन, को जित, वालः, कथं जितो?, जेण माणुस्संपि णासादितं सम्यक् समीक्ष्यते यया समीक्षा तथा 'तुलिया वालं च पंडियं तुलयित्वा तु तुलिया बालत्वं च पण्डितस्त्रं च कुतो ?, बालो विसीयति, चशब्दात् जो य ण जितो, ण वा च्युतलाभक इति, स्यादेतत्-यथा जितस्य नरकतिर्यग्योनिषूपपन्नस्य दुर्लभा तस्स उम्मज्जा, एवं जो ण जितो ण य लद्धलाभो, जो य लद्धलाभो संसारी, तयोः कुत्र गतिः १, उच्यते यस्तावत्र जितो न च लब्धवान् स पुनरपि मानुष्यमासादयति, ततोऽपदिश्यते 'मूलियं ते पविस्संति' जहा ते मूलप्पवेसा पुणरवि वाणिजाय भवन्ति, एवं जे संसारिणो पुणरवि माणुसत्तणं पार्श्वेति ते मूलमेव पविसंति, ते मनुष्यं क्षेत्रजात्यादिविशुद्धं पुनरपि धर्म्मचरणयोग्या भवन्तीत्यतः [169] ম चणिग् दृष्टान्तः ||॥१६४॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरा० मूलमेव पवेसेंति, 'माणुस जोणि मिति' जणीति जोणिः, स्यादेतत्-किमाचरंतो माणुसतं पावें तित्ति 'विमायाहिं सिक्वाहिशीलवता चूर्णी सा॥१९७-२८०॥सिलोगो, मिनोतीति मीयते वा मात्रा, विषमा मात्रा विमात्रा, सिक्खाते शिक्ष्यन्ते वा तामिति शिक्ष्या, वियत इति | ७.और- व्रतं,ब्रह्मचरणशीला सुव्रता,पठ्यते च 'जे णरा गिहिसुब्वया'तत्र शिक्षानाम शास्त्रकलासु कौशल्यं, वेमाता नाम अनेकप्रकाराः प्राया पुरिसे पुरिसविसेसे इत्यतो वेमाता, सुव्रता गाना (नाम) पगतिभद्दया, उक्तं च.'चउहि ठाणेहि जीवा मणुयाउं पकरति, जहा॥१६॥ पगतिभद्दयाए पगतिविणीययाए साणुकोसयाए अमच्छरियाएं' 'उति माणुसं जोणि मनुष्याणामियं मानुषी, 'कम्मसच्चा, हु पाणिणो' कम्माणि सच्चाणि जेसिं ते कम्मसमचा, तस्स जारिमाणि से ताबविधि गतिं लभति, तं सुभमसुभं वा, अथवा कर्मसत्या हि, समचं कर्म, कम्मं अबेदे नवेइचि, यदि हि कृतं कर्म न वेद्यते ततो न कर्मसत्याः स्युरिति, यदिवा नष्ट४ कर्मा, इष्टफलामाधुर्यादिति, पठ्यते च-'कम्मसत्ता हु पाणिणों' कर्मभिः सक्ताः, उक्त अल्पारंभपरिग्रहवां फलं, यैस्तत् मृलमासादितं त) । लद्धलाभ प्रतीत्योच्यते 'जेसिंत विउला सिक्खा ॥१९८-२८२।। सिलोगो, ये इति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः, |विपुला विशाला इत्यर्थः, सिक्खा दुविधा-गहणा आसेवणया, 'मूलियं ते उट्टिया' उहिता नाम अतिक्रान्ता, पठ्यते च-'मूलं | अइच्छिया' अतिक्रान्ता इति, लब्धलाभका वा 'सीलमंता' सह विसेसण सविसेसा, सविससा नाम लाभगए वा लाभगा| वा सीलवंता सविसेसा इत्यर्थः, णो दीणो अद्दीणो इति अद्दीणो णाम जो परीसहोदए ण दीणो भवति, अथवा रोगिवत् । का अपत्याहारं अकामः असंजमं वज्जतीति दीनः, जे पुण हुप्यन्ति इव ते अद्दीणा जति देवयं ॥ उक्तं सीलवर्ता फलं, 'एवं अदी-II ड्राणवं भिक॥१९९.२८३।। सिलोगो, एचमवधारय, दीयते दीनमात्रं वा दीन:, न दीन: अदीना, परीसहोदएऽपि सति अदीन:, HECIRC%AC- HERE दीप अनुक्रम [१७९२०८] %CROGRA [170] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||१७८ २०७|| दीप अनुक्रम [१७९ २०८ ] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१... ] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, निर्युक्तिः [२४५...२४८/२४४-२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण श्रीउत्तरा० चूण ७ और श्रीया० ॥१६६॥ तदेवमदीणवं भिक्खु देवलोगमानि तं मत्वा, अगारमस्यास्तीति अगारी तं चागारीणं वेदित्वा, मानुष्य उपवन इति वाक्यशेषः, अगारी यः श्रावकः, असावपि देवलोकवान्. एकान्तदण्डस्तु नरक एक एव भवति, एवं सो बालो अध्पेहिं कामेहिं बहुं जीच्चति, स एवं त्रितयस्यास्य विशेषज्ञः 'कहन्नु जिसमे लिखं कथमिति परिप्रश्ने, जिच्चतोऽपि एलिक्वंति एरिसं, सर्वस्तु कथमीदृशः १, त्रितयविशेषाभिज्ञो जिच्चेज्ज, जिच्चमाणं वा अप्पाणेण संवेदेज्जा, तहाऽहं अप्पसुहत्थे देवसुहं जितो मूलं वा वमिति इति, अथवा जिच्चति यया सा जिच्चा जे तु. बेमात्रेण हि जित्वा लक्ष्यते जेतुमस्तीवि, जिच्चा सो तु कहं लक्ष्यते । उक्ता व्यव हारोपमा, साम्प्रतं सागरोपमा, अत्राह वक्ष्यति भवं सागरोपमं इदं तावदस्तु, यदुक्तं कागिणीदृष्टान्तः स नोपपद्यते ननु चक्रवर्त्तिवलदेववासुदेवमण्डलिकेश्वराणां अन्येषां पृथग्जनानां यथा वस्तूपमानि इष्टानि विषयसुखानि दृश्यते, तथा मनुष्यवशप्राप्तायेवापदिश्यते, इत्यतस्तानि न काकिणीमात्राणि विषयसुखानि, उच्यते-ते हि काकिणीमात्रादप्यवस्थिता एव, कई ?, जेण ते वंतासवा० अणितिया बहुसाधारणा इति, तिरिया य, तद्विपरीतास्तु देवकामाः, अप्येवं सहस्रमात्राऽभिदर्शनं ननु तत्रैवापदिष्टं 'सहस्वगुणिता भोज्जो'त्ति जावऽणंतगुणोत्ति अयं तु सुमहदंतरविषयकरो दृष्टान्तः, सभिरुद्वतरथ, येनोच्यते- 'जहा कुसग्गे उदगं ||२००-२८३|| सिलोगो, येन प्रकारेण यथा, समंताद् अतीव उत्ता पृथिवी सर्वतस्तेनेति समुद्रः, कुशाग्रं, यथा कचित्कुशाग्रे लम्बमाणमुदकं दृष्ट्वा ब्रूयात् यदिदमुदकं कुशाग्रे लंबते एतत्समुद्रोदकं व तच्च यथा प्रमाणवाविधुरं 'एवं माणुस्सया कामा' अंतिए णाम तस्स समीवे कता, तैः सह तुल्यमाना विम्ब (न्दु) मात्रा अपि न पूर्वति । 'कुसग्गमेता इमे' ॥ २०१ २८४॥ कुशाग्रमात्रा इति कुशाग्रोदकबिंदुमात्रा 'इमे'ति मानुष्यकाः सागरकुशाग्रमात्रा 'सन्निरुद्धमि आउ' सन्निरुद्धं न [171] सागर दृष्टान्तः ॥१६६॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरावरिससतातो पर जीवंतीति, अंतरावि य णाणाविधेहिं उवक्कमविसरहिं सन्निरुज्झते, ततो अप्पसारेसु कामु सन्निरूद्धे य आउतमि बालपंडित भवान्'कस्स हेतुं पुरो काउं'कस्सेति कस्स कारणं भवं असंजमं पुरस्कृत्य अधर्माय प्रवृत्तोऽसि?, किमन्यज्जो(बो) वदिश्यति, न ७और- तु स्वयं चेदाचास्यादुपचितं कर्म वेत्तव्यामिति, येनात्मा 'जोगवखेमं न संविदे? संक्षेपार्थस्तु कस्सेहं अवराहं उबार काउं? कं भ्रीया० वा पुरतो किच्चा? अप्पाण जोगखेमे ण संवियसि, उन्मत्तवत्, किंच-'इह कामाऽणियहस्स' ॥२०२-२०३२२८५।। सिलोगो, ॥१६७॥ 'इहे ति इह मनुष्यत्वे, काम्यंत इति कामाः, कामेभ्य अनिवृत्तस्य, इयत्ती इच्छनि वा अर्थों, आत्मार्थ एवापराध्यते, 'सुच्चा नेयाउयं मग्गं' नयणशीलो नैयायिकः 'मग्गं' ति दसणचरित्तमइयं मोक्खमग्गं, तं श्रुत्वा, पठ्यते वा-पत्ती णेयाऊयं मग्गं, मजं भुज्जो परिभस्सति, प्राज्ञः सन् नैयायिक मार्ग जं पुणरवि सव्वतो भस्सति, जं पुणरवि मिच्छत्तं चैव गच्छति, एतस्स चेव सिलोगस्स पच्छई केति अण्णहा पठति-'पूतिदेहनिरोहेणं, भवे देवेत्ति मे सुयं पोसयतीति पातयतीति (प्रति) औदा रिकशरीरमित्यर्थः, पूतिदेहस्स निरोधे पूतिदेहणिरोहो पासी देहो होतो जइ अचट्ठो नावरज्झतो इति मे सुयं, इति उपप्रदर्शनार्थः, कामे इति मया,श्रुतमाचार्येभ्यो, नान्यतः। उक्तं बालिशफलं, देवलोकात् च्युतमनुष्येपु'इजही जुत्ती'।।२०४-२८५।।सिलोगो, इढी-II ऋद्धी, द्युतत्यनेनेति द्युति, अश्नुते सर्वलोकेष्विति यशः, वृणोति वृण्वति वातमिति वर्णः, एति याति अस्मिन्निति आयुः, 'सुखर सौख्यं 'अणत्तरं ति मणसेसु 5 सबुत्तमं 'जस्थ भुज्जो मणुस्सेसु, तत्व से उपवज्जति'त्ति कंठ्य, उक्तं वालपंडितयोः ॥१६७। फलं, तदनुषङ्गादेवापदिश्यते-'बालस्स पस्स बालत्तं'।२०५-२८५।। सिलोगो, कंठयः। 'धीरस्स पस्स धीरत्तं ॥२०६.२८५॥ सिलोगो, धातीति धीरा, सेसं कण्ठयं । 'तुलिआण बालभावं' ॥२०७-२८५।। सिलोगो, तुलियातो-तोलयित्वा, पालतो भावो दीप अनुक्रम [१७९२०८] NEERINGA4% [172] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] कापलनिक्षेपाः गाथा ||१७८ २०७|| ॥१६॥ श्रीउत्तराना चालत्वं नरकादिगमन, 'अवालं चेव पंडिते' अवालो पण्डित इत्यर्थः, तस्मादेवलोके गमनं, एतानि तोलयित्वा 'चाऊण | चूर्णी बालभावं, अबालं सेवए' आचरेत् 'मुनी' मुनीति त्रैलोक्यावस्थान भावानिति मुणी, इति बेमि नयाः पूर्ववत् ।। उरभिज्ज ८ कापि-1 लीया. ५ | णाम सत्तममजझयणं सम्मत्तम् ।। इदानीमलोभाध्ययनं, तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा उवक्कमादि परूवेऊण (णाम ) निफननिक्खेवे काबिलिज्जति, तत्थ गाहा-'निक्खेवो कविलंमी ॥२५०-२८६॥गाहा, निक्खेबो कविकस्स, निक्खेयो नामादिचउच्चिहो, णामठवणाओ गयाओ, |दव्वकविलो दुविहो-आगमतोपोआगमतो य,आगमतो जाणए अणुवउत्तो नोआगमओ तिविहो-'जाणगसरीरादि'०॥२५१-२८६॥ तत्थ जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तो कविलो तिविहो-एगभविओ बद्धाऽऽउओ अद्दिमुहणामगोत्तो, भावकपिलो दुविहो| आगमओ णोआगमतो य, आगमतो जाणए उवउत्तो, णोआगमतो इमा गाहा-'कविलाउणामगोर्य' ।। २५२-२८६ ।। गाहा, 12 कण्ठ्या, एतस्स भावकविलस्स इमा य उप्पत्ती-कोसंबी कासवजसा ॥२५३-२८९।। गाहा। तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीए नयरीए जितसत्तू राया, कासवी भणो चोदसविज्जाठाणपारगो, राइणो बहुमतो, वित्ती से उवकप्पिया, तस्स जसा णाम भारिया, तेसिं पुत्तो कचिलो णाम, कासवो तमि कविले खुङलए चेव कालगतो, ताहेतीम मए तं पर्य राहणा अण्णस्स मरुयगस्स दिगणं, सो य आसेण छत्तेण य धरिज्जमाणेण वच्चइ, तं ददळूण जसा परुण्णा, कविलेण पुच्छिया, ताए सिट्ठ-जहा पिया 8 ते एवं विहाए इट्टीए णिम्गच्छियाइओ, तेण भण्णति-कथं', सा भणति-जेण सो विज्जासंपण्णो, सो भणइ-अहपि अहिज्जा दीप अनुक्रम [१७९ SCRECORRECORESCR MC २०८] ॥१६८॥ अध्ययनं -७- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -८- “कापिलीय" आरभ्यते [173] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक 15 [१) गाथा ||२०८ २२७|| श्रीउचरा | Pामि, सा मणइ-इदं तुम मच्छरेण ण कोइ सिक्खवेति, बच्च सावत्थीए नयरीए, पिइमिचो इंददत्तो णाम माहणो, सो ते सिक्खा- कपिलवृत्त चूणौं वेहिति, सो गतो तस्स सगासं, तेण पुच्छितो-कोऽसि तुम, तेण जहावत् कहियं, सो तस्स सयासे अहिज्जिउं पयत्तो, ८ कापि- तत्थ सालिभद्दो णाम इम्भो, सो तेण उवज्झाएण णेच्चतियं दवाविप्तो, सो तत्थ जिमित्ता २ अहिज्जर, दासचेडी य तं परिवे- लीया. सेह, सो य हसणसीलो, तीए सदि संपलग्गो, तीए मण्णइ-तमे मे विपितो, णय ते किंचिकि, णवरि मा रुसिज्जासि। ॥१६॥ पात्तमुल्लाणमित्तं अहमण्णेहिं २ समं अच्छामि, इयरहाऽहं तुझ आणाभोज्जा । अण्णया दासीण महो तुक्का सा तेण ॥ समं णिविणिया, णिई सा न लहइ, तेण पुच्छिया-कतो ते अरती', तीए भण्णवि-दासीमहो उवहितो, मम पत्चपुष्फाइमोल्ल त्थि, सहीजणमो विगुप्पिस्सं, ताहे सो आधिति पगतो, ताए भण्णति-मा अधितिं करेहि, एत्थ धणो णाम सिडी, अ(इ)प्पभाए चेव जो ण पढमं बद्धावेह से दो सुवष्णए मासए देइ, तस्थिम गतूण तं वद्धावेहि, आमंति तेण भणिय, तीए लोभेण मा अण्णो । गच्छिहित्ति अतिपभाए पेसितो, वच्चंतो य आरक्खियपुरिसेहिं गहितो, बद्धो य । ततो पभाए पसेणइस्स रण्णो उवणीतो, राइणा Bा पुच्छितो, तेण सम्भावो कहितो, रायाए भणितो- मग्गसि तं देमि, सो भणति-चितिचा मग्गामि, रायणा तहत्ति भणिए असोगवणियाए चिन्तेउमारदो--कि दोहिं मासेहिं साडिगाभरणा पडिवासमा जाणवाहणा उज्जाणीवभोगा मम वयस्साणं | पव्वागयाण घरं भज्जानउट्ठयं जे चऽण्णं सबउज्ज, एवं जाव कोडीएवि ण ठाएति । चिततो सुहज्यवसाणो संवेगमावण्णो जाई। ॥१६९॥ सरिऊण सयंबुद्धो सयमेव लोयं काऊण देवयादिण्णगहियायारभंडगो आगतो रायसगासं, रायणा भष्णति-किं चितियं, सो भण्णति-'जहा लोहो तहा लोभी' गाहा (१२२४।२५६-२८९) कण्ठया, राया भणति-कोडिंपि देमि अज्जोति भणति राया पट्ठः। दीप अनुक्रम [२०९ २२८] [174] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक - शुवत्वं [१] गाथा ||२०८२२७|| श्रीउत्तुरा चूर्ण ८ कापिलीया. - - ॥१७॥ - ------ मुहवष्णो। सोऽपि चाऊण कोडिं जातो समणो समियपावो ॥१॥(२५७-२८९)छम्मासा छउमत्थो(२५८-२८९) छम्मासा छउमथो संसारस्या आसी, इचो य रायगिहस्स नयरस्स अंतरा अट्ठारसजायणाए अडवीए पलभरपामोक्खा इकडदासा णाम पंच चोरसयार | अच्छति, अइससे उप्पण्णे (२५९-२८९) गाहा । णाणेण जाणियं, जहा ते संबुझिस्संति,ततो पट्टितो, संपत्तो य तं पएसं. साहि| एण य दिट्ठो कोवि एतित्ति आसण्णीभूतो, नाश्रो जहा समणगोत्ति, अम्हं परिभविङ थागच्छति, रोसेण व गहितो, सेणावइ-15 समीयं णीतो, तेण भण्णाति-मुयह पंति, ते भणंति-खेलिस्सामो एतेणंति, ताव एते भणंति-नच्चसु समणगोत्ति, सो भणइ-वायंतगो पत्थि, ताहे ताणिवि पंचवि चोरसयाणि तालं काहेंति, सोऽवि गायति धुवगं,"अधुवे आसासयंमी, संसारंमि दुक्खपउराए।किं | णाम तं होज्ज कम्मयी जेणाहं दुग्गइंण गच्छेज्जा"(२०८-२८९) एवं सन्चथ सिलोगतरे धुवगं गायति, अधुवेत्यादि, | तत्थ केइ पढमसिलोगे संयुद्धा,केह पीए,एवं जाव पंचवि सया संबुद्धा। णामणिष्फनो,सुत्ताणुगमे मुत्तमुच्चारेतव्वं,सो भगवं तेसिं चोराण | योहगणिमित्तं इस धम्म गीतयं गायति-'अधुवे असासयमि॥२०८तत्थ निवृत्तं,अधुवो णाम णरगादिगमणसंबद्धो संसारो जतो अधुवो,अत एव असासतो,की,जतो एव ममं प्रियाप्रिय इत्यत एवाई बोधयितुमानीतः,न हि भक्तिवादे पुनरुक्तमपि,यथा सर्वातिशयनि| धान तथा आघवाणियाए तहा प्रसापे(दे। उपदेशे च,एवमिहवि अधुवे असासते य,उवदेशतो भयदरिसणओ यण पूणरुत्तं भवति,अधुवे|8 असासयंमि माणुस्सतं गच्चतं भवति तेण अधुवं, ण कोइ अच्चतमणुस्सो अस्थि, असासयं तु सोपक्रमायुषत्वात् , संसरतीति ॥१७॥ संसारः, सारीरमाणसाणि दुक्खाणि जत्थ पउराणि संभवति दुक्खपउरो, अतो तमि संसारमि दुक्खपउराए तीर्णोऽपि स भगवान् तं तितीर्घः इदमवोचत्- 'किं णाम होज्ज तं कम्मर्ग' किमिति परिप्रश्ने, किनाम, क्रियत इति कर्म, जेणाहं दुग्गहतो, दीप अनुक्रम [२०९ -- - २२८] -- - [175] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक ससार (१) धवत्वं गाथा ||२०८२२७|| ENR440 श्रीउत्तरामुच्चेज्जा, जेण कम्मुणा कतेण अहं दुग्गइतो मुच्चेज्जा, कुस्थिता गति दुर्गति, सा चतुर्विधा-णेरड्यदुग्गती तिरिय मणुय. देवदु-| हरगती य, णागकर (ज्जु)णीया पुण पढंति 'अधुवंमि मोहंगाहा, एतेवि एमेव धुवगं पच्चुग्गायंति,नालिं च कुट्टिति,तेहिं पच्चुग्गातीएर | कविलो भणति-विजहित्तुं पुण्वसंजोग' ॥२०९-२९०॥ विविधं हित्वा वि०, पुन्यो णाम संसारो, पच्छा मोक्खो, पुल्वेण संजोगो लीया. | पुवस्स वा संजोगो पुश्वसंजोगो, अथवा पुब्बसंजोगो असंजमेण णातीहिं वा, स्निह्यते अनेनेति स्नेहा, न कुत्रचिदिति, न ॥१७१॥ तान्यनुसरे। तोणाणदंसणसमग्गो' ॥२१०-२९१॥ वृत्तं, तो इति ततो धुवाणंतरं स भगवान् कपिलः ज्ञानदर्शनसमन्वितः हियनिस्सेसाय, तत्थ हितं पथ्यं, इह परत्र च नियतं निश्चितं वा श्रेया निःश्रेयसं अखयं, संसारव्युच्छदायेत्यर्थः,कथं हि सर्वे सच्चाः संसारविच्छेदं कुर्युः, 'तेसिं विमोक्षणढाए' 'तोर्स' ति तेसिं चोराणं, तेहिं सव्वेहि पुत्वभवे सह कविलेण एगढ़ संजमो कतो आसि, ततो तेहि सिंगारो कतिल्लओ जम्हा अम्हे संबोधितब्वेति, अतो भण्णति-तेसिं विमोचवणाए, अथवा तेर्सि विमोक्खणढाए, कधं हि एते चोराः सर्वकर्मविमोक्षाय अभ्युत्तिष्ठेयुः, तेसिं विवोहणट्ठाए मासति मुणिवरो, मुनीनां वरः- प्रधानः, विगतो मोहो | यस्य स भवति विगतमोहा, केवलीत्यर्थः, किं सोऽपि तथा ,न, उच्यते-'सव्वं गंध कलहं च ॥२११-२९१॥ वृस, 'सब्बति। | अपरिससं, ग्रन्थनं अभ्यते वा येन स ग्रन्थः, स द्विविधा-बाह्योऽभ्यन्तरश्च, कलाभ्यो हीयते येन स कलहः, भण्डनमित्यर्थः, तथाविध-तथाप्रकारं, यद्विध असंयताना, भिक्षुरुक्ता, अथवा तथाविधो भिक्षु: "सब्वेहिं कामजाएहिं सब्बेहि-अपरिसेसेसु, काम्यंत इति कामा:, कामजातेमुंति कामप्रकारेषु, इच्छाकाममदनकामेष्वित्यर्थः, 'पासमाणे ति तेषामिह परत्र च पापं पश्यन् । ॥११॥ 'ण लिप्पति' ति न हि प्राज्ञः अव्ययं राष्ट्रवाऽऽचरति, त्रायतीति त्रायी, संसारमहाभयादात्मानं त्रायतीति त्रायी, पुनः 'भोगा दीप अनुक्रम [२०९ २२८] wit T [176] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] ग्रन्थ गाथा be%20% ||२०८ २२७|| श्रीउत्तरा०मिसदोसविसन्ने ॥२१२-२९२॥वृत्तं,भुज्यंत इति भोगा,यत् सामान्य बहुभिः प्रार्थ्यते तद् आमिर्ष,भोगा एव आमिषर,दोसो णाम इह- चूणो परत्र च दुःखोत्पत्तिकारणं भोगामिस एव दोसो,विषमभवत्,यतो न शक्नोति पकविषन्न इव गजमात्मानं समुद्धर्नु,अतो भोगामिसदोसेहिं । ८ कापि-IPामा विसमा भोगामिसदोसविसन्ना,तदेव हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्धे हितमिह परत्र च यत्य(प्रेयोऽर्थः, निःश्रेयसं मोक्षपदमित्यर्थः, लीया. च्चिथोत्ति जस्स हिते निःश्रेयसे आहितानि श्रेयससंज्ञा,विपरीतबुद्धिरित्यर्थः स एचंगुणजातीयत्वात् उवचए धूलसरो मरहट्ठाण मंदो ॥१२॥ भन्नति. अवच्चए जो किससरीरो सोवि मंदो भण्णति, भावमंदो अवच्चए,जस्स थूला बुद्धिसो मंदबुद्धी भण्णइ, एत्थ धूलबुद्धिमदेणार अधिकारो, मूढो णाम कज्जाकज्जमयाणाणो,सोर्तिदियविसदोदो(यवसट्टा)वा,अहवा बालमंदमूढा शक्रपुरन्दरवदेकार्थमेव,सो एवंविधो वालो मंदो मूढो भोगामिसदोसविसनोविज्झति मच्छिया व खेलमि' जहा मच्छिया विखेलेण चिक्कणेण नाम श्लिष्टा वध्यन्ते एवं जसो भोगसंश्लिष्टत्वात् अट्ठविहेण कम्मेण बज्झति-'दुपारच्चया ॥२१३-२९२।। वृत्रं, दुःखं परित्यजन्ते इति दुष्परित्यजाः 'इमें इति इमे मनुष्यजाः कामाः, कामाः कामा न सुखं त्यजन्त इति णो सुजहा, दधातीति धीरः न घीस अधीरः, पुरुषः उक्तार्थ, 'त्यज हानौ ओहांक त्यागे' इत्यतः पुनरुक्तं, तच्च न भवति, कस्मात्?, अविशेषितोद्देशात्, उक्तं च-'दुप्परिच्चया इमे ननूपदिष्टं लोकेन केभ्यः, तत उच्यते- 'णो सुजहा अधीरपुरिसेहि जहिंसु, अधीरपुरिसा भवन्ति तेसिं दुप्परिच्चया, यद्यपि अधीरपुरुषैः दुस्त्यजा तथापि अह संति सुन्वया सवे 'जे तरंति वणिया व समुहूं' अथेत्यानन्तर्ये, निपातो वा, सन्तीति विद्यन्ते, |जे, किं कुर्वन्तो?,कचित्तु पठन्ति 'जे तरंति अतरं वणिया व अतरो णाम समुद्दो, समन्तानात उन्ना वा पृथिवीं कुर्वत अनेनेति | समुद्रः, ये इत्यनुद्दिष्टस्य निर्देशः, वणिग्भिस्तुल्या वाणिया, कामं दुरुत्तर समुद्रः तथाविषप्लवेन तीर्यते, एवं दुस्त्यजा कामा % दीप अनुक्रम [२०९ % ॥१७२॥ % २२८] [1771 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||२०८ २२७|| श्रीउत्तराअधीर तथापि तृणमिव पटान्ते लग्नं त्यजन्ति,के पुनः गृहेभ्यो विनिसृत्य,'समणा म एगे षयमाणा||२१४-२९३।।वृत्तं श्राभ्यन्तीति कुतीधिका चूर्णी लाश्रमणा, 'मु' इति आत्मनिर्देशः, एके,न सर्वे, ये मिथ्या दृष्टिदर्शिनः परतंत्राः, प्राणनं प्राणः, प्राणानां बधः प्राणवधः अतस्तं, मिया नामज्ञत्वं इति मृगा मृगभूतान हिताहितज्ञा, ते हि प्राणांधव ण याणंति, कुतस्तर्हि प्राणिवधं चास्यन्तिी, कथं केसितिी, एगिदिया अजीवा माएव, तमजाणता 'मंदा नरगं गच्छति' मंदा नाम बुद्ध्यादिभिरपचिता, मंदबुद्धय इत्यर्थः, नीयते तास्मन्निति ॥१३॥ नरका, नारकं कर्म कुर्वते ते नरका, कारणे कार्योपचारादिति, गच्छंति, 'घाला पावियाहिं दिट्ठीहिं' बाला उक्ता, पातयति पासपति वा पापं, दर्शनं दृष्टि अतच्चे तच्चाभिनिवेशात् पापष्टयो भवति, बहुत्वग्रहणं तु सर्वे कृप्रवचनिनो मिथ्यादृष्टयः, स्यादाशका-स्वयं न कुर्वते प्रागवधं , उच्यते , अस्तु तावत् स्वयमकरणं, अनुज्ञायामपि । एवं दोषः, यतोऽपदिश्यते- 'नहु पाणवहं अनु० ॥ २१५-२९४ ।। वृत्तं, न प्रतिषेधे, प्राणवध उक्ता, ये नौदेशिकं झुंजते तेर नानुजाणंति, ण य प्राणवधं अणुजाणतो मुच्चेज्ज कदाचिदपि 'दुक्खाना' मिति सारीरमाणसाणं, अविधस्स कम्मस्स दुःख- 1 BI मिति संज्ञा, स्यादेतत् केनोपदिएं , उच्यते-'एबमारिएहिमक्खायं णाणदंसणचरितारिया, स्यादन्येऽप्यायोः क्षत्रायोदयः।। तद्विशेषणार्थम् (अ)केवालव्युदासार्थमुपदिश्यते 'जेहिं सो साधुधम्मो पन्नत्तो' साधूणां धर्मः सो साधुधर्मः, न च तीर्थकर एवं स्यात्, कथं श्रमणो भवति , उच्यते, 'पाणे य नाइवाइज्जा' ॥ २१६-२९३ ।। वृत्त, प्राणनं प्राणः, अतिपतनमनिपातः, प्राणा- १७३। नातिपातम्येव, चशब्दात् हर्णते णाणुजाणामि, मृपावादादीन्यपि न सेवेत, 'से समियत्ति' से इति निर्देशा, सम्यक् इतः। शमिता, शान्त इत्यर्थः, तत्रागत इति प्रतीतं, एवं समितात्मनः 'ततो से थावयं कम्मं निज्जाइ उदगं व थलाओ' निज्जाइ दीप अनुक्रम [२०९ २२८] [178] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] चूर्णी त्यागः गाथा ||२०८२२७|| श्रीउत्तरा नाम अधो गच्छति, दृष्टान्तः उदगं वा थलातो, केषां नातिपातेज्जा', उच्यते, 'जगणिस्सितभूताणं तसणामाण च। जधावराणं च' पठयते च 'जगनिस्सितेसु धाधरणामेसु भूतेसु तसणामेसु चा ॥२१७-२९४।। प्रत्तं, जेसुते प्राणाः आश्रिता ८ कापि इत्यर्थः, येऽप्येवं पठन्ति-'जगणिस्सिएहिं० धावरेहिं वा' तेपामस्त्यविरुद्ध, कथं , हिंकारस्य सविधानत्वात् कारणत्वाच्च, लीया. तत्र कारणे बहुवचन एव उपयोगो हिंकरणस्य, त(य)था तेहिं कयं, सन्निधाने तु एकवचन एव हिंकारोपयोगः, तंजहा कहिं गतो ॥१४॥ है आसिी,कहिं च ते सद्धा,बन्धानुलोम्यात अनेकेऽप्येकादेशोऽविरुद्धा,तेन पुनरपि ब्रमः,शिष्योऽसौ,महर्थात(महाति सच्चानुकंपया। च 'न तेहि(सि)मारभे दंडन इति प्रतिषेधे तेहिंति तेहिं पुवादिहिं तसेहिं थावरेहिं यावा)ण हणे, मणेणवि अप्पणाण हणे,अज्जापि, केनचिदुच्यते-'वीसासयाऽभनिवेसेन वा प्रणयाद्वा स्वयममारयता, एतत्सर्वे यदि मारयति ततस्ते न मारयामि, कशादिभिर्वा हन्यमानो तथापि नो तेहिं आरभे दंड, एत्थ दिईतो--उज्जेणीए सागरस्स सुतो चोरेहिं हरिउँ मालबके सूयगारस्स हत्थे विक्कीतो, लावगे मारयसु, ण मारयामीति, हत्थीपादत्तासणं सीसारक्षणकरणं चेति । स एवं प्राणत्यागेऽपि सचानपरोधी, मणसा वयसा। कायसा चेव, मणेण सयं पाणाइवातं न करेति, एवं योगत्रयकरणत्रयेण नब भगा भाणियवा ।। उक्ता मूलगुणाः, तदुपकारीति उत्तरगुणा भति--ते च समितिगुप्त्यादयः (तत्र) गवेपणासमितिमधिकृत्योपदिश्यते-'सुद्धसणाउ णच्चा ॥२१८-२९५||शुद्धधन्ते। शोभते वा शुद्धः, एपति एभिरित्येषणा, ततश्चैवं ज्ञात्वा तत्थ सुद्धसणाओ सत्तहं पिंडेसणाण जाव अलेवकडाओ, ताओ पुण उवरिल्लाओ चत्तारि, अथवा सब्याओ चेव एसणाओ सुद्धाओ, तास्वेवात्मानं स्थापयेत्. ताहि भिक्खं गेण्हतित्ति, इच्चे तासु P अप्पा ठावितो भवति, तासु य ठावेंतिण संजमे अप्पा ठावितो भवति, तदप्येषणीयमेषित्वा 'जाताए घासमसिज्जा' जाता दीप अनुक्रम [२०९ २२८] १७४|| [179] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा लीया. ||२०८२२७|| श्रीउत्तरा एपणानाम यात्रा मात्रा, अस्यते ग्रसत इति ग्रासः, अथवा जातग्रहणात् यत्प्रासुकजातं, तदपि सुंजानः 'रसगिद्धे न सियाभिकखाए' समितिः चूर्णी न रसगिरो होज्जा, भिक्षा अकुः भिक्खाए, स्यात्-किमालवणं, उच्यते-'पंताणि चव सेविज्जा ॥२१९२९५।। वृत्त, प्रगतंर अनिय८ कापि- अन्तं प्रान्तं, किं च तत् प्रान्तम् ', उच्यते-'सीयपिंडं पुराणकुम्मासं, अदु बुकसं पुलागं वा' अदुवेत्यथवा, बुक्कसो णाम || मिवाना कुसणणिन्माडणं च, अथवा सुरागलितसेस बुक्कसो भवति, तत्थ सुक्कवेलूण पूतलियाओ कज्जति, पुलागं णाम निस्साए | मासुरत्वं ॥१५॥ णिप्फाए चणगादि यद्वा विनष्टं स्वभावतः तत् पुलागमुपदिश्यते, 'जवणट्ठा निसेवए मंथु' मध्यते इति मंधुं सत्तुचुन्नाति, उत्तर गुणरक्षणाधिकारे प्रकृते इमेवि उत्तरगुणा एव, ते तु केचिदनुन्नाय अपदिश्यते केचित् प्रतिषेधतः 'तत्थ सुद्धसणाउणच्चेति' एवं माकर्त्तव्यमिति अनुन्ना, प्रतिषेधस्तु 'जे लक्खणं च सुविणं च ॥२२०-२९५।। वृत्तं, ये इति अनुपदिष्टस्य निर्देशः, लक्ष्यतेऽनेनेति ट्रिा लक्षणं, सामुद्रवत्, सुप्यते स्वप्नमात्र वा स्वमं, स्वमाध्ययनमित्यर्थः, अंगतीत्यंग, अंगविधा नाम आरोग्यशास्त्रं, प्रयुंजतीति, लोकस्योपदिश्यन्ते-'ण हु ते समणा बुच्चंति, एवं आयरिएहिं अक्वायं' कण्ठ्यः, एवं गृहाण्यपि हित्वा इंदियवसगा य'इह जीवियं अनियमित्ता॥२२१-२९६॥वृत्तं 'इहे ति इह लोके,जीवितं संजमजीवितं,न नियमित्ता अनियमिता, इंदियनियमणं, नो| इंदियनियमेण,ये विविधैः प्रकारैर्वा भृशं भ्रष्टाः प्रभ्रष्टाः, समाधानं समाधिः योजनं योगः समाधियोगेहि प्रभ्रष्टाः पन्भट्ठा समाधियोगेदि, से 'कामरसगिद्धा' काम्यन्त इति कामा:- इच्छाकामा मदनकामा य, भुज्यत इति भोगा, रसास्तिक्तादयः, गृध्यते स्म | गृद्धः, ते लक्षणादीनि कामभोगरसगाद्धर्थात् प्रयुंजेत्ता 'उववति आसुरे काए' उपपतनमुपपाता, उपपद्यन्ते स्म, असुराणामयं ॥१७५ आसुरः, ते हि वा (बहिचा) रियसमणा असत्थमावणाभाविया असुरेसु उववज्जति, अथवा असुरसदृशो भावः आसुरः क्रूर इत्यर्थः,। दीप अनुक्रम [२०९ 9-10-CREATE २२८] - [180] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] नन्त्य गाथा ||२०८२२७|| श्रीउत्तरा उववज्जति आसुरे काए' ति रौद्रेषु तिर्यग्यानिकेषु उववति, 'तत्तोऽविय उवट्टित्ता' ॥२२२-२९६।। वृत्तं, ततः असुर-10 लोभस्या चूर्णी लोकायातो उवाट्टित्ता, संसरतीति संसारः, पहुंति चउरासीतियोनिलक्षभेदः पुनः पुनः, अणुपरिति परियडंति, बहुकम्मलेबलिताण ८ कापि-शपहुं'ति अवविधमवि कम्म अणेगभेदं, अथवा 'पहुँ'ति दोहकालद्वितीयं, कर्ममेव लेपः अतस्तेन कर्मलेपेन, लिप्तानां बुद्धयते स्म । लीया. बोधः सुष्टु दुर्लभः सुदुर्लभः 'तेसिंति' असुरकायनिबद्धाणी, यदुक्तं सुचिरकाल संसारं भमिस्संति, स्याल्लक्षणादीनि किमर्थ ॥१६॥ प्रयुज्यते , लोभार्थे, न लोभस्यान्तोऽस्ति, कथं ?-कसिणंपि जो इस लोयं ।।२२३-२९७||वृत्तं, कसिणं-कृत्स्नं प्रतिपूर्ण, अपि पादाथै, 'यो' य इति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः, यः कश्चित् 'इम मिति प्रत्यक्षं, लोक्यत इति लोकः विविधः ऊर्ध्वलोकादि, प्रतिपूर्ण नाम पूरयित्वा, 'एकस्येति अन्यतमस्यासंयतस्य 'णावि से ण (सं) तुस्से 'इति दुप्पूरए इमे आया' इति उपप्रदर्शने, दुःख पूर्यत इति दुप्पूरए, 'इमें इति असंयतात्मा स्यात् कथं लोकेनापि रत्नपूर्णेन न तुष्यत, उच्यते-'जहा लाभी' ।।२२४-२९७।। मृन अत्र दृष्टान्ता, इदमेव ममेव हि 'दोमासकतं कज्ज कण्ठ्यः, स्याद् पमित्वा मुनिः किमाकाधते, ननु खीविषयाथै, उक्तंच- "काम [वित्तं च वपुः स्त्रियश्च०, तस्यैता मनुष्यराक्षस्यो, पिशितेरिव राक्षसः न शक्यन्ते वसुभिस्तोपयितुं इत्यतस्तासु नो रक्यसीमा Id२२५-२९७।। वृत्तं 'नो' इति प्रतिषेधे, राक्षसीभिस्तुल्या राक्षम्यो, न गृध्येत, न लुभ्येत इत्यर्थः, गच्छतीति गर्ड, गंड नाम स्तनी वक्षःसु गंडानि यासी ता भवंति गंडवक्षसः, अनेकानि चित्तानि यास तेन भवन्त्यनेकचित्ता-कुर्वन्ति तावत् प्रथमं प्रियाणि, यावन्न जानन्ति नरं प्रसक्तं । ज्ञात्वा च तन्मन्मथपाशबद्धं, प्रस्तामिषं मीनमिवोबरति ॥१।। अथवा- अर्ज भणति पुरतो अन्नं पासेण। ॥१७६॥ ठा वज्जमाणीओ | अन्नं च तासि हियए न जे खमं तं करेंति महिलाओ ॥१॥ 'जाओ पुरिसे पलोभित्ताणं' जाओत्ति भनिर्दिष्टस्य RE दीप अनुक्रम [२०९ २२८] [181] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] श्रीउत्तरा चूणों ९ नम्यध्यय गाथा ||२०८२२७|| ॥१७७|| - निर्देशः, पुरुष उक्तार्थः, इत्येवं मत्वा नार्यः तासु, नारीसुनो पगिझिज्जा ॥२२६-२९८॥ वृत्तं. मानुषीवित्यर्थः, भृशं गृद्धयेत लोभस्याहा प्रगृद्धयेत्, 'इत्थीविष्पजहे अणगारे' खीभेददर्शनार्थ पुनरुक्तं, जेण तिरिक्खजोणित्थिओ णारीवहरित्ताओ तेण ण पुणरुतं, की | विविधेहिं पगारेहिं जहेज्ज विप्पजहेज्ज, स्यात्-कुओ न गृध्यत ?, उच्यते- 'धम्मं च पेसलं णच्चा' धारयतीति धर्मः, प्रियं | करोतीति पेशलः, यथावत् ज्ञात्वा तत्रैवात्मानं स्थापयेत्, तमेवाचरेदित्यर्थः, 'इइ एस धम्मे अक्खाए ॥२२७-२९८॥ वृत्त, इति उपप्रदर्शनार्थः, एष इति योऽयमुक्ता, धारयतीति धर्मः, 'अक्खाते' ति कहिते परूविते इत्यर्थः, केन?- कपिलेन, स कीशायरी 'विसुद्धपणेण' विसुद्धा प्रज्ञा यस्य स भवति विशद्धप्रज्ञः तेन, केवलज्ञानवता, 'तरिहिति जे तु काहति. ते एतं करिहिंति' । है तरिहिति संसारोघं तेहिं आराहिया दुवे लोगुत्ति इह लोगे तावत् बहूर्ण सावयादीणं अच्चणिज्जो, परलोएवि णो आगच्छिस्संति हत्वद्वेव्वं अहमदेवत्ता) वेदणादि, अहवा इह अव्यासंगमहाभिज्ञा सरिसमवित्तत्वाच्च सर्वलोक स्तेनाराधितः परलोकेऽपि निर्वाणसुखमित्यतः तेन इहाराधिताः दुवे लोगति, एवं ते सव्वे संबुद्धा इति बेमि । नयाः पूर्ववत् ।। कापिलिज्जं सम्मत्तम् ८॥ अलोलता उक्ता, इहमपि अलोलता एमेवऽधस्स चत्तारि अणुयोगद्दाराणि परूबेऊण णामणिप्फण्णे णिक्खेवे णमी पञ्चज्जा यदुपदं णाम, तच्च 'णिक्खेवो उ णमिमि ॥२६०.२९९।।गाहा,णमी चउब्धिहो-णामादि,दबणमी दुविहो-आगमतोपोआगमतो य,आगमतो जाणए अणुवउत्तो,णोआगमतो'जाणगसरीर'(२६१-२९९)जाणय भवियसरीर०,तव्वइरित्तो तिविधी-एगभवियादि ३, ॥१७७) भावणमी दुविधो-आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणए उवउचो, णोआगमतो 'णमीआउणामगोत्त (२६२-२९९) गाहा, - दीप अनुक्रम [२०९ RECORRC0 २२८] अध्ययनं -८- परिसमाप्त अत्र अध्ययन -९- “नमिप्रव्रज्या" आरभ्यते [182] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक प्रत्येक [१] गाथा ||२२८ २८९|| श्रीउत्तरालाकण्ठया, नमित्तिगतं, दाणि पब्वज्जाणिकावेवो'(२६३-२९९) गाहा,पष्वज्जा पउचिहा, णामादि, दयपध्वज्जा जाणयसरीर० चूणी । पतिरिता अभउत्थियादीण, भावपन्वज्जा भवस्स य सावज्जारंभपरिच्चागो, सो जह केण कओ', उच्यते, 'करकंडु कलिंगेम' ॥२६४-३०६।। गाहा, कलिंगजणवए कंचणपुरं रागरं, तत्थ करकंडुराया, तस्स उप्पची जहा जोगसंगहेसु जाव दहिवाहणो राया नभ्यध्यय. करकंडुयस्स रज्जं दाऊण पब्बइतो, करकंडू दोण्हवि रज्जयाणं सामी जातो। पंचालजणवए कपिलपुरे णगरे दुम्मुहोणाम राया, ॥१८॥ विदेहजणवए मिहिलाए नयरीए नमी राया, गंधारजणवए पुरिसपुरे णगरे नग्गति णाम राया। एतेसिं संबोधकारणाणि इमाणि, तंजहा 'वसमे अहंदकेज'।२६५-३०६।।गाहा, तत्थ करकंडुरस ताव भण्णति-सो करकंद राया गोउलप्पिओ, तस्स अणेगाई गो-IN | उलाई, सो अन्नया सरयकाले गोउलं गतो, पेच्छइ वच्छगं थिरथोरगञ् सेतं पण्णणं, राइणा गोवालो भणितो मा एतस्स मातरं । ला दुहेज्जह, जाहे य वद्धितो होज्जा ताहे अण्णोसिपि गाणं दुद्धं पाएज्जह, तेहिं गोवेहिं तहेव कर्य, सो वसभो महाका(बलो जातो, जूहाहियो कतो, अत्रया राया कस्सइ कालस्स आगतो पेच्छति महंतं वसभपडएहिं घट्टिज्जतं, मणति गोवे-कहिं सो बसहोचि,तेहि सो दाइतो, पेच्छंततो राया विसादं गतो, अणिच्चतं चितंतो संबुद्धो, 'सेअं सुजातं सुविभत्तसिंग' ।। २७१-३०६ ।। गाहाओ लतिनि, करकंड संवुद्धो।। इदाणि दुम्मेहो-जो इंदकेउं उस्सितं लोकेण महिज्जतं पासइ, पुणो य महिमावसाणे विलुप्पतं पडित मुत्तषु रिसाण मज्झे, पासिऊण अणिच्चयं चिंतंतो संबुद्धो। 'जो इंदकेउं समलंकियं तु॥२७२.३०६||गाहा कण्ठया, इदाणि णमिणामा, तत्थ गाहा-'महिलाचइस्स णमिणों ॥२६६३०६॥ भवंति गाहा, णमीति किं ताव तित्थकरो कि ताय अन्नो कोइत्ति, अत उच्यते-'दोन्निवि नमी विदेहा॥२६७-३०६।। गाहाओ तिनि कण्ठया, एत्थ वितिएण णमिणा अधिकारी, अस्सऽनया केनापि RECCESCORE दीप अनुक्रम [२२९ २९०] ॥१७८॥ [183] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] श्रीउत्तरा चुणों गाथा ||२२८ नम्बध्यय. २८९|| | पुच्चकम्मोदएण दाहज्जरो संवुत्तो, विज्जा ण सक्कंति तिगिच्छितुं, एवं छम्मासा गता, तत्थ दाहोवसमणनिमित्तं देवीओ चंदणं प्रत्येकबुद्धघसंति, तासि कलिगाणि खलखलेंति, सो भणति-कण्णघातोत्ति, देवीहिं एक्के क्कं अवणीयं, तथावि कष्णघातो, ततो वितियं, एवं समागमः जाव एक्कक्कयं ठिब, तेण भण्णति-कीस इदाणिं खलखलसद्दो नत्थि, ताओ भणंति-इदाणि एक्केक्कगं वलयगं, तेण सद्दोणत्थि | एवं भणितो संबुद्धो, 'बहुआणं सहयं सुच्चा।।२७४-३०६।।गाहा कण्ठया, सो तेण दुक्खेण अब्माहतो परलोगाभिकखी चिंतेति जइ एयाओ रोगाओ मुच्चामि तो पब्धयामि, कत्तियपुण्णिमा वति, एवं सो चितितो पासुत्तो, पभायाए रयणीए सुमिणए | पासति--सेयं नागरायं मंदरोवरिं च अत्ताणमारूद, दिघोसतूरेण य विबोहितो, हट्टतुट्टो चितेइ-अहो पहाणो सुविणो दिट्ठोत्ति, पुणो चितइ-कत्थ मया एवंगुणजातितो पब्बतो दिट्ठपुच्चोत्ति, चिंतयंतेण जाती संभरिता, पुवं माणुसभवे सामणं काऊण: पुप्फुत्तरे विमाणे उबवण्णो आसि. तस्थ देवते मंदरो जिणमहिमाइसु आगएण दिट्ठपुल्वोत्ति संबुद्धो पव्यतितो। एवमेते करकंडादी NIचत्तारिवि रायाणो पुप्फुत्तराओ चइऊण एगसमएण संबुद्धा, एगसमए केवलनाणं, एगसमएणं सिद्धिगमणंति । इदाणि णग्गतीस्स । | 'जो चूअरुक्खं तु मणाभिराम'।२७५-३०६॥ गाथा, सो आहेडएण णिग्गच्छतो सो चूतपादव कुसुमितं पासइ, तेण ततो एगा चूतमंजरी गहिता, ततो अनेणवि, जया अन्नेसि ग य हाँति ताहे अन्नेहिं पत्ताणि गहिताणि, एवं सो चूतो सपुप्फपचो कहाव-13 सेसो कतो, राया तेणेव मग्गेण आयातो, अपेच्छंतो पुच्छति, अमच्चेण दाइतो कट्ठावसेसो, अणच्चियं चिंतियंतो संयुद्धो पब्व- १७९|| इतो । एवमेते पब्यतिता समाणा विहरता खितिपतिद्वियनगरे गता, तत्थ णयरमज्झे चाउद्दार देउलं, तं पुव्रण करकंडू पविट्ठो, दुम्मुद्दो दक्खिणेण, किह साहुस्स अन्नतोमुहो अच्छामिति तेण वाणमंतरेण दाहिणपासेवि मुई कतं, णमी अवरेणं, ततोवि कयं, दीप अनुक्रम 4 [२२९ %A-% २९०] 2-% [184] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||२२८ २८९|| श्रीउत्तरागंधारस्सवि उत्तरेण कयं, तस्स य करकंडुस्स आबालप्पभिति सा कंडू अत्थि, तेण कंड्यगं गहाय मसिणं २ कण्णो कंइतो, नामदाक्षा |तं तेण एगत्थ संगोवियं, तं दुम्मुहो पेच्छइ, सो भणइ-'जया रज्जं ॥२७६-३०६॥ सिलोगो कण्ठया, जाव करकंडू पडिवयणं न | देति ताव णमी चयणसमकं इमं भणइ-'जया ते पेतिते रज्जे ॥२७७-३०६।। गाहा, किं एगस्स तुम आउत्तगोत्ति नमी नग्गनम्यध्यय तिणा भण्णति, ताहे गंधारो भणति-'जया सव्वं परिच्चज्ज॥२७८-३०६॥ गाहा कण्ठया, (ताहे) करकंद्र भणति 'मुक्खमग्ग॥१८॥ पवण्णाणं (पवन्नेसु) ॥२७९-३०६।। गाथा कण्ठया, एत्थ पुण णमिणो अधिगारो, जेण णमिपयज्जत्ति भण्णति ।। गतो णाम *णिफण्णो, सुत्तालावगणिफण्णे सुत्तमुच्चारेतब्वं, तं च इमं सुत्तं-'चइऊण देवलोगाओ।२२८-३०७|| सिलोगो,चइत्ता-चइऊण | देवानां लोको देवलोकः तस्माद् देवलोकाद्, उत्पन्नवान् उत्पन्नः, माणुस्साणं लोगो मणुस्सलोगो. उवसंतमोहणिज्जो दसणमोहणिज्ज चरित्रमोहणिज्जं च उपसंतं जस्स सो भवति उपसंतमोहणिज्जो, 'सरति पोराणियं जाई' पोराणजाति अनमि माणुसभवग्गहणे संजमं काऊण पुप्फुत्तरविमाणे आसी तं पुब्वियं । 'जाई सरिन भगवं'(०२२९-३०७) सहसा संबुद्धो सहसंबुद्धा, असंगत्तणो समणत्तणे,स्वयं,नान्येन घोधितः,स्वयंबुद्धः कुत्री अणुत्तरे धम्मे पुत्तं ठवित्तुं रज्जे' पुनाति पिबति वा पुत्रः,अभिनिक्खमति स्म अभिनिक्खमति, कश्वासौ ?, नमी राया, स्थादेतत्, कुत्रावस्थितः कीदृशान् वा भोगान् भुक्त्वा संबुद्धः ?, तत उच्यते 'सो देवलोगसरिसे' (२३०-३०७) स इति से नमी, देवानां लोगो देवलोगो तत्सदृशे, अंतपुरखरगतो, अन्तःपुरम्-उपरोध: वरIMIntell प्रधान, पहाणे अंतेपुरे, अनन्यसरशे इत्यर्थः, 'बरे भोगे'त्ति देवलोकसरिसे चेव परे भोगे भुंजितुं णमीराया भीतूण वा, केह |पठति-बुद्धवान् बुद्धः, बुद्धा तु भोगे परिचयंति, 'महिलं सपुरजणवयं ॥ २३१-३०७ ।। सिलोगो, मिथिलं णगरं च अन्नेसि च दीप अनुक्रम [२२९ २९०] [185] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक K [१] दारुणाः शब्दाः गाथा नम्यध्यय. ||२२८ ॥१८॥ -*- E amne * २८९|| - श्रीउत्तरा०पुरवरहिं सजणवएण, रलं चतुरंगिणीसेना, उरोधो अंतेउरं, परियणं सयणादि, 'सव्वं' ति अपरिसेसं 'चिच्चा'त्यक्त्वा अभिमुखचूणों निष्क्रान्तः 'एगंतमहिडिओ भयवं' एगंत नाम उज्जाणं, विजणमित्यर्थः, एगंतमहिडितं जेण सो एगंतमहद्वितो, अथवा एगत महिडितो भगवं, एगतं नाम-एकोऽहं, न च मे कश्चित, नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, (नासो यो) मम दृश्यते | ॥१॥ एतं एगत्तमहिडितं जेणाऽसौ एगंतमधिहितो, एगंतेण वा अधिहितो जो सो एगंतमहिडितो, वैराग्येनेत्यर्थः 'भग' | इत्याख्या, सा जस्स इति सो भगवं, 'कोलाहल ग(प)भूतं ॥२३२-३०८|| सिलोगो, आनंदितविलपितकूजितायाः शब्दा | जनपदस्य कोलाहलभूता इति, सर्वमेव कोलाहलशब्देन आकलीभूतमित्यर्थः, 'अभुट्टियं रायरिसिं ॥२३३।। सिलोगो, अभि| मुखं स्थितं अन्भुट्टितं, राजा एव ऋषिः राजपिः पीति धर्ममिति ऋषिः, प्रव्रज्या एव स्थान प्रव्रज्यास्थानं, तदेवमुत्तमं पञ्चज्जा| ठाणमुत्तमं 'सक्को माहणरूपेणं शक्नोतीति शक्रः, से विष्णणणत्थं बंभणवं काऊण तस्स समीनं आगंतूण इममिति प्रत्यक्ष | वचनं, अब्रवीत, उक्तवानित्यर्थः, किं नु भो अज्ज मिहिलाए॥२३४-३०८॥ सिलोगो, किमिति परिप्रश्ने, नुर्षित, किनु स्यात्, भो इस्यामन्त्रणे, 'अज्ज मिहिलाए'त्ति अज्ज अहनि, मिथिलाए नयरीए कोलाहलयं नामादितविलपितजितेः सम्यम् | का आकुला संकुला, शृणवन्ति श्रूयते चा सुवंति, दारयति दीर्यते वाऽनेनेति दारुणा, प्रसीदन्ति अस्मिन् जणस्य नयनमनासि इति | HIप्रासादः, गृहातीति गृहं, अतो ते हि 'सुब्बति दारुणा सहा' पासादेसु गिहेस या 'एतम९० ॥२३५-३०९।। सिलोगो, अद्वेत्ति वा हेतुति वा कारणंति वा एगट्ठ, एतं अट्ठ एयमट्ठ, निसामेत्ता श्रुत्वा, हिनोति हीयते वा हेतुः, करोति कारणं, चोदित-पुच्छितं, तवी णमी रायरिसी देविंदं इणमन्मवी । 'मिहिलाए.' ॥२३६-३०९|| सिलोगो, चीयत इति चेइय, चित्तंति चा, ततः चेतनाभावो वा दीप अनुक्रम * [२२९ ॥१८॥ २९०] R [186] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] श्रीउत्तरा० चूर्णी गाथा नम्यध्यय ||२२८ ॥१८२॥ २८९|| जायते चेतियं, अतो तमि चेहए, 'वच्छे'त्ति रुक्खस्साभिधाणं, सुतं प्रियवायरणं वच्छा, पुत्ता इव रविवज्जति बच्छा, अतो तेहिं वच्छेडिं, सीयला छाया कता जस्स स भवति सीतलच्छायो,एत्य सिलोगभंगमया हिकारस्स लोवो कओ, मनांसि रमते मनोरम XM अतो तमि मनोरमे उज्जाणे, पचेहिं पुष्फेहिं फलेहिं च उवेते पचपुरफफलोवेतो बहूणं दुष्ययचउप्पयपक्खीणं च बहुगुणेति, या इयोवेए पत्तोवेए पुष्फोवेए फलोवेए 'सदा' इति सम्बकालोबभुज्जति 'वारण हीरमाणमि' ॥२३७-३०२।। सिलोगो, सो वाता सक्केण येउवितो, 'हीरमाणेचि तेण वातेण रुक्खेसु भज्जमाणेसु जे तत्थ उज्जाणे रुक्खेसु खगा ते दुहिता असरणा, अत्राणा इत्यर्थः, कंदति-विलपंति, अस्माकं वृक्षप्रयोजनमिति, 'एतमहूं.' ततो णमि सक्को भणति-स एव अगिगणा णार है। डज्झमाणं विविऊण आह-'एस अग्गी अबाओ अ॥२३९-३१०॥ सिलोगो, अगतीत्यग्निः, वातीति वाता, मंदिरं णाम णगरं, भगवं अंतेपुरं तेण कीस णं नावपिवस्वह' कीस नावपेक्खसि-नावलोकयसित्ति । ततो णमी आह-'सुहं बसामो जीवामोर * २४१-३११|| सिलोगो, किंचणं दुविहं-दव्ये भावे य, सेस कण्ठचं, चत्तपुत्तकलत्तस्स'॥२४२.३१॥सिलोगो, कण्ठयः, पहुंमुणिणो भई ॥२४३-३११॥ सिलोगो, भातीति भद्रं, मनुते मन्यते वा जगति त्रिकालावस्थाभावानिति मुनिः,द्रव्यादिमुनिप्रतिषेधार्थ । अणगारस्स मिक्खुणो, अथवा स मुनिः योऽनगारः यो भिक्षुः, सब्वतो विप्पमुक्कस्स, कथं?, 'एगंतमणुपस्सओ' एकत्वं नाही | कस्यचित्, अथवा एकान्तं निर्वाणं असंसारावासमित्यर्थः, शक उवाच-'पागारं॥२४६३१२॥ सिलोगो, प्रकुर्वन्तीति प्राकाराः, गोभिः पूर्यत इति गोपुरं, 'उस्सूलए सयग्घीओ उस्सूलगा णाम खातिआ उवाया जत्थ परवलाणि पडंति, शतं घ्नन्तीति ॥१८२।। शतघ्न्यः, सेसं कण्ठयं । नमिरुवाच-'सद्धं णगरिं किच्चा-२४७-३१२|| सिलोगो, श्रद्धाऽस्यास्तीति श्रद्धी, नातिको विद्यत दीप अनुक्रम [२२९ २९०] [187] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा नम्यध्यय ||२२८ २८९|| इति नकर, अतस्तं 'सद्ध णगरं किच्चेति 'तवसंवरमग्गलं'ति तवो बारसविहो, संवरो दुविहो-इंदियसंवरो जोइदियसंवरो य, 'खंति णिउणपागारं' खंती-खमा 'तिगुत्तं' मणोवायाकाएहिं 'दुप्प,सर्य'ति दुक्खं परीसहबलेणं विद्धसिज्जति । 'धणु| दिना नगर परक्कम किच्चा ॥२४८-३१।। सिलोगो, घ्नन्ति तेन धारयति चा धनुः, जीवा सेरियासमिती, घिर्ति च केयणं किच्चा, सिंग- रक्षादिना यध्ययनघणुअस्स मज्झे कट्ठमइओ मुट्ठीओ गृह्यते येन तं पलिबंधणं कीरति तं केयण वुच्चति, 'सच्चेण पलिकंधए' पलिकंध्यते येन तं ॥१८३॥ पलिकथनं भवति, स च हारुक्खा-'तवणाराय' ॥२४९-३१२॥ सिलोगो, नरं मुंचतीति नाराचः, तपोनाराचयुक्तः,भेत्तूर्ण कम्ममेव कंचुओ, तं च अट्ठपगारं कम्मं, 'मुणी विगयसंगामो' संग्रामत इति संग्रामः, भवनं स्थितिविभवः तस्मात् भवात् समन्तात् | मुच्यते परिमुच्यते ।। शक्र उवाच-'पासाद ॥२५१-३१३।। सिलोगो, प्रासाद उक्तः 'वढमाणगिहाणि' णाम भवणप्पगारा अणेग| विधा, वालग्गपोतिया णाम मूतियाओ, केचिदाहुः- जो आगासतलगस्स मज्झे खुडलओ पासादो कज्जति । 'संसयं खलु' ॥२५३-३१।। सिलोगो, संशयनं संशयः, संशय्यते च अर्थद्वयमाश्रित्य बुद्धिरिति संशयः, कथं संशयो भवति , अनिर्धारणार्थः संशयः, न तेनावधारितं यथा मया इत्थं णमेतावतं कालं वसितव्वं, यदा सार्थ लप्स्यामस्तदा गमिष्याम इत्यतः संशयनं मनसि कृत्वा गृहमसावध्वाने करोति, अत्ति प्राणानित्यध्वा तं, एवं नित्याध्वाने-नित्यप्रस्थाने जीवलोके न गृहासि नित्यस्वर्गकर्तव्यानि I'जत्थेव गंतुमिच्छेज्ज' मोक्षगृहारम्भस्तु ज्ञानादिभिस्तस्य कार्य इति । शक्र उवाच-'आमो (सेहि) से ।।२५५ ३१३।।सिलोगो, आमोखंतीत्यामोक्खा पंथमोषका इत्यर्थः, लोमाहारा णाम पेल्लणमोसगा, ग्रन्थि भिति ग्रन्धिभेदका, जुत्तिसुवण्णगादीहिं लोगं मुसन्तीत्यर्धः, तस्करो नाम चौर, तदेवमेकं स्वयं करोति, एते (हितो) नगरस्य क्षेमं काऊण, नमिरुवाच-'असई तु मणु-र दीप अनुक्रम [२२९ २९०] -t [188] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] सम्यक्त्व परीक्षा गाथा ||२२८ २ २८९|| - श्रीउत्तराना सहि ॥२५७३१४|| सिलोगो, असकृद् अनेकशः,मिच्छादण्डो नाम अनपराध इत्यर्थः, कोऽभिप्रायः?, लंचापाशः(पक्षः) कारकमपि चूगार मुंचति, सेसं कण्ट्यं । शक्र उवाच-'जे केइ पत्धिवा०॥२५९-३१४|| सिलोगो, पृथिवी अस्यास्तीति पार्थिवः, राजेत्यर्थः, जे वा। पार्थिवा नानमंति, न बसे ते वर्तन्ते इत्यर्थः, सेसं कण्ठ्यं । नमिरुवाच 'जो सहस्सं २६१-३१४।। सिलोगो. 'जे' ति अनिर्दिष्टस्य नम्यध्यय. निर्देशः, सहस्सं सहस्सेण गुणितं, नमन्तं ग्रसतीति संग्रामः, दुक्खं जिणिज्जतीति दुज्जयाः, अतस्ते दुज्जए जिणे, ण तेण किंचि ॥१८४॥ जितमेवं जिणे, किंतु 'एगं जिणेज्ज अप्पाणं' कण्ठयः, परमः प्रधान इत्यर्थः, अथवा 'अप्पाणमेव ॥२६२-३१४|| सिलोगो, कहं पुण अप्पा जितो भवति?, 'पंचेंदियाणि ॥२६३-३१४।। सिलोगो, एते हि आत्मानुगता एव शत्रवः, एतान् जित्या, पच्छद्धं काकण्ठ । शक्र उवाच-'जइत्ता विउले जन्ने॥२६५-३१५।। सिलोगो, यजति तं यज्जा, तान् यज्ञान् अश्वमेधवाजपेयपोंडरीकादयः, तां यजित्वा विपुलानां कामभोगानां प्रक्रामशो दानं बहुसुवर्णकादयः 'भोएत्ता' भोजयित्वा समणा अदुव माहणा-धीयारा, दव्यं देज्जा, भोच्चा-भोक्त्या स्वयं जट्ठा य यष्ट्वेत्यर्थः, यज्ञमिति वाक्यशेषः। नमिरुवाच-'जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे.' २६७-३१५।। सिलोगो, मीयते तमिति मासः- गच्छतीति गौः, तस्सावि संजमो सेओ' जो सो मासे २ गया शतसहस्रं ददाति | तस्यापि संयम एव श्रेयः। किं घनं धनं प्रयच्छमानस्यापि?, तत आकिंचन्याश्रयवानथ संयमः ।। शक उवाच- 'घोरासमै चहत्ताण॥२६९-३१६।। सिलोगो, 'घुर सीमार्थशब्दयो' घूर्णते अस्य भयं घोराः, दुखं हि यथावदनुपाल्यते, उक्तं हि -'या गतिः क्लेशदग्धानां, गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्रदारं भरंताना, तो गतिं व्रज पुत्रक! ॥१॥ आश्रयन्ति तमित्याश्रयाः, का भावना |सुखं हि प्रव्रज्या क्रियते, दुःखं गृहाश्रम इति, तं हि सर्घाश्रमास्तर्कयन्तीत्यतः घोर, सेसं कण्ठथं । नमी उवाच- 'मासे मासे' -- दीप अनुक्रम ore- [२२९ २९०] m [189] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति: [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||२२८ २८९|| श्रीउत्तरासिलोगो, मीयतेऽनेनेति मासः, शेष कण्ठचं, नवरं कामभोग इत्यभिधीयते, षोडशीमपि कलां नार्धन्ति । शक्र उवाच हिरण्णं | लाभेन चूणों सुवणं.' ॥२७३-३१७। सिलोगो, हिरण्य-रजतं शोभनवणे सुवर्ण, मन्यत इति मणिः-वेरुलियादि, मोत्तियं जलयं वेलयं च, कंस संकल्पेन कंसपत्रादि, दूस वत्थपगारा, एताणि, सह वाहणेण सवाहणं, अस्सहत्थिमादि, सेसं कण्ठश्य । नमिरुवाच -'सुवन्नरुप्पस्स च परीक्षा नम्यध्यय. ॥२७५-३१७॥ वृत्तं, सोहणं वर्ण सुवर्ण, रोचते तदिति रूपं, पर्वतीति पर्वतः, सियाऽणवधारणा, केलासो नाम मन्दरो, तत्समाः तत्तुल्याः , नास्य संख्या शक्यते तुलापरिमाणेन कर्तु इत्यतः असंखता, सेसं कण्ठयं । 'पुढची साली जवा चेव०॥२७६-३१७।। सिलोगो, प्रथते पृथति वा तस्यां पृथिवी, सालियबा प्रसिद्धा, हिरण्यं रूप्यं, पश्यतीति पशु:-गोमहिष्यादि, पशुभिः सह, पडिपुग्नं नालमेगस्स, उत्तमसंपदुपेतान्यपि एतानि ययेकस्य भवन्ति 'अलं पर्याप्तिवारणभूषणेषु न अलं नालं पर्याप्तिक्षमानि हास्युः, इत्युपदर्शनार्थे, इति ज्ञात्वा तवं चरे, चरेत्यनुमतार्थे ।।शक्र उवाच-'अच्छेरगमभुवए०।२७८-३१८॥ सिलोगो,अतीव भव- 1 त्यद्भुत प्रतिभाति यस्तान् भवान् विद्यमानान् कामान हित्वा असंते मोगे इच्छसि, संकप्पेण विह(बसि, असत्संकल्पः तेण असत्संकल्पेन विहन्यसि, नेमिरुवाच-नाहं कामान् कामयामि, कस्माद् ?, उच्यते-'सल्लं कामा०' २८०-३१८|| सिलोगो, शलति शूलयति वा शल्यं, जहा सल्लं देहलग्ग अणुद्धरिज्जति दुक्खावेति, तुल्या कामा, येष्टि विष्णाति वा विषं, जहा हलाहलं विसं मारणंतियं, एवंविधाः कामाः, आसी दाढा, दाढासु जस्स विसं स आसीविसो भण्णति, सो य सप्पो, आसीविसेण उवमा १८५॥ जेसि कामाणं ते आसविसोवमा कामा, सेसं कण्ठयं । 'अहे वयइ कोईण' ॥२८१-३१८॥ सिलोगो, सक्को तं पव्ययंतं बहूहि | उवाएहिं विष्णासेउ खोभे असत्तो-'अवउ [] जिझऊण' ॥२८२-३१९।। सिलोगो, वग्गूणाम सोभणे, अहया वाभिरेव वग्गू । दीप अनुक्रम [२२९ - २९०] --- [190] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक चूणौं [१] गाथा ||२२८ दुमपत्रके ॥१८६॥ २८९|| | 'अह ते णिज्जिती कोहो॥२८३-३१।। सिलोगो, कण्ठयो, नवरं निरिक्कं नाम या पृष्ठी, पृष्ठतः कृत्वेत्यर्थः, 'अहो ते उपआदधातः अज्जवं साह ||२८४ ३१९||सिलोगो,सेस कण्ठयाइ[अ] हंऽसि उत्तमो०।२८५-३२०।। सिलोगो,इहसि उत्तमोराया,पुवापरभवंमि, कह 1, उत्तम ठाणं, लोगुत्तमा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तस्य फलं परिनिर्वाणं अतो लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धिं गच्छसि 'णिरओ' निष्का इत्यर्थः, 'एवं अभित्थुणतो.॥२८६-३२०|| सिलोगो, कण्ठ्या , नमी नमेइ अप्पाणं' सिलोओ, कण्ठयः एवं करेंति संपन्ना (संबुद्धा).' ॥२८९-३२०॥ सिलोमो, एवंशब्दः प्रकारवचने, एवं करेंति एतेण प्रकारेण, पण्णा बुद्धिः सह पण्णाए संपनी, पंडिता विदुसा, पवियक्खणा प्राज्ञः, सपण्णा पंडिता पचियक्खणा, सुल्ल(पुण्ण)ति वेहेण उच्यते, सपण्णा इति की-| ण्यता दर्शिता, पण्डिता इति सा बुद्धिः परिकर्मिमता जेसिं, पवियक्खणा पायाएवि परिग्रहणसमत्था, विणियटृति भोगेहिं, विसेसेणं निवर्तन्ति विणियदृति, भोगेहिं, जहा से जमी रायरिसी, येन प्रकारेण यथा, आसण्णं तमुदाहरणं तेण पत्थुतो णमी रायरिसी इति चेमि ।। नयाः पूर्ववत् ।। णमिपब्वज्जा णवममज्झयणं समत्तम् ९॥ अलोभ उक्तः, स तु अनित्यतां भावयता अलोभः करणीयः, तत्राध्ययनं दुमपत्तयंति, तस्स चत्तारि अणुयोगहाराणि, तत्थ णामनिष्फने दुमपत्नयन्ति, दुमे पत्तं च दुपदं णाम, तत्थ दुमो चउबिधो, 'णार्मठवणा'गाथा (णिक्षेवो उ दुर्ममी)|| ॥१८६॥ |॥२८०-३२१॥ णामठवणाओ गयाओ, दबदुमो दुविहो-( जाणग०॥२८१-३२१॥) जाणगसरीरभवियसरीवतिरित्तो तिविधो। एगभवियादि, भावदुमो 'तुमपाउनामगोयं॥२८२-३२१॥ गाथा कण्ठथा, एतस्स पुण अज्झयणस्स उपोद्धातो जहा णिज्जुत्ति- | गाहादि रायगिहपिढचंपि सालमहासालाण णिक्खमणं तेसिं गाणुष्पत्ती भगवतो गोतमस्स अट्ठापदगमणं तावसपन्बज्जा पारणगं दीप अनुक्रम [२२९ २९०] अध्ययनं -९- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१०- “द्रुमपत्रक" आरभ्यते [191] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक गाथा ||२९०३२६|| श्रीउत्तरा| परमण्णेणं पच्चागतं भगवं अणुभासति, गोतमा, चचारि कडा पण्णता, तंजहा-मुंबकडे विदलकडे चम्मकडे कंवलकडे, अनत्तो किसलय. चूर्णी णविसं खाइज्जति(?),चम्मकडेसु महतावि जत्तेण सक्केति मोएउं, एवामेव गोतमा चत्तारि सीसा पण्णत्ता, मुंबकडसमाणे४, तुर्मपत्रोदन्तः वाचणं गोयमा! मम कंबलकडसमाणे, किंच- चिरसंसटे सि गोतमा! चिरपरिचिते सि गोयमा! पनत्तीआलावगो जाव दुमपत्रक | आविसेसमणाणताए ण भविस्सामो, किंच-गोयमा ! देवाण वयणं गेझं ? आयो जिणाणं ?, गोयमो भणति-जिणाणं, तो कि Reliअधिति करेसि, तं सोऊण मिच्छामिदुक्कडं करेति, ताहे सामी गोयमनिस्साए दुमपत्तयं भणति ।। णामणिप्फण्णो गतो, सुत्ता णुगमे सुतं उच्चारेयव्वं जहा-'दुमपत्तए पंडुयए० ॥२९०-३३४।। वृत्तं, दोसु मातो दुमो, दुमस्स पत्तं दुमपत्तं, पंडणाम कालपरिणामेण आपंडुरीभूतं 'जहा' इति येन प्रकारेण 'पडति'त्ति, किं विलग्गं अच्छति', 'सती'ति राती, गणो नाम बाहोलं, अच्चए णाम ख(पू)या, एत्थ णिज्जुत्तिगतमुदाहरणं कपित भण्णति, किसलयपत्तेहिं सुकुमारताए सुवण्णयाए य हसतित्ति धासो, सासयम दाएण, 'पंडुपत्ताणित्ति ततो पंडुप्पत्तं परियहियलावणं ॥३०७ ३३५|| गाथा, जो पण्णे सुकुमारतासुवष्णलावण्णविसेसो आसि ते(त)परावत्तितं विगतलावष्णं चलमाणसव्वसंधि वेंडं बंधणाओ टलंतं एवं पत्तं वसणपत्नं कालप्राप्त भणति-'जह तुब्भे०॥३०८-३३५|| गाहा, जह तुम्भे संपतं किसलयभावे वट्टमाणाणि अम्हे हसह एवं अम्हे य किसलयभावो आसि, जहा य अम्हे संपयं कालपरिणामेणं विवन्नच्छवियाणि एवं तुम्भेवि अचिरकाला भविस्सह, मा तुझे ताव गव्वह, धुवा एसा खलु अणिच्चता, अणवत्थिताणि | जोव्वणाणित्ति, अप्पाहणिया णाम उवेदसो, पुत्तस्सेव पितामातरं तो उवदिसति, एवं पंडुरपत्तं किसलयाण उवदेसं देति, 'णवि ॥१८७॥ अस्थि ॥३०९-३३५।। गाहा कण्ठया, एवं मणुयाण जीवियंति एवमवधारणे,जहा पडुच्च चलाउं, एवं मणुयाउयंपि,मनोरप % - दीप अनुक्रम [२९१३२७]] CaeAECE [192] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] -%A5% गाथा ||२९० ३२६|| श्रीउत्तराला त्यानि मनुजा, जीव्यते येन तज्जीवितं, अनित्यं अध्रुवं चलमित्यर्थः, समं सम्यक्, अयं अस्मदीये समये, गोतम इति- गोत्रान्ते- आयुपश्चचूणों निवासौ, भगवानामंत्रणे, 'अमानोनाः प्रतिषेधे', प्रमादय, अथवा समयमात्रमपि मा प्रमादय, नित्यमेव मा प्रमादवान् भव, एवं लत्वं १० सेत्स्यति अचिरात्, स्यात् किमर्थ अप्रमादः क्रियते , उच्यते, जीवितस्थानित्यत्वमेव ख्यापयति, यथा अतीव च दौर्बल्यमायुद्रुमपत्रके |पः, तद्यथा-'कुसग्गे जह ओसबिंदुए ॥२९१-३३५।। वृत्तं, कुसो दब्भसरिसो, कुसस्स अग्गं कुसग्गं, अतस्तस्मिन् कुशाग्रे,यथा । ॥१८८॥ | येन प्रकारेण, ओसा सरयकाले पडति, तीसे बिंदु कुसग्गे ठित, तत् कुशो हि तनुतरो भवति दर्भात, तेन तदा तद्ग्रहणं, दांग्रे WIsपि चिरं भवति, सहि आगलितः वातवशात् द्रव्येण वा संक्षोभितः अच्चेति इत्येष दृष्टान्तः।। 'एवं मणुपाण जीविय' कण्ठ्यः, II यद्यप्युपचयाविशेपैः किचिन्नाम निरु लोपक्रम स्यात् तदपि च न दीर्घकालमित्यतोऽपदिश्यते 'इह इत्तरियंमि आउए।२९२-३३६ का वृत्तं, इति उपदर्शनार्थ, इत्तरियं अल्पकालियं वर्षशतमात्र, एति याति वा तमित्यायुः, जीव्यतेऽनेनेति जीवितं, तस्मिन् जीवितेsनुकम्पा, जीवित एव 'बहुपच्चवायए' एतं प्रति अपाया, तद्यथा--अज्झवसायनिमित्ते. यावर्षशत न पूर्यते यावद्वा ते अपाया नागच्छति ताव 'विहुणाहि रयं पुरे(रा)कर्ड' विविहं सोहिविसेसेण वा धुणाहि, रज इति कर्म, पुराकृतं पुरेकडं, स कथं द विधूयते, समये अप्रमादवदित्यर्थः, समयं इदं चालवनं कृत्वा अप्रमादः कार्यः, कथं ?, तद्वक्ष्याम:-'दुलहे खलु माणुसे भवे ॥२९३-३३६।। दुःखं लभ्यत इति दुर्लभः, मनुष्याणामयं माणुस्से, भवतीति भवः, 'चिरकालेणवि' अणतकालेण इत्यर्थः, सव्वपाणिणं सम्बसदो अपरिसेसवाची, प्राणा एपा सन्तीति प्राणिनः, सर्वग्रहणं नास्ति अत्यन्तमनुष्य एवं कश्चन बंधस्य, 1॥१८८॥ एकान्ते न सुलभ मानुष्यं 'गाढा य विवाय कंमुणों' गाई चिक्कणा दृढा इत्यर्थः, विविधैः पाको विपाको मनुष्यत्वविधातानि दीप अनुक्रम [२९१३२७] FARROACHECRE -%- 5 [193] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक श्रीउत्तरा० [१) चूणों गाथा १० द्रुमपत्रके CRECOM ||२९० ॥१८९॥ ३२६|| CLES कानि चिक्कणानि, अत्र त एव चोलकाद्या दृष्टान्ता वक्तव्याः, अस्माच्च कारणात् सुदुर्लभ मानुष्यं यस्मादन्येषु जीवस्थानेषु व्यादि चिरं जीवोऽवतिष्ठते, मनुष्यत्वे तु स्तोकं कालमित्यतो दुर्लभ, तत्र तावत् पृथिव्या 'पुढविकायमतिगतो॥२९४-३३६।। वृत्तं, कायपुढवि-भूमी कायो जेसि ते पुढविकाइया, पुढविकाय एव वा पुढविकाइया, एत्थ कायसद्दो सरीराभिधाणे, पुढषिकाए वा, तत्र स्थितिः पुढविकाइया पुढचीति, पृथु विस्तारे विच्छिण्णा इति पुढवी, अतस्तं पुढविकायमतिगतो-अणुपविट्ठो उक्कोस तासां सर्वउत्कृष्ट जीवो तु संबसे कालं संखातीतं, संख्यामतिक्रान्तमित्यर्थः, तत्थेव मरि उववज्जति असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी(अवसप्पिणी तो कालतो, एसो य कालो खेचतो विससिज्जति-असंखेज्जाणं लोगाण जावइया आगासपदेसा एवत्तियाणि पुढविक्कायमरणाणि मरिउं तत्थेव तत्थेव च उवयज्जइ, ततो खेत्ततो असंखेज्जा लोगा, एवतियं कालं पुढविककाए उक्कोसेणं अच्छति । 'आउक्कायम-16| तिगतो.॥२९५-३३६।। वृत्त, 'अप' इति आऊ, सोकायो जेसिं ते आउकाईया, आउक्काए वा भवा आउक्काइया, 'आप्लु व्याप्ती' इति आपः, अतो तं आउक्कायमतिगतो, जहा पुढविक्कार्य, 'तेउक्कायमतिगतो०२९६-३३६।। वृत्तं, तेजो कायो जेसि ते तेउक्काइया, 'तिज निशाने' तेउ, तहेव वा गतिगन्धनयोरिति वायुः तस्यवि तहेव, वन पण संभक्ताविति 'वणस्सइ०।२९८-३३०।। एतस्य अणंतकाल अणंताओ उस्सप्पिणीतो कालओ, खेत्तओ अर्णता लोगा, दव्यतो असंखेज्जा पोग्गलपरियड्डा, सव्वपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफासअशनादीहिं फासेज्जंति सो पोग्गलपरियट्टो भवति, ते असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा वणस्सइकाए ॥१८९॥ अच्छति,तस्स णं असंखज्जस्स परिमाणं आवलियाए असंखिज्जतिभागो, आवलियाए असंखिज्जइमो भागो जावतिया समया एवतिया 51 पोग्गलपरियट्टा वणस्सतिकाये अच्छति। वेइंदिय० ॥२९९-३३६॥ तेइंदियः॥३००-३३६॥'चउरिदिएमु०॥३०१-३३६।। संखे. ti- ज दीप अनुक्रम [२९१३२७]] य - ----F904 4-% [194] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||२९० ३२६|| दीप अनुक्रम [२९१ ૩૨૭] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१०], मूलं [१... ] / गाथा ||२९०-३२६ / २९१-३२७]], निर्युक्ति: [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्री उत्तरा० चूण १० द्रुमपत्रके ॥१९०॥ |ज्जकाल || 'पंचिंदिय ० ' ॥३०२-३३६ ॥ तिरिक्ख जोणिएस सत्तट्ठ भवग्गहणाणि, 'देवणेरइएस० ॥ ३०३-३३६|| एक्के वकं मवग्गहणं, ( एवं (भव) संसारे० : ३०४-३३८ || वृत्तं एवमनेन प्रकारेण भवनं भूतिर्वा भवः, संसरणं संमृतिर्वा संसारः, भव एव संसारः भवसंसार:- नरकादिः, अन्ते भवसंसारे संसरति परीति गच्छतीत्यर्थः, सुभासुभाणि सातअसातादीणि, क्रियते इति कर्म्म, जीवत इति जीवः, |पमादो मज्जपमादादि पंचविधो, बहुशः बहुलो, अतः समयमात्रमपि प्रमादं मा कुरु, यद्यपि कदाचित् तन्मानुष्यं लभति तदापि 'लडूणऽवि माणु (सत्तणं) सं' ।। ३०५-३३८ ।। वृत्तं तत्रापि आर्यत्वं दुर्लभं, क्षेत्रार्यत्वं रायगिहमगहचंपादि, जतो बहने दस्तुअमिलिक्खुया, दस्यति दस्सहति वा दस्युः-चोरा, ते हि प्रत्यन्तवासिनो धर्माधर्म्मवहिष्कृता, 'मिलेक्खुया' म्लेच्छा अविस्पष्टभाषिणः अनार्यभाषाः, गम्यागम्य अपरिहारिणः शकयवनादयः, निःसंज्ञाः, तद्विधेन किं मनुष्यत्वेन ? 'लडूणऽवि आश्यित्तणं०' ।। ३०६-३३८ ।। पुच्चद्धं कण्ठयं, विकलानि इन्द्रियाणि यस्य स भवति विकलेन्द्रियः 'दीसति' त्ति प्रत्यक्षमेव दसिंति, अपूर्णेन्द्रिया एव जायमानाः, जाता अपि च व्याध्यपराध्यादिभिरुपक्रमविशेषैर्विनाशमिन्द्रियानि प्राप्नुवन्ति इत्यतः 'विगलिंदियता हु दिस्सह' अतो धम्मस्स अजोगा, तं जाय अविकलेदियणीरोगो ताव समयं गोथमा 'अहीण पंचिंदियत्तंपि से लभे ० ||३०७-३३० ॥ वृत्तं, यद्यपि अहीनेन्द्रियत्वं लभ्यते, तथापि 'उत्तम धम्मसुती हु दुल्लभा' उत्तमा-अनन्यतुल्या सर्वोक्ता धर्म्मस्य श्रुतिः, श्रवणं श्रुतिः, 'कुतित्थिणिसेवते जणे' तीर्यते तार्यते वा तीर्थ, कुत्स्यानि तीर्थानि शाक्यादीनां तान्येव तु निषेवते भूयिष्ठो जनो इत्यतः 'कुतित्थिणिसेवए जणे', अत इदमस्मदीयं तीर्थं संसारार्णवतारणार्थमेव, गाहा, समर्थ गोयम मा प्रमादये 'लडूणवि उत्तमं सुई सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्तणिसेवए जणे० ॥३०८-३३६ ॥ मिच्छत्तं विवरीतग्गहो जहा अधम्मे धम्म [195] पंचेन्द्रिय काय स्थितिः नरत्वादि दुर्लभता ॥ १९०॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] चूणों SARAN १० गाथा द्रुमपत्रके ||२९० % ॥१९॥ ३२६|| समा धम्मे अहम्मसम्मा एवमादि, अथवा जे अपत्थं इह च परत्र च तत्थेर चिन्तणीयमिति, उक्तं च-"प्रायेण हि यदपथ्यं l बलहानि तदेव चातुरजनप्रियं भवति। विषयातुरस्य जगतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषया॥१॥"अथवा इमं मुर्ति कहेज्जमाणपि स्वदोषोपहतत्वात मिध्यादर्शनभावितत्वाच्च न गृह्णन्ति, उक्तञ्च-जह ध(च)म्मकारसुणिया छेदप्पा(चम्मापया)छेदगाण बहुयाणं । धाता मधुन्वतजुतं परमणं णेच्छते मोच ॥ १॥ अहवा-जह पित्तवाहिगहितो तस्सुवसमणत्थमाणियं मधुरं। कडुगमिति मण्णमाणो ससकर निच्छए खीरं ॥ १॥ तदेवं तावत् श्रुतिमुत्तीर्य समतं गो०। 'धम्मपि हुसदहंतया०॥३०९-३३८।। वृत्तं, तं पुण किं कारणं ण फासति !, उच्यते-'इह कामगुणहिं मुच्छिता' 'इहे ति इह मनुष्यलोके कामगुणा:- शब्दादयः, मृच्छित इव मूच्छितः, जह पित्तमुच्छादिमुच्छितो इह लौकिके अपाये ण चिंतेति तथा श्रावकौघात(धः), यावत् शुद्धाऽस्ति ते धर्मे ताव कामेष्वनावृत्तो भृत्वा समय, इतश्च अप्रमाद: करणीयः, कुतः, शरीरदौर्बल्यात्, इदं हि-'परिजूरति ते सरीरयं॥३१७-३३९।। वृत्त, परि सर्वतो भावे, समन्ताज्जीर्यते परिजूरति, व्याधिज्वरादिभिरुपक्रमविशेषैः, शीर्यते शरीरं, क्लिश्यन्त्येभिश्च क्लिष्टाः, क्लेशयन्ति | वा कामिन: क्लेशाः, ते तु पण्डरा भवन्ति, तृतीयवर्णान्तरसंक्रान्ता इत्यर्थः, से सोयवले हायति, मंद मन्दं शृणोतीत्यर्थः. | समयं गोयमा!, एवं चक्खुघाणजिब्भाफासा. से सव्ववले ते, सबवलं नाम एतेसिं चेव पंचण्डं इंदियाण परिहाणीए सबबलपरिहाणी भवति, अथवा चलं तिविह-सारीरं वाइयं माणसियं, सारीरं प्राणवलं स्थानचंक्रमणादि च, वाचिकं चलं स्निग्धनीहारिसुस्वरता, सा हीरमाना रुक्षा मंदा अल्पा बहुमायासा च भवति, माणसियमपि ग्रहणधारणाऽसामर्थ्य भवति 'अरई गंडं ॥१९॥ विसूइया० ॥ ३१६ ॥ वृत्तं, गच्छतीति गण्ड, सूचिंरिव विदधतीति विचिका, विविधैर्दुक्खविशेषैरात्मानमकयतीति आत-13 PESAN%AE% दीप अनुक्रम [२९१३२७] [196] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] चूणों १० 3 गाथा ||२९० ३२६|| श्रीउत्तरारका, तैश्वोदीण विहति-विद्धंसति ते सरीरगं, समयं गोयमा! । यतश्रेयं व्याध्यादीनामातंकाना सामान्यमथु(थि) च शरीरं | त्यागस्थेये तस्मात्-'बुछिद सिणेहमप्पणो० ॥ ३१७ ।। वृत्त, विविधं छिंद वोच्छिद, स्निह्यत इति स्नेहा, 'अप्पणो'त्ति आत्मीये शरीरे, कमनीयं कुमुद, शरदि जातं शारदिक, पातव्यं पानीयं, 'ते सव्वसिणेहवज्जिए' सर्वस्नेहा नाम आत्मनि च बाह्येषु च दुमपत्रके वसु(स्तु)पु, सर्व एव वर्जयित्वा समय गोयमा। 'जि(चि)च्चाण(य)धणं च भारियं०॥३१८-३४०॥वृत्त, चिच्चा'त्यक्त्वा घण॥१९॥ हिरण्णसुवष्णचतुष्पदादि, दधाति धीयते वा धन, घ(भरयणीयासी भार्या, 'पम्बइओ हु (हि) सिं' प्रगतो गृहान् संसारातो वा पब्बइओ, अणगारियं नास्यागारं विद्यत इत्यनगारः अतः प्रवजितत्वं अणगारियं, मा वंतं पुणीवि आषिए अमानोनाः प्रतिषेधे, वंतं मुत्तपडिग्गलितं मा तं पुणोऽवि आदिए-आपिष, पुलाग(गुणगे)ज्झसमाकुलमणस्स मन्नंत भुजगमष्णा वा । रोसबसविप्पमुक्कं ण पिति बिसं (अगंधणया)॥१॥ विसविवज्जियसीला । 'अवउजिमय मित्तपंधर्वः॥३१९.३४०॥ वृत्तं, 'अवउ|झिय'त्ति छड्डेउ, मेज्जति मज्जंति वा मित्र, सहजाता भाया मित्ता, बांधवे हि अहिता निवर्तयंति, ते च पुज्वपच्छा संथुता, विपुलं विच्छिण्णं सुमहारासि संचयो हिरण्णस्स सुवण्णस्स चतुष्पदादेः कुवियस्य य मा तं वितियं गवेसए, समतं गोतमा॥ इदं अनागतोभासित सुत्-'ण हु जिणे अज्ज दीसइ०॥३२०-३४०॥ वृत्तं, यद्यप्येष्यत्काले आसने न द्रश्यन्ति तथापि तैरिद-14 मालवणं कर्तव्यं 'चहुमए दीसह मग्गदसिए' बहुमतो णाम पंथो, जहा णगरं अपेच्छमाणोषि पंथं पेच्छतो जाणा-हमेण पंथेण ॥१९२।। णगरं गमति, एवं 'संपइ नेआउए पहे' 'संपति'त्ति साम्प्रतकाले, नयनशीलो नैयायिकः, पथ्यत इति पन्थाः सम्यग्दर्शन-1 बानचारित्रमयः ते एवं भगवं असंदिग्धपन्था व्यवस्थितः सन् समय गोयमा! 'अवसोहिय० ॥३२१-३४१।। वृत्तं, दबकण्टकाः दीप अनुक्रम [२९१३२७] SACREAS GANGANAGAR [197] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] संवमशुद्धि प्रभृति चूर्णी गाथा ||२९० श्रीउत्तराबब्बूलकण्टकादि अवसोधेउ जहा गम्मति, एवं भावकण्टका हि तावसघरकपरिव्राजकादि कुश्रुतिस्कन्धक, यथा तान् कुश्रुतिकण्ट- कान् अवसोहिय उत्तिनोसि एवं महालयं अवतीर्णस्त्वं, पथं सम्यग्दर्शनचारित्रमय 'महालय'ति आलीयन्ते तस्मिमित्यालय महामार्ग इत्यर्थः, 'गच्छसि मग्गं विसोहिया' यास्यसि मार्ग--सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमयं विशोधयितुं, अतिचारविरहितं द्रुमपत्रके कृत्वेत्यर्थः, समय गोयमा । 'अपले जह भारवाहए.'॥३२२-३४१॥ वृत्तं, यथा अवलो भारवाहकः पर्वतं दुर्ग पन्थानमवगाब ॥१९३॥ अवलत्वातं सुवर्णभारं भाण्डभारं वा प्रोझय स्वगृहं प्राप्तः, तैनिर्धनत्वाद्विभवहीनः पश्चादनुतप्यते, तद्वदेव भवानपि संयमभार मुक्त्वा स पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोतमा 'तिण्णो हु सि अण्णवं महं॥३२३-३४१॥ वृत्तं, तीर्णवान तीर्णः तीयेत इति वा, अतरणशीलो वा अण्णवो, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ, द्रव्यार्णवः समुद्रः, भावार्णवस्तु संसार एव, उक्कोसहितियाणि | प्र वा कम्माणि, तस्य भवार्णवस्य तीरं प्राप्तः, किमुक्तं भवति ?- उक्कोसद्वितीयाणि सव्वाणि खवइत्ता थोनकम्मावसेस इत्यर्थे, अब | सेसाणं अभितुर पारं गमेत्तए, समयं गोतमा 'अकलेवरसणिमूसिया ॥३२४-३४२।।वृत्तं, कलेवर नाम सरीरं, न कडेवरं २, श्रयंति तामिति श्रेणि, अशरीरश्रेणिरित्यर्थः, सात संजमट्ठाणाणि सेणी, तं संजमाणसेणि उस्सविय उपरिमाई २ संजमहागाणि उवसरंतो सिद्धिं गोतम! लोगं गच्छति, खेमं शिवं अणुत्तरं, णत्थि ततो अनुत्तरंति समयं गोतमा! ।। 'बुद्धे परिणिव्युए चरे॥३२५-३४२।। वृत्तं, धम्मे बुद्धो, परिणिचुतो णाम रागदोसविमुक्के, चरेदिति अनुमतार्थे, कुत्र चरे?, गामे णगरे तु, तत्र जा| | ता असति बुद्धचादीन् गुणानीति ग्राम:, नात्र करो विद्यत इति नकर, सम्यग् यते, 'संतिमग्गं च चूहए' शमनं शान्तिः शान्त मार्गः२, अधवा शान्तिरेव मार्गः शान्तिमार्गा, बृहयेत बृहये, बुद्धः परानपि बोधयेदित्यर्थः, समयं गोतमा। ततः स भगवान् | SCRec-90-%e0 ३२६|| - % दीप अनुक्रम [२९१३२७] 459-%% 1॥१९३। % % [198] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||२९० ३२६|| दीप अनुक्रम [२९१ ३२७] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१०], मूलं [१... ] / गाथा ||२९०-३२६ / २९१-३२७]], निर्युक्ति: [२८०...३०९/२८०-३०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूर्णो ११ चहुश्रुतपू० ॥१९४॥ জে। ভলজল गौतम एतत् 'बुद्धस्स णिसम्म भासिय० ॥३२६-३४२॥ वृत्तं, 'बुद्धस्स' त्ति भगवतो तीर्थकरस्य, निशम्येति श्रुत्वेत्यर्थः, भासितं शोभनं कथितं सुकथितं, अर्थपदैरुपशोभितं, अस्य फलं-रागं दोसं च विदिय, माया लोभो य रागो, क्रोध माणो य दोसो, 'सिद्धिं गतिं गतो' सिद्धानां गतिः सिद्धगतिः, सिद्धानां गतिं गतो गौतम इति बेमि । नयाः पूर्ववत् । दुमपत्तयं सम्मत्तं दस मज्झयणं १० ॥ को सासेति ?, बहुतो, ततो तेणं अणुसासितेण बहुस्सुयस्स पूया कायव्या, अवा अप्पमादट्टितेण बहुस्सुतस्त पूया कायच्या, एतेण अभिसंबंधेण बहुस्सुतपुज्जं अज्झयणमागतं, तस्स चत्तारि अणुयोगद्दारा उबक्कमादी, नामनिप्फण्णे निक्लेवे 'बहुसूए पुज्जं० ॥३१०-३४३||ति, तत्थ बहुं पूया य) णिक्खिवियन्वंति (दु) पदं णामं तत्थ गाहा 'बहुसुयपूया' गाहा ॥ ३१०॥ तत्थ बहुं चउव्विहं णामादि, दव्वबहुं जाणगसरीरभवियसरीरवतिरितं पंच अस्थिकाया, एत्थवि जीवा य पोग्गला य बहुगा चैव 'भावबहुगेण बहुगा' गाथा ।। ३४३ ।। ताव बहुस्सुओ चोदसपृथ्वी, अनंतगमजुत्तत्ति अणतेहिं गमेहिं जुत्ते भावे जाणति, ज्ञेयानां भावानां पज्जवे जाणति, किहं पुत्राणं अनंतगमा भवति, तत्थ णिदरिसणं मणुस्सा दव्वादि ४, दव्बातो तं चैव मणुस्सदव्वं जाणति, खेचओ जमि खत्ते, कालतो अणतेहिं भवग्गहणेहिं जुतं तं मणुस्सदव्वं जाणति, भावतो कालादिपज्जाया स जाणाति, एवं सब्वं ज्ञेयं अगतेहिं गमेहिं पज्जवेहि य संजुतं जाणति, गमा दग्वादि पञ्जवा बालादि, भावे खओवसमिए मृतणाणं, खइयं केवलणाणं, बहुगत्ति गतं इदाणिं सुतं तं चउन्विहं णामादि, जाणगभवियसरीरवतिरित्तं दव्वसुतं पत्तयपोत्थय लिहितं, अथवा सुतं पंचविहं पण्णत्तं अंडयादि, भावसुतं दुविह पं०, जहा सम्मसुतं मिच्छसुतं च तत्थ सम्मसुतं भवसिद्धिया उ जीवा० ॥३१३-२४४॥ गाथा, किं कारणं सम्मसुतं भणति १, उच्यते, जम्दा कम्मस्स सोधिकरं । इदाणिं मिच्छसुतं, 'ता मिच्छदिट्ठी जीवा ॥ ३१४ ॥ गाथा, अध्ययनं -१०- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -११- “बहुश्रुतपूजा” आरभ्यते [199] बहुश्रुतपूजानां निक्षेपाः ।। १९४॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक दा श्रीउत्तरा चूर्णी [१] बहुश्रुतपूजानां निक्षेपाः बहुश्रुतपू० गाथा ||३२७३५८|| FAIRSA-% कम्हा मिच्छसुतं भण्णति ?, उच्यते--जम्हा कम्मस्स बंधणं भणिय, आदाणं नाम बंधणमित्यर्थः।।सुतंति गतं, इदाणिं पूया, सा | चउव्विहा-नामादि, दध्वपूजा दय्वनिमित्तं दग्वभूता वा, तत्थ गाथा-'ईसर सलबर०॥३१५-३४४॥ गाथा, दब्बनिमित्त ईसरमाईणं | विण्हुखंदरुद्दादीणं च, ते हि गुणेहिं जुत्ता तेण तेसिं दव्यपूजा,(भावपूया)अरहतमाईणं जेण तेसि संसाराओ उत्तारेतित्ति भावपया,एत्थ | चोइसपुब्विपूयाए अधिकारो,गतो नामनिफण्णो, सुत्ताणुगमे सुत् उच्चारेतब्वं, तं च सुत्तं इम-'संजोगा विप्पमुक्कस्स॥३२७| -३४५||सिलोगो.पुव्वद्धं जहा विणयसुते,आयारं पाउक्करिस्सामि,(पूयत्ति वा विणओत्ति वा)आयारोत्ति वा एगढ, 'जे यावि होई निबिज्जे० ३२८-३४५।। सिलोगो, य इत्यनुद्दिष्टस्य निर्देशा, नास्य विद्या निबिज्जेऽपिशब्दात्सविघोऽपि अविद्य एव भवति यः | स्तब्धो भवति, उक्तञ्च-"ज्ञानं मदनिर्मथनं मायति यस्तेन दुश्चिकित्स्यः सः। अगदो यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कुतोऽन्येनी | ॥१॥ लुब्धो आहारादिपु, तद्विपाकं न जानीते, अणिग्गहे अंकुशभूता विद्या तस्या अभावादनिग्रहः, अभिक्खणं-पुणो | पुणो उल्लवतित्ति फुक्कतेण आहिट्ठाणेण सुव्वति अम्हे पडिचोदेति, अविणीतो य भवति, केणी, जेण अबहुस्सुतो, यस्तु सहाविद्यो भवति सो पा थन्भति त दोसं जाणतो, अलुद्धो णिग्गहीतप्पा, विज्जा ठाणे उल्लवति विनीतो य भवति, बहुश्रुतत्वात्, |तं च तं बहुश्रुतत्वं कथं ण लम्भाति , इमेहि-'अह पंचहिं ठाणेहिं०३२९-३४५।। सिलोगो, अथेत्यानन्तर्ये, पंचेति संख्या, ठाणे हिंति प्रकारा, 'जहिं ति अणिद्दिट्ठाण णिद्देसो, मोक्खो, गहणसिक्खावि णस्थि, कतो आसवणसिक्खा!, कयरे पंचढाणा उच्यन्ते-थंभा कोहा पमादा रोगा आलस्सा, तत्थ ते णो कोइ पाढेति, इयरो थद्धत्तेण ण वंदति, कोहा कोहणसीलो, पमादो पंचविधी, तंजहा- मज्जप विसयप० कसायपणिहाप० विगहापमादो, अत्याहारेण अपत्थाहारेण वा रोगो भवति, आलसिगो य ECTRONIC दीप अनुक्रम [३२८३५९] ॥१९५।। -RE-% [200] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| चूौँ ११ । श्रीउत्तराण लब्भति । कथं लन्भति !, तेसिं चेव विवच्चासेण । अधवा इमेहिं लम्भति-'अह अहहिं ठाणेहिं ।।३३०-३४५।। सिलोगो, अविनीत अथेत्यामन्त्रणे, शिक्षा शीलयतीति शिक्षाशीलो, गृह्णातीत्यर्थः, हसनशीलो हसिरो न हसिरोऽहसिरः, दंतो इंदियदमेण गोइंदि- स्थानानि विनीत यदमेण य, ण य म उदाहरति आयरियाणं जेण दुम्मिज्जति, णोऽशीलो गृहस्थ इव, ण विशीलो भूतिकम्मादीहि, ण सिया अवबहुश्रुतपू० धूते अइलोलुए आहारविगतीहि, अकोहणे ण रूसति, सच्चरतो ण मुसाबादी, संजमरतो वा, सिक्खासीलो जस्स सिक्ख॥१९६॥ यति एरिसं सील,अविणयस्स ठाणाई-"अह चोदसहिं ठाणेहिं ॥३३२-३४७|सिलोगो,कण्ठ्यः। अभिवणं.३३३-३४७॥ पुणो पुणो रूसति, एवं च पकुव्वति-अच्चतं कुब्वति, तहा मित्तिज्जमाणो वमतित्ति जहा कोइ भायणादि रंगिउ ण याणेति, I हा अन्नो धम्मसद्धाए अहं करेमित्ति, इयरी प्रत्युपकारभया पेच्छति, सुयं लवण मज्जति अइबहुस्सुतोत्ति । 'अवि पावपरिक्खेवी 30*३३४-३४७|| सिलोगो, ण पावं परिक्खियति, किंचि पडिचोदितो माइक्खबियाणि उग्मणेति,मित्ताणवि रुस्सति, सेसाणं च रुहो। चव, जाव सुटु पितो मिचो तस्स परंमुहस्स अवनं भासति रहत्ति, जाहे न सुप(ण)ति कोइ भणति, णाणादिसु उज्जुत्ते, सो इतरो पडिसो यो) भवति, 'पइन्नवाई०३३५-३४७॥सिलोगो, अपरिक्खिउं जस्स व तस्स व कहेति, दुहणसीलो दुहिलो, महिसो या दुहिलत्ति, थद्धे लुद्धे अनिग्गहे पुबमाणिता, असंविभागी' आहारादिसु, अचियत्तोऽदरिसणो वा, अथवा तं तं भासति बद्ध(ट्टोति द| ॥१९६॥ वा जेण अचियत्तो भवति, अप्रिय इत्यर्थः, एवंगुणजातीओ अविणीओ। 'अह पन्नरसहि ठाणेहिं ॥३३६-३४७॥ सिलोयो, पुब्बद्ध कण्ठथं 'णीयवत्ति'ति' णीयापिनी, कथं', उच्यते--‘णीयं सेज्जं गत(ति) वाण, यिं च आसणाणि य । णियं च पाय | ४| वंदेज्जा, णीय कुज्जा य अंजलि ॥१॥' 'अचवले'त्ति चवलो चउव्यिहो-गतिशहाणरभासा३भावे, गतिचवलो दवदवचारी, दीप अनुक्रम [३२८३५९] [201] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||३२७ ३५८|| दीप अनुक्रम [३२८ ३५९] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [११], मूलं [१... ] / गाथा || ३२७-३५८/३२८-३५९|| निर्युक्ति: [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण श्रीउत्तरा० वृण ११ बहुश्रुतपू० ॥१९७॥ ठाणचवलो जो चलंतो अच्छति, णिवण्णो ण अच्छति, हत्थं वा पादं वा सीसं वा पो(लो) लितो अच्छति, अथवा सव्वं अंगं चालेति, अबद्धासणो वा, भासाचवलो चउन्त्रिहो, तंजहा - असप्पलावी असम्भप्पलाची असमिक्खपलावी अदेसकालप्पलावी, तत्थ असप्पलावी नाम जो असंतं उल्लावेति, असम्भप्पलावी जो असम्भं उल्लावेति, खरफरुसअक्कोसादि असम्भं असमिक्खियपलावी असमिक्खिउं उल्लावेति, जं से मुहातो एति तं उल्लावेति, अदेसकाल लावी जाहे किंचि कज्जं जतीतं ताहे भणति जति पकरेंति सुंदरं होतं, मए पुच्वं चैव चितिवेल्लयं, तो (भाव) चवलो, सुत्ते अत्थे य, सुत्ते उद्दिट्ठे असमत्ते चैव तांसि अनं गण्हति एवं अस्थेऽवि, 'अमाई 'त्ति जो मायं न सेवति, सा य माया एरिसप्पगारा, जहा कोइ मथुनं भोयनं लढूण पंतेण छातेति 'मा मेयं दाइयं संतं दहूणं सयमादिए' अकुतूहली बिसएसु विज्जासु पावठाणति ण वट्टतित्ति । 'अप्पं च अहिक्खिवति० ॥ ३३७-३४७॥ सिलोगो, अल्पशब्दो हि स्तोके अभावे वा, अत्र अभावे द्रष्टव्यः, ण किंचि अधिक्खिवति, नाभिक्रमतीत्यर्थः, 'पबंधं च ण कुण (व्यति', अच्चतरुट्ठो न भवति, मित्तिज्जमाणो भजति प्रत्युपकारसमर्थः, उपकृतं वा जानीते, 'सुयं लधुं न मज्जति' तं दोसं जाणतो, जो 'न च पावपरिक्खेवी० ॥३३८-३४७॥ सिलोगो, ण छिद्दाति भरगति, णो चोइतो पमादक्खलियाई उग्गणेति ण य मित्तेसु कुप्पति, अण्णस्स न कुप्पति, किं पुण मित्तस्स १, अप्पियस्सावि मित्तरस रहे कल्लाणं भासह सव्वस्सेव कल्लाणं भास, प्रियः अनुकूल इत्यर्थः, 'रहे'सि जइ कोइ परंमुहं किंचि भणिज्जा जहा णाणाइसु ण उज्जुत्तोति तं पडिसेहेति । 'कलहडमर०' ॥३३९-३४७॥ कलह एव उमरं कलहडमरे, कलहेति वा भंडणेति वा डमरेति वा एगट्ठो, अहवा कलहो वाचिको डमरो हत्थारंभो, बज्जेति ण करेति, बुद्धो धम्मे विणवे य अभिजाणते, विणीतो कुलीणे य, ही लज्जायां, लज्जति अचोक्खमायरंतो, पडिलीणो [202] विनीत स्थानानि | ॥ १९७ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा चूर्णी ||३२७३५८|| श्रीउत्तरा। आचार्यसकासे इंदियणोइंदिएहिं, एतेहिं गुणेहिं उववेदो सुविणीतो बुच्चति-भन्नति, किंबहुना ?, जइ इमेहि गुणेहिं उववेतो- बहुश्रुता'वसे गुरुकुले निच्च ॥३४०-३४८॥ सिलोगो, आयरियसमीवे अच्छति णिच्च-सदाकालं, आह हि- "णाणस्स होइ भागी थिर- नामुपमा यरगो दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥" जइ जोगवं भवति, जोगो मणजोगादि संजमजोगो बहुश्रुतपू० वा, उज्जोगं पठितब्बते करेइ, उवधाण जो जो सुयस्स जोगो तं तहेब करेति, पियं करोतीति पियंकरो, आधारउवाहिमादीहिं ॥१९८ छन्दाणुलोमेहि पाठविणयमादीहिं वा, 'पियंवादी'ण किंचि अपियं वदति, से सिक्खं लद्धमरिहति, तंमि एवंगुणजातीते सीसे देति सुतं आयरिओ, सीसो पडिच्छंतो सोभति, विराजते इत्यर्थः, को दिलुतो, उच्यते 'जह संखमि पयं निहियं.' ॥३४१-३५३।। सिलोगो, यथेत्यौपम्ये संखमि' संखभायणे पर्य-खीरं णिसितं ठवियं न्यस्तमित्यर्थः, उभयतो दुहतो, संखो खीरं च, अहया तओ खीरं व, खीरं संखे ण परिस्सयति ण य अंबिलं भवति, विरायति- सोभति, एवं उपसंहारे, अणुमाणे वा, पहुस्सुए सुयविसारओ जाणक इत्यर्थः, स एव भिक्खू, भायणे देंतस्स धम्मो भवति कित्ती वा, सो तहा सुत्तं अबाधितं भवति, अपत्ते देंतस्स असुतमेव भवति, अथवा इहलोगे परलोगे जसो भवति पत्तदाई(त्ति),अहवा एवंगुणजातीए भिक्खू बहुस्सुते भवति, धम्मो कित्ती जसो भवति, सुयं व से भवति, अथवा इहलोए परलोए विराजति, अथवा सीलेण य सुतेण य । भूयो वितिओ दिछतो-'जहा से कंबोयाणं ॥३४२-३५३॥ सिलोगो, जहा जेण पगारेण, सेत्ति णिदेसो, कंयोतेसु भवा कंबोजाः, अश्वा इति | वाक्यशेषः, आकीर्णे गुणेहि सीलरूपचलादीहि य, कथए, 'अस्सो' अस्सेत्ति अस्सेति असति य आसु पहातिति आसो, जवेण १९८ पवरोति जवो हि सज्झो परमं विभृसणं जाती, जबोववेतोरी भणियं होति, जहा सो आसो जातीजवोववेतत्तणेण सेसेसु पहाण || दीप अनुक्रम [३२८३५९] 4 % % * [203] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] % नामुपमा ११ % गाथा ||३२७३५८|| % - श्रीउत्तरालमति, एवं पहुस्सुतोवि सीलसुततवोचवेतचे पूजनीयो भवति । 'जहाऽऽइन्नसमारूढ०॥३४३-३५३||सिलोगो. आइपणो भणितो, चूणौँ सम्यगारूढः समारूढः, सूरे दढपरक्कमो, दढपरक्कमो नाम आसणे दढो प(वच)हारे परक्कमो य, उभयो णंदिघोसेणं,उभयो | दोहिं पासेहि, अहवा आम्गतो पच्छितो य, शंदिघोसेत्ति यदिघोसो तस्स, कतो य नंदिघोसो ?, उच्यते, जे एरिसे अस्से दूरुहति है बहुश्रुतपू० तस्स गंदीवि भवति, जहा सो अप्पाणं परं च रस्खति सत्तुपक्खातो, एवं इमोऽवि परतिस्थिएहितो रक्खति बहुश्रुतत्वात् ।। ॥१९९|| 'जहा करेणुपरिकिपणे॥३४४-३५३॥ सिलोगो,करेणु हस्थिणियाओ ताहिं परिकिण्णोति कु-भूमीतं जरेती कुंजरं, हायणं वरिसं, सद्विवरिसे, परं बलहीणो, अपत्तवलो परेण परिहाति, बलं बलेण मत्तो अपडिहतोत्ति, अनेहि सत्तेहिं ण हम्मतित्ति, एवं बहुस्सुतेऽवि परप्पवाईहिं न हम्मति । 'जहा से तिक्खसिंगे॥३४५-३५३।। सिलोगो, तिक्खसिंगत्वात् जातस्कन्धत्वाच्च अन्नेहि ब-4 | सभेहिं णाभिद्दविज्जति शोभते च, एवं बहुस्सुतोवि परतित्थिय अंगमत्तेण शोमति ।। 'जहा से तिक्खदाढे ॥३४६-३५३शासिलो गो, उदग्गं पधानं शोभनमित्यर्थः, उदग्रं वयसि वर्चमानं, जहा सो सीहो सबहिं दुप्पहंसणीयो, एवं बहुस्सुतोऽवि परतिस्थिय-] मियातीहिं दुष्पहंसणीयो । 'जहा से वासुदेवे० ॥३४७-३५३॥ सिलोगो, जहा वासुदेवो सव्वत्थ अपरानिओ, एवं बहुस्सुतोवि कुतीथिएहिं अपराजितो ॥ 'जहा से चाउरते ॥३४८-३५३॥सिलोगो,चाउरंतित्ति तिहिं दिसाहिं समुद्दो एगतो पञ्चता,जहा सो चक्कवडी महडिए मणुसिद्धीए, अपराजितो य, एवं बहुस्सुतोऽबि महईए सुयविभूतीए, न तीरइ य परप्पवाईहिं पराजिणिउं, | 'जहा से सहस्सक्स्वे० ॥३४९-३५३॥ सिलोगो, सहस्सक्वेत्ति पंच मंतिसयाई देवाणं तस्स, तेसिं सहस्सो अक्खीण, तेर्सि गीतिए दिमिति, अहवा जं सहस्सेण अक्खाणं दीसति तं सो दोहिं अक्खीहिं अमहियतरायं पेच्छति, एवं बहुस्सुतोऽवि। SAE% %EX k% दीप अनुक्रम [३२८३५९] KHE ॥१९९॥ E %A * [204] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक %51s [१] गाथा बहुश्रुतपू० ||३२७३५८|| ॥२०॥ सुतणाणेणं अणते भाचे जाणति ण पासति, जह य इंदो महन्तीए सुरविभूतीए वच्चति, एवं सोऽचि । 'जहा से तिमिरविद्धंसे बहुश्रुता॥३५०-३५३।। सिलोगो, तिमिर-अन्धकारं तं विद्धंसति-विणासति, जाच मज्झण्णो ताव उडेति, ताव से तेयोसा पद्धति, पच्छा नामपमा परिहाति, अहवा उत्तितो सोमो भवति हेमंतियबालमूरिओ, एवं जहा आइच्चो तेएण जलति एवं बहुस्सुतोऽवि तेजवान् । |'जहा से उडुबई चंदे ॥३५१-३५३॥ सिलोगो, उडूइं-णखत्ताई तेसि पती उडपति, सो य अद्धपहे णिवपरिवारो (अट्टमी| आइसु णेढपरिवारो) पडिपुण्णो हि पडिपुण्णमंडलो पुण्णमासीए अतीव सोभयति, एवं बहुस्सुतोऽपि चंद इव सोमलेसो सीस-15 परिवारितो सोभयति, एवं एक्कक्केण गुणेण दिईता भणिता । इमो अणेगेहिं भण्णति-'जहा से सामाइयाण॥३५२-३५३॥ सिलोगो, जहा कोट्ठागारो णाणाविधाण घण्णाण सुपडिपुण्णो, एवं बहुस्सुतो णाणाविधाण सुतणाणविसेसाण सुपडिपुण्णो ।। 'जहा सा दुमाण पवरा० ॥३५३-३५३|| सिलोगो, जह जंबू अमितफला देवावासो य, एवं बहुस्सुतोऽवि सुयणाणअमियफलो, देवावि य से अभिगमणादीणि करेंति । 'जहा सा नईण पवरा०॥३५४-३५३।। सिलोगो, जहा सीता सव्वणदीण महल्ला बहूहिं च जलासतेहिं च आइण्णा, एवं चोदसपुवी विऽसेससुतणाणेण महान् प्राधान्ये वकृति, अणेगे यणं सुतत्थी उबसप्पति । 'जहा| से णगाण पवरे॥३५५-३५३॥ सिलोगो, जहा मन्दरो पिरो उस्सिओ दिसाओ य अस्थ पवति, एवं बहुमुतोऽवि बहुसुयत्तणेणेव 3 थविरो उस्सिओ य दबदिसाभावदिसापभावगो य ।। किं बहुणा ?-'जहा से सयंभुरमणे' ।।३५६-३५शा सिलोगो, जहा सयंभुरमणो समुदो अक्खयोदगे रयणाणि य अस्थि गंभीरो य, एवं बहुस्सुतोवि अक्खयसुयणाणजलो णाणादिरयणोववेतो सुत ।।२००॥ गाणगुणोववेत्तणेण य गंभीरो, न हु उच्छुलो । 'समुहगंभीरसमा' ॥३५७-३५३।। सिलोगो, जहा समुद्दो अवगाढतणेण गंभीरो दीप अनुक्रम [३२८३५९] SHIKAREERASAE CRORECASC [205] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा श्रीउत्तरा चूर्णी हरिकेशीये ॥२०१॥ ||३२७३५८|| एवं बहुस्सुतोऽवि गंभीरो, ण उत्ताणसोयणत्थितसलिलामिव बुलबुलेति, दुरासयत्ति ग सक्का आश्रयितुं परिसहेहिं पखादीहि हरिकेशवृत्त च, यदुक्तं ण य सक्कंति ते एतेहिं छिडेउं, अचक्किया ण सक्किया केणइ, दुप्पहंसिया दुक्खं पधंसिज्जंतिचि दुप्पहंसिया, यदुक्तं दुराधरिसा, कस्मात्?- सुतस्स पुण्णा, विउलस्स विपुलं चोइस पुब्बा, विमलं हिस्संकितं वायणोवायं बर्थ वा विपुलं, ताती आत्मपरोभयताती, ते हि भगवंतो तेण सुत्तेण तदुपदेशेण य 'खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया' अट्ठप्पगारं खवित्तु उत्तमा पधाणा सिद्धिगती तं गता, जम्हा एते गुणा सुत्तस्स 'तम्हा सुयमहिट्ठज्जा ॥३५८-३५४॥सिलोगो तस्मात्कारणात् सुतं अहिडेज्ज-सुत्ते ठाएज्ज, उत्तमो अट्ठो-मोक्खो तं उत्तम अत्थं मोक्खं गवेसए, गुणो तस्स, 'जेणऽप्पाणं परं चैव' जेणंति सुत्तेणं, अप्पाणंति तस्स मुत्तस्स उपदेस करेमाणो स्वयं, परस्सवि परस्स उपदेस देसमाणो, सिद्धिं संपाउणेज्जासि | तेण मुत्तेण करणभूतेण संपाउणिज्जासि इति बेमि । पायाः पूर्ववत ॥ बहुस्सुतपुज्जं सम्मत्तं इकारसमं ११ ॥ स एव पूजादि अधिकारोऽनुवर्तते, जहा बहुस्सुतो पूइज्जति, सो य जहा जक्खेण हरिएसबलो पूइतो, अनेनाभिसम्बन्धेनायातस्य तस्य हरिएसिज्जस्स चत्वारि अणुओगदारा उवक्कमादी, तत्थ णामनिफने निक्खेवे हरिएसिज्ज, एत्थ गाहा ला'हरिएसे निक्खेवो ॥३१८.३५४॥ गाथा, सो हरिएसो णामाति चउबिहो, तत्थ दव्वहरिएसो 'जाणगसरीर०॥३१९-३५४|| चतिरित्तो तिविधो-एगभवियादि, भावहरिएसो 'हरिएसनामगोय॥३२०-३५४||गाथा कण्ठ्या, तस्स हरिएसस्स उप्पची इमा- । २०१० महुराए नयरीए संखो नाम राया, सो पम्वतितो, विहरतो य गयपुरं गतो, तहिं च (भिक्खं) हिंडेतो एग रत्थं पत्तो, सा य 15 | किर अतीव उण्हा मुम्मुरसमा, उण्हकाले ण सक्कति कोवि ताहे वोलेउं, जो तत्थ अजाणतो उप्पदति सो विणस्सति, तीसे पुण| दीप अनुक्रम [३२८३५९] -E-ACES -on अध्ययनं -११- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१२- "हरिकेशिय" आरभ्यते [206] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| १२ हरिकेशी श्रीउत्तरायणाम चेव हुयवहरत्था, तेण साहुणा पुरोहियपुसो पुच्छितो-एसा रथा निव्वहति ?, सो पुरोहियस्स पुत्तो चिंतेति-एस उज्झउचि, तेन्दुकयक्षः चूणी ज भणति-निव्वहति, सो पढिओ, इयरे। य अलिंदहिओ पेच्छति अतुरियाए गईए वच्चंतं, सो आसंकाए उइण्यो त रत्थं, जाव सा तस्स तवप्पभावणं सीयल भूता, आउट्टो, अहो इमो महातवस्सी मए आसादितो, उज्जाणाठियं गन्तुं भणति-भगवं! मए पाच कम्मं कयं, कह वा तस्स मुंचज्जामि ?, तेण भण्णति-पब्बयह, पव्वइतो, जातिमयं रूवमयं च काउं मओ, देवलोगगमणं, चुओ ॥२०२॥ संतो मयगंगाए तीरे बलकोट्टा नाम हरिएसा, तेसिं अहिवई चलकोट्टो नाम, तस्स दुवे भारियाओ--गोरी गंधारी य, गोरीए कुच्छिसि उबवण्णो, सुमिणदंसणं, वसंतमासं पेच्छति, तत्थ कुसुमियं चूयपाय पेच्छइ, सुमिणपाढयाणं कहिय, तेहिं भण्णतिमहणो ते पुत्तो भविस्सति, समएण पखया, दारगो जाओ कालो विरूओ पुव्वभवजाइरूवमयदोसेणं, बलकोट्टेसु जाउत्ति बलो से नाम कयं, भेडणसीलो असहणो, अमया ते छणेण समागया भुति सुरं च पिवंति, सो अप्पियाणि करेइत्ति निढो अच्छति समता पलोएंतो, जाव अही आगतो, उडिया सहसा सवे, सो अही हि मारिओ, अणुमुहुत्तस्स भेरुंडसप्पो आगतो. भेरुंडो नाम दिव्वगो, भीया पुणो उडिया, णाए दिवगोत्तिकाऊण मुक्को, बलस्स चिंता जाया-अहो सदोसेण जीवा किलेसभागिणो | भवंति, तम्हा--"भदएणेव होयब्वं, पावति भदाणि भद्दओ । सविसो हम्मती सप्पो, भेरुंडो तस्थ मुल्चति ॥ १॥" एवं चिततो | संबुद्धो, पव्वतिओ, विहरतो वाणारसिं गओ, उज्जाणं तेंदुयवणं, तेंदुगं नाम जक्खाययणं, तत्थ गडी तेंदुगो नाम जक्खो परिव ४ सति, सो तत्थ अणुण्णवेउं ठितो, जक्खो उबसंतो, अण्णो जक्खो अण्णहि वणे वसति, तत्थवि अण्णे बहू साहुणो ठिया, सो य|| गंडीजखं पुच्छति-ण दीससि पुणाईत, तेण भणियं--साई पज्जुवासामि, तत्थ य तेंदुए दिवाऽणेण साहवो, सोवि उवसंतो, सोज दीप अनुक्रम [३६०४०५]] ॥२०२॥ STAR [207] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] %AK गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तरा भणति-ममवि उज्जाणे वह साहू ठिया, एहि ते पासामो, ते गया, ते य[साय] समावतीए साहुणो विकह कहेमाणा अच्छति, सोयज्ञपाटके चूणों भणति--"इत्थीण कहऽत्य वद, जणवयरायकहऽस्थ वट्टई । पडिगच्छद्द रम्म तेंदुर्ग, अइसहसा बहुमुंडिए जणे ॥१॥" अह अण्णया |४हरिकेश्या जक्खाययणं कोसलियरायधूया भद्दानाम पुष्फधूवमादी गहाय अच्चिउं निग्गया, पयाहिणं करेमाणी तं दहण काल विगरालं गमन हारकशीये 81 छिचिकाऊण निहति, जक्खेण रुद्रेण अण्णाइड्डा कया, णीया घरं, आवेसिया भणति ते-गवरं मुंचामि जइणं तस्सेव देह, तं। २०३हाच साहति-जहा एईए सो साहू बू निच्छूढो, रण्णावि जीवउत्तिकाऊण दिण्णा, महत्तरियाहिं समं तत्थाणीया,रसिं ताहि भण्णति-11 वच्च पतिसगासंति, पविट्ठा जक्खाययणं, सो पडिमं ठिओ णेच्छति, ताहे सरिता, ताहे जक्खोवि इसिसरीरं छाइऊण दिब्बरूवं| दंसेति, पुणो मुणिरूब, एवं सब्वराचं विलंबिया, पभाए णेच्छएचिकाऊणं पविसंती सघरं पुरोहिएण राया भणिओ-एसा रिसिमज्जा भणाणं कप्पत्ति, दिण्णा तस्सेव । सो य जण्णे दिक्खिज्जिउकामो, सा अणेण लद्धा, सावि जण्णपतित्तिकाऊण दि. खिया । गतो णामणिप्फरणो, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारतव्वं, तं च सुतं इम-'सोवागकुलसंभूओ ॥३५९-३५९।। सिलोगो, माशयति श्वसिति वा श्वा श्वेन पचतीति श्वपाक: तेसिं कुले संभूतो, गुणं अनुत्तरं धारयतीति अणुत्तरगुणधरो, मनुते मन्यते वा धर्माला धम्मोनिति मुनिः, हरिएसबलो नाम हरति हियते वा हरि हरिं एसतीति हरिएसो 'पलो बल इति संज्ञा, नयति नीयते वा। नाम, आसीत्, भिक्खु भणति, जियाइं इंदियाणि जेण सो जिइंदिओ। 'हरिएसणभासाए ॥३६०-३५९||सिलोगो, पुब्बद्धं कण्ठ्यं, 'जओ आयाणणिक्खेवे' यत्नवान्-यतः, आदीयत इत्यादानं, निक्षिप्यत इति निक्षेपः, समं यतो संयतो,संजमजोगेसु सम्ममाहितो २० | समाहिओ । 'मणगुत्तो॥३६१-३५९||सिलोगो, पुच्चद्धं कण्ठ्यं, भिक्वट्ठा भिक्खनिमित्त, बंभणाण जण्णं इज्जत इति इज्जतं । --REAti दीप अनुक्रम [३६०४०५]] SHARA [208] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक गाथा Are हरिकेशीये ||३५९ ४०४|| श्रीउत्तुरा काचेव तस्स पुरोहितस्स जण्णवाडमुहितो । 'तं पासिऊणमिज्जंतंग॥३६२-३५९||सिलोगो,तं तवेण परिशोषितं, बहिरंतश्च शोषि- छात्रवा क्यानि | तः, 'पंतोवहिउवगरणं' उपदधाति तीर्थ उपधिः, उपकरोतीत्युपकरणं, तं नाम जीर्णमलिन उवहसन्ति, न आर्या अनार्याः । जाइमयं पडिथद्वा॥३६३.३५९॥सिलोगो कण्ठ्या,ते पुरोहितसिस्सा जेते जण्णत्थमागता ते भणति-'कयरे तुम एसिध दित्तरूवे | अथवा ते अन्नम भणति--'कयरे आगच्छति दिचरूवे'त्ति, दीप्तरूपं प्रकारवचनं, अदीप्तरूप इत्यर्थः, अथवा विकृतेन दीप्तरूपो ॥२०४॥ भवति पिशाचवत, कालो वर्णतः, विकरालो दंतुरः, फोक्कणासो नाम अग्गेपूलनासो ओनयणासो, पाउए लक्खीयत इति, चलं, ओम नाम स्तोक, अचेलओवि ओमचेलओ भवति, अयं ओमचेलगो असर्वांगप्रावृतः जीर्णवासो वा, पश्यति पाश्य(शय)ति वा * जापाथः, पिशितासः पिशाचः, पांशु पिशाचभूतः पांशुपिशाचभृतः, पांशुपिशाचवत (स) कालो वर्णतः विकरालो दन्तुरः, पुनबा |पांशुभिः सममिध्यस्तः, एवमेषोऽपि, 'संकर दूसं परिहरिय कंठे' तृणपांशुभस्मगोमयादीनामुक्करः संकरः, तत्थ दूसं संकरसं, | उक्कुरुडियासिचयमित्यर्थः, स भगवान् अनिक्षिप्तोपकरणत्वात् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्र तं पंतोवकरणं कठे ओलंबेत्तुं गच्छई यतस्तेन आह-संकरस परिहरिय कंठे । समिकष्टं ते तमृचुः- कयरे तुम इय अदंसणिज्जे॥३६५-३६०॥द्रष्टन्यो दर्शनीय: न दर्शनीयः अदर्शनीयः, आशंसति तमित्याशा, पुनरपि यः तथैवोचुः 'ओमचेलगा पंसुषिसायभूया गच्छ व खलाहि' स्खल इति परिभवगमननिर्देशः, तद्यथा--'खलयस्सा उच्छज्जा', अथवा अवसर अस्मात् स्थानाव, 'किमिहं ठितोऽसि''इहे'ति इह द्वारा ॥२०४॥ | गणे, इत्युक्तः स तैस्तूष्णीं आयातः भगवान् स च भगवान् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्रांतर्हितो भूत्वा स यक्षः तेन्दुकवृक्षवासी तमनुगच्छति, अथासौ 'जक्खो तहिं तिदुप०॥३६६-३६०॥ वृत्तं, तस्स तिंदुगठाणस्स मजा महंतो तिंदुग़रुक्खो, तहिं सो भवति Reck दीप अनुक्रम [३६०४०५]] SCAM MA [209] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||३५९४०४|| ॥२०॥ भीरताका वसति, तस्सेव हिट्ठा चेइयं, जत्थ सो साह ठितो, सब्बतेण उावितो. 'अणकंपतो तस्स महामणिम्म' महतं मणातीति महा-18 यक्षाक्ति: अध्यापकोचूणौँ मुणी 'पच्छादायत्ता णियतं सरीरं' दिव्बप्पभावेण साधुसरीरमणुप्पविसइ, इमाणि वयणाणि उक्तवान्, वचनीयानि वाक्यानि, १२ । 'समणो अहं संजओ चंभयारी० ॥३६७-३६०॥ सिलोगो, संजतबंभचारिग्रहणं चरकादिप्रतिषेधार्थ, समणो अहं संयतः, हरिकेशीय हतिबंहितो वा अनेन धर्म इति, प्रचरणशीलो वा, अथवा काश्रमणः, यः संयतः, कः संयतः, यो ब्रह्मचारी, पिरतो धनसयन | परिग्गहाओ,दध्या(धा)ति तं धीयते धीयन्ते पाऽनेनेति प्राणिन इति धनं, पचनं पाकः परिग्रहो-हिरण्णादि, परप्पवित्तो(वित्तस्स) परार्थप्रवृत्ता जत्तत्थं किमिध आगतोत्ति', तदुच्यते-अन्नस्स अट्ठा इहमागओमि, इदं च 'विपरिज्जइ खज्जई पिज्जति(भुज्जई) य०॥३६८-३६०॥सिलोगो, वियरिज्जति णाम अनुज्ञायते दीयते वा,खाइमं खज्जति वा भोज भुजति,वा, प्रभूत अमितं, भवताणमेय'ति आमुष्मिकमेतत्, अप्येवं विशेषतः जाण धर्म, 'जायणजीविणु'त्ति जीवते येन याचितुं जीवति याचितेन वा जीवति । जायणजीविणं, अबा जाण धर्म, यथैपा जायणजीविणोचि, सेसावसेसं यदा भुक्तशेष ॥ इत्युक्तेऽध्यापक आह-'उवखर्ड भोयण' ॥३६९-३६१॥ पृच, 'उबक्खई"ति उपसंस्कृतमित्यर्थः, 'अत्तट्टियं सिद्धमिहेगपक्वं' आत्मार्थ सिद्ध 'इहे'ति इह । यज्ञे, एगपक्खं नाम नाबामणेभ्यो दीयते, उक्तं हि--"न शूद्राय बलिं दद्यानोच्छिष्ट न हविः कृतम् । न चास्योपदिशेद् धर्म, न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ १॥" यतश्चैवं चंभणा 'ण तु वयं एरिसमनदाणं, दाहामी तुझं किमिहं ठिओऽसि!' पात्रभूते-] भ्यस्तदीयते ब्राह्मणेभ्य इति । ततो यक्ष उवाच-यदि पुण्यार्थे दीयते तेन ममापि दीयता, कस्मात', जसो-'थलेसु बीयाई.' जा॥३७०-३६२॥ वृत्तं, तिष्ठति तस्मिमिति स्थल, कृषतीति कर्षका, निन्न नाम हेडा, आसशा नाम जीविष्याम:, अनेन यदा सुदृष्टि-1 1064-%2 -% दीप अनुक्रम [३६०४०५]] [210] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक [१] श्रीउत्तरा चूणों त गाथा ||३५९ हरिकेशीये ॥२०६॥ ४०४|| 56 भवति तदा थलो[वा]प्तानां बीहिणां संपद्यतेति, मन्दवृष्टौ त्वधस्तनानां, यद्यपि भवतां विप्रथुद्धिरात्मनः तथापि थलभूते ममावि 8 दीयता, ननु द्वावपि हितौ भविष्यतः, यतः- 'आराहए पुण्णमिण खु खित्तं' । 'खेत्ताणि अम्हे ण्हं वितियाणि लोए.' ॥३७१-३६२॥ वृत्तं, पुव्वद्धं कण्ठ्यम्, 'जे माहणा जाइविज्जोववेया' जननं जायते चा जातिः, वेद्यतेऽनेनेति वेदः, वेदउपवेता, बंधानुलोम्यात् विज्जोववेया, ताई तु खित्ताई तानि तु ब्राह्मणसमा नि, क्षीयत इति क्षेत्रं, सु? पेसलाणि सुपेसलाणि, शोभनं प्रीतिकर वा, यक्ष उवाच-'कोहो य माणो यः॥३७२-३६३॥ वृत्तं, पुच्चद्धं कण्ठ्यं, कोहमाणग्गहणेण चत्वारिवि कषाया घेप्पति, यत्र ते क्रोधाद्याः अशुभा भावा भवंति ते ब्राह्मणजातीयेष्वपि 'ते माहणा जाइविज्जाविहीणा', कथं हीणो!, जो हि अनायोणि कर्माणि करोति तस्य किं जात्या वेदेन वा?, भवंतश्च हिंसादिकर्मप्रवृत्ता एवं ताई तुम्भे खेत्ताई सुपायगाई- सुटु पावगाई। स्यादेतत्, ननु वेदवेदाङ्गधरा विप्राः पात्राणि भवंति, उक्तं हि-"सममब्राह्मणे दानं, द्विगुणं ब्रह्मबन्धुषु । सहस्रगुणमाचार्य, अनन्तं चेदपारगे ॥१॥" अत्रोच्यते-'तुभित्थ भो! भारहरा०॥३७३-३६३॥ वृत्च, भारं धारयंतीति भारधरा, गीयते गिरति गृणाति वा गिरा, तुम्भे केवलमेच गिराभारं घरेह अधीत्य वेदान्, येन हि वो वेदेषक्तं-"नह वै सशरीरस्यावसतः पियाप्रिययोरपहतिरस्ति, असरीरं वा वसंतं प्रियाप्रिये ण स्पृशती"ति एवमादीनां भवन्तः पठन्तोऽपि अर्थ न जाणंति, केवलमेव हिंसाथ उपदिशन्ति, न च हिंसया शरीरित्वं निवर्त्यते, ये तु हिंसकाः ते तु ऊपरखलक्षेत्रतुल्याः, जे पुण 'उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति' उच्चावयं नाम नानाप्रकार, नानाविधानि तपांसि, अहवा उच्चावयानि शोभनशीलानि, मनुते मन्यते वा मुनिः, 'ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई' पुण्यनिष्पादनसमर्थानीत्यर्थः, ततस्तमध्यापकं ते छात्रा णिर्मुखं रष्ट्बोचुः-'अज्झावयाणं पडिकूल %- 4 दीप अनुक्रम [३६०४०५]] ॥२०६॥ [211] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक भद्रोक्तिः [१) श्रीउत्तरा० चूणौँ गाथा ||३५९ हरिकेशीये ॥२०७॥ ४०४|| भासी० ॥३७४-३६४॥ वृत्त, अध्यापयतीति अध्यापका, यद्यपि प्रभूतमेतदन्नं 'अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं, न य णं दाहामु तुम नियंठा' नियंठा नाम निग्रन्था, यक्ष उवाच- 'समितिसु (हिं) मज्झं सुसमाहियस्स० ॥३७५-३६४॥ वृत्तं, कण्ठ्यं, एवं यक्षेणोक्ते अध्यापक आह-'के इस्थ खत्ता॥३७६-३६४।।वृत्त, क्षत्रा नाम क्षत्रियपुत्राः, ज्योतिषः समीपे(उप)ज्योतिषो, अध्यापका नाम ये तत्रान्ये अध्यापका, धोका, चट्टा छात्रा इत्यर्थः, एनं दण्डेन फलेन हत्वा, दण्ण्यतेऽनेनेति दण्ड: कोपराभिघातः, फलं तु पाणीघातः। 'अज्झावयाणं वयणं सुणित्ता॥३७७-३६४ावृत्तं, काम्यतिऽसौ काम्यति वा क्रीडत इति कुमारः, 'दंडेहिं' दण्ड्यतेऽनेनेति दण्डः, वित्त इति संज्ञा, शक (कश) तीति शक्यः (कशः) समागताः, ऋषति धर्ममिति ऋषिः । 'रपणो तहिं कोसलियस्स धूया.' ॥३७८-३६५॥ वृत्तं, कोसलायां भवः कोसलिका, भयते भाति वा भद्रा, अथवा भद्रेति वा संज्ञा, अङ्गन्यतेऽनेनेति अंग, अनिंदितान्यंगानि यस्याः सेयमनिंदितांगी। 'तं पासिया संजय हम्ममाणं' कण्ठयः, 'देवाभिओगेण निओइएण॥३७९-३६५॥ वृत्तं देवानामभियोगः२, अभिमुखं ध्याता अभिध्याता, मनसः अभिमता इत्यर्थः, नोप्रियेतिकृत्वा राज्ञा अहमस्मै दत्ता, तथापि जेनं भगवता नरिंददेविंदऽभिवंदितेण 'जेणामि वंता इसिणास एसो' एष ग्रहणं यो हि णाम देवैरपि पूज्यते स कथं भवद्भिनिरस्यते?, न भवंतो एयं जाणंति, अहमेतं वेद्मि, एसो हुसो उग्गतवो महप्पा ॥३८०-३६५॥ वृत्तं, सो इति पूर्वोद्दिष्टस्य निर्देशः, संतप्यते येन संतापयति वा तपः, उग्ग-उग्रं तपो यस्य स भवत्युग्रतपः, महानात्मा यस्य स | महात्मा, जितानि इन्द्रियाणि येन स भवति जितेन्द्रियः, सम्म जतोर, बृंहति बृहितो वा अनेनेति ब्रह्मा, ब्रह्मेण ब्रह्म वा चर्य चरतीति। | ब्रह्मचारी, 'जो मे तया निच्छद दिज्जमाणी' कण्ठ्यं, 'महाजसो॥३८१-३६५।। वृत्तं, कण्ठचं, महंति तमिति महान्, अश्नुते CAR-C4 दीप अनुक्रम [३६०४०५]] HERE CHES % C [212] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||३५९४०४|| दीप अनुक्रम [३६० ४०५ ] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१२], मूलं [...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५ ||, निर्युक्तिः [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: ॥२०८॥ श्री उत्तरा० २) सर्वलोकेष्विति यशः, महान् यशो यस्य स भवति महायशाः, अणुभाव णाम शापानुग्रहसामर्थ्य, घूर्णत इति घोरः, परतः क्रामतीति पराक्रमः परं वा क्रामति, 'मा एवं हीलेह अहलिणिज्जं' 'हिड (हील) विवाधाया' सेसं कण्ठ्यम्, 'एयाई तीसे० ' हरिकेशीये ॥३८२-३६८॥ वृत्तं, पातितामिति पत्निः, सोभणाणि भासिताणि सुभासिताणि, इसित्ति वा रिसित्ति एगहूं, 'वेधावडियट्ठाए' विदारयति वेदारयति वा कर्म्म वेदावडिता, नैति क्षयमिति यक्षाः अन्येऽपि चास्य यक्षाः सहायकाः, काम्यतेऽसौ कामयति वा क्रीडनकानि कुमारः, विविधं (नि) पातयंति विति (नि) पातयन्ति । 'ते घोरख्या ठिअ अंतलिक्खे ० ।। ३८३-३६८ ।। वृत्तं, घोराणि रूपाणि जेसिं ते घोररूपा, अंतलिक्खमाकाशं अंतलिक्खत्थं, असुरे भवा आसुरा, 'तहिं' ति तस्मिन् जन्नवाडडाणे 'ते जणं' छात्रजणं ताडयन्ति-हणंति, ते च ब्राह्मणास्तैस्ताडिताः सन्तः भूमौ निहितविदारितदेहा रुधिरभलभलस्स धम्मेमाणा क्रन्दन्ति, ततस्ते भिन्नदेहाः, भिन्नो देहो जोर्स ते भिन्नदेहाः, इति भणतो उच्चा रुधिरं वमंतो-मुखेन उग्गरंतो 'पासेतु भद्दा इणमाहु भुज्जो' । 'गिरिं नहेहिं खणह ० ॥३८४ - ३६८ ॥ सिलोगो, गिरिरिति गृणाति गिरंति वा तस्मिन् गिरी, न श्रीयंति नखाः, गिरी णाम पव्यतोत्ति, तं गिरिं गहेहिं खणध, अयतीत्ययः, दस्यते एभिरिति दन्ताः, अयं -लोहं तं लोहं दंतेहि खायह, जात एव तेओ जन्मकाल एव सो जायतेया- अग्गी, णतु जहा उदींतो सोमो (सूरो), मज्झण्हे तिन्हे, पज्जतेऽनेनेति पादः, अतो ते (तुम्भे जाततेयं पादेहिं हणह जे भिक्खु अवमन्नह । 'आसीविसो० ' ॥३८५-३६८॥ वृत्तम्, 'आसीविसो' दाढासु विसं जस्स स भवति आसीविसो, स च पन्नगः, किं भणितं होति ?, जहा सो सीचिसो आगलिते सितोचि णासाय एवं सोवि भगवं, उम्मं तपो यः स भवति उग्रतपाः, प्रधानतपा इत्यर्थः, महांतं एसतीति महेसी, निर्वाणमित्यर्थः, घोराणि व्रतानि यस्य घोरतः, दुरनुचरानित्यर्थः, घोरः [213] भद्रोक्तिः ॥२०८|| Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तरा०पराक्रमो यस्य स भवति घोरपराक्रमः, अनन्यसदृश इत्यर्थः, त एवंगुणसंपन तुम्भे अगणी व पक्खंद पयंगसेणा'l अध्यापक चूर्णी अम्गणं अग्गी, मिसं आदितो वा खंदे परखंदे, पंतं पतंतीति पतंगा, सिनोति सीयते वासिना वाऽसौ दानमानसक्कारादिभिः १२ सेना, यथा तस्याः पतङ्गसेनायाः अग्नि प्रस्कन्दत्या विनाशो भवति एवं भवतामपि 'जे भिक्खुं भत्तकाले चहेह'। ततस्ते तया प्रसचिः हरिकेशीये | ऽनुशास्ताः किं कुर्म इदानी १, सा चेव तानुवाच-'सीसेण एयं०॥३८६-३६८॥ वृत्तं श्रिता तस्मिन् प्राणा इति शिरः, अतो तेण ॥२०९॥४ सीसेण, एतदिति एतं साधु, सरणं उबेह-उवागच्छह, सम्यगागता समागताः, सव्वजणण तुम्मे जइ इच्छह जीविय वा धणं वा, | एसो हुकुविओ वसुई डहिज्जा, उक्तं च-"न तरं यदस्वेषु, यच्चाग्नौ यच्च मारुते । विषे च रुधिरप्राप्ते, साधी च कृतनिश्चये || 5॥१॥" वसूनि निधत्ते इति वसुधा । ततस्ते-'अवहेडिय० ॥३८७-३६८॥ वृत्त, स्पृशति तां स्पृश्यते वाऽसाविति पृष्ठिः, उत्तम | अंग उत्तमंग, अवतोडितानि पृष्ठिं प्रति उत्तमंगानि येषां ते एते 'अवहेडियपिढिसउत्तमंगा', पसारिया बाहु निकम्मचिट्ठ WIणिन्भेरियच्छे, णिन्भरित-निर्गतमित्यर्थः, अश्नोतीत्यक्षिरुच्यते, वमते रुधिरं, उड्डूमुहे निग्गतजीहणित्ते, खन्यते तत् खनंति वा ॐा तत् मुखं, जायते जयति जिनति वा जिह्वा, नयतीति नेत्रं, 'ते पासिया ॥३८८-३६८॥ वृत्त, खंडयन्तीति खण्डिका, कश्यतीति काष्ठ, विमणो विसन्नो अह माहणो सो, इप्तिं पसादेति सभारियाओं' भरणी भार्या, (या) 'हीलं च निन्दं च खमाह भंते । बालेहिं मूढेहिं ॥३८९-३६८॥ वृत्तं, अव्यक्तवयसो बाला वेदश्रुतिविमूढधीः, अत एव अजाणगा, हीलिया तस्स ॥२०॥ खमाह भते!' भयस्य भवस्य वा अन्तं गतः भवंत: 'महप्पसादा इसिणो भवंति' महप्पसादो जेसि ते महप्पसादा २ नाम | समाहिमि(प)त्ता, 'ण हु मुणी कोवपरा' मन्यते मनुते वा मुनिः, ततः स भगवान् तदातृशंकया मुनिराह- पुचि च पच्छा व 9-10-MECESCRCHECERKER AGARIKAA-%AA%ERAL दीप अनुक्रम [३६०४०५]] [214] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक [१] गाथा ||३५९ ४०४|| श्रीउत्तरा (इम्हि च) अणागयं च ॥३९०-३६९।। वृत्तं, पुदिव णाम पूर्वकाले, विहेडनपूर्वकालात्, परतः पञ्चाद्विहेडनकालान्, 'समो-H मुनिकृत चूणी ज्जाति' बिहेडनकाल एव, मनः प्रदुष्यत इति मणप्पओसो न मे अत्थि कोई, जक्खा मु(ह)वेयावडियं कति,यान्ति क्षयमिति उपदश हरिकेशीये मायक्षः, विदारयति वेदारयति वा कर्म वेदावडियं, 'तम्हा' तस्मात् एते निहताः कुमाराः। तत उपाध्यायप्रमुखा बामणा ऊचुः-- |'अत्थं च धम्मं च बियाणमाणा॥३९१-३६९।। वृत्तं, इयति रक्षति वा अर्थ:, शुभाशुभकर्मविवाग रागद्वेषविपाकं वा धारय-12 ॥२१॥ तीति धर्मः, सुतधर्म चरितधम्म च, अहवा दसविहं समणधम्म, विशब्द नानाभावे, अनेकप्रकारं जाणमाणा, नित्य आत्मनि ५ गुरुपु च बहुवचनं । 'तुम्भे नवि कुप्पह भूइपण्णा' भृति मंगलं वृद्धिः रक्षा, प्रागर(गेव) ज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, तत्र मङ्गले सर्वे-1 मंगलोत्तमाऽस्य प्रज्ञा, अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायां तु रक्षाभूताऽस्य प्रज्ञा सर्वलोकस्प सर्वसचानां वा, पच्छद्धं कण्ठ्यं । 'अच्चेमु ते महाभाग०॥३९२-३६९।। वृत्तं, अर्चनीयं अचिमो, भुंजाहि सालिम शालितीति शालिः शालिभ्यो जाता शालिमः, नाना-4 प्रकारैर्व्यजनैः संयुतः नानाव्यंजनसंयुतं । 'इमं च मे अस्थि पभूयमन्त्र॥३९३-३६९॥ वृत्तं, कण्ठ्यं, प्रतिलाभिते तस्मिन् पंच दिग्वाणि पाउन्भूयाणि, 'तहियं गंधोदयपुप्फवासं०॥३९४-३६९|| वृत्चं, गन्धोदकवर्ष पुष्पवरिसं, वसूनि मास रत्नानि वसूनां धारा, पुप्फसबला पपात, पहताओ देवदुंदुहिओ, आगासे सुरेहिं अहोदाणं घुटुं । अथ ते ब्रामणा ऊचुः-'सक्खं खुदीसह ॥३९५-३७०।। वृत्तं, साक्षात् दृश्यते तपःप्रसादः, अध तान् मुनिराइ-'किं माहणा! जोइ समारभंता' ॥३९६-७३२॥ वृत्तं, किंसदो ॥२१ खेचे पुच्छाए य वट्टति, खेबो निंदा, एत्थ निदाए, किं माइणा जोइसमारभंता, द्युतते घोतिः, सर्वभावेन आरभंता समारभंता, अग्निरित्यर्थः, अग्निसमारंभ करेंता, 'उदएण सोहिं बहियावि मग्गहा' उदकं पानीयं, शुद्धत इति शोधिः, अतः तेन 4-4-1-% दीप अनुक्रम [३६०४०५]] 94% % [215] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [?] गाथा ||३५९ ४०४|| दीप अनुक्रम [३६०४०५ ] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१२], मूलं [...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५ ||, निर्युक्ति: [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० उदकेन या शोधिः सा बाह्या, उक्तं च-दुविधा सोधी- दन्नसोधी भावसोधी य, दव्बसोधी मलिनं वस्त्रादि पानीयेन शुद्धयतो, ब्राह्मण चूर्णौ भावसोधी तवसंजमादीहिं अडविहकम्ममललिनो जीवो सोधिज्जति, अदव्वसोधी भावसोधी, बाहिरियं जं तं जले बाहिर- ४ प्रश्ना सोधी मग्गह, 'ण तं सुदिहं कुसला वयंति' न तं सुदिट्ठे कुसला वयंति, सुट्टु दि सुदिडं कुसला वयंति, कुसा दुविहा दव्ब तुमुन्युत्तरं च हरिकेशीये * कुसा भावकुसा य, दव्वकुसा दब्भा, भावकुसा अट्टप्पगार कम्मं, वे भावकुसे लूनंतीति कुसला, इतस्ते कुशला वदति, इतव १२ ॥२११॥ 'कसं च जूर्व च० ' ।। ३९७-३७२॥ वृत्तं, कुसा-दब्मा, युवंति तेनात्मानः समुच्छ्रितेन यूपा, तृणेढि तृण्वंति वा तमिति तृणं, कत्थतीति काष्ठं, सोयं नाम पात्री, प्रातः पूर्वाह्नी अग्नि जुहूवंत इत्यर्थः, 'पाणाई भूयाई विहेडयंता' प्राणनं प्राणाः, जम्हा तिसु कालेसु भवन्ति अतो भूतानि, बहेडनं विनाशनं भुज्जोऽवि पुनः पुनः मन्दा मन्दबुद्धयः पकरिसेण करेइ, पातयंतीति वा पापं, कम्र्मेत्यर्थः, अथेत्यानन्तर्ये । ब्राह्मणा पप्रच्छुः कचरे भिक्खु ० ' ।। ३९८-३७२ ॥ वृत्तं कथमिति केन प्रकारेण भिक्षा इत्यामन्त्रणं, 'वयं जयामो' वयमिति आत्मनिर्देशः, वयं जिन (त) वन्तः, सेसं कण्ठ्यं, मुनिराह 'छज्जीवकाए असमारभंता० ॥३९९-३७२ ॥ वृत्तं, इंदियणोईदिएहिं । 'सुसंबुडो पंचहिं संवरेहिं० ॥४००-२७२ ॥ वृत्तं सुद्ध संबुडे पंचहि संवरेहिं अहिंसादीहिं'इहे 'ति इह मानुष्यलोके जीवितं असंजमजीवितं 'अणवकखमाणो' 'बोसडकाए' विविधमुत्सृष्टो विशिष्टो विशेषेण वा उत्सृष्टः कायःशरीरं, शुचिः अनाश्रवः, अखण्डचरित्र इत्यर्थः त्यक्तदेह इव त्यक्तदेहो २ नाम निष्प्रतिकर्म्मशरीर: 'महाजयं' जयतीति जयः, प्रधानो जयः महाजयः, जयंते यज॑ति वा तमिति यज्ञः स यज्ञानां श्रेष्ठ, आह- 'के ते जोई के व ते जोइठाणा ० १ ||४०१-३७४॥ वृत्तं, संतप्यतेऽनेनेति तापयति वा तपः, जीवो जोतिद्वाणं, ज्योतत इति ज्योतिं ज्योति स्थानं २, ज्योतिते ज्योतिं, [उत्तररूपमेतद् व्या [216] ॥२११॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] चूर्णी %AE% गाथा ||३५९४०४|| ॥२१॥ श्रीउत्तरा०12 ख्यानमिति न चार्वेतल्लिखन,अत्र तु ज्योतिस्तत्स्थानमुक्कारीपाडैधःशान्तिहोमप्रश्नपरं सूत्र] मुनिराह-'तवो जोई' ॥४०२-३७४॥ ब्राझण र वृत्तं, संतप्यतेऽनेनेति तापयति वा तपः, जीवो जोईडाणं, ज्योतत इति ज्योतिः, ज्योतेः स्थानं ज्योतिस्थानं, आग्निहोत्रमित्यर्थः, द्र प्रश्नो मनोवाक्काययोगा श्रुक, शरीरं कारिपांग, क्रियते इति कर्म, कर्मेधाः कर्म द्रष्टव्यं, संयमयोगाथ, शान्तिः सर्वजीवानां आत्म-IN मुन्युचरंच हरिकेशीये नश्च,एतद् होम जुहोम्यहं 'इसिणं पसत्वं' ऋषति धर्ममिति ऋषिः, एतदृषीणां, प्रशस्यते येनासौ प्रशस्तः, तीर्थमित्यर्थः, अव्या-13 | बाधस्तु मखप्रयोजनं गुणेषु च । भूय आहु:-के ते हरए॥४०३-३७४।। वुन, हरतो नाम इट्ठो, 'संतितित्थेति शमन शान्तिः | शान्तिरेव तीर्थः, अथवा सन्तीति विद्यन्ते, कतराणि संति तित्थाणि?, सेस कण्ठयम्। मुनिराह-'धम्मे हरए॥४०४-३७४॥ वुत्तं, अहिंसादिलक्षणो धर्मः, स एव भ्रवः (हर), बृंहति बहते बंहिते तेन धर्म इति ब्रह्म, तच्च प्रमाष्टादशप्रकारं, शमनं शान्तिः, तित्थं दुविहं- दब्वतित्थं भावतित्थं च, प्रमासादीनि द्रव्यतीर्थानि, जीवानामुपरोधकारीनीतिकृत्वा न शान्तितीर्थानि भवति, | यस्तु आत्मनः परेषां च शान्तये तद्भावतीर्थ भवति ब्रह्म एव शान्तितीर्थ, अणाइचे अकलुपं-मिथ्यात्वकषायकलुपरहितं - | आत्मनः, प्रशान्तोपशान्तलेसो, पीतशुक्लाया लेश्या, आत्मनः ग्रहणं न शरीरस्य तीर्थः, शरीरलेश्यासु हि अशुद्धास्वपि आत्म| लेश्या शुद्धा भवंति, शुद्धा अपि शरीरलेश्या भजनीया, अथवा अत्त-इति या इष्टाः, ताश्च पीताद्याः, ताश्च शुद्धाः, अनिष्टास्तु अणत्ताओ, उक्तं हि-'अत्ता इट्ठा कंता पिया मणुण्णा',अत्ता एव प्रसन्ना, अत्ताश्च प्रसन्नाथ अत्तपसनलेसे,जहिंसि पहातो विग-12 तोऽस्य मल इति विमला, विगतं पापमस्येति विगतपापः, सुसीइभूतो भन्नति-भृशः जहामि दोसमिति पापं । एतं 'सिणाणं । ॥२१२॥ कुसलेण(हिं) विढ०॥४०५-३७४।। वुत्तं, एतदिति यदुक्तं सिणाणं, महासिणाणं णाम सब्वकम्मक्खओ, तं महासिणाणं इसिणं दीप अनुक्रम [३६०४०५]] [217] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३२८...३२७/३१८-३२७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] चित्रसंभूतपूर्ववृत्त गाथा ||३५९४०४|| ॥२१३॥ पसस्थं, जहिं सि पहाता अहिंसादिलक्षणे धम्मे हरते विगतमला विमला, विगतमलत्वाच्च विशुद्धा, महारिसी उत्तम ठाण- सिद्धि चूणौँ | पचा इति बेमि । नयाः पूर्ववत् ॥ इति हरिकेशीयं बारसम अझयणं समत्तं १२॥ चित्र- इदाणि चित्तसंभूइज्जं, तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा उवक्कमादि, तत्थ णामनिप्फन्ने णिक्खेवे चित्तसंभूइज्जति, तत्थ | संभृतीय गाहा-'चित्ते संभूमि अ॥३२८-३७६।। गाथा, चित्तसंभूताणं णामादि चउब्बिहो णिक्खेवो, णामठवणाओ गयाओ, दव | चित्तसंभूता जाणगभवियादि तिविधा, भावचित्तसंभूता 'चित्तेसंभूआउं वेअंतो० ॥३३०-३७६॥ गाथा कण्ठया, एतेसि उप्पचीइहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कोसलाजणवते साएते णगरे चंडवर्डसओ णाम राया, तस्स धारिणीए देवीए मुणिचंदो णाम कुमारो, अण्णया चंडवडिंसओ नाम राया मुणिचंदकुमारं रज्जे अभिसिंचिऊण णिखतो, विधुयकम्ममलो य परिणिव्वुतो । अण्णया सागरचंदणामा आयरिया बहुसिस्सपरिवारा साएते गगरे समोसरिता, परिसा णिग्गया, राया विणिग्गतो, धम्मकथा य, | मुणिचंदो राया रज्जे पुत्तं अभिसिंचिऊण पध्वतिओ, तओ सागरचंदायरिया अन्नया अद्धाणं पवण्णा, मुनिचंदो य भत्तपाणनिमित्तं | एगागी पचतं गाममणुपविट्ठो, पट्टिता साधुणो, गहियभत्तपाणो य अडविपहेण पट्टितो, पम्हढदिसाभागो य रुक्खलतागुच्छगुम्मगहणं अणेगसलसीहपवरं णिण्णुण्णतचलणिपंकबहुलं सावतसउणरुद्दसद्दसागुणाति महंती विझाडवीमणुपविट्ठो, तत्तो गिरिदरीसु हिंडमाणो उत्तणेसु पादवच्छादितेसु वणेसु सुमहल्लअच्छभन्नकुरंगारिगि(जु)तेसु गिरिणियंवेसु हिंडमाणो तदिदे दिवसे || ठा उत्तिणो अडविं, तिसापरिगतसरीरो य सोक्खोदकंठतालुगो एगाए रुक्खच्छायाए मुच्छावसणडचेट्ठो संगि (विहितो, तिण्ड(१)च13 णाइदूरे गोउलं, ततो चत्तारि गोवालदारगा गोरसभावितेसु उदगं घेत्तूण गोरक्खणणिमित्तं णिग्गता सोताणि(आगता),तेहिं साधू पवड 55%E0%A4-% दीप अनुक्रम [३६०४०५]] अध्ययनं -१२- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१३- "चित्रसंभूतिय" आरभ्यते [218] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||४०५ ४४०|| श्रीउत्तरानमाणो दिवो, ततो अणुकंपापरेहिं तुरितं गंतूण परिसित्तो सो साधू तेण सितियपाणएण, विइतो वत्थप्पंतेण, समासत्यो य प- चित्रसंभूति ..चूणा ज्जितो, उचिति पाडिय णीतो गोउलं,पडि[द्वियरितो य तेहिं पराए भत्तीए,तेणवि जिणदेसियं धम्म गाहिता, तत्थ नाहा-तण्हा- समागमः १३ चित्रसंभूतीयं | छुहाकिलंतं०॥ ३३२ ।। गाहा, उक्तार्था, 'तचो दुन्नि दुगुंछ काउं० ॥३३३-३३६॥ गाथा,तेसिं गोवाणं दो गोवा साधुदुगुंछाए | पीतागोयं कर्म णिवति, साधुअणुकंपाए सावगत्तणेण य तेवि चत्वारिवि मरिऊणं देवलोग गवा । सतो जे ते अदुगुंछिणो ते 15 ॥२१॥ | कतिवि भवंतरियातो सुसुमारपुरे माहणदारगा जावा, दुगुंछिणो पुण दसन्नाजणवते एगस्स माहणस्स दासा जाता, एवं सव्वा भदत्ती हिंडी भाणितम्या । गतो णामणिप्फण्णो, सुचाणुगमे सुचमुच्चारेयचं, तं च इमं सुतं-'जाईपराजिओ जाखलु०॥४०६-३७६।। सिलोगो, जाई चंडालजाती पुर्व आसीत्, अथवा संसारजातयः गोपालदासाचा, तेहि दुक्खेहि पराइतो | कासि नियाणं तु हथिणपुरम णगरंमि गतो, देवलोगं गतो, ततो चुतो कंपिल्लपुरे णगरे बंभस्स रगणो भारियाए चुलणीए भदचो आयातो पउमगुम्मातो विमाणातो, 'कंपिल्ले संभूओ०॥४०७-३८३।। सिलोगो, चिचो पुण पुरिमताले णगरे इम्भकुले पुत्तत्ताए पञ्चायातो, तहारूवाणं घेराणं अंतियं धम्म सोऊण पचतितो, विहरतो कपिलपुरमागतो। तत्थ-'कंपिल्लंमि अ नयरे ला॥४०८-३८३॥ सिलोगो कण्ख्यः। 'चक्कवट्टी०॥४०६-३८४॥ सिलोगो, महायसोत्ति, अस्सुते सर्वलोकमिति यशः, मायर बहुमाणेण,द बहुमानग्गहणे मानेन, न कृतकेन उपचारमात्रेण, काले(न) स्वार्थ इति श्रेष्ठः, इदं वचनमब्रवीत-'आसिमो भायरा दोऽवि. ॥४१०-३८४॥ सिलोगो कण्ठ्या, 'दासा दसन्नये आसी ॥४११-३८४ासिलोगो कण्ठ्या,दसण्णाजणवते दासा आसि,मृग्यते इति ॥२१४॥ हामृगः, मिगा कालिजिरे णगे, न गच्छतीति नगा, पर्वत इत्यर्थः, 'हंसा मयंगतीराए' हसन्तीति हंसाः, गां गच्छतीति गंगा, दि| दीप अनुक्रम [४०६४४१] SECRECORA AA-%ERE [21] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||४०५ ४४०|| श्रीउत्तरामतगंगा-हेवाभूमीए गंगा, अण्णमण्णेहिं मग्गेहिं जेण पुन्वं चोदूर्ण पच्छा ण वहति सा मतगंगा भण्णति, तस्यास्तीरं मतगंगातीरं, पूर्वभवाः चूर्णी तरंति तेणेति तीरं 'सोवागा कासिभूमिए' वयति स्वसिति बाचा पुनः पचंतीति श्वपाका, काशीजनपदभवंति, 'देवा य देवचित्रलोगंमि०॥४१२.३८४॥ सिलोगो कण्ठयः, ततः अहमसौ त्वया विना राजकुले जातः, राज्यं प्राप्य जातिमनुस्मृत्याचिति-यन्मया पदेशः संभृतीय | तावत् पूर्व-'सच्चसोअप्पगडा०४१४-३८५।।सिलोगो, सद्भयो हितं सत्यं, शुद्यतेऽनेनेति सोय,अथवा अमायमासोऽयं शुद्धोवा ॥२१५।। बताभ्युपगमः, अथवा सत्यमिति संयमः, शौचमिति तपा, कम्मा पगडा ते इति पूर्वोक्ता मासोपवासादयः तेषां फलं देवलोके। अनुभूय इहापि ते अद्यापि झुंजामि, किं नु चित्तेवि से तहा' किमिति परिप्रने, नु वितर्के, किं नु चित्रस्यापि एवंविधा ऋद्धिकार्यथा । स मुनिराहननु राजा 'सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं ॥४१५-३८५।। वृत्त, संस िधावति वा सर्व, शोभनं चीर्ण सुचीर्ण, | सह फलेन सफलं, 'कडाण कम्माण' पपुवा णिधचणिकाइयाणं ण मोक्खो अस्थि, यत:-'अत्थेहि कामेहि अ उत्तमेहिं उत्तमा:| सर्वप्रधानाः, 'आया ममं पुण्णफलोववेओ । जाणाहि संभूय० ॥४१६-३८५।। वृत्तं, यथा त्वमात्मानं एवं मन्ये हे सम्भूत ! 'माहिडियं पुषणफलोववेयं चित्तंपि जाणाहि तहेव रायं । तावदयं पुरा भ्राता आसीत्, तत्कथं आत्मोपमया देवान | जानीये 'इड्ढी जुत्ती तस्सवि अप्पभूआ' स्याद्बुद्धिः- कथमहं श्रेष्ठिश्रियं विहाय प्रबजितः १, उच्यते-पुरिमतालसमोसरिताणं थेराणं 'महत्थरूवा वयणं.' ॥४१७-३८५।। वृत्तं, महंत्यर्थपदरूपाणि महत्थरूवा, उक्तिर्वचनं, प्रभूतग्रहणं विकल्पशः एकैकमर्थ ॥२१५॥ कथयन्ति, स्याद्वादो न दृश्यते तेन रूपग्रहणं न कर्चव्यं, तत उच्यते-ते दि भगवन्तः पूर्वापरदोषविशुद्धाणि रूपाणि(निरूपणानि) वचनानि दर्शयन्ति, उक्तं हि-"नानामार्गप्रग०" महन्ती रूपाण्यङ्गानि गच्छन् शक्तन्तु, गाथा तत्र गुणति वा व्यावृत्तः खेदंर NEXHIBI-RIA दीप अनुक्रम [४०६४४१] [220] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||४०५ ४४०|| दीप अनुक्रम [४०६ ४४१] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१३], मूलं [१... ] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१]], निर्युक्ति: [३२८...३५९/३३०-३५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा ० ४ नैति शान्ति तां गीयते वाऽसौ गाथा, अनु पथाद्भावे स्तोके वा, पूर्वजिनैस्तच्छिष्यैथ गीतान्यनुगायति गाहाणुगीता, नृत्यत इति चूण १३ चित्र संभूतीयं ॥२१६॥ नरः समूहः संघातः, समूहग्रहणं न एकशः कथयति विगृह्य, नरसंघ मज्झस्था स्वगुणवाचा अवदातवाचं कथयति, यतश्च यथैव कथयन्ति तथैव चरन्तीत्यतः 'जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया' यस्माच्छीलमेव गुणः 'इहे'ति इह प्रवचने, इह आर्यववे, तेन तत्सकाशे श्रमणोऽहं जातः, क्वचित्तु पठन्ति 'इहज्ज्जवं ते समणोऽम्हि जाओ' यस्माद्भिक्षवः शीलगुणोववैया आर्यत्वावस्थिता इत्यतोऽहं तान् दृष्ट्वा पृष्ट्वा च तत्सकाशाद्धर्मं श्रुत्वा सुमनो जातः, प्रसन्नमना इत्यर्थः, राजोवाच - साधु भगवन् ! यत् प्रवजितः, किन्तु मया दीयमानान् भोगान् भुङ्क्ष्व इमेसु पंचसु पासादयसु लल तावत् । तंजहा- 'उच्चोद९० ।।४१८३८६ ॥ वृत्तं, अथवा ममैते पंच प्रासादा तेषु तावद्विद्यन्ते, तंजहा उच्चोदए महू कक्के मध्ये ब्रह्मा 'प्रवेदिता आवसधा य रम्मा' देवेवर्द्धकपुरःसरैः प्रवेदिता इत्यर्थः, आवसंति तेष्वित्यावसहा ते च नान्यभवनप्रकाराः सब्बे ते, कामकमा नाम यत्र मम रोचते | तत्र भवन्ति, अथ स्थितं तु 'इमं गिहं चित्त गिहोववेद' इममिति यन्नगरस्य मध्ये, गृह्णातीति गृहं धनं हिरण्यादि वित्तं तदेव सर्वलोकोपभोज्यं नवभ्यो महानिधिम्यो आनीतं, पंचालानाम जनपदः तद्गुणान् विषयान् पञ्चलक्षणान् तैरुपपेतं तस्मिन् गृहे, बत्तीसतिबद्धेहिं नाडगसहस्सेहिं 'णट्टेहि गीतेहि य० ॥ ४१९ - ३८६ ॥ वृत्तं णारीहि य आभरणविभूसियाहिं परिवारतो, सेसे कण्ठ्यं, 'तं पुत्रवनेहेण कयाणुरागं० ॥४२०- ३८७॥ वृत्तं, कण्ठथं, चित्र उवाच- 'सव्वं विलवितं गीतं० ॥४२१-३८७ ॥ वृचं, गीयं | रुण्णजा [णि ]तियं विलापपायमितिकृत्वा सवं विलवितं गीतं, अथवा तथा कामि इत्थिया पवसितपतिया पतिणो (गुणे) सुमरमाणी तस्स समागमकखिया समरंती य भत्तुणो गुणे वित्थरओ पदोसपच्चुसेसु दुहिया बिलवति, भिच्चे वा पशुस्त कुवियस्स पसाद [221] भोगप्रार्थना ॥ २१६ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ||४०५ -CLASIRL ४४०|| श्रीउत्तराणाणिमित्रं जाणि वयणाणि भासति, पणओ दासभाचे अप्पाणं ठवेऊण, सोवि विलावतो, ते चैव इत्थी पुरिसो वा अण्णोण्णसमा-1 गीतादीनां | गमभिलासी कुविदपसादणणिमित्तं वा जाओ कायमणोवातियाओ किरियाओ पउंजति ताओवि विजातिणिवि(ब)द्वाओ १३ चित्र- गीतंति चुच्चति, तं पुण चिंतह किं बिलावपक्खे न वति', अथवा यथा कारणा कारिज्जमाणो रोगाभिभूता या इष्टवियोगात्तों वा| पत्वादि संभूतीया विलपति, तद्वदेवासो छउमेण कारणा कारेज्जमाणो रागवेदणाभिभूतो विषयप्रयोगे वा गायन् विलपत्येव, अथवा कारणे कार्यवदुष-12 चारात् कृत्वा सर्व विलवितं गीतं, यदेतद्गीयते अस्य हि ध्रुवो नरकादिषु विलापः, इदाणिं 'सव्वं गई विडंबणा' इति, इत्थी पुरिसो वा जो जक्खाइट्ठो परावरुद्धो वा मज्जपीतो वा जाओ कायविक्खेवजातीओ देसेति जाणि वा वयणाणि भासति विडंबणा, जइ एवं तो जोऽवि इत्थी पुरिसो वा पहुणो परिओसणिमित्तं णिजितो धणपतिणो वा विदुमजणणिबद्ध विविधमणुसासितो पाणि-12 द्र पादसिरणयणाधराति संचालेति सावि विडवणा, परमत्थेण आभरणा भारत्ति गद्देयब्बाणि, जो सामिणो णियोगेण मउडादीणि आभरणगाणि मला(स्थय गताणि बहेज्जा, सो अवस्स पोलिज्जति भारेण, जो पुण परविम्हायणणिमित्तं ताणि चेव जोग्गेसु सरीरहत्थेसु संनिवेसिताणि सो रागेऽपि भार बहेज्ज, णो से परिस्समो, भावमाणो कज्जगरुयताए ण मंणेज्जा व भार, तस्सवि भारो परमत्थतो, 'सब्वे कामा दुहावह'ति कामा दुविहा-सहा रूवे य, तत्थ समुच्छितो मिगो सहसुहमि पुण्णमणो मूढताए बधबंधणविणिवातो-वधवन्धमरणाणि पायेति, तहेव इत्थी पुरिसो वा सहाणवाती सदे साधारणा मम युद्धी, तस्स हेउं सारक्षणपरी परस्स कलुसहियतो पदुस्सति, ततो रागवसपथपडितो रयमादियति, तबिमिर्च पा संसारे दुक्खभायणं भवति, तहा रचो रूव ॥२१७॥ मुच्छितो साधारणे विसए मम बुद्धी रूवरक्खणपरो परस्स पदस्सति. संकिलिट्ठो सुचिन्तो य पावकम्ममज्जिणते, तप्पम भत्र ॥२१॥ A दीप अनुक्रम [४०६४४१] BRIERS [222] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४०५ ४४०|| दीप अनुक्रम [४०६ ४४१] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१३], मूलं [१... ] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१]], निर्युक्ति: [३२८...३५९/३३०-३५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूण १३ चित्रसंभूतीयं ॥२१८॥ संसरमाणो दुक्खभाषणं भवति, एगग्गहणे तज्जातीयग्गहणं, एवं भोगेसुचि गंधरसफासेस सज्जमाणो परंमि य पदुस्संतो मूढताए कम्ममादियति, ततो जाइजरामरणबहुलं संसारं परियकृति, तेण दुहावहा कामभोगा परिच्चयितव्या सेयस्थिणा ॥ 'नरिंद | जाती० ||४२३-३८८॥ वृत्तं, नरिंद इति तस्सेवामंतणं हे नरिंद !, जाती अधमा णाम सव्वजहण्णा, शुनः पचतीति श्वपाकाः, 'दुहतो 'ति दोऽवि जणा गता आसीत्, पच्छद्धं कण्ठयं, 'सोवागनिवेसणाणि'त्ति सोवागघराणि । 'तीसे अईह उ पाविया९० ॥४२४-३८८॥ वृत्तं कण्ठ्यम् । 'सो दाणि सिं राय ! महाणुभागो० ॥ ४२५॥ वृत्तं, 'सो दाणि 'त्ति स भगवान् पुरा सम्भूतः अणगारो आसीत् 'दाणिं सि राय । महाणुभागो' कण्ठयानि वाक्यानि तत्पुनरपि एताई जहित्तु भोगाई असासयाई, आदाणमेचं अणुचितयाहि, अथवा आदाणहेउं अभिणिक्खमाहि, आदाणं णाम चारितं, तद्धेतुं अभिणिक्खमाहि । 'इह जीविए राय० ॥ ४२६-३८९॥ वृतं पुत्रद्धं कण्ठ्यं, 'से सोअई मच्तुमुहोबणीए' मरणं मृत्युः खन्यते वा तत् खनंति वा तमिति, मृत्योर्मुखमुपनीतः, सेसं कण्ठ्य 'जहेह सीहो० ॥ ४२७-३८९ ॥ वृत्तं येन प्रकारेण यथा, 'इहे' ति इह मनुष्यलोके, म्रियते इति मृगः, हि(म्रियमाणो न सिंहाय अलं तद्वद्वयमपि न मृत्यवे अलं, येऽपि वा मात्राद्या ज्ञातयः तेऽपि भतस्स कालमि तं सहरा भवति, अंशो नाम दुःखभागः तमस्य न हरन्ति, अहवा स्वजीवितांशेन ण तं मतं धारयति । 'न तस्स दुक्खं ० ' ॥४२८-३८९ ।। वृत्तं कण्ठ्यं स तान् बन्धून् विक्रोशतो हित्वा 'चिच्चा दुपयं च च उप्पयं च० ' ॥ ४२९ ॥ वृत्तं कण्ठ्यं, 'तं इक्कगं तुच्छसररिगं०' ।।४३०-३९०॥ वृत्तं, तुच्छं णाम शून्यमित्यर्थः केन तुच्छं १, जीवेन, रहितमित्यर्थः चीयत इति चितिका, 'भज्जा य पुत्तावि य नायओ य' कण्ठ्यं, 'दायारमन्नं अणुसंकमंति' ददातीति दाता, य एषां तद्विद्दीनानां वृत्ति ददाति, सोगो वा [223] रा उपदेशः ॥૨૨॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत [१] श्रीउत्तरान चूणौं १३ चित्रसंभूतीयं गाथा ॥४०५ ॥२१॥ ४४०|| अवणिज्जइ 'उपणिज्जह जीवियमप्पमायं ॥ ४३१-३९० ॥वृत्तं, तस्मै उपनीयते मृत्यवे परलोकभयेनेत्येवोववणं, जरावणो-| अवदातादि, सर्वार्थिकोऽन्यथा भवति, पंचालराया ! वयणं सुणाहि, मा कासि कम्माइं (णि) महालयाई (णि) अनन्ता उपदेशः नीत्यर्थः, दुम्माँचकत्वाच्च चिरस्थितीयानि । 'अहंपि जाणामि जहेह साह०४३२-३०९॥ वृत्तं, कण्ठयं, जो एत्थ सारो भोगेसु य सारो कदलीगर्भजलबुबुदसभिभैः। किन्तु 'भोगा इमे संगकरा भवंति' संगं कुर्वन्तीति संगकराः,जे पुव्वं ता अम्हारिसेहिं अज्जो असिद्धिधा (या) नाम अविनीततृष्णा, आर्य इति साधोरामन्त्रणं, स्यात् कथं दुस्त्यजान्', पूर्वनिदानदोषात्, टू 'हत्यिणपुरंमि चित्ता॥४३३-३९१॥ श्लोकद्वयं कण्ठ्यं, कामभोगे सत्तत्वात् इच्छन्नपि न शक्नोति कामपंकादुत्तर्तु, दृष्टान्त:'नागो जहा पंकजलावसनो० ॥४३५-३९१।। वृत्तं, नास्य किंचिदगर्म नागः, स्थालायालं स्थली, सेसं कण्ठचं, साधुराह-यदि का भोगान् न शक्नोति त्यक्तुं भिक्षुमार्गमनुयातु, तेऽपि च भोगा बडन्तराया, तत्र मूलान्तराय एव मृत्युकालः, स चार्य-'अच्चेइकालो॥४३६-३९१॥ वृत्तं, अति एति अत्येति-त्वरितं यान्ति, रात्रयो 'न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा' भूत्वा न भवन्ति रोगादिविघातेश्च, 'उविच्च भोगा पुरिसं जहंति' उपेत्य भुजंत इति भोगा, पुरुष उक्कार्थः, जहंति-त्यजन्ति भाग्यहीनं, दिलुतो-दुर्म जहा खीणफलं च पक्खी। 'जईऽसि भोगे चइउं असत्तो॥४३७-३९२।। वृत्तं, अज्जाई णाम आयरियाणि,धम्मे हितो अणगारधम्मे 'सव्वपयाणुकंपीति छज्जीवणिकायाणुकंपगो, ता होहिसि देवो 'इतो' इति अस्माद् मनुष्यभवादनन्तरं 'विउ- ||२१९॥ व्वी' चैक्रियशरीर इत्यर्थः, 'ण तुज्झ भोगे०१४३८-३९३॥ सिलोगो, (वृत्तं) पुन्वद्धं कण्ठचं, मया तु मोहं कओ, मोहोणामानर्थक एव, वीचारप्रलापो विलापो विप्रलापो । 'गच्छामि रायं! आमंतिओसि' तमामन्त्र्य यथासुखं प्रविजहार इति । CAR A5% दीप अनुक्रम [४०६४४१] 45 [224] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक ** गाथा १४ इषुकारीये ॥४०५ ४४०|| श्रीउत्तरा०पंचालरायाऽषिय यंभवतो ॥४३९-३९।। वृत्तं, अणुत्तरे सो नरए पविडो,अप्पतिद्वारखे इत्यर्थः। 'चित्तोऽधि कामेहिं विरत्त- पुकारचूर्णी । निक्षेप कामो॥४४०-३५४ा वृत्तं, उद नाम प्रधान, तस्य चारित्रं तपो यः स उदसचारित्ततपः, महांत एसतीति महेसी, वा अणुत्तरं संजमं पालयित्वा, वीतरागसंजममित्यर्थः, अणुत्तरं सिद्धिगई गओत्ति चेमि । नयाः पूर्ववत् ॥ चित्तसंभूइज्जं तेरसम अ जायणं समत्तं ॥ ॥२२०॥ सम्बन्धो-णिदाणदोसो तेरसमे, चोइसमे पुण अणियाणगुणा, एतेणाभिसंबंधेणायातस्स चोदसमज्झयणस्स चत्तारि अणुओ * गद्दारा उवक्कमादी, ते परूबेऊण णामणिफण्णे णिक्खेवे उसुयारिज्जंति, तत्थ गाहा-'उसुआरे निक्खेवो० ॥३५९-३९६॥ | गाथा, उसुयारो चउबिहोणामादि, णामउसुयारो जहा उसुयारपज्जातो, जस्स वा उसुयारेत्ति नाम, ठवणा अक्खणिक्खेवो, दब्बतो उसुयारो दुविधो-आगमओ णोआगमओ य, आगमओ जाणए अणुवउचो, णोआगमतो 'जाणग०॥३६०-३९६॥ गाथा, जाणगसरीरभषियसरीरबतिरित्तो तिविधो-एगभवियादि, भावओ उसुआरे इमा गाथा-'उसुआरनाम गोए(तं)॥३६१-३९६॥ गाथा, कण्ठया, उसुयारस्स इमा उप्पत्ती-जे ते दोनि गोवदारया साहुअणुकंपयाए लद्धसंमचा कालं काऊण देवलोगे चउपलिओवमद्विइआ देवा उववना, ते तओ देवलोगाओ चइउं खिइपइडियनयरे उववन्ना, दोऽवि भायरो जाया, तत्थ तेसिं अनेविट चचारि इन्भदारगा वयंसया (जाया), तत्थवि भोगे भुजिउं तहारूवाणं थेराणं अंतिते धम्म सोऊण पब्वइया, सुचिरकालं संयम | ॥२२०॥ | अणुपालेऊण भत्तं पञ्चक्खाइउँ कालं काऊण सोहम्मे कप्पे पउमगुम्मे विमाणे छावि जणा चउपलिओवमठितिया देवा उववण्णा, | तत्थ जे ते गोववज्जा चत्तारिवि देवा ते चइऊण कुरुजणवए उसुयारपुरे नयरे एगो उसुयारो णाम राया जातो, चीओ तस्सेव ****** %A8 दीप अनुक्रम [४०६४४१] अध्ययनं -१३- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१४- “इषुकारिय" आरभ्यते [225] Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत 6- सत्राक [१] % A गाथा ॥४४१ 7 ४९३|| % श्रीउत्तरा महादेवी कमलाबई नाम संवुत्ता, ततिओ तस्स चेव राइणो भिगुणाम पुरोहितो संवुत्तो, चउत्थो तस्स चेव पुरोहियस्स भारिया 8 पुत्रयुगल चूर्णी | संवुत्ता वासिट्ठी गोषण जसा नाम । सो य भिगु अणवच्चो गाढं तप्पए अवच्चनिमित्तं, उबयाणए देवयाणि पुन्छ। नेमित्तिए ।। १४ ते दोऽवि पुन्वभवगोवा देवभवे घट्टमाणा ओहिणा जाणिउ जहा अम्हे एयस्स भिगुस्स पुरोहियस्स पुत्ता भविस्सामो, तओ# इषुकारीये समणरूवं काऊण उवनया भिगुसमीयं, भिगुणा सभारिएण बंदिया, सुहासणस्था य धम्म कहेंति, तेहिं दोहिवि सावगवयाणि ॥२२॥ गहियाणि, पुरोहिएण भण्णति-भगय ! अम्हं अवच्चं होज्जति ?, साहहि भण्णति-भविस्संति चो दुबे दारगा, ते य डहरगा चेव पब्बइस्संति, तेसि तुमहिं बाधाओ ण कायचो पब्बयंताण, ते सुबहुं जणं संबोहिस्सतित्ति भणिऊण पडिगया देवा, णातिचिरेण चइऊण य तस्स पुरोहियस्स भारियाए बासिट्टीए दुवे उदरे पच्चायाया, ततो पुरोहितो सभारितो नगराओ विणिग्गतो, पच्चंतगामे ठितो, तत्थेव सा माहिणी पसूया, दारगा जाया, तओ मा पब्वइस्संतित्तिकाउं मायावित्तेण चुग्गाहिज्जति जहा एए। पवइयगा दिवरूवा घेत्तुं मारंति,पच्छा तेसि मंसं खायंति, मा तुम्भे कयाई एएसि अल्लियस्सह । अन्नया ते तमि गामे रमता पाहि || का निग्गया इओ य-अद्धाणपडिवण्णा साह आगच्छन्ति,तयो ते दारगा साह दण भयभीता पलायंता एगमि बडपायचे आरूढा, साहुणो| आसमावनीए गहियभत्तपाणा तमि वडपायवहिहे ठिया, मुहत्तं च वीसमिऊणं अँजिउं पयत्ता, ते वडारूढा पार्सति साभावियं भत्तपाणं,नस्थि।। VIमसंति तओ चिंतिउं पयत्ता-कत्थ अम्हेहिं एयारिसाणि रूवाणि दिपवाणित्ति,जाई संभरिया,संयुद्धा,साहुणो बंदिउँ गया अम्मापिउस- II मामीवं,मायापितरं संबोहिऊण सह मायापितेण पव्यया,देवी संबुद्धा,देवीए राया संघोहिओ,वाणिपि पच्चइयाणि,एवं ताणि छावि केवलणाणं पाविऊण णिव्याणमुरगयाणित्ति ।। णामणिफण्णो णिक्खेवो गतो, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयव्वं, तं च इमं सुच-'देवा भवित्ताणा % दीप अनुक्रम [४४२४९४] ॥२२ - । --- -- [226] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] पुत्रयाँबैं गाथा श्रीउत्तरा चूर्णी १४ इषुकारीये| ॥४४१ ॥२२२॥ ४९३|| | ॥४४१-३९७॥सिलोगो, 'पुरे भवंमीति अणंतरे भवे 'केयीत्ति तेसिं छण्डं जणाणं, पूर्यत इति पुरं, पुराण-चिरंतणं, उसुआर नाम, उसुकारपुरमित्यर्थः, 'खातं' प्रथित समृद्धं बहिरन्तश्च सारेण सुरलोगसरिसं मुइन्न(त)त्तणेण, काणणुज्जाणवाविपुक्खरणीहिं देव-16 | लोगरम्म,'सकम्मसेसेण ॥४४२-३९७।। वृत्तं, 'सकम्मसेसेण'त्ति देवलोगाओ अवसिडएण 'पुराकएणति पुव्वं कतेणं संज-12 मेणं, कुलेसु सुदत्ते-उग्गे पस्या । उदत्ताई जाइं जाईए कुलेण धणेण य, उक् च-"जाई इमाई कुलाई भवन्ति-अढाई दित्ताई०," संसार एव भय संसारभयं तस्स णिबिण्णो, जहाय भोगे मातापित्रादयश्च 'जिणिंदमग्गो' णाम जाणदंसणचारित्नाणि, सरणं, पवना, अज्जु च्नु)ए गता इत्यर्थः, 'पुमत्तमागम्म कुमारवोधी०॥४४३-३९७।। वृत्तं, तत्थ पूर्वभवे पयंसया पुमत्तमागम्मति माणुस्स, देवलोग, देवलोगा पुण माणुस्संति, तमि माणुसे खेत्ते दोवि कुमारा तेसि पिता पुरोहितो, तस्स पत्तीवि जसा णामतो, विच्छिण्णकित्ती-विशालकीर्ति, राया उसुयारो, ता देवी कमलावइति । 'जाईजरामच्चु०॥४४४-३९८॥ वृत्त, जायत इति जातिः, जीर्यत इति जरा, जातीच जरा च जातिजरा, मृत्योभये २, अतस्तथा जातिजरया मृत्युभयेन च अभिभूतो लोको, पहिं विहारो| मोक्खो तस्स हेऊ णाणादीइ तम्मि अभिनिवेसितं, दि, संसारचक्कं छन्विह, तंजहा-जाती जरा सुहं दुक्खं जीवितं मरणं, तस्य । विमोक्षार्थ, विपक्षभूतं रष्ट्वा कामतो ते सुविरत्ता, के ते', उच्यते-'पियपुत्तगा०॥४४५-३९८॥ वृत्तं, पुरस्य हितः तथा 'सुचि-पद पणं'ति, ण णिदाणोवहतं, सेसं कण्ठर्थ । ते कामभागेसु०॥४४६-३९८॥ वृत्त, कामा दुविहा-सदा रूवाय, भोगा तिविधा-गंधा | रसा फासा, 'ते' इति ते दारया असज्जमाणा, मणुस्सता ताव खलासवादी, दिच्चावि विधुला चयणधम्मा य, कथं ण सज्जति 2,18 | जेण मोक्खाभिकंखी, अत्यर्थ तीत्रा श्रद्धा, तातं उवागम्म इमं उदाहु- 'असासर्य० ॥४४७-३९८।। वृत्तं, शश्वद्भवतीति शाश्वतं | 2+ दीप अनुक्रम [४४२४९४] ॥२२२॥ N [227] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सत्राक [१] गाथा ॥४४१ ४९३|| श्रीउत्तरान शाश्वतं अशाश्वतं,अतो ते दहुँइमइति मणुस्सभवे,विहरणं विहारः,मोगा इत्यर्थः,जतो भन्नति भोग भोगाई भुजमाणो विहरति । पुरोचूर्णी 2'बहुअंतराए'त्ति ते भोगा अंतरायबहुला, व्याध्यादिभिरुपद्रवविशेषैः 'ण यदीहमायु तम्हा' तस्मात् 'गिहसि न रइंहितोक्तिः १४ * लभामो' 'आमंतयामो' त्ति आपुच्छणा, चरिस्सामो मोणं जताणि उपशमं करिष्यामः, मुणिभावो मौन, संयममित्यर्थः, इथुकारीये ४ 'अहतायओ०॥४४८-३९९||वृत्तं, अथेत्यानन्तये, तवस्स वाघायकर वयासी, सुक्खतो दरिसणओ य, जहा 'इमं वयं वेयविओ। ૨૨૨| वयंति, जहा न होई असुआण लोगों' इममिति प्रत्यक्षीकरणे 'वय' मिति वाग्, 'विद् ज्ञाने विदंति तमिति वेदः, विऊ जाणगा, वेदं जाणंतीति वेदविदु, कि बदन्तिी-अथ अपुत्रस्य लोक एव नास्ति, तस्मात् 'अहिज्ज वेए.' ॥४४९-३९९।। वृत्चं, अ-* धीत्य वेदान् श्राद्धादिषु च भोजयित्वा विनं पुत्रांश्च जनयित्वा ताँच गृहेषु स्थापयित्वा, वीवाहयित्वेत्यर्थः, भोगाँश्च भुक्त्वा । |स्त्रीभिः सार्धं, पच्छा अंतकाले वणप्पावेसं तावसादाणं एतत्प्रवेशस्तं प्रशस्तं प्रशस्यतो वा, नातो विपर्ययेनेति । 'सोअग्गिणा आयगुर्णिधणेणं०॥४५०-४०१।। वृत्तं, शोक एवाग्निः शोकाग्निः अतस्तेन शोकाग्निना, आत्मगुणा-रागादयः त एव च इंधनं 'मोहामिलापज्जलणाहिएणं' महाणगरदाहातोवि अधिअतरेण संतत्तभावो जस्स सव्वतो तप्पमाणं बहिरन्तश्च लोलुप्पमाणं लोलुप्पमानं भरणपोसणकुलसंताणेसु य तुम्भे भविस्सहत्ति, बहुधा-पुनः पुनः बहुं च-बहुप्पगारं । 'पुरोहियं तं कमसोड-13 गुणतं०४५१-४०१२वृत्तं, अधिज्जवेदादिएहिं जहक्कम कामओ गुणेहिं सदादि भोच्चा सुतपदाणं च कार्ड, कुमारगा तस्स तं वयणं सुणिचा इदमुक्तवन्तः-'वेदा अघीता न भवंति ताणं ॥४५२-४०१॥ वृत्तं, कस्माद् , हिंसकत्वात्, उक्तं च--'अकारण-14 ||२२३ मधीयानो, ब्राह्मणस्तु युधिष्ठिरः । दुश्शीलेनाप्यधीयन्ते, शीलं तु मम रोचते ॥१॥' तथा--'शिल्पमध्ययनं नाम, वृत्तं ब्राह्मण दीप अनुक्रम [४४२४९४] [228] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥४४१ ४९३|| श्रीउत्तराका लक्षणम् । घृत्तस्थं ब्राह्मणं प्राहुनेंतरान् वेदजीवकान् ॥ २ ॥" 'भुत्ता दिया णिति तमं तमेण ति अजिइंदिया हि भोजिना || कुमारोक्तिः चूणा (नमो) गरमो ततोविजं तमतमो तमि णिति, 'जाता य पुत्ता न भवंति ताणं' जहा- सहि पुत्तसहस्साई, सगरो किर मेदिणिं । १४ इषुकारीये Patiपमोत्तूण सो समणो पव्वतितो, इह खलु पुत्ता ण ताणाए, को नाम ते अणुमनिज्ज वाक्यंी, एतदुक्तं त्वया-अधीता(त्य) वेदा, जे यकामगुणा त एवंविधाखणमित्तसुक्खा ॥४५३-४०१०वृत्तं,खणमिति कालः सो य सत्त उस्सासणीस्सासा एस थोवो एस एव खणो ॥२२४॥ भन्नति, तावत्कालं सौख्यं विपयेषु, बहुकालदुक्खा, कामभोगासक्ता हि नरकेषूपपना, अनेकानि पल्योपमानि सागरोपमाणि द्र * दुक्खमणुभवंतित्ति बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा पज्जत्तियदुक्खा, अणिकामसोक्खा ण णिकामं, अपर्याप्तसौख्या इत्यर्थः संसारसोक्खस्स विपक्खभूता, प्रत्यनीकभूता इत्यर्थः, खाणी अणत्याण उ कामभोगा, खनि:-आकरो य एकार्थ 'परि० ॥४५४-४०१।। वृत्तं, परिव्ययंतिचि याति यौवनं 'अणियत्तकामों' अणियत्तइच्छो 'अहो य रातो परितप्पमाणो परि-समंतात्, सर्वतस्तापः परितापः, त्रिभिर्वा योगैः तापः परितापः, असंपत्तीए सद्दादीणं, अण्णप्पमत्तो आहारा, सु-मृशं मनो-मुच्छितो गिद्धे-गहिते अज्झोववन्ने, अथवा सरीरापत्यदारादिषु प्रसभं मुच्छितो, धणं-हिरण्णादि तं एसमाणे उपज्जिणमाणे उबज्जिए वा ॥ ला अपरि जिउं चेव प्राप्नोति मृत्युं पुरिसा जरं च प्राप्नोति, पश्चान शक्नोति तदुपभोक्तुं, व्यर्थकमेवोपार्जनं भवति, अथवा एवं परितप्पति-'इमं च मे अधि०॥४५५-४०१।। वृत्तं, इमं च मे अस्थि सरीरे महिलाए, गृहोपभुज्ज वा, इमंच णधि,तो तं उपज्जिणामि, इमं कतं इमं करेमि, अथवा अच्छउ वा तं इमं अद्धकयं, इमं ताव करेमि, तमि दरनिढविते तं चेर, तं एवमेवमत्यर्थ लालप्यमाणं हरतीति हरः, मृत्युरित्यर्थः, किंबाहिरा मृत्युना, नित्युच्यते, हरंतीति हरा:-ध्यायः मुहुत्तदिवससंबच्छरा वा आयुं | दीप अनुक्रम [४४२४९४] 64%7-% CERICA 9 [229] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१४], मूलं [...] / गाथा ||४४१-४९३ / ४४२-४९४|| निर्युक्ति: [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूर्णौ १४ इषुकारीये ॥२२५॥ हरंति, उक्तं च--किं तेर्सि ण बीभेया आसकिसोरीहिं सिग्घलग्गाणं । आयुवलमोडयाणं दिवसाणं आवडंताणं ? ॥ १ ॥ एवं गच्चा कहं पमातो करेन्वो धम्मेऽपि ता?, 'घणं पभूतं ० ' ॥४५६-४०२ ।।वृत्तं कण्ठ्यं । कुमारगाह-'घणेण किं धम्मधुराहि० ॥४५७-४०२ ।। | बुचं, धम्मधुरा - संजमधुरा, सयणो पुव्त्रसंधुयादि, कामगुणा सद्दादि, उक्तं च- "छड़ेतूणं गम्मह सारं दारं च पुत्रदारं च । अतिणियगंपि सरीरं छड्डे उमवस्स गंतव्वं ॥ १ ॥” 'समणा भविस्सामु गुणोहधारी' गुणोहो- अट्ठारस सीलंगसहस्साणि धारंता 'यहिं विहारा अभिगम्म भि[हि]क्वं' बहिर्विहारे स्थित्वा भिक्खारा भविस्सामो, बहिर्विहारो णाम अप्पडिबद्धविहारोपि ता। आह-यदप्युक्तं प्राकू 'विध्वाणमग्गस्स विपक्खभृता' प्रत्यनीकभूता तं निर्वाणमेव नास्ति, कुतः १, बंधाभावात् कथं बन्धो नास्ति ?, जीवाभावात् कथं जीवो नास्ति', 'जहाय अग्गी अरणीउडसंतो० ॥४५८-४०२॥ वृत्तं येन प्रकारेण यथा, अंगतीत्यग्निः, उत्तराणिसंयोगात् मध्यमानोऽभूत्वा सम्भवति, विद्यते उपलभ्यत इत्यर्थः, भूत्वा चोत्तरकालं न भवति, इत्येवं जीवोsभूत्वा भवति, उक्तं च-- एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे । वृकपदं तद्यद्वदन्ति बहुश्रुताः ॥ १ ॥' तथा क्षीरेऽपि कालान्तरपरिमाणात्, तथाऽनाथेय पुरुषप्रयत्नाच्च सर्विरुत्पद्यते अभूत्वा, उत्तरकालं च न भवति यथा, एवमात्माऽपि 'एवमेव जाता!' एवमवधारणे, जाता इति पुत्रा, सरीरंमि सत्ता समुच्छिस्संति अजसंघातवत्, णासतित्ति प्रलयमेति एवमात्मापि, एवं तेक (ल) मपि, एवमेव ह्यात्मा, तथाविधनाशोपलब्धौ भस्म विशुद्धं क्लेदात (प्रेक्षित) मिति, चित्तमात्र आत्मा, कुमारकावाहतुः, यदुक्तं- नास्त्यात्मा तदभावाच्च निर्वाणवैफल्यमिति, अत्रोच्यते- (अस्ति निर्वाणं) कुतः ?, स्वभावव्यवस्थितत्वात् इह यो भावः येन भावेन व्यव स्थितः सोऽस्ति को दृष्टान्तः १, यथा घटः स्वेन भावेन व्यवस्थितः तस्मात् स्वभावव्यवस्थानात् पश्यामः जीवोऽस्तीति, इतश्च [230] नास्तिक पक्ष तत्खंडनं च ॥२२५॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [४४२ ४९४] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१४], मूलं [...] / गाथा ||४४१-४९३ / ४४२-४९४|| निर्युक्ति: [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्री उत्तरा० चूर्णी १४ इपुकारीये ॥२२६॥ जीवोऽस्ति, कुतः ?, प्राणापाननिमेषोन्मेष जीवनमनोगतेन्द्रियान्तराव कारसुखदुःखोपलब्धेः इत्यात्मनि एते भावा भवन्ति, को दृष्टान्तः यथा वायुः, शाखाभः करणैरप्रत्यक्षोऽप्यस्मदादिभिरुपलभ्यते, तथा चात्मा प्राणापान निमेषोन्मेषजीवनमनोगतेन्द्रियांतरविकारसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नप्रभृतिभिः प्रत्यक्षैरनुमीयते अस्ति स जीवो एषां भावानां कर्चेति तस्मात् प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियांतर विकारसुखदुःखोपलब्धीरपि पश्यामः, जीवोऽस्तीति इतथ जीवोऽस्ति कुतः १, पूर्ववृत्तार्थस्मरणाद, को दृष्टान्तः १, यथा घटः पूर्ववृत्तस्मर्त्ता न भवति न च तथाऽऽत्मा, आत्मा हि इहलोकवृत्तानामर्थानां कश्चिच्च परलोक वृत्तानामप्यर्थानां जातिस्मर्त्ता भवति, तस्मात् पूर्ववृत्तस्मरणात् पश्यामः जीवोऽस्ति यद्यस्तीति कथं निस्सरन् प्रविशन् वा नोपलभ्यते १, उच्यते- 'नोइंदियाग्गज्० ' ॥ ४५९-४०३॥ वृत्तं, गोइंदियग्राह्यः कथं नोइंदियग्राह्यः १, उच्यते, अमूर्तत्वाद, नोइन्द्रियं मनः, मनश्चात्रैव, अतः स्वप्रत्यक्ष एवायमात्मा, कस्मात् ?, उच्यते त्रैकाल्यकार्यव्यपदेशात्, तद्यथा कृ(ज्ञा) तवानई जानेऽहं ज्ञास्येऽहमिति योऽयं त्रिकालकार्यव्यपदेशहेतुः अहंप्रत्ययोऽयमानुमानिको न, नागमिकः, किं तर्हि ?, स्वप्रत्यक्ष एवायं अनेनैवात्मनां प्रतिपाद्यत्वात्, नायमनात्मके घटादावुपलभ्यते, इहेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, यो हि तदुपरमेऽपि तदुपलब्धमनुस्मरति स तस्मात् अर्थान्तरमुपलब्धा दृष्टः, यथा पंचवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्त्ता देवदत्त इति, अतः गोइंदियगिज्ड अमृतभावादिति, अमूर्त्तत्वाच्च नित्यः, आह-- आकाशस्येव नित्यस्यामूर्त्तस्य कथं जीवस्य बन्धो भवति ?, उच्यते, 'अब्भत्थहेडं णिततस्स बंध' आत्मानं प्रति यद्वर्त्तते तदध्यात्मं तच्च रागद्वेषमोह मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा', 'हेड'ति हेतुः कारणं तु, अपदेशः - निमित्तं, अस्मात् कारणात् नित्यत्वामूर्त्तत्वसामान्येऽपि आकाशस्य सति वैशेषिको [231] नास्तिक पक्ष तत्खण्डनं च |॥२२६॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१४], मूलं [...] / गाथा ||४४१-४९३ / ४४२-४९४|| निर्युक्ति: [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूण १४ इषुकारीये ॥२२७॥ धर्मः अध्यात्मकृतो बन्धहेतुः जीवस्य संसारहेतुः कथं बन्धमाहु?:- 'जहा वयं धम्ममजाणमाणा० ॥४६०-४०३॥ वृत्तं येन प्रकारेण यथा, वयमित्यात्मनिर्देशः, जैनं धर्ममजानमानाः पातयन्ति पासयति वा पापं रागद्वेषोद्भवं साधुषु उद्वेजन निमित्तकं पुरा प्रथमं क्रियत इति कर्म अकार्षीत्, ओरुज्झमाणा जं तुम्मेहिं घणियं समं लभता, परिरक्खिज्जंता साधु एलका (संपका) तं णेव भुज्जोऽवि समायरामो पावं गिहवासे चरेति किमर्थं गृहवासे रतिं न लभहीं, तेति । अन्भाहयंमि०॥४६१-४०३॥ सिलोगो, वायुरादितेणं, जहा मिगजूहं वाहेण अम्माहयं वागुराए परिक्खितं असोहणाणि पहरणाणि पडंति, तब्बध्यानि भूमीए व पडंति, एवं अभ्याहते लोके गिहवासे न रमामो। पुरोहित आह- 'केण अम्माहओ लोओ० ' ॥४६२-४०४॥ सिलोगो, कण्ठ्यः, पुच्छाए कुमारकाह- 'मच्चुणभाहओ लोओ०' ।।४६३-४०४। वृत्तं पुण्वद्धं कण्ठ्यं, अमोहा रयणी, किं दिवसतो ण मरति, उच्यते-लोकसिद्धं यन्मरतीति (रतिं) बाहरंती य, अहवा सो न दिवसे विणा (रतीए) तेण रत्ती भण्णति, अपच्छिमत्वाद्वा |णियमा रती, कहं मारती है, उच्यते जा जा वच्चइ रयणी० ।।४६४-४०४॥ सिलोगो, 'जा जा' इति वीप्सा, सेसं कण्ठ्यं, 'जा जा वच्चइ रयणी० ॥४६५-४०४ ॥ सिलोगो, कण्ठ्यः । आह-सत्यमेतत्, किन्तु, किंचिकालं (संवस) अतो एगड्डा चैव पव्चयामो, उच्यते- 'एगओ संवसित्ताणं० ॥४६६-४०५॥ सिलोगो, 'एगतो' त्ति एगट्टा, किंचिकालं संवसित्ताणं 'दुहओ'ति अम्हे दोवि जगाई 'संमत्तसंजुत 'ति तुम्भ पज्जयं धम्मं गहाय पच्छा जाया ! गमिस्सामो, अणियत्तवासी गामे एगरातीओ नगरे पंचरातीयो भिक्खाहारा, आह- 'जस्सऽस्थि मच्चुणा सक्खं०' ।।४६७-४०५॥ सिलोगो, 'जस्स'ति विदेसे 'अथ' इति आमन्त्रणं, सख्यं मित्रता, जस्स होज्ज मच्चुक्खं दिहं तेणं, जस्स किल जमो मिचो सो तेण णिज्जमाणो भगति - किंचिकाले सह [232] अनित्यता ॥२२७॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] श्रीउत्तरा ब्राह्मणी प्रत्युक्तिः चूनौं । गाथा ॥४४१ १४ । इषुकारीये ॥२२८॥ ४९३|| वेक्खह, न य तेण उबिक्खितं. बच्च जेहिं ता णिलुक्कोजणी घेप्पति, जो वा जाणति अयरामरोऽहं सोहु कखे सुए सिया' जहा कलं जहामोत्ति 'अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो० ॥४६८-४०५||सिलोगो, अयेच साम्प्रतं, धम्मो समणधम्मो,पडिवज्जामो अभ्युपगच्छामो, न पुणभुवगच्छामो संसार, अणागयं नेव य अस्थि किंचि जे अम्हेहिं न भुतपुर्व अणते संसारे देविंदचक्कचट्टित्तणे देवेसु, अथवा नास्ति मृत्योः कुत्रचिदगमः, न विद्यते किंचिदस्याज्ञातं, न भवति, अणागय नेव य अस्थि किंची, एवं ज्ञात्वा श्रद्धाक्षेमं श्रेयःकिन्नो विणहत्तु रागं, रागो-ममत्तभावो, उक्तं च-"अयं णं भंते ! जीवे एगमेगस्स जीवस्स माइत्ताए पियत्ताए भाइत्ताए भगिणित्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए सुण्हचाए भज्जत्ताए सुहिसयणसंबंधसंथुयत्ताए उबवण्णपुचे, हंता गोयमा! असति अदुवा अणंतखुत्तो"त्ति । ततो तं पुरोहितं पञ्चज्जाभिमुखं स्थितं ज्ञात्वा तस्य भणी धम्मविग्घं करेति, ततो पुरोहितो भणति-'पहीणपुत्तस्स हु नस्थि चासो ॥४६९-४०६॥सिलोगो, पहीणपुत्स्स उ णत्थि वासो, गृहे इति वाक्यशेषः वासिद्धि'ति आमन्त्रणं, भिक्षोः चर्या भिक्षुचर्या, भिक्खाचरियाकालो पुरश्चरणकाल इत्यर्थः, उक्तंच-'प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये ना|र्जितं धनम् । तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति ॥ १॥ दिढतो जहा दारुस्स सहाओ छायं (थाणु) सो तं सारक्खणं 8 सहायकृत्यं च कुर्वन्ति, छिचो हि गम्मा विणासं च पार्वति, तहेव वाहं थाणुभूतो, अनेवि दिटुंता-पंखाबिहणो व जहेव पक्खी० ॥४७०-४०६॥ वृत्तं, पंखविहीणो पक्खी पलायणे ण समत्थो मज्जारादीहि विणास पापति, संगामे वा उवाहिते भिच्च- 1 विहणो राया सत्तूहि णासिज्जति, सारो वर्ण, विचनसारो वणिज इव समुदमज्झे पोतविणासेण पहीणपुत्तोमि तहा अहंपि, माहणी आह-सुसभिया॥४७१-४०६||सिलोगो, सुख संहिता सुसंहिता, सुसंस्कृता द्रव्यादिभिरुपकरणेहि कामगुणा:-शब्दादयः ACCIA-NCREACROADCAE% दीप अनुक्रम [४४२४९४] ॥२२८॥ [233] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा १४ ॥४४१ कारीये २२९॥ ४९३|| |उत्तराहिमे इति ये साम्प्रतं गृहे वर्तन्ते, संपीडताः, सम्यक् पण्डिताः, अग्गरसानां सुखाना वराः प्रधानाः प्रभूता-बहुकाः, त एवं-1 गुणजातीए भुंजामु ता कामगुणे पगाम, पज्जत्तिय कामं, गमिस्सामु पहाणमग्री पहाणमग्गो णाम शानदंसणचरित्ताणि, माझणीं प्रत्युक्तिः दसविधो वा समणधम्मो, पहाणं वा मग पहाणमगं, तीर्थकराणामित्यर्थः, पुरोहित आह-'भुत्ता रसा०॥४७२-४०७॥ वृत्तं, के ते भुत्ता , रसा भोगा इत्यर्थः, हे भवति जहाति तव यौवनमित्यर्थः, न असंजर्म, संजमा जीवियणिमित्तं पजहामि भोगे, लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं संविक्खमाणो सहमाण इत्यर्थः, करिस्सामि मोणं मुनिमावो मौनं, संयममित्यर्थः, माहणी आह-'माह तुमं०॥४७३-४०७||वृत्त, मा पडिसेघे,ह पूरणे, समणो सोदरिया भाताति कामभोगा (वा) जुन्नी व हंसोणदीए । पडिसायं गंतुं अचायतो अणुसोतमेव गच्छति, एवं तुर्मपि दुरणुचरसंजममारवहणअसमत्थो भायादीणं भोगाणं वा सुमरिहिसि, अतो | 'भुजाहि' कण्ठ, पुरोहित आह-'जहा य भोई०।४७४-४०८॥ वृत्त, येन प्रकारेण यथा हे भोती! 'तनुजा' तनुः-शरीर, भुजा-|| IMIभ्यां गच्छतीति भुजङ्गः 'निम्मोअणिं' कंधुकं 'हिच्चा छंचा 'पलाइ' गच्छति, मत्तिति णिरवेक्खो, अपडिबद्ध इत्यर्थः । का 'एमेपति एवमेते भुजङ्गवत् 'जाया' इति पुत्रा 'पयहंति भोए' अत्यर्थ चयंति पयहंति, तेऽहं कहं नाणुगमिस्समिक्को, पाएगो रागदोसरहितो अहं सयणादी अवहाय, कह ता अहं एगो अच्च हामि?, 'छिदिनु जालं०॥४७५.४०९।। वृक्ष,जालं मच्छ जालं अवलं दुम्बलमितियावत् रोहिता मच्छा, एवं वयं मोहजालं छिदित्तु धरिवहति धुर्यः संयमधुरावहणसीला तपांसि उदाराणि-उत्तमानि वीरास्तपेश्वराः भिक्षोथरिया भिक्खुचरिया अतो तं धीरा हु भिकवायरियं चरति, 'एवमेए'त्ति पुत्तेसु । संजमणिहितमतीसु 'नहे व कुंचा०॥४७६४०९॥वृत्तं, णभे-आकासे कोंचाण पंतीओ आगच्छंतीओ तताओ-वितताओ दलेतु-14 NAGARIKARANG दीप अनुक्रम [४४२४९४] ॥२२॥ X40 [234] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] गाथा ॥४४१ उत्तरा० छिंदत्तु वोलेत्तु(न्ति)एवं सति पुत्ता यकण्ठ्यं । सव्वाई 'पुरोहितं तं ससुयं०४७७ ४०९॥वृत्तं, पुब्बद्धं कण्ठधं,कुडुंबसारो हिरण्णा- राज्ञीकृत चूर्णी दि विउलं-बहुगं उत्तम--पहाण, अन्नभोगेहितो तं राया गेण्हिउमारद्धो, पच्छा तेऽवि अभिक्वं-पुणो पुणो, सम्म उवाय समुवाय, उपदेशः किमुवाच ?, उच्यते-'बंतासी पुरिसोरागं० ॥४७८-४०९॥ वृत्तं, बंत असिउं शीलं यस्यासौ वन्ताशी, पुरिसो उक्तार्थः, हे * कारीये राजन् ! ण सोहति पसंसितो, कहं वंतासी भवति?,जेण माहणेण परिच्चत्तं धणं,कण्ठथी सव्वं जगंजइ तुहं(तव).'॥४७९-४०९।। २३०॥ सिलोगो, कंण्ठ्यः , शवरंणेच ताणाय ते तवत्ति परलोए, उक्तंच-'अत्थेण अंदराया ण ताइओ गोहणेण कुइअन्नो । धनेण तिलय. | सेट्ठी पुत्तेहिं न ताइओ सगरो ॥१॥ किंच-'मरिहसि राग ! जया॥४८०-४०९।। सिलोगो, अवस्स यदा तदा दिवा रात्री वा, उक्तंच-'धुवं उर्छ तणं कहूँ धुवभिनं मट्टियामयं भाणं । जातस्स धुवं मरणं तूरह हितमप्पणो काउं॥ १॥ मनो रमयन्तीति मनोरमा, कामगुणा सद्दादयो, अत्यर्थं जहाय-पहाय, ण ते अणुगच्छतित्ति भणितं होति । 'इ(ए)को हु धम्मो नरदेव! ताण' एक्को-रागदोसरहितो, अथवा स एव एक्को धम्मो, नराण देव नरदेव! ताणं भवति, नान्यः कश्चित्ताणं भवति स्वजनादि, एवं स्वजनधनादि असरणादि गाउँ 'णाहं रमे पविणि पंजरे वा०॥४८१-४१२॥ वृचं, पंजरो दुक्खभूतो, एवं संसारो दुक्खभूतो,। णेहसंताणं छिदिउं चरिसामि मोण, मुनिभावो मौन, संजममित्यर्थः, किंचणं दवे भावे य, दव्यकिंचणं हिरण्णादि, भावकिंचणी कोहादि, 'उज्जुकडा' अमायी, णिरामिसा अहिरण्णसुवष्णिया, परिग्गहारंभकतेसु दोसेसु णियत्तश्चात्, 'दव्याग्गिणा जहा रपणे ॥४८२ ।। सिलोगो, पुब्बद्धं कण्ठ्यं, अन्ने सत्ता पमोयंति एरिसं जति बाहादयो, दोसं गच्छति जे तत्थ डझंति, सचा रागद्वेषयसगा संतो, दह्यमानेषु, 'एवमेव वयं मूढा०॥४८३-४११॥सिलोगो,कण्ठ्या । भोगे भु(भो च्चा०४८४-४११॥ KASARAKAR ४९३|| दीप अनुक्रम [४४२४९४] 4 -44- [235] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [1] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१४], मूलं [...] / गाथा ||४४१-४९३ / ४४२-४९४|| निर्युक्ति: [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा०: चूर्णों १४ ॥२३१॥ सिलोगो, भोगान् भुक्त्वा इदाणि वमित्ता- छड्डेचा लहु-वातो बाझे भूता लहुभूता, जहा सो वातो अप्पविद्धो सदा गच्छत्येव एवं अप्पडिबद्ध विहारिणो आमोदमाणा मुदहरा, सो संजमे मंदिं मन्नति, दिया इति दो वारा जाता द्विजाः, पक्षिण इत्यर्थः, ★ एक्कासं अण्डजत्वेन पच्छा अण्डयं भिचा जायंते पक्षिणो, कामतः कामंति स्वेच्छया इत्यर्थः एवं लहुभूतविहारिणो आमोदइनुकारीये ५ माणा विहग इव विप्यमुक्का जाणं २ दिसं इच्छंति ते तष्णं दिसं अप्पविद्धा गच्छंति-' इमे य लद्धा फेदति० ॥४८५-४११।। सिलोगो, 'इमे' इति प्रत्यक्षं लद्धा प्राप्ताः, के ते १, शब्दादयो विषयाः, फंदतीति (फंदा) चला अणिच्चा, मम इति आत्मनिर्देशः, हत्थपत्ता, अज्ज इति आमन्त्रणं अथवा अज्ज दिवसे संपदुपपेता, वयं च सत्ता एतेसु कामेसु चलासु, एते असासए, णिव्वाणं, छड्डिहामो जहा इमेहिं छड्डिता । स्यात् किमर्थं छइडिज्जंति, उच्यते- 'सामिसं कुललं दिस्सा० ॥४८६-४११॥ सिलोगो, सह आमिसेण सामिसो, कुललो- गिद्धो सउलिया वा, मंसपेसीए गहिताए अन्नाहिं सउलियाहिं वाहिज्जेति चत्तर ण वाहिज्जंति, अतो 'आभिसंसच्वमुज्झित्ता' कण्ठ्यः । 'गिद्धोवमे य णच्चा० ॥। ४८७-४११॥ सिलोगो, गिद्वेण वा उवमा जेर्सि कामाणं ते इमे गिद्धोचमा, जहा सो गिद्धो सामिसो बावज्जति, णिरामिसोण वावज्जति, कामभोगसंपन्नो तद्वित्तनिमित्तं वा धिज्जातिदाईयादीहिं, अतो गिद्धोवमे भोगे गच्चाणं, संसारं वङ्गेतित्ति संसारवडणे, 'उरगो सुवण्णपासिव्य' उरेण गच्छतीति उरगः, सप्पो-सुवण्णो गरुडो उरओ तस्स पाने, अम्मासे समीपे इत्यर्थः, संकमाणो बीहमाणो तनुं मंदं चरति, एवं विसयकसाएस तणु अंब (संच) रे 'नागुब्व (नागो वा) बंधणं छित्ता० ॥४८८-४११॥ सिलोगो, जहा इत्थी वारीतो बंधणाई छेत्ता वसहिं अप्पणो वए, तस्स वसहिं अडवी, वनमित्यर्थः एवं सद्धं बसहिं वए 'इति'ति यदुक्तं 'एतं पत्थं' एतत् पथ्यं यत् स्नेहपासं छेत्ता, हे महाराय ! उसु [236] राज्ञीकृत उपदेशः ॥२३१॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१४], मूलं [...] / गाथा ||४४१-४९३ / ४४२-४९४|| निर्युक्ति: [३६०...३७३/३६०-३७३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : उत्तरा० चूण १४ [कारीय २३२॥ आत्ति मे सुतं इति उपप्रदर्शनार्थे 'मे' इति मया श्रुतं ज्ञातमित्यर्थः किमुक्तं भवति ? नाग इव स्नेहबन्धनं छित्त्वा आत्मानं सर्द्ध बसर्हि नय, एवत् पथ्यं हे महाराजा, एतत् मया श्रुतं साधुसमीपे । 'चहत्ता विपुलं रज्जं० ॥४८९-४११॥ सिलोगो, त्यक्त्वा विपुलं विस्तीर्ण राष्ट्र-राजं, काम्यंत इति कामाः, प्रार्थ्यन्त इत्यर्थः, भुज्यंत इति भोगाः, अतस्ते मोगा दुःखं त्यज्यन्त इति दुस्त्यजा:, णिव्विसया-सद्दादिविसयरहिया णिरामिसा घणामिसेण रहिता निष्णे हा पुत्तदाराइसु णिम्ममत्ता पिडिग्गहा दुपदादिसु । 'सम्मं धम्मं विधाणित्ता० ॥ ४९०-४११॥ सिलोगो, 'सम्मं' जहावस्थितं संसारे सम्भावो धम्मो तं सम्म वियाणित्ता जहा कामभोगा सयणधणादि वा न परित्राणाय अतो चिच्चा कामगुणे वरे, बरे-प्रधाने, तवं परिगृझ इत्यर्थः, प्रकर्षेण गृह्य प्रगृह्य, 'अहखातं'ति यथा ख्यातं तथा प्ररूपितं, अथवा कामं वीतरागचरितमित्यर्थः घोरं भयानकं, कातराणां दुरनुचरं, घोरो परक्कमो जेसि ते घोरपरक्कमा, दुरनुचरपराक्रमा इत्यर्थः। एवं ते कमसो बुद्धा० ॥ ४९१-४११॥ सिलोगो, एवमनेन प्रकारेण कमसो- परिवाढीए बुद्धा संबुद्धा सन्चै छावि जणा धम्मपरायणा-धम्र्मोट्ठाता 'जम्ममच्चुभब्बिग्गा' जननं जन्म, मरणं मृत्युः, जन्मश्च मृत्युश्च जन्ममृत्यू तावेव भयं जन्ममृत्युभयं तस्स, भयस्तुब्विग्नो भीतो- त्रस्तः दुरनुचरः 'दुकूखसंतगवेसिणो' दुक्खस्स अंतो- मोक्खो तं गयेसंति मार्गतीत्यर्थः, 'सासणि विगत० ॥ ४९२-४११॥ सिलोगो, 'शासु अनुशिष्टो' शास्तीति शासनं, विगतमोहो - केवलणाणी तेसिं सासणे 'पुव्विं भावणाभाविया' पुन्वभवे संजमवासणाए भाविता, विसेसिता इत्यर्थः, पुव्वद्धं कण्ठथं । इदाणिं तेसि णामुक्कित्तणा किज्जह 'राया सह देवीए० ॥ ४६३- ४११॥ सिलोगो, राया उसुयारो नाम सह कमलावतीए महादेवीए, माहणो भिगू पुरोहितो, माहणी जसा, ते य दारणा, सच्देवि एते परिणिव्युता, निष्याणं निर्वृतिः, परि [237] राशीकृत उपदेशः ॥२३२॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक संबन्धः [१] गाथा ॥४९४५०९|| श्रीउत्तरा०ा नियुए इति बेमि । णयाः पूर्ववत् । चोइसण्हं उत्तरायणाणं चुण्णी सम्मत्ता १४॥ उक्तं चतुर्दशमध्ययनं, इदानीं पंचदशमुच्यते तस्य कोऽभिसम्बन्धः, सम्बन्धो वक्तव्या, स च त्रिविधा, तद्यथा-सूत्र१५ प्रकरणाध्यायसम्बन्धविविधः स्मृतः। केचित्तु अविशेषेण, अतः सम्बन्ध इष्यते ॥ १॥ केचित्तु आचार्या अविशेषेण-एकविधमेव सभिक्षु सम्पन्ध म्याचक्षते, तद्यथा-सूत्रस्य सह सूत्रेण सम्बन्धः, यथा चतुर्दशमे धर्मकर्मसूत्रं एते परिणिध्युतेति, पंचदशमस्थ आदि सूत्र-'मोणं चरिस्सामि'चि, परिनिर्वाणं च मुनेरेधतीत्येष सम्बन्धः, तथा प्रकरणसम्बन्धो यथा चतुर्दशमे धर्मकथाप्रकरणं व्यावर्ण्यते एवं पञ्चदशमेऽपि धर्मकथैव वर्ण्यते, तथा अध्ययनसम्बन्धः-चतुर्दशमेऽध्ययने अनिदानस्य गुणा व्यवर्णिताः, एवं पञ्चदशमेऽपि अनिदानगुणसंपन्न एव भिक्षुर्भवति, अथवा सामान्येनाध्ययनसम्बन्ध एवं वर्ण्यते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं-उपक्रमो निक्षेपः अनुगमो नय इति, 'क्रमु पादविक्षेपे' उपक्रमणमुपक्रमः उपक्रम्यते वाऽनेनेत्युपक्रमः, तथा निक्षेपः 'क्षिप् प्रेरणे' निक्षेपणं निक्षेपः, तथा अनुगमः 'गम स पृ गती' अनुगमनमनुगमः, अनुगम्यते वाऽनेनेत्यनुगमः, अनुग| गम्यते वाऽनेने(स्मादि)त्यनुगमः, तथा नयः 'णी प्रापणे नयनं नया, नीयते वाऽनेनेति नया, उपक्रमो णामादिका पविधः, भाषो द्विविध:-गुरुभावोपक्रमः शास्त्रोपक्रमच, अयं गुरुभावोपक्रमः-जो जेण पगारेण तुस्सति करेति णयाणुवित्तीहि । आराहणाए | मग्गो सोच्चिय अन्माहतो तस्य ॥ १॥ शास्त्रोपक्रमः आनुपूर्व्यादिका पविधा, सच पूर्वोक्त एवमनुयोगद्वारे, निक्षेपविविधः, ओघनिष्पना नामनिष्पमः सूत्रालापकनिष्पनधेति, ओपनिष्पना पूर्वोक्तः, नामनिष्पननिक्षेपः सभिक्षुकामिति भिक्षुशब्दस्य निक्षेप:-13 'निक्वेवो भिक्खुमी चउब्विहो॥३७३-४१शोगाथा, इत्यादि, नामस्थापने पूर्ववत् द्रव्यभिक्षुर्द्विविधा-आगमनोआगमाभ्यां दीप अनुक्रम [४९५५१०] CSCORRECENSES ॥२३३॥ अध्ययनं -१४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१५- “सभिक्षु" आरभ्यते [238] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक * [१] श्रीउचरा चूणौँ । गाथा ॥४९४ ** सभिक्षु. ॥२३४॥ ५०९|| * आगमतः पूर्वोक्तः, नोआगमतसिविधा-ज्ञशरीर० भव्यशरीर० व्यतिरिक्तो, व्यतिरिक्तव निहनवादि, मोक्षाधिकारशून्यत्वाद्, द्रव्य कुकर्मग्रहस्तं भिनत्ति असौ भावभिक्षुः, अथवा भेत्ता भेदनं भेत्तव्यं वेति द्रव्ये भावे च, द्रव्ये भेत्ता रहकारादि भेदनं परश्वादि निक्षेपाः भेत्तव्यं काष्ठादि, भावतः भेत्ता साधुः भेदनं तपादि भेत्तव्यानि अमनि रागद्वेषी दण्डाखयः गौरवास्खयः विकथाश्चत्वारः (तस्रः) संज्ञाश्चत्वारः (तस्रः) कपायाश्चत्वारः प्रमादाःपंच एवमादीनि भेत्तच्यानि. भिन्दं तु भावभिक्षुर्भवनि, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। इदानी सूत्राकापकनिष्पन्नो निक्षेपः (स च) अवसरप्राप्तोऽपि न निक्षिप्यते, कुतः, सूत्राभावात, असति सूत्रे कस्यालापका, सूत्र | सूत्रानुगमे, सूत्रमुच्चारणीयं, सोऽनुगमो द्विविधा-सूत्रानुगमो निर्युक्यनुगमश्च, सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीय अस्खलितादि, नियु-1 हास्यनुगमस्त्रिविधा-निक्षेपनियुज्यनुगमः उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, निक्षेपनियुक्त्यनुगतैव नामस्था-15 अपरादिप्रपञ्चेन, उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः इमाहिं दोहिं मूलदारगाहाहिं अणुगंतवो 'उद्देसागाथा, 'किं कतिविध०॥ गाथा, एवमवस्थिते सूत्रस्पर्शिकादि चतुष्टयं युगपद्गच्छन्ति, तथा चोक्तं-'एत्थ य सुचाणुगमो सुत्तालावगकतोय निक्खेवो । सुत्तफासिया णिज्जुत्ती णया य पतिसुत्तमायोज्या ॥१॥ सत्रामुगमे पूत्र, तच्चेद-'मोण चरिस्सामि ॥ ४९४ ॥ वृत्तं, मन्यते तिकालअवस्थितं जगदिति मुनिः, मुनिभावो मौन, चरिस्सामो 'चर गतिमक्षणयोः' मुनित्वमाचरिष्यामः, 'समिकच धम्म' से एत्य २३४॥ समेत्य 'इण् गतौ' धर्म प्राप्य इत्यर्थः श्रुतधर्म, चारित्रधर्म चरिस्सामो, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिः 'उज्जुकडे' ऋजुभावं कृत्वा | | 'सोधी उज्जुयभावस्से'ति, 'णियाणछिपणे'ति 'दा लबने' प्राणातिपातादिधन्धकरणरहितः छिन्नबन्धनोऽभिधीयते, अप्रमत| संयत इत्यर्थः, 'संथवं जहिज्ज' संस्तवो द्विविधा-संवाससंस्तवः वचनसंस्तवच, अशोमनैः सह संबासः, वचनसंस्तवश्च तेषा दीप अनुक्रम [४९५५१०] ॐॐॐ [23] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक मिक्षु लक्षणं गाथा ॥४९४ ५०९|| श्रीउत्तरा मेव यः तत्परित्यजेत, 'अकामकामे' अकामा अपगतकामः, कामो द्विविधः-इच्छाकामो मदनकामश्च, अपगतकामस्य या चूर्णी | इच्छा तां कामयति, सा च कामेच्छा मोक्ष कामयतीति, प्रार्थयतीत्यर्थः, 'अण्णायएसी परिस्थए' अज्ञातपी, अज्ञातमज्ञान १५ एषते-भिक्षते असौ अज्ञातैषी, निश्रादिरहित इत्यर्थः, परिव्रजेत् समन्ताद् ब्रजेत्, सर्वप्रकारं सर्वभावेनेत्यर्थः, य एवंगुणविशिष्टः । सभिक्षु.18 स भिक्षुर्भवति। 'राओवरयं चरिज्ज लादे०॥४९५-४३०॥ इत्यादि, रात्रादुपरतं चरेत, किमुक्तं भवति?, रात्री न भुरके, रात्री ॥२३॥ गतादि क्रियां न कुर्यात्, विरते विरतीभावात, विरतिग्रहणाच्चारित्रं गृह्यते, पंच महाव्रतादिकं कर्मचयरिक्तीकरणे चारित्रं, वेदं वेत्तीति वेदवित् , वेदः श्रुतज्ञानं, संपन्नो भवेदित्यर्थः, अत्ता रक्षितो चारित्रात्मरक्षितो भवेत, प्राज्ञो-विदुः, संपन्नो आयोपायविधिज्ञो भवेत्, उत्सर्गापवादच्याद्यापदादिको य उपायः, 'अभिभूय परीसहान्' अभिभूय तिरस्कृत्य, 'सव्वदंसी' आत्मवत्सर्वदर्शी भवेत, 'जे कम्हिविन मुच्छिए' यः कस्मिंश्चिदपि न मूर्छितो भवति, न रागं गच्छतीत्यर्थः, प्रतिपक्षेण द्वेष न गच्छतीति स भिक्षुरिति।।'अफोसवहं०॥४९६-४२०॥ इत्यादि, एवं वक्ष्यमाणेषु रागद्वेषविषमुक्तेन भवितव्यं, यदि कश्चिदाक्रोश-| | यति बन्धं वा करोति, तद्विचिंतयित्वा आलोच्य धीरो भवेत्, न क्षोमः करणीयः, कथम् ?- आक्रोशति मां चालः तत्र लाभ एवं | मन्तव्या, दिष्टया वा यद् मा न ताडयति, ताडयत्यपि बाले लाभ एव मन्तव्यः, दिष्टथा च यन्मां जीविताच व्यपरोपयति, एव मादि, तथा च "आक्रुष्टेन मतिमता तत्वार्थविचारणे मतिः कार्या। यदि सत्यं का कोप: स्यादनृतं किन्नु कोपेन ॥१॥" का मुनिभूत्वा गच्छेत, ज्ञानी भूत्वा संयमं अव्यग्रमनाः चरेत, यापयनित्यमात्मगुप्तः, सचारित्रात्मको गुप्तो भवेत् इति, अन्यग्रमनसा असंप्रहृष्टेन च भवितव्यं, कथं , दुःखे समुत्पन्ने न शोकान भवितव्यं, सुखे च समुत्पन्ने न प्रहृष्टेन भवितव्यं, एवं सर्वमपि दीप अनुक्रम [४९५५१०] ॥२३॥ [240] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक [१] चूपों लक्षणं गाथा समिक्ष ॥४९४ ॥२३६।। ५०९|| रागद्वेषात्मकं यः सहते क्षमते स भिक्षुर्भवति । 'पंतं सयणासणं०॥४९७-४२०॥इत्यादि, एषु च कारणेषु अरक्तद्विष्टेन भवितव्यं,15 भिक्षपतं-निकृष्टं अशोभनं शयनासनानि भजित्वा-सेवित्वा 'भज् सेवायाँ' शीतोष्णं च सेवित्वा, नानाप्रकारं च दंसमसकादि प्राप्य, नानाप्रकारं मत्कुणापिशुकषट्पदादि, अन्यमनसा असंग्रहृष्टेन भवितव्यं, रागद्वेषविप्रमुक्तेनेत्यर्थः, य एतत् कृत्स्नं परीस| हजातं सहते स भिक्षुर्भवति। नो सफियमिच्छह०।४९८-४२०॥ इत्यादि, एषु च सत्कतादिपु रागो न करणीयः, यदि कवि-18 सत्कारं करोति, अभ्युत्थानादिक, न तदिच्छेत-न प्रार्थयेत्, शोभनो कारः सत्कारः, स च न पूजामिच्छति, वखादिकं, न वन्दन-1 * कमिच्छति, किमुक्तं भवति ?-एषु क्रियमाणेष्वपि रागं न गच्छतीत्यर्थः, सः संयतः सुव्रतस्तपस्वी च भवति, यश्च ज्ञानादिसहित: चारित्रात्मगवेषी च स भिक्षुर्भवति।।'जेण पुणो जहाइ जीवियं०॥४९९.४२०॥ इत्यादि, 'ओहाँक त्यागे' येन प्रकारेण संयमजीवितं परित्यजति तन करोति, येन मोहनीयः कर्म बध्नाति तच्च न करोति, कृत्स्नं-सम्पूर्ण, कृष्णं च अशुभमित्यर्थः । 'नियच्छति' प्राप्नोति बध्नातीत्यर्थः, तच्च न, जहाति, नरनारीप्रहाणार्थ परित्यागः, यच्च कौतुकं न गच्छति स भिक्षुर्भवति । 'छिन्नं सरं भोमं०॥५००-४२०॥ इत्यादि, एतानि च जाननपि न प्रकाशयेत्, छिन्नमिति वस्त्रच्छेदः काष्टादीनां वा छे| दान्, शुभाशुभं न प्रकाशयेत्, अधिकरणमितिकृत्वा, एवं सर्वत्र अप्रकाशन, पुरुषः दुंदुभिस्वरो काकस्वरो वा एवमादिस्वर| व्याकरणं, भौमादित्वात् भौमः, अकाले जे पुप्फफलं, स्थिराणां चलनं, प्रतिमानां जल्पनादि, अन्तरिक्षादिग्दाहपांशुवृष्टथादयः, |॥२३६॥ दिव्या ग्रहयुद्धादि, 'सुविण' स्वप्नलक्षणं, तथा पुरुषस्वीहस्त्यश्वादिलक्षणं, दण्डो यो यस्मिन् अपराधे भवति, 'वत्थुविज्जा | वास्तुलक्षणं, पुरुषादीनां अंगविकारः, कस्य कीदृशं अंग शोभनं भवति, बहु ऋषनगन्धारादीनां स्वराणां विजया-अभ्यास दीप अनुक्रम [४९५५१० AAAAAAABAR [241] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत % सुत्राक श्रीउत्तरा० चौं लक्षण गाथा सभिक्षु ॥४९४ ॥२३७॥ SI ५०९|| | इत्यर्थः, एवमादिभिर्विद्यादिभिर्यो न जीवति स भिक्षुर्भवति। 'मंतं मूलंग॥५०२४२०॥ इत्यादि, मन्त्रान् साधुकरणान् ज्ञात्वापि न प्रकाशयेत, एवं मूलानि, तथा विविधान् वैद्यचिन्तान् वमनविरेचनधृमनेत्रस्नानादिकान् न प्रकाश्येत् , तथा आतुरशरणं 8 विचिकित्साथै न कुर्यात्, तं जाणणापरिणाए परिजाणिऊं अणंतरं पच्चक्खाणपरिचाए प्रत्याख्यानं करोति स भिक्षुर्भवति । 'वत्तियगण॥५०३-४२०॥इत्यादि, क्षत्रिया-राजानः,गणा-मल्लगणादयः, उग्गा दण्डपाशिकादया,राजपुत्रा ब्राह्मणभोगिका, |विविधाच शिल्पिना, एतेषां निःशीलानां प्रशंसां पूजनं वा न करोति स भिक्षुर्भवति । 'गिहिणो० ॥ ५०३ ।। इत्यादि, गृहस्था | ये प्रव्रजितेन दृष्टाः अप्रबजितेन या, तेषां निःशीलानामिहलोकफलार्थ यः संस्तवं न करोति स भिक्षुर्भवति । 'सयणासण' ॥५०४-४२०॥इत्यादि, शयनासनपानभोजनानि, परकीयं यदि त परो न ददाति प्रतिषेधयति वा, प्रतिषेधितो वा निवृत्तः सन् यः प्रद्वेषं न करोति स भिक्षुर्भवति।' किंचाहार ॥२०५-४२०॥इत्यादि, यत्किचिदाहारं परतो लब्ध्वा यस्तेन आचार्योपाध्यायादि| त्रिविधेन नानुकम्पति, 'जइ मे अनुग्गहं कुज्जा, साधू होज्जामि तारिओ' यदि मनसा एवं चिंतयति, वाचा सर्वादरेण यथापरि| पाट्या निमन्त्रयति, कायेन च परार्थेन ददाति स भिक्षुर्भवति, यः पुनर्मनसा वचसा कायेन च सुसंवृत्तः स भिक्षुभवति । 'आया| मगं चेव०' ॥५०६.४२०॥ इत्यादि, आयामादि प्रसिद्धमेव नीरसं पिंडं पानकं वा लब्ध्वाणो हीलये'न द्वेष गच्छेत्, प्रान्तकुलादि | च यः परिव्रजति-पर्यटति स भिक्षुर्मवति । 'सद्दा विविधा॥ ५०७॥ इत्यादि, शब्दा विविधा नानाप्रकारा लोके भवन्ति | दिव्या मानुष्यकाः तैरवाश्च भीमा भयानकाः भयमैरवा-सुतरां उत्रासनका ओराला-मांचा उपसादिषु भवंति यस्तान् श्रुत्वा । सतेन न बीभेति स भिक्षुर्भवति । 'वायं विवि०॥५०८-४२०|| इत्यादि, वादं विविध-नानाप्रकारं समिच्च सं एत्य-ज्ञात्वा AAAAAKES दीप अनुक्रम [४९५५१०] GEHICHSK ॥२३७) [242] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक चूौं [१] गाथा ॥४९४५०९|| श्रीउत्तराना 'लोए' लोकप्रवाद श्रुत्वा 'सहिते' सहितो ज्ञानदर्शनचारित्रे खेयाणुगतो-खेदेन अनुगतो, खेदो विनयवैयावृक्ष्यस्वाध्यायादिपु, लक्षणं प्रज्ञश्च एतेष्वेव कोवियप्पा-कोविदात्मा ज्ञातव्येषु सर्वेषु, परिचेष्टित इत्यर्थः, प्राज्ञोऽभिभूय परीपहान, आत्मवत् सर्वेदी, उप-11 १५ Hशान्तो विहेडनं प्रपश्चनं, याचा कायेन न परापवाद इत्यर्थः, अनपवादी पूर्वोक्तगुणायुक्तच यः असी भिक्षुर्भवति । 'असिप्प-11 सभिक्षु जीवी० ॥५०९-४२०॥ इत्यादि, न शिल्पेन जावति, नास्य गृहं विद्यत इत्यगृहः, अभिवः जितेन्द्रियः बाह्याभ्यन्तरसंगविप्रमुक्का ॥२३८॥ अणु-स्तोकं अल्पं, अल्पकषायी, लघूनि-निःसाराणि निष्पावादीनि तान्यपि अल्पानि भक्षते, शरीरगृहमपि त्यक्त्वा एके राग-1 द्वेषरहिता, एभिः गुणयुक्तो यः स भिक्षुर्भवति । इदानी नयाः-णीव प्रापणे, नयन्तीति नया, नयंति गमयंति प्राप्नुवंति वस्तु * काये ते नयाः, अथवा द्रव्याथिकपर्यायार्थिको, अथवा निश्चयव्यवहारी, अथवा सप्त नया, अथवा पंच नया, एकका शतभेद, एवं सप्त पंच वा नयनशतानि भवन्ति, अथवा ज्ञाननयश्चरणनयश्च, एवमेते आत्मीयेनाभिप्रायेण वस्तुगमका अस्मिन्नध्ययने || IA भवतीति । अयं ज्ञाननयः 'णायंमि गिहियब्वे॥गाहा, अयं पुनश्चरणनयः सब्वेसिपि नयाणं'। गाथा, इति परिसमाप्ती। 31 उपप्रदर्शने, बेमि-प्रवीमि आचार्योपदेशात, न स्वमनीषिकया ॥ पञ्चदशमध्ययनं समाप्तम् ।। उक्तं पञ्चदशमध्ययनं, इदाणिं षोडशम, तस्य कोमिसम्बन्धः, सम्बन्धो वक्तव्यः, स सम्बन्धविविधः, तद्यथा--सूत्र-1|| ||२३८॥ #प्रकरणाध्याय' इत्यादि, सूत्रप्रकरणसम्बन्धी ऊबौ, अध्यायसम्बन्धः भिक्षुगुणाः पञ्चदशेभ्यो वर्णिताः, भिक्षुश्च ब्रह्मचर्यव्यव |स्थितो भवति, इह च पोडशेऽध्ययने ब्रह्मचर्यगुप्तयो वक्ष्यन्ति, अनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् । लव्यावर्ण्य नामनिष्फरणे निक्षेपे दशवंभचेरसमाहिहाणमिति णाम, दशशब्दस्य नक्षशब्दस्य चरणशब्दस्य समाधिशब्दस्य स्था. PROTEREARRIER-BSI दीप अनुक्रम [४९५५१०] अध्ययनं -१५- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१६- "ब्रह्मचर्यसमाधि" आरभ्यते [243] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-१२] गाथा ||५१०५२६|| दीप अनुक्रम [५११ ५३८ ] अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८] / गाथा || ५१०-५२६ / ५११-५३८]], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० "चूर्णी “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) १६. ब्रह्मचर्या ० ॥२३९॥ निर्युक्तिः [३७९...३८५/३७९-३८५], एकदशक निक्षेपाः नशब्दस्य च निक्षेपः कर्त्तव्यः, दश एकेन विना न भवन्तीति एकस्य तावभिक्षेपः क्रियते, स सप्तप्रकारः 'णामं ठेवणा० ' ॥३७९-४२१ ॥ इत्यादि, णामैककं देवदत्तादि, स्थापनैककं द्विविधं सद्भावे असद्भावे च सद्भावस्थापनैककं लेप्यहस्त्यादि, असद्भावे अक्खादि, ४ ब्रह्मसमाधि * द्रव्यैककं सचितादि, मातृकापदैककं' उप्परणेति वा संग्रहैककं ग्रामादि, पर्यायैककं एको जीवपर्यायो नारकादि, अजीवपर्यायो वा गन्धादि, भावैककं औदयिको भाव इति । इदानीं दशशब्दस्य निक्षेप :- 'दससु अ छक्को० ॥३८०-४२२॥ इत्यादि, नामदशा दश नामानि देवदत्तयज्ञदत्तादीनि, स्थापनादश स्थापनाथा (दशा) नां स्थापना, सद्भावे असद्भावे च द्रव्यदश दश सचित्तादीनि द्रव्यानि, क्षेत्रदश दश आकाशप्रदेशा दशसु वा क्षेत्रेषु यद् द्रव्यमवगाढं, कालदश दश समया दशसमयस्थितिकं वा यद् द्रव्यं, भावदशा पर्या यद्वयं (दशक), जीवपर्याया अजीव पर्यायाश्च, देशकालपर्याया,(क्रोधादयः) नरकादिगतयश्चत्वारः, साकारोपयोगोऽनाकारोपयोगश्च, अमी जीवपर्याया दश, अजीवपर्याया रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाः शुभा शुभाश्व पर्यायाः॥ 'भंगी उ चउकं० ॥३८१-४२२ ॥ इत्यादि, नामत्रह्म ब्रह्म इति यस्य नाम, ठवणावंभं वण्णुप्पत्ती जहा बंभचेरेसु, द्रव्यब्रह्म अज्ञानीनां वस्तिनिग्रहः, मोक्षाधिकारशून्यत्वात्, भावेऽपि वस्तिनिग्रहः एव ब्रह्मचर्यमभिधीयते ज्ञानिनां मोक्षपथास्थितानां तस्य रक्षणार्थममूनि वसत्यादीनि स्थानानि रक्षणीयानि सूत्राभिहितानि । 'चरणे छक्को० ॥३८३-४२२॥ इत्यादि, चरणे षट्को निक्षेपः, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यचरणं द्विविधं गतौ मक्षणे च वर्त्तते, गतौ भूम्यां गच्छति, चरणे मोदकादीन् भचयति, क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्र गच्छति भक्षयति वा, यस्मिन् वा क्षेत्रे चरण व्यावर्यते, एवं कालचरणमपि, भावचरणं गुणानां चरणं । 'समाधीए उ चउको ० ॥३८४-४२२ ।। इत्यादि, समाधिशब्दस्य चतुर्धा निक्षेपः, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यसमाधिः येन द्रव्येण समाधिः उत्पद्यते, भावसमाधिः ज्ञानदर्शनचारित्रतपआत्मिका, स्थाप [244] ॥२३९॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८] / गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८||, नियुक्ति : [३७९...३८५/३७९-३८५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [२-१२] गाथा ब्रह्मचया० ||५१० ५२६|| श्रीउत्तुराना (स्थान)शब्दस्य पञ्चदशप्रकारो निक्षेप नामंठवणा०॥३८५-४२२।।इत्यादि,नामस्थापना यो यस्य नाम्नः अर्हो, योग्य इत्यर्थः || स्थानचूणौं स्थापनस्थापनं यो यस्य स्थापना), यथाऽऽचार्यगुणोपेत आचार्यः स्थाप्यते, द्रव्यस्थानं सर्वद्रव्याणां स्थानमाकाशः, क्षेत्रस्थानं टू निक्षेपः ल क्षेत्रमुखमाकाशमुख्यं तस्य यच्चात्मस्थानं, 'अद्धा' इति कालस्याख्या तस्य स्थानं समयक्षेत्र अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्ररूपं, ऊर्ध्वस्थानं साधोः कायोत्सर्गस्थानं, 'उपरतिस्थान' उपरमणमुपरतिः, प्राणातिपातादीनां विरतिरित्यर्थः, वसतिस्थानं साधोः स्थानं, स्त्री-15 पशुपण्डकविवर्जिता वसतिः, संयमस्थानं संयमाध्यवसायविशेषाः, प्रग्रहस्थानं धनुषः खड्गस्थ वा ग्रहणस्थानं, समपदं वैशाख|मित्यादि, अचलस्थानं यस्मिन् स्थाने स्थितस्य चलनं न भवति, यथा सिद्धस्य, गणनास्थानं अक्षं एक दश शतं सहस्रमित्यादि, संघनास्थानं अयं मूलेन सह संबध्यते वस्तुनि, न अग्रं, अग्रेण सह, मूलं वा मूलेन सह संबध्यते, भावस्थानं, सर्वेषां मावाना-18 || मौदयिकादीनां जीवे स्थान, आश्रय इत्यर्थः ।। उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपः । इदानीं सूत्रालापकस्य विषयः, स च अवसरप्राप्तो |ऽपि न निक्षिप्यते, कुतः, सूत्राभावात्, असति च सूत्रे कस्य आलापकाः, सूत्रं च सूत्रानुगमे भविष्यति, सोऽनुगमो द्विविध:| सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, निर्युम्पनुगमविविधः-निक्षेपनियुक्तिः उपोद्घातनियुक्तिः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिश्च, निक्षेपनियुक्तिः अनुगतैव, उपोद्घातनियुक्तिः इमाहिं दोहिं मूलदारगाहाहि अणुगंतव्या, तंजहा-"उद्देसे०"||गाहा।।" किं कतिविहं०"|गाहा, एवं | सूत्रानुगमो सूत्रालापकनिष्पन्नो निक्खेचो सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्नयाश्च युगपद्गच्छन्ति, तथा चोक्तं-'एत्थ य सुत्ताशुगमो सुत्तालाव| यकयो य निक्खेवो । सुत्तप्फासियनिज्जुची नया य पतिसुत्तमायोज्जा ॥१॥ सूत्राणुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चंद-- "सुअं | मे आउसं! तेण भगवया एवमक्खार्य (सूधर-४४३) ॥ श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातं, हे आयुष्मन्! ॥२४॥ *कर दीप अनुक्रम [५११५३८] -%AE [245] Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२-१२] आगम "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) (४३) | अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८] | गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८||, नियुक्ति : [३७९...३८५/३७९-३८५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा इति शिष्यामन्त्रणं, सत्स्वप्यन्येषु जात्यादिषु आमन्त्रणेषु आयुरेव गरीयः, कुतः, आयुषि सति सर्वाण्येव जात्यादीनि भवंति, PM निक्षेपः चूर्णों | के एवमाह-सुधर्मास्वामी, जम्बुनामानं शिष्यमाश्रित्य ब्रवीति, यथा मया भगवतः समीपे श्रुतं, अनेन शिष्याचार्यप्रवन्धः प्रद-18 गाथा १६. । शिंतो भवति, अथवा श्रुतं मया आयुपि सति भगवता, जीवता भगवता एवमाख्यातमितियावत्, अनेन क्षणभङ्गनिरासः कृतो ||५१० ब्रह्मचाभवति, अथवा श्रुतं मया आवसताऽनु, समीपे निवसता इत्यर्थः, अनेन गुरुकुलवासः ख्यापितो भवति, नित्यं गुरुकुलवासिना: ॥२४ ॥ भवितव्यमिति, अथवा श्रुतं मया आमृपता, गुरुपादाविति वाक्यशेपः, विनयेन मया लब्धं इतियावत्, अनेन विनयमूलो धर्मः ५२६|| प्रदर्शितो भवति, 'इह खलु थेरेहि' इत्यादि, इह अस्मिन् प्रवचने, खलु अवधारणे, इहैव नान्यस्मिन् प्रवचने, धर्मे स्थिरीक रणात् स्थविराः तैर्भगवद्भिः स्थविरैः ऐश्वर्यादिसम्पदुपेतैर्दश ब्रह्मचर्यस्थानानि, प्रज्ञप्तानि कथितानीत्यर्थः, यानि भिक्षुः भिक्षुश ताब्दश्च पूर्वोक्तः, श्रुत्वा निशम्य, अवधार्येत्यर्थः, 'संजमबहुले संयमः-पृथिवीकायादिकः संवरः-पंच महाव्रतानि समाधिःदीप ज्ञानादिका, बहुलशब्दः पुनः पुनः करोत्यर्थः, एतानि ब्रह्मचर्यावस्थितः सर्वोण्येवाराधयति, तथा च यः गुप्तो मनोवाकायैः | अनुक्रम तथा इन्द्रियैः ब्रह्मचर्ये च गुतः सदा अप्रमत्तो विहरेत्, सः अमृनि स्थानानि आराधयतीति । इदानीं शिष्यः पृच्छति-कतराणि तानि दश ब्रह्मचर्यस्थानानिमा (सूत्रं३-४२४) ।। आचार्यों निर्वचनं करोति--अनि तानि, चक्ष्यमाणानि, तंजहा-'नो इत्थीपसु[५११पंडग' इत्यादि, 'न' इति प्रतिषेधे, खियः प्रसिद्धाः, पशवः गावीमहिपीअश्वगर्दभादि, पण्डका-नपुंसकाः, संसक्तानि-आकीर्णानि । ॥२४॥ ५३८] हातैः शयनानि स्थानानि च, एतानि न सेवते यः स निग्रन्यो भवति.'तं कथमित्यादि, तत्कथमिति चेत् कथं) एतानि स्थानानि 151 सेवमानो न निग्रन्थो गवति ?, उच्यते-एतानि स्थानानि सेवमानस्य ब्रह्मचर्ये शंका भवति, सेवामिन सेवामीति शङ्कामा. - -.--.-Fr471 - [246] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A+Pre स्थान चूणी निक्षपः ब्रह्मचया आगम "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) (४३) | अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८]] / गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८||, नियुक्ति : [३७९...३८५/३७९-३८५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा [२-१२] कांक्षा कतमा सेवामीति, किं दिच्या मानुष्याः तिरिची; कांक्षामात्र, विचिकित्सा मतिविप्लुतिः धर्मज्ञस्य, किं जायते सेवमानस्य, कर्म बध्यते, असेबमानस्य न बध्यते, ईदृशी विचिकित्सा समुत्पद्यते, भेदं संयमालभते, चारित्रखण्ड मित्यर्थः, उन्मादं वाऽऽप्नुगाथा | यात्, ग्रहगृहीत एव भवेत्, केवलिपन्नत्ताओ वा धर्माद् अस्येत, धर्मो द्विविधः श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, अस्माद् द्विविधादपि धर्माद् ||५१० | भ्रस्यते, तस्माद्विदेत् दोषजालं, ज्ञात्वा-णो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेविता भवति से णिग्गंथे, अयमपनयः।। तहा-'नो। ॥२४२॥ | इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ से निग्गंथे भवति। (सूत्रं ४-४२५) । यः स्त्रीणां कथामपि न कथयति, सा च इत्थीणं कथा! ५२६|| चतुर्विधा भवति, तंजहा-जातिकहा कुल० रूब० णवत्थकहा, जातिकहा भणी खत्तिणी सोमणा असोभणाबा, कुलकथा उम्गादि । दमिला मरहडिका, णेवत्थं जं जंमि देसे सोभणं वा असोभणं वा तं कहयति, तत्कथामिति चेत् यतः ते साई निवसतः शयनासन स्थानानि सेविन: दोपजालं भवति । तथा कथामपि तथा कथयति तदेव दोपजालं सविशेषतरं भवति, तस्मात् कथापि स्त्रीणां दीप न कथनीया इति। 'नो इत्थीहिं सद्धिं संनिसिज्जागए विहरेत्ता भवति.' (सूत्रं ५) । यः स्त्रीभिः सार्द्ध निसिज्जागतो न अनुक्रम कतिष्ठति, तत्कथमिति चेत् यथा कथां कुर्वतः दोपजालं भवति तथा नैपद्यागतस्यापि,तस्मात् निषद्यागतेनापि स्वीभिः साईन स्थात | व्यमिति । इन्द्रियाण्यपि न निरीक्षितव्यानि तासां, कस्मात', दोषजालमयात्, 'एवं नो इत्थी' (सूत्रं७-४२६:) कुटुंतरे वा [५११ | कुंचिदादिसई सुणेत्ता(न)भवति स निग्रन्थो, पकेष्टकादि कुव्यं, केतुगादि भित्ती, वस्त्रादि दुष्यं, कुपितशब्दं रत इत्यर्थः, शेपशब्दा ५३८] मागतार्थाः, एवमादयः शब्दाः स्त्रीणां न श्रोतव्याः, पूर्वोक्तदोषजालभयात्, एवं पूर्वरतक्रीडितानि न स्मर्चेव्यानि, पूर्वदोपजाल-18 ॥ भयान, एवं नो इत्थीर्ण कुईतरे ठातितव्यं, पूर्वोक्तदोपजालभयादेव, एवं प्रणीतं रसभोजनं न भक्षयन, दोपजालभयात्, प्रणीतं ci% C4-%9C% - CRA [247] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८] / गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८||, नियुक्ति : [३७९...३८५/३७९-३८५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: ब प्रत सूत्रांक [२-१२] गाथा ||५१०५२६|| पापश्रमः ला भीउत्तराका गलत लपतादिभिः। तथा अतिमात्र यावत् आहारो नाभ्यवहरणीयः, अतिमात्राया अग्रणीतस्य कस्मादभ्यवहरणं न|Taratष: चूर्णी क्रियते ?. उच्यते-पूर्वोक्तदोषजालभयादेव, तथा विभूपापि शरीवस्त्रादिषु न करणीया, किमिति , विभाषितशरीराः स्त्रीणां अ-18 १७ भिलपणीया भवति ततस्तदेव दोषजालमाप्नोति । तथा-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शेषु यः सक्तिं न करोति स निग्रन्या भवति, कथ | मिति चेत ?. उच्यते-शब्दादिषु प्रसक्तस्य तदेव पूर्वोक्तं दोषजालमापद्यते । इदानीं एतदेवार्थः श्लोकै प्रदर्शयति । नयाः पूर्ववत ।। ॥२४३|| उक्तं चंभचेरसमाहिठाणं षोडशमध्ययनमिति ।। इदाणिं सप्तदशं, तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, सम्बन्धो वक्तव्यः, स च सम्बन्धः त्रिविधः, तद्यथा-'सूत्रप्रकरणाध्यायः' इत्यादि, सूत्रप्रकरणसम्बन्धी ऊधौ, अध्यायसम्बन्धः षोडशमे दश ब्रह्मस्थानानि वर्णितानि तैः सम्प्रयुक्तः सुश्रमणो भवति, एवं श्रमणेन 5 कर्तव्यमिति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्वेचद् व्यावयेते,नामनिफण्णे निक्षेपे पावसमणिज्जंति | पापशब्दो निक्षेप्तव्यः, श्रमणशब्दश्च, 'पाये छक्क' मित्यादि(३८५-४३१) पापशब्दस्य पदको निक्षेपः, नामादि, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यपापं आगमनोआगमाभ्यां, आगमतः पापपदार्थज्ञः अनुपयुक्तः, नोआगमतः शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः सचित्तादि, | सचित्तं द्विपदादि, द्विपदानां पापमनुष्यादि, पापः पापसमाचारः, अशोभनसमाचार इत्यर्थः, एवं सर्वत्र पापं अशोभनमाभिधीयते, |चतुष्पदानां शृगालादि, अपदानां विषवृक्षकिंपाकफलादि, अचित्तानि एतान्येव जीवरहितानि, मिश्राणि एषामेव भागो जीव| सहितः भागो जीवरहितमिति, क्षेत्रपापं नरकानि, यस्मिन् वा क्षेत्र नरकादिकं वर्ण्यते, कालपापं अतिदुस्समादि, यस्मिन् वा ॥२४३॥ | काले पापं वर्ण्यते । 'भावे पावं इणमो० ॥ ३८७-४३२ ।। इत्यादि, भावपापं इमं प्राणातिपातः मृपावादः अदचादानं दीप अनुक्रम [५११५३८] KRRS - ECI-SCRev4-05 -- अध्ययनं -१६- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१७- "पापश्रमणिय" आरभ्यते [248] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१७], मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९||, नियुक्ति: [३८६...३९१/३८६-३९१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा निक्षेपः ||५२७ ५४७|| श्रीउत्तरानमा अब्रह्म परिग्रहः, क्रियते, तानि च शब्दादीनि पापस्थानानि अभिधीयते, कारणे कार्योपचार, तैः पापं बध्यते इति, ततस्तानि || चौँ 11 पापस्थानानि अभिधीयते, यानि च सूत्रोक्तानीति, इदानीं श्रमणशब्द:-समणे चउकनिक्खेचो. ॥ ३८८-४३२ ।।। १७ A इत्यादि, तस्य चतुष्को निक्षेपः, नामादि, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यश्रमणः निणवादि, भावश्रमणो ज्ञानी चरित्रयुक्तश्च, पापश्रम 'जे भावा' ॥३८९-४३६ ॥ इत्यादि, 'एयाइं पावाई० ॥ ३९१-४३६ ॥ इत्यादि, एतद्गाथाद्वयं गतार्थं, ये भावाश्चाशोभना ॥२४॥ इहाध्ययने वर्णिताः तान् सेवमानो पापश्रमणोऽभिधीयते, उक्तो नामनिप्फण्णो निक्षेपः । इदानी सूत्रालापकस्य विषयो, अस्माद् यावत् सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, एतत् पूर्ववद् द्रष्टव्यं, सूत्रं चदं-'जे के उ (मे) पब्बडए.' ।। ५२७-४३६ ।।। इत्यादि, यः कश्चित् प्रबजितः अनिर्दिष्टस्वरूपः तस्येदं विशेषण, निर्ग्रन्थो बाह्याभ्यन्तरग्रन्थविप्रमुक्तः, वाह्यो ग्रन्थः द्विपदच तुष्पदहिरण्यसुवर्णादिकः, अभ्यन्तरः क्रोधादि, श्रमणधर्म श्रुत्वा 'विनयोपपन्नो' ज्ञानदर्शनचारित्र उपचारविनयसम्पन्नो ॥ इत्यर्थः, 'सुदर्लभ लभेज्जा (लहिउं) बोधिलाभ' संवेगवैराग्यसंम्पन्नः संयम प्रति यतितुमारब्धः, स एवंगुणविशिष्टोऽपि भूत्वा चरित्रावरणीयकर्मोदयात् सीदितुमारब्धः यथासुखं विहरति, तत्र चोदितः-किं स्वाध्यायादि न करोति ?, पश्चात् सीदतां यानि वचनानि तान्यसौ वक्तुमारब्धः 'सिज्जा दढा०९२८-४३६।। इत्यादि, शय्या-वसतिः, सा च मे दृढा निरूप्यते, तथा निरस पावरणाणि च विद्यन्ते, अन्नपानादि च लभ्यते, न कश्चिदतिशयो विद्यते, न च बहुश्रुताल्पश्रुतयोः कश्चिद्विशेषः, ततः किं मम ४] गलतालुविशोषणेण, निर्धर्मवचनमेतत्, पापश्रमणोऽपि स एव अभिधीयते, एतानि च पापानि कुर्वन् पापश्रमणोऽभिधीयते । 'ज M के उ' ॥५२६-४३६।। इत्यादि, निद्राशील निद्रास्वभावः, निद्रां प्रकामशः सेवते, भुक्त्या पीत्वा च निरपेक्ष स्वपिति, न स्वा दीप अनुक्रम [५३९५५९] २४४॥ Kar [249] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५२७ ५४७|| दीप अनुक्रम [५३९ ५५९] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१७], मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९||, निर्युक्ति: [३८६...३९९/३८६-३९१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूर्णां १७ पापश्रमः ॥२४५॥ ध्यायादि करोति, असौ निद्राप्रमादे वर्त्तमानः पापश्रमणो भवति । 'आयरिय० ॥ ५३० ४३६ ॥ इत्यादि, श्रुतं विनयं च यैः शिक्षापितः तानेव खिसति - परिभवति बाल: अज्ञः असावपि पापो भवतीति ।' आयरिय० ॥ ५३१-४३६ ॥ इत्यादि, तथा आचार्योपाध्यायानां सम्यक् प्रतिपत्ति न करोति, यश्च न सम्यक् प्रतिपूजयति, स्तब्धच भवति, असौ पापो भवति । संमद्दमाणे० || ५६२-४३६॥ इत्यादि, तथा जीवेषु च यः निरपेक्षः सन् संमर्दयन् अणायुतो गच्छति, पाणिग्रहणाद् द्वीन्द्रियादयः साः परिगृहीताः, चीजहरितग्रहणात् स्थावराः, यश्च असंयतः संयत इति आत्मानं मन्यते असावपि पापो भवति । 'संथारं० ॥ ५३३-४३६॥ इत्यादि, संधारे यत्र सुप्पते, फलगं शयनं उपविशनं वा पीढं उपविशनमेव, निषद्या पायकंवलादि वा एतत् सर्वं अपमज्जिता आरुभती, तथा ग्रहणं स्थापनं अपमज्जित्ता यः करोति स पापो भवति।' दवदवस्स० ॥ ५३४-४३६ । इत्यादि, निक्कारणमेव त्वरितगामी, युगान्तरप्रलोकी उपयुक्तश्च न भवतीत्यर्थः तथा प्रमत्तश्च अन्यतरेण प्रमादेन पुनः पुनर्भवति, उल्लंघनं पाटनमन्यतरस्य सच्चविशेषस्य रोपाविष्टः करोति, चंडो-- रोषणः, नित्यं रोपणशीलश्च यः स पापो भवति । 'पडिले हेइ ० ॥५३५-४३६ ।। इत्यादि, तथा प्रतिलेखनां च यः करोति प्रमत्तः, अन्यतरेण प्रमादेन, पादकंबलादि च न प्रतिलेखयति, तदपि दोषदुष्टं अणायुक्तं प्रतिलेखयति यः स पापो भवति । 'पडिले ३०' ||५३६ ॥ इत्यादि, तथा प्रतिलेखयति प्रमत्तः, किंचिन्मनोहरकलरिभितादि शब्दं श्रुत्वा गुरुणा णोदितः अज्जो ! न चट्टति, ततस्तमेव गुरुं परिभवति यः स पापो भवति । 'बहुमाई०' ।। ५३७ ४३६ । इत्यादि, बहुमाथी सर्वत्र प्रयोजनेषु मायया व्यवहरति, न सुद्धहृदयः, प्रकर्षेण मुखेन अरिमावहतीति मुखरी, तादृशं भाषते येन सर्व एव अरिभवति, तथा स्तब्धः ४ ॥२४५॥ लुब्ध, यथा मायया क्रोधेन मानेन लोमेन च न क्वचित् किंचित्करोति निग्रह, एतदुक्तं भवति सर्वमेव प्राणातिपातादि करोती [250] पापश्रमणं लक्षणानि Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५२७ ५४७|| दीप अनुक्रम [५३९ ५५९] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं [१७], मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९||, निर्युक्ति: [३८६...३९९/३८६-३९१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्री उत्तरा० चूण १७ पापश्रम ० ॥२४६ ॥ त्यर्थः न च विवेो विरतिर्वा विद्यते, न च संविभागशीलः, एतदोषदुष्टत्वात् न कस्यचित् प्रिया, असौ पापो भवति । 'विवायं च० ' ॥५१८-४३६ ॥ इत्यादि, खामितविउसिताई अधिकरणाई उदीरेति, अन्येषामुपशान्तानामिति विग्रहः, उदीरयति, अधर्मशीलत्वाद, अदुवा अथवा स्वपक्षं परपक्षं वा हंति, व्युग्रहे कलहे वा युक्त:--आयुक्तः, विग्रहः सामान्येन कलहो वाचिकः, यः एवंप्रकारः असी पापो भवति । 'अधिरासणे ० ||५३९-४३६ ।। इत्यादि, स्थिरासनो न भवति, निकारणमेव इतश्वेतश्च वंभ्रमीति, 'कुच परिस्पन्दने' दास्ताः क्रियाः करोति येन परस्य मोहमुत्पादयति, सुद्धपुढवीए ण निसीएज्जत्ति एतन स्मरति, आसनोपविटेनोपयुक्तेन भवितव्यं तच्च तथा न करोति यः स पापो भवति । 'सस रक्ख ० ||५४०-४३६ ॥ इत्यादि, स्वपन् पादौ न प्रमार्जयति, संथार उत्तरपादी ( पट्टी) न प्रतिलेखयति, संस्तारके च तिष्ठन् उपयुक्तो न भवति, सर्वत्र च तिष्ठता गच्छता च उपयुक्तेन भवितव्यं, यचैवं न करोति असौ पापो भवति । 'बुद्धदही ० ' ॥५४१-४३६॥ इत्यादि, विकृर्ति अशोभनं गतिं नयन्तीति विगतयः, ताथ क्षीर विगत्यादयः, विगतीमाहारयतः मोहोद्भवो भवति, न च कथंचिदपि अनशनादि तपः करोति असौ पायो भवति । 'अत्थतमि य० ' ॥५४२-४३६॥ इत्यादि, अस्तमनकालेऽपि आहारं नित्यमाहारयति, यदि नाम कधिच्चोदयति किमिति भवं आहारं नित्यमाहारयति न चतुर्थषष्ठादि कदाचिदपि करोति १, एवं चोदितः प्रतिचोदयति यः स पापो भवति । 'आयरिय० ॥५४३-४३६॥ इत्यादि, आचार्यपरित्यागी परपाडसेवकः 'गाणंगणिए' गणा गणं संचरति जघन्येन अपूर्णपण्मासे निष्कारणे असौ गाणं|गणिकोऽभिधीयते, 'दुब्भूते' दुष्प्रा (दुष्टा ) र्थो, दुष्टं अशोभनं भवनं यस्य, भवनं वर्त्तनं करणमित्यर्थः यः एवंप्रकारः स पापो भवति । 'सयं गेहं०' ||५४४-४३६॥ इत्यादि, स्वयं गृहं परित्यज्य प्रव्रज्यां गृहीत्वा परगृहेषु व्यापारं करोति, निमित्तादीनां च व्यापारं [251] पापभ्रमणं लक्षणानि ॥२४६॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१७], मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९||, नियुक्ति: [३८६...३९१/३८६-३९१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५२७ ५४७|| श्रीउत्तरा.15 करोति, एवं संयम प्रति सीदन् पापो भवति। संनाइपिंड०॥५४५-४३६।।इत्यादि, समायपिंड जमेह जिहेन्द्रियासक्तः, सुखासक्त-1 चूणौँ ॥ष समुदान भिक्षापर्यटन नेच्छति,एतच्च एतद्वयमपि न भवति तथा गृहस्थासनानि नित्यं सेवति यः असौ पापो भवति। एयारिसेIXIधिकार १८ ॥ ५४६५४७-४३७ ॥ इत्यादि, वृत्तद्वयं, ईदृशः 'पंच कुसीलसंवृत्तः' पंच इति पासत्थोसण्णकुसीलणितियसंसक्तरूवधरा संयतीया.181 इत्यर्थः, मुनीनां प्रवराणां हिडिमो निकृष्टो जघन्य इत्यर्थः, एवंप्रकारस्य आत्मा साधुलोके विषममिव गर्हितो भवति, नासो ॥२४७|| | इहलोके पूज्यः, नापि परलोके, यः पुनरेतान् दोषान् वर्जयति यदा स सुव्रतो भवति मुनीनां मध्ये, तस्यात्मा साधुलोके अमृत| मिव पूज्यते, अमृतं कियद्वर्णगन्धरसोपेतं वर्णबलपुष्टिसौभाग्यजननं सर्वरोगनाशनं अनेकगुणसम्पन्न कल्पवृक्षफलबदमृतमभिधीयते, 31 स एयरथविशिष्ट इहलोकं परलोकं च आराधयतीति । इति -परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने च, गुरूपदेशात्, न स्वाभिमायणेति । नया: GI पूर्ववत् ।। इति पापसमणं नाम सप्तदशमध्यपनमिति १७॥ उक्तं सप्तदशमध्ययनं, इदानीमष्टादर्श, तस्य कोऽभिसम्बन्धः ', सम्बन्धो वक्तव्यः, स च त्रिविधः, तद्यथा-'सूत्रप्रकरणाध्याय' इत्यादि, सूत्रप्रकरणसम्बन्धी उौ, अध्यायसम्बन्धः सप्तदशमे पापश्रमणो व्यावर्णितः, इह पुनरष्टादशमे सुश्रमणो व्याव येते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य अध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनि'फन्ने निक्खेवे संजईज्ज, 'निक्खेवो || | संजइज्जमि० ॥३९१-४३८|| इत्यादि, संजयशब्दस्य चतुर्विधो निक्षेपः नामादि, यावत् शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः त्रिविधः, एकमविकादि, भावसंजओ आगमतो नोआगमतो य, 'संजयनाम गोयं वेयंतो॥३९३-४३८॥ इत्यादि, उक्तो नामनिष्पभो ॥२४७॥ | निक्षेपः । इदानीं सूत्रालापक इति, अस्माचावज्ज्ञेयं यावत् सूत्रं-'कंपिल्ले नयरे ॥५४८॥ इत्यादि, नियुक्तिगाथाः सूत्रगाथाश्च CA दीप अनुक्रम [५३९५५९] %ESC- अध्ययनं -१७- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१८- “संयतीय" आरभ्यते [252] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१८], मूलं [१२..] / गाथा ||५४८...६००/५६०-६१३|| नियुक्ति: [३९१...४०४/३९२-४०४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा संयता चूणी प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५४८६००|| १८ संयतीया. l/૨૪૮ प्रायसः प्रकटार्था एव, नियुक्तिकारः सूत्रोक्तमेवार्थ क्वचिदनुवर्तते, अतः परं गाथानुसारेण प्रवेश! आख्यातकप्राय प्रायः भवि-18| प्यति, सो य संजओ राया कहिं आसी', कहिं वा तेण साहुचणं लई , ते भण्णति--'कंपिल्लपुर० ॥३९४-४३८॥ इत्यादि, धिकारः | कंपिल्लपुरं नयरं, तत्थ य संजतो नाम राया, सो कइया मिगवहाए णिग्गतो चउबिहेणं सेनेणं येहिं गएहिं रहेहिं पुरिसेहि य, तदेव चउव्यिहं सेन्नं नासीरं भवइ, तस्स य कंपितपुरवरस्स समीवे केसरं नाम उज्जाणं, घणघडियकडच्छायं, तेण राइणा ते मिगा समंततो परुद्धा संता केसरुज्जाणं पविट्ठा,अफोयमंडवे गद्दभालीणामं अणगारो झाणं झियायमाणो चिति, अप्फोव०॥५५२-४३९।। इति, किमुक्तं भवतिी-आकीर्णः, वृक्षगच्छगुल्मलतासंछण्णे इत्यर्थः, सो य राया गच्छगते मिगे वधेति, तेसिं च मिगाणं कति मिगा| | भीता तेसिं सरणमिव मग्गमाणा उपगता, तेण राइणो अच्छरीयमिति चिंता जाता-किं मण्णे इत्थ कोइ होज्जा', ततो राया आसगतो ते मिगे हए अहए य पासति, तं च साधु दट्टण संभंतो भीतो भणति-अहो मया मन्दपुण्णेणं मन्नेऽनगारो विधितोऽतिरसगिद्धेण 'धत्तुणा' घातणसीलेनेत्यर्थः, सो राया, आसं विसज्जइत्ताण०॥५५५-४४०॥ तं साहुं विणएणं वंदिऊण अवराहं तं तु खामेति राया, ण जाणिया तुम्भे तो सरो यत्तितो मया,'अह मोणेण०'अह मोणमस्सितो सो अणगारोण बाहरति तस्स, तम्भ-IN | यभीतो इणमत्थं सो उदाहरति-कपिल्लपुराहिवई' ॥ ४००-४४० ॥ इत्यादि, सर्वा नियुक्तिगाथाः प्रकटार्थाः, सूत्रगाथा अपि |प्रायसः प्रकटार्था एव, यद्वक्तव्यं तदुच्यते-ततो सो संजओ राया गइमालिस्स अतिए चेच्चा रज्ज पथ्यइतो.ग्रामसमुदायो राष्ट्रमभि| धीयते, तो त पव्वइतं सोऊण तत्थ खतिओ देवलोयचुतो सारिसतो वीमसाए पुच्छति-जहा ते दिस्सती रूवं, पसनं ते जहा | ॥२४८॥ दीप अनुक्रम [५६० ६१३३ [253] Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१८], मूलं [१२..] / गाथा ||५४८...६००/५६०-६१३|| नियुक्ति : [३९१...४०४/३९२-४०४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक उत्तरा०मणो॥ किंवा [१२...] गाथा ||५४८६००|| - | मणो । किनामे किंगोत्ते, कस्सट्टाए व माहणे । कह पडियरसी बुद्धे, कहं विणीयत्ति वुच्चसि ॥ ५६८-४४३ ॥ उच्यते--संज-1 क्षत्रियायचूणों | ओ नाम नामेणं, अहं (तहा) गोचण गोयमो । गदभाली ममायरिया, विज्जाचरणपारगा ॥ ५६९,४४३ ।। जम्हा सच्चे पाणिणो क्रियायुक्त ण इंमि तम्हा माहणेत्ति बुच्चामि, तथा पुनरपि क्षत्रिय आह-क्रियावादिणं आसीतं शतं अक्रियावादिना चतुरशीतिः अज्ञानिक-14 देश: संयतीया.18वादीनां सप्तपष्टि वैनयिकानां द्वात्रिंशत, एभिश्चतुर्भिः स्थानः एकान्तवादिनः 'मितज्ञा' मितज्ञानिनः मितशीलमुपचारः, मितं | ॥२४९॥ परिमितं स्तोकमित्यर्थः, ज्ञानिना, कथं एवमेते परमार्थ ज्ञास्यन्ते?, कथं वा परस्योपदेश दास्यति?, अज्ञानाच्च पापं कुर्वन्ति, ततो पडंति णरए घोरे, पुनधर्ममाचरन्ति ते दिव्यां गतिं गच्छन्ति, सव्वे ते विदिता मज्म इत्यादि गतार्था, पुनरपि क्षत्रिय आहअहमासी ब्रह्मलोके कल्प महाप्राणे विमाणे द्युतिमा बरिससतोचमा, किमुक्तं भवति ?-पल्योपमसागरोपमयंत्रोपक्रमः क्रियते आयुए, पाली मयोंदा, या पन्योपमैः स्थितिः सा ली, या पुनः सागरोपमैः स्थितिः सा महापाली, सोऽहं बहूनि सागरोपमानि ब्रह्म-| लोककल्पे भोगान् भुक्त्वा इदं मानुष्यकं भवमायातः, इहापि मम ज्ञानमस्ति येनात्मनः परेषां च आयुं जाणामि, तंजहा-स एव क्षत्रियः संजयस्योपदेशं ददाति, नानाप्रकारां रुचिं च छंदं च परिवर्य संजतो भवति जिनमते, एकग्गचितो भव इत्यथे।, ये च अनास्तां सा ज्ञात्वा परिवर्जयेत्, ये च साधिकरणप्रश्नाश्च तेषां प्रतिक्रमे, अहो विस्मये, अहो भवां संयमे उत्थितः, अहोरात्रं सर्वमित्यर्थः, एतज्ज्ञात्वा तपः कुरु, यच्च मां पृच्छसि तव तं कथयामि, क्रिया अस्तित्वं तत्र रुचि कुरु, कथं , अस्ति माताऽ|स्ति पिता अस्ति सुस्तदुष्कृतानां कर्मणां फलविपाक इति, नास्तित्वं च परिवर्य, सम्यग्दृष्टि त्या धर्ममाचर, एतत्पुण्यपदं २४९॥ श्रुत्वा कृत्वा च ये मोक्षं गता तानहं कीर्तियिष्यामि स्थिरीकरणार्थ, भरहोवि भरहवासं चेच्चा कामाणि पचहए इत्यादि, एव दीप अनुक्रम [५६०६१३] CRE AM -- [254] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१८], मूलं [१२..] / गाथा ||५४८...६००/५६०-६१३|| नियुक्ति: [३९१...४०४/३९२-४०४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५४८६००|| AGRA १९ श्रीउत्तरा मादाय धीरा धर्म कृत्वा मोक्षं गताः, ये पुनरहेतुभिर्वर्तन्ते उन्मत्तका इव विचरन्ति, एतत् शुभाशुभं विशेष गृहीत्वा ये धीरा मृगापुत्रचूणौँ निक्षेपादि बुद्धिमंतो दृढपराक्रमाः ते शुभं प्रति प्रयतते, ये पुनरन्ये ते विपरीतं कुर्वन्ति, एतज्ज्ञात्वा मया आणिदाणखमचि-अनिदाणमबमृगापुत्रीय न्धस्तरक्षमा तत्समर्थास्तनिष्पादका, यद्वा अबन्धात्मिका सत्यभाषाभाषिता, एतत् कुर्वतः त्रिष्वपि कालेषु परमां गतिं गताः, ये पुनरहेतुभिः वर्तन्ते ते कथं शुभा गतिं यास्यन्तीति,शेषं तदेव,नयाः पूर्ववत्।।संजइज्जं अष्टादशमध्ययनं परिसमाप्तमिति१८॥ ॥२५०॥ उक्त अष्टादशम्,इदानीमे कोनविंशतितमम् ,अत्र सम्बन्धः,अष्टादशमे भोगऋद्धीपरित्यागात् सुश्रमणो भवति, इहापि अप्रतिक-13 ४ार्मशरीरत्वात् सुतरां श्रमणो भवति, अनेन सम्बन्धनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनिष्पने निक्षेपे मियापुत्तिज्ज, मृगशब्दः पुत्रशब्दश्च निक्षेप्तव्यः, 'णिक्खेवो अमिआए.॥४०५-४५१॥ इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ । इदानीं। नामनिरुक्ति प्रवीति-मिगदेवीपुत्ताओ०४०८-४५१॥इत्यादि, गतार्था, उक्तो नामनिष्पनो निक्षपः । इदानीं सूत्रालापक इति, अस्मात्तायद्वक्तव्यं यावस्त्रं निपतितं, सूत्रं चेदं-'मुग्गीवे णयरे' ।।६०१-४५२।। इत्यादि, सूत्रोक्तमप्यर्थ नियुक्तिकारः पुनरपि ब्रवीति, किं ?, द्विद्धं शु(सुच)द्धं भवतीति, "सुग्गीचे णगरे' इत्यादि आख्यानकगाथाः प्रायसः गतार्था, 'उण्णंदमाण' इति D'दुनदि समृद्धी' हृदयेन तुष्टिबहुमानो भोगसमृदः सा तुल्यो नान्य इति, दोगुंदक इति त्रायस्त्रिंशदेवा नित्यं भोगपरायणा ते दोगुंदगा इति भण्यन्ते, एवं सोऽवि नित्यं भोगपरायण हति दोगुंदगः, देहति-पश्यति, संनिणाणमिति संज्ञिनः ज्ञानं संशिज्ञानं ॥२५॥ तत्समुत्पन्नं, जातिस्मरणमित्यर्थः, तेन जाइस्मरणेन स्मरति यथा मया अन्यस्मिन् जन्मनि संयमः कृत इति, पच्छा पुरा व जहि दीप अनुक्रम [५६०६१३] NEERIES CCCACa अध्ययनं -१८- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१९- "मृगापुत्रीय" आरभ्यते [255] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१९], मूलं [१२..] / गाथा ||६०१...६९८/६१४-७१२|| निर्युक्ति: [४०५...४२१/४०५-४१९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा० [१२...] चूर्णां २० गाथा ||६०१ ६९८|| दीप अनुक्रम [६१४ _७१२] महा नियंठिज्ज ॥२५१ ॥ यध्वो पर्यन्तकालो पुरा लघुवयस एव यद्वा युष्माकं पञ्चात्पुरतो वा, परित्यज्य शेषं तावदेव जायते इति, नयाः पूर्ववत् ॥ एको नविंशतितमं मृगापुत्रीयं समाप्तम् ॥ २९ इदाणिं विंशतितमं तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, एकोनविंशतितमे अप्रतिकर्म्मशरीरता व्यावर्णिता, विंशतितमे महानिर्ग्रन्थत्वमिति व्यावर्ण्यते, अप्रतिकर्मशरीरच महानिर्ग्रन्थो भवतीत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य अध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववन्यावर्ण्य नामनिष्पत्रे निक्षेपे महानियंठिज्जं, खुड्डगणियंठिज्जं भण्णति, क्षुल्लके अज्ञाते नो महान्तं ज्ञायते ततो क्षुल्लकज्ञापनार्थ 'नाम उवणा० ॥४२२.४६६ ।। इत्यादि, नामक्षुल्लकं क्षुल्लक इति यस्य नाम, स्थापनाक्षुल्लकः असद्भावे अक्षादि, सद्भावे काष्ठकर्मादिक्षुल्लकस्थापना, द्रव्यक्षुल्लकं ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं सचितादि, सचितं प्रथमसमयोत्पन्नं सूक्ष्मपनकजीवशरीरं, अचित्तं परमाणु, मिश्र तस्य पनकशरीरस्य परित्यागकाले केचित् सचित्ताः केचिदचित्ताः शरीरप्रदेशाः, क्षेत्रे क्षुल्लकं आकाशप्रदेशः, यस्मिन् वा क्षेत्रे क्षुल्लकं व्यावर्ण्यते, योगः व्यापारः, स च शैलेश्यवस्थायां क्षुल्लको भवति, भावानामपिशमिक एव क्षुलकः, सर्वस्तोक इत्यर्थः, एतेसिं क्षुल्लकानां प्रतिपक्षे महंगा होंति, महंतशब्दोऽपि व्याख्यात एव । इदानीं नियंठशब्दस्य निक्षेप:- 'निक्खेवो नियंठमि० ॥४२३-४६६ ।। इत्यादि, गाथाद्वयं गतार्थ, भावनिर्ग्रन्थः पंचविध:- पुलाकः बक्कुशः कुशीलः निर्ग्रन्थः स्नातको, निर्ग्रन्थः स च पंचविधः एभिर्वक्ष्यमाणैः द्रव्यैरनुगन्तव्यः, तानि चामूनि 'पण्णवण वेय रागे' इत्यादि गाथात्रयसगृहीतानि || ४२५ ४२६।४२७-४७१ प्रज्ञापना- एषां पुलाकादीनां स्वरूपकथनं, पुलाको पंचविहो पण्णत्तो, तंजहा णाण पुलाए दंसणपुलाए चरित्रपुलाए लिङ्गपुलाए अहासुद्दुमपुलाए णाम पंचमी, तत्थ णाणपुलाओ ज्ञानस्य विराधनां करोति, कथं १, अध्ययनं -१९- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२०- "महानिर्ग्रन्थिय" आरभ्यते [256] क्षुल्लक निर्ग्रन्थनिक्षेपाः ॥२५९॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२|| नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा० चूणों २० [१२...] गाथा ||६९९७५८|| महा * नियंठिज्जा ॥२५२ कालविनयपहुमानादीनि न सम्यक्करोति, तथा ज्ञानस्य ज्ञानिनां च निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि करोति, एवं ज्ञानं पुलाकीकरोति, निस्सारीकरोतीत्यर्थः, एवं सर्वत्र, दर्शनपुलाए शंकादिदोषसहित दर्शनं धारयति, गुणाश्चोपबृंहणादयः, नात्र सम्यक्करोति, तथा 81 दीनां प्ररूदर्शनिनां च निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि करोति, एवं दर्शनं पुलाकीकरोति, चरिचपुलाओ चारित्रस्य देहे देशस्य खण्डनं सर्वखंडणं | शपणादीनि. वा करोति, तथा चारित्रस्य चारित्राणां च निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि करोति, एवं चारित्रं पुलाकीकरोति, लिंगपुलाओ लिंग-रजो| हरणमुखवखिकाणि तं अविधीए अणादरेण वा धारयति, निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि(वा)करोति, एवं दर्शनं पुलाकीकरोति-निस्सारीकरोति, अहासुहुमताए एषां चतुर्णामपि सूक्ष्मान् अतिचारान् करोति, एवं पुलाकी व्याख्यातः । बउसे पंचविहे पण्णचे, तंजहा--11 आमोगबउसे अणाभोगर उसे संवुडबउसे असंवुडबउसे अहासुहुमबउसे णाम पंचमे, बकुस इति किमुक्तं भवति ?-रागेण सरीरो|पकरणादिषु विभूषां करोति, शरीरे देशस्नानं सर्वस्नानं वा करोति, केशादिषु संयमनं वा करोति, शरीरस्य वर्णरूपगन्धादि वा | करोति, तथा आभोगेन जानं करोति आभोगवकुशः, अनाभोगेन अजानन्-अज्ञानीभूत्वा करोति अनाभोगवकुशा, संवृत्तः सन् I करोति, चारित्रावरणीयकर्मोदयात्, असंघृतबकुशः, असंवृतो वा करोति असावसंवृतबकुशः, अथाप्य(यथा)सुहुमं वा यत्किचित्तावन्मात्रंकरोति, एवं उपकरणवसत्यादिषु करोति । कुसीले दुविहे पण्यात्ते, तंजहा-पडिसेवणकुसीले कसायकुसीले य, पडिसेवणकुसीले जहा पुलाए, नवरं कुशीलशन्दोच्चारण कर्त्तव्यं, कुत्सितं शीलं कुशील मूलोत्तरगुणेषु, कषायकुशीले पंचविधे चेव जहा पुलाए, २५२॥ नवरं कषायशन्दोच्चारणं कर्त्तव्यं, कषायानुगतं शीलं । नियंठे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-बढमसमयनियंठे अपढमसमयनियंठे | चरमसमयनियंठे अचरमसमयनियंठे आहासुहुमणियंठे णाम पंचर्म, निर्गतग्रन्थो निर्ग्रन्थः, काष्टविधं मिथ्यात्वाविरति दुष्टयोगाश्च, 4 % दीप अनुक्रम [७१३७७२]] % CA % [257] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२|| नियुक्ति: [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत पुलकादि सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९७५८|| - श्रीउत्तरायद्वा ग्रन्थो बायोऽभ्यन्तरश्च, बायः खजनवान्धवधनकनकरजतादि, अभ्यन्तरः क्रोधादि, अस्मात् ग्रन्थानिर्गतो निर्ग्रन्थः, असौ चूर्णी प्रथमसमयोत्पन्नः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थोऽभिधीयते, आहामुहुमनियंठो निग्रन्थत्वं यत्किचित्तावन्मात्रेण वर्तते। सिणाते पंचविहे पण्ण-T स्वरूपं. ते, तं० अच्छवी असबले अकम्मसो संसुद्धणाणदसणधरे अरहा जिणो केवली अपरिस्साबी, छवि-सरीरं, नास्य छवि विद्यत इति 14 महा- अच्छवि, कथं ?, यथा नास्य शरीरे मनागवि मूर्छा विद्यते, परित्यक्तशरीर इत्यर्थः, न चान्यशरीरप्रतिबन्धका १, अशबला शुभानियंठिज्ज | शुभकर्मविप्रमुक्तः२, घातिकर्माणि प्रति नास्य स्तोकोऽपि कर्मबन्धो विद्यत इति अकमांशा, धातिकर्माण्येव प्रति३, संशुद्धज्ञानदर्शन-11 ॥२५३॥ धरः, क्षायिकज्ञानदर्शनधर इत्यर्थः४, देवासुरमनुजेभ्यः पूजामहंतीति अरहा, क्रोधादिजयाज्जिनः, केवलं-सम्पूर्ण ज्ञानदर्शनं धार यतीति केवली, नास्य ज्ञानदर्शनमुखानि परिश्रवन्तीति अपरिश्रावीश पुलाकादीनां स्वरूपकथनमुक्तम्, इदानीं तेषामेव पुलाकादीनां वेदचिंता-ते हि किं सवेदका अवेदका इति, वेदात्रयः-स्त्रीनपुंसका इति, पुलाए सवेदए, णो अवेदए, जह सवेदए किं थि| अबेदए पुरिसवेदए नपुंसवेदए , णो इत्थीवेदए, पुरुषवेदए वा णपुंसगवेदए वा होज्जा, बउसा पडिसेवगा तीहिवि सवेदए होज्जा, कसायकुसीलए सवेदए अवेदए उबसन्तवेदए वा खीणवेदए वा होज्जा, संवेदए तीहिंपि बेदेहिं वा होज्जा, णियंठो स-11 वेदए अवेदए होज्जा, जति अवेदए उबसंतवेदए वा खीणवेदए, जह सवेदए तीहिंपि सवेदए, सिणायए अवेदए खीणवेदए । होज्जा। पुलाकादयः सरागा वीतरागाः इति प्रश्नः १, पुलाए सरातो, ण चीतरागो होज्जा, एवं जाव कसायकुसीले, णिर्यठे को। का सरागो होज्जा, वीतरागे होज्जा, उपसंतवीतरागे खीणवीतरागो वा होज्जा, सिणाते खीणवीतरागे णियंठे होज्जा । पुलाकादयः। किं स्थितकल्पे अस्थितकल्पे भवन्तीति प्रश्ने, कः स्थितकल्पे ?, पुरिमपश्चिमाना तीर्थकराणां तीर्थेषु नियमात् क्रियते अयं कल्पः। - दीप अनुक्रम [७१३७७२]] +91 [258] Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२|| नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९७५८|| श्रीउत्तरा चूर्णी २० महानियंठिज्ज A-SCRE ॥२५४|| ततः स्थितकल्पोऽभिधीयते, शेषाणां अनियतः, स चाय-आचेलक्कुइसिय सज्जायर रायपिंड कितिकम्मा। बत जेट्ठ पडिक्कमणे मासं पुलकादिपज्जोसवणकल्पे ॥१॥ कल्पशब्दश्च करणे वर्चते, यथोक्तं-"सामर्थ्य वर्णनाकाले, छेदने करणे तथा । औपम्यै चाधिकारे (वासे) । स्वरूपं. च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः॥१॥" पुलाकादयः सर्वेऽपि स्थितकल्पे अस्थितकल्पे वा भवतीति, अथवा कल्पसामान्यात् पुलाए। कि जिणकप्पे थेरकप्पे कप्पातीते वा होज्जा, णो जिणकप्पे, णो कप्पातीए, थेरकप्पे होज्जा, चउसे पडिसवणाकुसाले य जिणकप्पे थेरकप्पे वा होज्जा, णो कप्पातीते, कसायकुसीले तिहिवि होज्जा, णियंठे सिणातो कप्पतीते, पुलाए सामाईयसंजएण वा छेदोवट्ठावणियातो वा होज्जा, सेसेसु पडिसेधो, एवं बउसपडिसेवगावि, कसायकुसीलो आइग्लेसु चउसु संजमेसु होज्जा, णो अहक्खाए, णियंठसिणायगाणियमा अहक्खातसंजमे होज्जा। पुलाए कि पडिसेवए अपडिसेवए', णियमा पडिसेयते, जति पडिसेपए मूलगुणपडिसेवए उत्तरगुणपडिसेयए ,मूलगुणेसु पंचण्डं महब्बयाणं अत्रयरं पडिसेबिज्जा, उत्तरगुणेसु दसविहस्स पच्चक्खा-11 णस्स अनतरं पडिसेविज्जा, बउसे उत्तरगुणपडिसेवए, नो मूलगुणपडिसवए, पडिसेषणाकुसीले जहा पुलाए, उवरिला तिणिचि अपडिसेवगा। पुलाए कतिहि जाणेहि होज्जा ?, दोहिं वा तीहिं वा, बउसपडिसेवगादि, एवं कसायकुसीले, णियंठया दोहि वा तीहिं वा चउहि वा होज्जा, पुलाओ न अपुवाई अहिज्जेज्जा, बउसो जहण्णण अह पवयणमाताओ उक्कोसेणं दस पुवाई अहिज्जेज्जा, एवं पडिसेवओऽवि, कसायकुसीलो णियंठो य जहणेण अह पबयणमाताओ उक्कोसेणं चोस पुवाई अहिज्जेज्जा, सिणातो सुयवतिरिचो। पुलाओ तित्थे होज्जा, णो अतित्थे, एवं उसपडिसेवगावि, कसायकुसीलो तित्थे वा अतित्थे वा होज्जा, २५४॥ जति अतित्थे तित्थकरो वा पत्तेयबुद्धो वा होज्जा, एवं नियंठसिणायावि । पुलाओ किंसलिंगे होज्जा अण्णेसिं लिंगे वा होज्जा', - दीप अनुक्रम [७१३७७२] - LECitorsCity [259] Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९ ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ ७७२] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२.. ] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा० चूर्णौ २० महा नियंठिज्जं ।।२५५ ।। दब्बलिंग पहुच्च सलिंगे वा अनलिंगे वा होज्जा, भावलिंगं पडुच्च नियमा सलिंगे होज्जा, एवं जाव सिणातो । पुलातो कहहिं | सरीरेहिं होज्जा ?, तीहिं ओरालियातया कम्मएहिं उसपडिसेवगाणं वेउव्जियं अमहियं, कसायकुसीलो पंचहिं सरीरेहिं भयणाए, नियंठसिणाता जहा पुलाओ। पुलाओ कि कम्मभूमिए होज्जा० ?, जम्मणं संतिभावं पडुच्च कम्मभूमिए होज्जा, णो अकम्मभूमीए होज्जा, एवं सेसावि, साहारणं पड़च्च कम्मभूमीए वा होज्जा अकम्मभूर्माए वा होज्जा, (पुलाओ कंमि काले होज्जा ? जम्मणं संतिभावं च पहुच्च सुसम दूसमाए दूसमसुसमाए दुसमाए) एवं सेसावि, साहरणं पडुच्च (छसुवि, जम्मेणं), सुसमदुस्समाए दू| समसुसमाए दूसमाए तिसुचि कालेसु होज्जा, उस्सप्पिणीए जम्मणं पड़च्च दुस्तमसुसमाए सुसमदुस्समाए य दोसु कालेतु होज्जा, महाविदेहे चतुर्थप्रतिभागे सर्वकालमेव भवेज्जा, संतिभावं पडुच्च पढमदुर्ग छट्टो य कालो य पडिसिज्झति, सेसेसु होज्जा, जम्मणं जंमि काले जन्मोत्पत्तिः, संविभावो यस्मिन् काले विद्यमानत्वं एवं बउसकुसील नियंठसिणायावि साहारणं पडुच्च सव्वत्थ होज्जा, णवरं नियंठसिणाताण साहरणं णत्थि । पुलाए कालगते समाणे कहिं उववज्जेज्जा १, जहष्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सहस्सारे, बउसपडिसेवगाणं जहणेणं तं चैव, उक्कोसेणं अच्चुते कप्पे, कसायकुसीले जहण्णेणं तं चैव उक्कोसेण अच्चुते कप्पे, कसायकुसीले जहणणं तं चैव उक्कोसेणं अणुत्तरोववाइएसु, नियंठस्स सच्याए, पडिसेवित्ता अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा, सिणातो सिद्धिगतीए उबवज्जेज्जा, पुलाए देवेसु उववज्जेज्जा, पुलाए देवेसु उववज्जमाणे किं इंदत्ताए सामाणियत्ताए ता यत्तीसत्ताए लोकपालचाए अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा १, अविराधणं पडुच्च एतेसु सव्वेसु उववज्जेज्जा अहमिदवज्र्ज, विराहणं | पच्च अण्णतरेसु उबवज्जेज्जा, एवं बउसपडिसेवगावि, कसायकुसीले अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा, नियंठे अजद्दण्णम शुक्को सेणं [260] पुलकादिस्वरूपं. ॥२५५॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२|| नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक पुलक चूर्णी म २० [१२...] गाथा ||६९९७५८|| महा श्रीउत्तरा सबसिद्धे उववज्जेज्जा, एवं बउसपडिसेवगादि । पुलागस्स देवलोगद्विती जहण्णेणं पलिओवमपुरतं, उक्कोसेणं अट्ठारससागरो बमाई, बउसपडिसेवगाणं जहणेणं तं चेव, उक्कोसेणं बावीससागरोबमाई, कसायकुसीलस्स जहणेणं तं चेव, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई, णियंठस्स अजहण्णमाक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमाई । पुलागस्स असंखेज्जा संजमट्ठाणा, एवं जाव कसायकुसीलस्स, नियंठिज्ज णियंठासणाताणं ऐंगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे, एतेसिं पुलागादीणं संजमट्ठाणाण कतरे कतरेहितो अप्पमा वा बहुगा वा उभया वा विसेसाहिया वा ?, णियंठसिणाताणं अजहण्णमणुक्कोसा संजमट्ठाणा सम्बत्थोवा, दोण्हवि तुल्ला, पुलागस्स असंखज्ज॥२५६॥ Mगुणा, एवं बउसकुसीलाणं असंखज्जगुणा, पुलागस्स अर्णता चारित्तपज्जवा, एवं जाब सिणातस्स, पुलागेण पुलागस्स सट्ठाण-1. सण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहि य सिय हीणे सियतुल्ले सियभहिते, जड होणे वा अणंतभागहीणे वा असंखेज्जभागहीणे वा संखे सज्जगुणहीणे वा, एवं अन्भाहियएवि, पुलाए बउसस्स परहाणसंनियासेणं चरित्नपज्जवेहिं हीणो, णो तुल्लो, णो अन्भहिए, जइर हीणे अणंतगुणहीणे सेसेहिं, एवं पडिसेबगस्स कसायकुसीलस्स छहाणपडिए, णियंठसिणाता जहा बउसस्स, एवं सेसेहिदि सह || संजोगो काययो, उवरिल्ला अब्भहिया हेडिल्ल(का हीणा)पुलाए सजोगी तीहिवि जोगेहि,एवं जाव णियंठो,सिणातो सजोगी वा अजोगी। वा। पुलाए सागारोवउत्ते चव अणागारोवउत्ते चेव, एवं जाब सिणातो । पुलाए सकसायी तं संजलणेहि चर्डि, एवं जाव पाड-Tx॥२५६॥ | सेवओ, कसायकुशीलो छहि, णियंठो एक्काते सुक्कलेसाए, सिणातो परमसुक्कलेसाए। ते पुलाए बढमाणा हीयमाणा अवहिता, तीहिवि परिणामतेहि, एवं वउसकुसीलाचि, णियंठसिणाता बङमाणा अवडियपरिणामा वा, पुलाए बद्धमाणपरिणामा जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेण अंतोमुहुरा, एवं हीयमाणवि, अवहिए जहणेणं एक समयं, उक्कोसेणं सच समया, एवं जाब णियंठो । दीप अनुक्रम [७१३७७२]] [261] Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२|| नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९७५८|| नियंठिज्ज श्रीउत्तरासिणातो अबद्रियपरिणामए जहणणं अतोमहत, उक्कोसेणं देसूणा पुब्बकोडी । पुलाए आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ |PIपलकादि. चू) |xबंधति, बउसो सच वा अदुवा चन्धति, एवं पडिसेवएपि, कसायकुसीले सत्त वा अह वा छ वा बन्धति, छ आउयमोहणिज्जवज्जा-18 स्वरूपं. २० ओ बंधति, णियंठे एगं वेदणिज्ज बन्धति, सिणाए बंधए वा अबंधए वा, जति बंधए वेदणिज्ज एग बन्धति, पुलाए अट्ठ कम्म पगडीओ वेदति, एवं जाव कसायकुसीले, णियंठो मोहणिज्जबज्जाओ सत्त वेदेति, सिणाए दणिज्जआउयणामगोत्ताओ चत्तारि वेदेति। पुलाए चेव वेदणिज्जाउअवज्जाओ छ उदीरेइ, बउसे सत्त वा छ वा उदीरेति, आउवेदणिज्जवजाओ छ उदीरेति, ॥२५७॥ एवं पडिसेवएवि, कसायकुसीले सत्त वा अदुवा छ वा पंचवा उदीरेति, आउवेदणिज्जमोहणिज्जबज्जाओ पंच उदीरति, (णियंठे) का पंचवा दोन्निवा उदीरेति, दोनि उदीरमाणे णाम गोतं च उदीरेवि. सिणाए उदीरए वा अणुदीरए बा, जति उदीरेति णाम | गोत्तं च उदीरेति । पुलागे पुलागत्तं चइत्ता कसायकसीलत्तं वा असंजमं वा उपसंपज्जति, पडिसेवओ पडिसेवं चइता उस वा कसायकुसीलत्तं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जा, कसायकुसीले कसायकुसीलत्तं चहत्ताणं पुलागतं वा बउसत्तं वा संजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जति, णियंठत्तणं चहत्ता कसायकुसीलत्तं वा सिणायत्तं वा असंजमं वा उपसंपज्जति, सिणा-15 | यतो सिणायत्तं चइत्ता सिद्धिगति उवसंपज्जति । पुलाए णोसनोवउत्तो होज्जा, बउसपडिसेवणकसायकुसीला उभर्य वावि । णियंठ-13 सिणाता जहा पुलाए आहारए होज्जा, एवं जाव णियंठे, सिणाते उभयहावि। पुलाए जहण्णेणं एगं भवं होज्जा, उक्कोसेणं तिण्णि || भवग्गहणाई, बउसे जहण्णेणं एग उक्कोसेणं अट्ठ, एवं जहा कसायकुसीले, णियंठे जहा पुलाए, सिणाए एक्कं । पुलागस्स एग-| ॥२५७॥ भवम्महणिया आगरिसा जहण्णेणं एक्को उक्कोसेणं सतम्गसो, एवं जाव कसायकुसीलस्स, णियंठस्स जहणणं एक्को उक्कोसेणं ३ दीप अनुक्रम [७१३७७२] [262] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२||, नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा चूर्णी [१२...] गाथा ||६९९७५८|| महानियंठिज्ज ॥२५८॥ | दोनि, सिणातस्स एक्को, पुलागस्स णाणाभवग्गहणिया आगरिसा जहण्णण दोनि उक्कोसेणं सत्त, बउसस्स जहण्णेणं दोलिपुलकादि| उक्कोसेणं सहस्सग्गसो, एवं जाव कसायकुसीलस्स, णियंठो जहण्णेणं दोन्नि उक्कोसेणं पंच, सिणातस्स णस्थि एक्कोऽवि । पुलाए। स्वरूपं. कालओ केच्चिरं होति?, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्च, बउसे जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी, II एवं जाव कसायकुसीले, णियंठे जहा पुलाए, सिणाए जहा बउसे। पुलाका बहवः, पुलाकरवेन कियच्चिरं कालं [अंतरं] होति ?, जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेण अंतोमुहुरा, एवं नियंठावि, अवसेसा सव्वद्ध । पुलागस्स केवतियं कालं अंतरं होति', जहण्णेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं अणतं काल, अबङ्गपोग्गलपरियह देसूणं, एवं जाव णियंठस्स, सिणातस्स नत्थि अंतरं, पुलागाणं केवतियं । कालं अंतर होति !, जहण्णेण एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वासाई, एवं णियंठाणवि जहणण, उक्कोसेणं छम्मासो, सेसाणं णत्थि अंतरं। पुलागस्स तिमि समुग्धाता पण्णत्ता, तंजहा-वेदणा कसाया मारणतिया, बउसपडिसेवगाणं पंच, तिनि ते चेव, | विउविए तेयए य, कसायकुसीलस्स छ, पंच ते चेव, आहारए य, णियंठस्स नस्थि एक्कोवि, सिणातस्स एक्को, केवलिसम-12 ग्घातो। पुलाए लोगस्स कतिभाते होज्जा ?, किं संखेज्जतिभागे असंखेज्जतिभाए होज्जा संखेज्जेसु भाएसु होज्जा! असंखेज्जेसु भाएसु होज्जा' सव्वलोएसु होज्जा ?, गोयमा ! असंखेज्जतिभागे होज्जा, सेसेसु पडिसहो, एवं जाव णियंठे, सिणाते सव्वेसु होज्जा, एवं बउसगाणवि । पुलागो खआवसमिते भावे होज्जा, एवं जाव कसायकुसीले, णियंठे खइए वा उवसमिए वा भावे होज्जा, ॥२५८॥ सिणाते खइए भाये होज्जा,एवं पुण माणा,(पुलाए ण पुष्वपडिवण्णया)विया पडिवज्जमाणयावि होज्जा?, गोयमा सिय अस्थि, सिय णस्थि, जति अस्थि जहनेणं एक्को वा दो वा तिनि वा,उक्कोसेणं सयपृहुत्तं, पुथ्वपडिवत्तिया सिय अस्थि सिय पत्थि, जति अस्थि -CIAACARA दीप अनुक्रम [७१३७७२] [263] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२|| नियुक्ति: [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: स्वरूपं. प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९७५८|| श्रीउत्तराजहण्णेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं, बउसावि एगसमएणं केवतिया पडिवज्जमाणया, (सिय अस्थि सिय पुलकादिचूर्णी पत्थि) जति अस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं, पुज्वपडिवण्णया जहण्णेणं उक्कोसेणवि को डिसयपुहत्त, एवं कुसीलपडिसेवगावि, कसायकुसीला पडिवज्जमाणया जति अस्थि जहणेणं एक्को, उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं, महा पुब्बपडिवपणया जहण्णेणवि उक्कोसेणवि कोडिसहस्सपुहुन, णियंठा पडिवज्जमाणया जति अस्थि जहण्णेण एक्को वा दो वा नियंठिज्ज | तिन्नि वा, उक्कोसेणं बावट्ठ [ति]सतं, खबगाणं चउप्पण्णा होति, उवसमगाण उ पुवपडिवण्णया जति अत्थि जहण्णेणं एक्को वा ॥२५९॥ दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सयपुहुणे, सिणाया पडिवज्जमाणया जति अस्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेण अट्ठसयं, पडिवनस्स जहण्णण उक्कोसेणवि कोडिपुहुत्तं । एतेणं भंते, पुलागवकुसकुसीलाणियंठसिणायाणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा | बहुया वा तुला वा विसेसहिया वा ?, गोतमा! सव्वत्थोवा णियंठा, पुलागा संखेज्जगुणा, सिणाता संखेज्जगुणा, बउसा संखेज्जगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुणा, कसायकुशीला संखेज्जगुणा इति ॥ उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, असति सूत्रे कस्यालापका, सूत्र च सूत्रानुगमे भविष्यति, तत्रानुगमो द्विविधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, नियु-13 क्यनुगमस्त्रिविधः-निक्षेपनियुक्तिः उपोद्घातनियुक्तिः सूत्रस्पर्शिकानयुक्तिश्च, यो यस्य विषयः स पूर्वोक्तः, सूत्रादिचतुष्टयं ॥२५९॥ युगपद्गच्छति, एत्थ य सुत्ताणुगमो इत्यादि, सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चार्यते,तच्चेदं-'सिद्धाण णमोकिच्चा' (६९९) इत्यादि, सिद्धस्यैवाध्ययनस्य प्रकटार्थस्यादि यत्किंचिद्वक्तव्यं तदुच्यते-सिद्धार्थानां परिनिष्ठितार्थानां नमस्कृत्वा संयतानां च, भावतः परमार्थतः, धर्मवर्ता तथ्यां अनुशास्तिं शृणुत मम, क एवमाह?-सुधर्मस्वामी, आख्यानकप्रबंधन कथयति, अस्थि मगहाविसए रायगिह PRESS COCCASCARRC%%% दीप अनुक्रम [७१३७७२] 2- 4- 4 [264] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२|| नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९७५८|| समुद्र पा० Sa4%% श्रीउत्तरा० नयरं, तस्थ सेणिओ राया विहारजताते निम्गतो, विहारजत्ता परिभणिया भण्णति, तनिमित्त निग्गतेण मंडिकुच्छीनाम चेइयं, निक्षपा २१ | तहिं ठितो साहू दिहो, झाणं झियायति, तत्थ तेसिं समुल्लावो-रण्णो साधुस्स य, एत्थ अज्झयणे वणिज्जति, प्रायसः प्रकटार्थ । एव, स राजा तं साधुं दृष्ट्वा परं विस्मयं गतः, अहो अस्य साधोः रूपसौभाग्यसाम्यवत्ता क्षतिमुक्ति असंगपत्ता च भोगेषु | लक्ष्यते, तस्य पादौ प्रणम्य प्रदक्षिणं च कृत्वा नातिदूरे निषण्णः, ततो ब्रवीति, (कथं तरुणो रूपवान् प्रवजितः, साधुरुवाच- अना॥२६॥ थोऽई, मम सुहन्न विद्यते, अनुकंपको बा, ततो राजा प्रहसिता, एवंगुणसमेतस्य कथं नाथो तब न विद्यते, अहं तव नाथो | | भवामि, साधुरुवाच-त्वमपि अनाथ एव, मम नाथत्वं कथं करिष्यसि', एवं साधो राजश्व संवादो वर्ण्यते, जाब विहरति वसुधं विगतपापोत ब्रवीमि, नयाः पूर्ववत् ॥ विंशतितममध्ययनं महानियंठिज्जं २०॥ उक्तं विंशतितममध्ययनं, इदानीं एकविंशतितमं, तस्य कोऽभिसंबंधः १, विंशतितमे निग्रंथोऽभिहितः, एकविंशतितमेट्र है विविक्तचर्याऽभिधीयते, स च निग्रंथो विविक्तचर्यासहित एव भवतीति, नान्यः, अनेन संबंधनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वार चतुष्टयं व्यावर्ण्य नामनिष्फन्ने निक्षेपे आदाणपदेन समुहपालिज्जं नाम, अर्थतो विविक्तचर्यानामाध्ययनमिदानी एकविंशतितम, नामनिक्षेपं करोति 'समुहपालिय'मिति, 'निक्खेवे इत्यादि (४२९) नामादिको चतुर्दा निक्षेपः, नामस्थापनाद्रव्याणि द्र ॥२६॥ | पूर्ववत्, मावे समुद्रपालितायुर्वेदतो भावतो तु णातव्यो, ततो समुट्ठितमिणं समुद्दपालिज्जमज्नयणं, उनो नामनिष्पनो निक्षेपा, | इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः , अस्मायावत्सत्रं निपतित तावद्वक्तव्यं , सूत्रं चेद-चंपाए पालिए नाम'मित्यादि (७५९-४८४) सूत्रोक्कमेवार्थ यत्पुनः नियुक्तिकारो ब्रवीति तत्पुनरुक्तं , तत् ज्ञापयति- वैराग्यभावना येन जायते दीप अनुक्रम [७१३७७२]] अध्ययनं -२०- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२१- “महानिर्ग्रन्थिय" आरभ्यते [265] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२१], मूलं [१२..] / गाथा ||७५९...७८२/७७३-७९६||, नियुक्ति : [४२८...४४२/४२३-४३६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||७५९७८२|| चूणों २० महा नियंठिज्ज न तत्पुनरुक्तं, यत्संयमपुष्टिकारमेच भवति, तथा च आह- 'सज्झायज्झाणतव.' गाथा ॥ इदानीमाख्यानकप्रबंधन समुद्रपालतस्योत्पत्तिसंबंधि कारणं चाभिधीयते-चपा णाम णगरी, तत्थ पालित्तो णाम सत्थवाहो, अहिगतो जीवार्थे (दि)षु पदार्थेषु, अरहंत| सासणरतो, सो अन्नया कयाई पोएणं पत्थितो, मणिमधरिमभरिएणं, गणिमं पूगफलज्जातिफलकक्कोलादि, समुद्दतीरे पिहुई। नाम नगरं संपत्तो, तत्थ य बाणियएणं दारिया दिना, विवाहिता य, अन्नया कयाइ तं पचि आवण्णस घेत्तूण पत्थितो सदेसस्स, सा समुद्दमज्झमि पसवती पुत्तं पियदसणं लक्खणजुत्तं, तस्स समुहपालेत्ति नामं कर्य, पंचधाईहि परिक्खित्तो परिवबढति, बावत्तरिकलापंडितो जातो, ततो जुब्धणपत्तस्स कुलरूवाणुसरिसं चउसद्विगुणोपेतं रूविणीनामभारियं आणावेति, सो मारूविणीए सहितो दोगुदओ व देवो भुजति भोए निरुबिग्गो। अह अन्नया कयाई सो ओलोयणचिहिते पासति(नगर),बझंणीणि 15 ज्जतं पासेति, तं दणं सन्नी विवेगी गाणी सैकियक्कियाणं कम्माणं जाणती फलविवागं, चरित्तावरणीयकम्माणं खओवसमे-टू णं च संबुद्धी संवेगमणुत्तरं च संपत्तो आपूच्छिऊण जणणि णिक्खतो, खायकित्तीओ, काऊण तवच्चरणं बहणि वासाणि सोधुय-18 Bाकिलेसो तं ठाणं संपत्तो जं संपत्ता ण सोयंति. एपोऽर्थः सूत्रेऽभिहित एब, तथापि नियुक्तिकारेणाभिहितः, द्विवद्धं सुबई भव-18 तीति । इदानी सूत्रे यत्किचिद्वक्तव्यं तद्ब्रवीमि 'जहित्तसगंथ'।। (७५९-६८६)॥ इत्यादि, ओहाकूत्यागे' त्यक्त्वा असद्ग्रन्थ ॥२६१३ | कर्म अशोभन कम्मे अशुभकर्मगतिबन्धात्मक, नरकतिर्यग्योनिप्रायोग्यमित्यर्थः, तं, महान् क्लेशो यस्मिन् तं महाक्लेश, महा. न्मोहो यस्मिँस्तन्महामोह, कृष्णं कृष्णलेश्यापरिणामि, भयानक, असद्ग्रन्थं त्यक्त्या संयमपर्याये स्थित्वा श्रुतधर्मे अभिरुचि | करोति, व्रतानि-महाब्रतानि, शीलानि च-उत्तरगुणानि, तानि च अभिरोचयति, तथा परीपहा सहति अहिंसयनित्यादि, सब्वेहि EARNA ॥२६१॥ दीप अनुक्रम [७७३७९६] [266] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२१], मूलं [१२..] / गाथा ||७५९...७८२/७७३-७९६||, नियुक्ति : [४२८...४४२/४२३-४३६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||७५९७८२|| Bा समुद्रस्य उसाधुता 4- श्रीउत्तराभूतेहिं इत्यादि गतार्था । 'कालेण' इत्यादि.७७२-६८७) कालेण कारणभूतेन यद् यस्मिन् काले कर्त्तव्यं तत् तस्मिन्नेव समाचरति, चूर्णी | स्वाध्यायकाले स्वाध्यायं करोति, एवं प्रतिलेखनाकाले प्रतिलेखयति, वैयावत्यकाले वैयावत्य, उपसर्गकाले उपसर्ग, अपवादकाले|| अपवादं करोति, राष्ट्रविषये आत्मनश्च बलाबलं ज्ञात्वा, सिंह इव साध्वसजादेत(सो) न त्रासं गच्छति, वाङ्मात्रमेव इदं, असत्यमपि समुद्रपा० न चिंतयति, स तत्र गच्छति, एवं सर्वार्थेषु रागद्वेषात्मकेषु दृढो भवति । 'उवेहमाणो' इत्यादि (७७३-४८७) उपेक्षां कुर्वन् परि॥२६२॥ बजति, प्रियमप्रियं सर्व समानं सर्वकार्येषु अभिरोचयति, अपवादं न सर्वकालमेव रोचयतीत्यर्थः, न चापि पूजायां सक्तिं करोति, न च परापवादं करोति । 'अणेगछंदा' इत्यादि (७७४) यावत्परिसमाप्त, छन्दोऽभिप्रायः, अनेकाभिप्राया इह मानवः दृश्यन्ते, रागद्वेषात्मको यस्तेष्वनिष्टेषु द्वेष करोति स कर्मबन्धको भवति, के च ते ?, भयानका:- भैरवाः, तत्र तस्मिन् मनुष्यलोके | उपगच्छन्ति दिव्या मानुष्याः तैरचा वा, तथा परीपहा अनेके उदयं गच्छंति यत्र सीदन्ति कातराः, स भिक्षुस्तत्र न सीदति, ५ | संग्राममध्ये इव हस्तिराजा, परीपहा विशेष्यन्ते, शीतोष्णदंशमशकादयः, आतंका-रोगाः, ते च नानाप्रकाराः स्पृशंति तान्, अक- 14 कर:- अनाक्रन्द, अधियासति, राजसैः पुराकृतानि कर्माणि क्षपयति, प्रहाय रागं च द्वेषं च अज्ञानं च विचक्षणो भिक्षुः, मेरुर्यथा । वायुना न चाल्यते, एवं परीसहोपसगैर्यथा न चाल्यते तथा करोति, तथा नात्यर्थमुनतेन न चात्यर्थमवनतेन, किं-युगान्तर-|| ॥२६२।। प्रलोकिना गन्तव्यं, महर्षिणाम महान्तं वा एपते यः स महर्षी, मोक्षार्थीत्यर्थः, न पूजायां सक्ति करोति, न चापवादं करोति, | किन्तु ऋजुभावं प्रतिपद्यते, स एवंविधः निर्वाणमार्गमुपैति । 'संयमे अरइरहसहे॥७७९-४८७।। संयमे अरतिः असंयमे च या | रतिः तां सहति, संस्तवो वचनसंस्तवः संवासश्च तच्च त्यजति, अकर्तव्येषु विरतः, स आत्मसहितं करोति, प्रधानश्च भवति, दीप अनुक्रम [७७३७९६] [267] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २२], मूलं [१२..] / गाथा ||७८३...८३१/७९७-८४६||, नियुक्ति : [४४३...४५०/४३७-४४७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत - सूत्रांक *- - [१२...] गाथा ||७८३८३१|| - परमार्थपदानि-ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तेषु तिष्ठति, मिथ्यादर्शनादीनि श्रोतांसि छिनानि-अपगतानि तस्य, न क्वचित् ममीकार, स्र्थनेमि श्रीउत्तरातता न किञ्चन विद्यते तस्य । 'विवित्ताणि'।।७८०-४८७॥स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितानि लयनानि सेवति, तान्येव विशेष्यन्ते, अक-निक्षेपादि चूर्णी | तमकारितमसंकल्पितानि संयमोपघातविरहितानि पूर्वक्रापिभिः आचीर्णानि सेवति, तथा परीषहांश्च सहति, शोभनं ज्ञानं सज्ज्ञान, रथनेमीयं । | सज्ञानेन उपगतः महर्षिः, नास्य उत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरं, सर्वप्रधान इत्यर्थः, तं अनुत्तरं धर्मसंचयं चरेचा मूलगुणज्ञानधारी। भ्राजते सूर्य इव अन्तरिक्ष, स एवंगुणविशिष्टः शुभाशुभकर्मविप्रमुक्तः संशुद्धज्ञानदर्शनधरः तीर्ला संसारं समुद्रमिव समुद्रपाले ॥२६३॥ अपुणागमं गतिं गतोत्ति, इति परिसमाप्ती, नयाः पूर्ववत्, ब्रवीम्याचार्योपदेशात् ।। एकविंशतितम अध्ययन समाप्तं ।। उक्तं एकविंशतितम, इदानी द्वाविंशतितम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः?, एकविंशतितमे विविक्तचर्याऽभिहिता, द्वाविंशतितमे | वृत्ति(धृति)श्चरणं च वर्ण्यते,सा च विविक्तचर्या धृतिमता चरणसहितेन च शक्यते कर्तुम्,अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोग द्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावये नामनिण्फन्ने निक्षेपे रहणेमिज्जति-'रहनेमी निवेक्खवो ॥४४३||४४४॥४४५-४८८॥ इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ, तत्र कोऽसौ हरि(रह) णेमी?, तस्योत्पत्तिः गाथानुसारेणव च विनेया,सिवत्ति देवी अणोज्जंगी,किमुक्तं भवति:अनुपमाङ्गी, प्रथमाजी इत्यर्थः, रहनेमिस्स चत्तारि बरिसशते गिहत्थतं, एग परिसं छउमत्थे, पंच वर्षशते केवली, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, अस्मात यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं-'सोरियपुरंमि नयरे ॥ ७८३-४९१ ॥इत्यादि, सर्व गाथानुसारेणेव णेयं यावत् 'जहा से पुरिसोत्तमो' त्ति बेमि, नयाः पूर्ववत्, प्रवीम्याचार्योपदेशात्, २५२।। द्वाविंशतितममध्ययनं रहनेमिज्ज समाप्तम् ॥ - ** -* दीप अनुक्रम [७९७ ८४६] अध्ययनं -२१- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२२- “रथनेमिय" आरभ्यते अध्ययनं -२२- परिसमाप्तं [268] Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||८३२ ९२०|| दीप अनुक्रम [८४७ ९३५] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२३], मूलं [१२.. ] / गाथा ||८३२...९२०/८४७-९३५]], निर्युक्तिः [४५१...४५७/४४८-४५४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : श्रीउत्तरा चूण २३ केशिगौत• ॥२६४॥ उक्तं द्वाविंशतितमं इदानीं त्रयोविंशतितमं तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, द्वाविंशतितमे धृतिश्चरणं च वर्णितं सा धृतिर्ध में कर्त्तव्या, चरणं पुनश्चारित्रधर्म एव, अनेन सम्बन्धेना यातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण नामनिष्फण्णे निक्षेपे केसीगोतमिज्जति 'निक्खेवो गोअमंमी चउक्कओ०' ||४५१ ||४५२||४५३ - ४९८ ॥ इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ, उक्तो नामनिष्कण्णो निक्षेपः। इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः अस्माद् यावद् सूत्रं निपतितं तावद्रोद्धव्यं, सूत्रं वेदं- 'जिणे पासत्ति णामे' इत्यादि (८३२- ४९९ ) सर्व हृदि व्यवस्थाप्य यत्किचित् वक्तव्यं तदुच्यते, अस्य पार्श्वस्वामिनः केशी नाम शिष्यो, ज्ञानचरगसंपन्नो बहुशिष्यपरिवारः श्रावस्त्यां तिंदुकनाम उद्यानं तत्र समवसृतः अथ तस्मिन्नेव काले वर्द्धमानस्वामिनः शिष्य इंद्र भूती गौतमगोत्रः, तस्यैव नगरस्य वहिः कोष्ठकं नामोद्यानं तत्र स्थितः, द्वावपी अत्यर्थं लीनौ मनावाक्कायगुप्तावित्यर्थः, सुखमाहिती, ज्ञानादिसमाधियुक्तावित्यर्थः, उभयोरपि शिष्याणां चिन्ता समुत्पन्ना- तुल्ये तीर्थकरवे किमिति शिक्षोपादाननानात्वंी, अथ तौ तत्र विज्ञाय शिक्षाणां प्रवितर्कितं समागमकृतमतीकौ द्वावपि केशिगोतमी पूर्वतरं ज्येष्ठ हृतिकृत्वा केशीं गौतमः प्रति विनयाद्यावद् शिष्यपरिवृतो तिंदुकोद्यानमुपगतः, तस्येदानीं केश्या चार्यः (स्य) अनुरूपं प्रतिपत्तिं कर्तुमुद्यतः, पलालांकुशतृणानि च साधुप्रायोग्यानि भूमौ निषद्यादुपरि निषद्यां च दापयति, तौ कैशीगौतमौ भ्राजेते चंद्रसूर्यसमप्रभौ तौ समागतौ ज्ञात्वा बहवः पापंडा गृहस्था देवदानवाश्च समागताः, तयोः किल विवादो भविष्यति, ततः केशी गौतमं पृच्छति, गौतमोऽपि केशीं ब्रवीति, पृच्छ पृच्छस्वेति, यमा-महाव्रतानि तव तत्र पार्श्वस्वामिना चत्वारि महाव्रतानि अभिधीयते तानि वर्द्धमानस्वामिना पंच, एक कार्यप्रवृत्तानां किमिति विसंवादः ?, कार्य मोक्षः, केशिमेवं ब्रुवाणं गौतमः स प्रज्ञायते प्रज्ञा प्रज्ञया ज्ञानेनालोच्य तवातवानां च अत्र अध्ययन - २३- "केशिगौतमिय" आरभ्यते [269] केशिगौतम समागमः |||२६४|| Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||८३२९२०|| दीप अनुक्रम [८४७ ९३५] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२३], मूलं [१२.. ] / गाथा ||८३२...९२०/८४७-९३५]], निर्युक्तिः [४५१...४५७/४४८-४५४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [ ४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि : २३ ॥२६५॥ श्रीउत्तरा० पदार्थानां विनिश्रयं आलोच्य देशकालानुरूपं धर्म कथयति तीर्थकराः, किं तद्विप्रत्ययकारणं १, तदुच्यते, द्वादश कारणानि, चूर्णौ सूत्रोक्ता नि) एव नियुक्तिकारेण प्रोक्तानि, 'सिक्खा वया य' इत्यादि ( ४५५ - ६ - ७ ) गाथात्रय संगृहीतानि, शिक्षापदानि पंच केशिगौत०२ महाव्रतानि चत्वारि किमित्यभिहितानि प्रथमं, तथा लिंगद्विविध्यं किमिति द्वितीयं, आत्मा कषाया इंद्रियाणि च शस्त्रं तत्तृतीयं, पाशानां अवकर्शनं, वृत्तीच्छेदने पाशानां छेदनमित्यर्थः, रागद्वेषादयः पाशः, चतुर्थं तंतूद्धरणबंधने, तंतु-भवलता उद्धरणं-नाशनं तद् बंधने कृते भचलता उद्धृता) भवति, अग्निविध्यायनं च पंचमं, अग्निः कषायः निर्वापणं श्रुतं शीलं च६, दुष्टाश्वो मनः७, पथः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि तस्य परिज्ञानं ८, महापरिश्रोतानि मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः तेषां निवारणं ९, संसारार्णवस्य पारगमनं १० तमः अज्ञानं तस्य विघाट - प्रकाशकिरणं ११, मोक्षस्थानस्य उपसंपदा, मोक्षस्थानप्राप्तिरित्यर्थः १२, एवमेतानि द्वादश स्थानानि सूत्रे व्याख्यातानि पुरिमाण दुब्बिसोज्झो उ इत्यादि, प्रथमतीर्थकर शिष्याणां दुर्विशोध्यः संयमः, ऋजुजडत्वात्, पश्चिमतीर्थकर शिष्याणां दुरनुपालकः संयमः, वक्रजडत्वात् मध्यमतीर्थकर शिष्याणां ऋजुप्रज्ञत्वात् सुविशोध्यः सुखं चानुपालयः, अतो-अनेन कारणेन द्विधा प्रकल्पितः। साधु गोतम' इत्यादि, सर्वत्र पृच्छा उत्तरं च बोद्धव्यं, तथा अ(स) चलको मध्यमतीर्थकरैः, स( अ ) चलकः प्रथमपश्चिमैर्धर्मः प्रदर्शितः, लिंगद्वैविध्येऽपि इदमेव कारणं, तथा च संयमयात्रार्थमात्रकं (ग्रहणं) अग्रहणं भवितव्यमिति, परमार्थतस्तु ज्ञानदर्शन वारित्राणि मोक्षकारणं, न लिंगादीनि एवं द्वादशसु कारणेषु व्याख्यातेषु केश्याचार्यो गौतमस्य स्तुतिं करोति, साधु गोमत! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ हमो नमो ते संसयातीत !, सव्वसत्तमहोदही ।। ९१६ ।। एवं तु संसए छिन्ने, केसी घोरपरक्कमो। वंदित्तु पंजलिउडो, गोतमं तु महामुनी ||९१७|| पंचमहव्वयजुत्तं, भावतो [270] विप्रत्ययकारणानि ॥२६५॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||९२१ ९४७|| दीप अनुक्रम [९३६ ९६२] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२४], मूलं [१२.. ] / गाथा ||९२१...९४७/९३६-९६२]], निर्युक्तिः [४५८...४६२/४५५-४५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३ ] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि श्री उत्तरा० चूर्णी २४ प्रवचन० ॥२६६॥ पडिवज्जिया धम्मं पुरिमस्स पच्छिमंमि मग्गे सुहावहे ॥ ९९८ ॥ तोसिता परिसा सव्वा सम्मत्ते पज्जुवत्थिया । संजुता ते पदसंतु भगवं केसीगोतम । ९२० -५१२शात्ति बेमि । नयाः पूर्ववत्, ब्रवीमीत्याचार्योपदेशात्, त्रयोविंशतितमं ।। उक्त त्रयोविंशतितमं इदानीं चतुर्विंशतितमं तस्य कोऽभिसंबंध: १, त्रयोविंशतितमे धम्म व्याख्यातः स धर्मः समितिगुसिं विना नैव भवति, ताश्च चतुर्विंशतिमे व्याख्यायंते, अनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वार चतुष्टयं पूर्ववद्याव नाम निष्पत्रे निक्षेपे समितीउ समितयः पंच तिस्रो गुप्तयः एताः प्रवचनमातरोऽभिधीयते तत्र प्रवचनशब्दस्य तावभिक्षेपः 'निक्स्वेवो पवयणमि' गाधाद्वयं (४५८-९।५१४) व्यतिरिक्तं कुतीर्थिकप्रवचनं, भावप्रवचनं द्वादशांगं गणिपिटकं, पिटकशब्दः समुदायवाची, प्रोच्यते अस्मिन् जीवादयः पदार्था इति प्रवचनं ॥ इदानीं मातृशब्दस्य निक्षेपः 'मातंमि उ निक्खेवो' | इत्यादि गाथा इयं (४६०-६१५१४) व्यतिरिक्तं भाजने द्रव्यमार्त, स्थितमित्यर्थः भावे समितिगुप्तिषु प्रवचनं मार्त, स्थितमित्यर्थः, 'असु इ' इत्यादि (४६२-५१४ ) गतार्था उक्तोनामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं 'अड्ड उ पवयणमाता' इत्यादि गाथात्रयं (९२१-२३५१५, गतार्थ, 'आलंबणेन 'गाथाद्वयं ९२४-५/५१६) ईर्यासमितिरभिधीयते, 'ईर गतिप्रेरणयोः' ईर गतौ, गंतव्यं गमनं, तत् कारणपरिशुद्धं वक्तव्यं तद्यथा आलंबनेन कालेन मार्गेण उपयुक्तेन च, आलंबनेन- कारणेन, चैत्यवंदन आचार्यादिप्रयोजनशरी रचितादिना कारणेन गमनं कर्त्तव्यं, न हि निर्निमितं, तथा आगमेऽप्यमिहितं 'जाव णं अयं जीवे एयति वेयति चलतीत्यादि, कालेन यद्यस्मिन् काले कर्त्तव्यं तस्मिमेव करोति, यथा भिक्षाकाले मिक्षार्थं पर्यटति, एवं सर्वकाले मंतव्यं, मार्गेण संयमोपघातरहितेन गंतव्यं यत्नेन युगांतर प्रलोकिना उपयुक्तेन गंतव्यं, अध्ययनं -२३- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२४- “प्रवचनमातृ” आरभ्यते [271] समितयः ॥ २६६॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२४], मूलं [१२..] / गाथा ||९२१...९४७/९३६-९६२||, नियुक्ति : [४५८...४६२/४५५-४५९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||९२१ X.FM ९४७|| - श्रीउत्तया इंद्रियार्थाव्याक्षिसेन गंतव्यं, न च स्वाध्यायं कुर्वता गंतव्यं, तन्मृत्तिना तदेव पुरस्कृत्य गंतव्यं । इदानी भाषासमिति:-'कोहे माणे गुप्तयः चूणौँ ट्रय'इत्यादि गाथाद्वयं(९२९-३०५१७)क्रोधादिविरहितेन उपयुक्तेन भाषा भाषणीया, तथा चोक्तं-"पुव्वं बुद्धीए पासेचा,पच्छा वक२४ HIमुदाहारे"इदाणी एपणासमिति 'गवेसणा य'इत्यादि गाथाद्वयं(९३१-१५१७)अन्वेषणग्रहणपरिभोगे:त्रिभिः कारणैराहाररुपधिशय्या । प्रवचन विशोधयेत,उद्गमोत्पादना च गवेषणाऽभिधीयते,ततः ग्रहणं,ततः परिभोगैः, चउकं विशोधयेत्, संयोजना प्रमाणं अंगार: धूमे कारणे ॥२६७॥ च । इदानीमादाननिक्षेपणासामतिः- "ओहोवहिबुग्गहितं" इत्यादि गाथाद्वयं(९३३-४) द्विविधो उपधिः-औधिको औपग्रहिकश्च, इमं विधि प्रयुजीत-पूर्व चक्षुषा प्रतिलेख्य पश्चाद्यत्नेन मृदुना प्रमार्जयेत्, इदानी प्रतिष्ठापना समितिः- 'उच्चारं पासवर्ण इत्यादि | गाथा(९३५/५१८)गतार्थ । उक्ताः सन्तियः,इदनीं गुप्तयोऽभिधीयते मनोगुप्ति बचनगुप्तिः कायगुप्तिरिति, तत्र मनोगप्तिश्चतुःप्रकारा, | सत्या मृषा स त्यामृपा असत्यामृषा चेति चतुर्विधा मनोगुप्तिः, संरभसमारंभात्मकं सत्यं न चिंतयति, एवं सत्यामृष न चिंतयति, | 'संकल्पः संरंभः परितापकरो भवेत् समारंभः। आरंभः व्यापत्तिकरः शुद्धनयानां तु सर्वेषां।।शाएवं वाग्गुप्तिरिति विज्ञेया,इदानीं काय गुप्तिः ठाणे निसियणे इत्यादि गाथाचउक(९४४-७५२० स्थानं कायोत्सर्गादि, निषीदनं त्वग्वर्चनं ऊर्ध्व लंघनं उल्लंघन, उत्क्षेपणं । | विक्षेपणं चेत्यर्थः इद्रियाणं युजनं, स्थविरकल्पे जिनकल्पे वा स्थितः समारंभे आरंभे वा कायं वर्तमानं निवर्तयेत् यत्नेन, समितय-11 *वरणस्य प्रवत्तेने, गुप्तयः अशुभनिवृत्तये, ता एताःप्रवचनमातरो यः समाचरति संसाराद्विमुच्यत इनि,नयाः पूर्ववत्मागांख्य२४॥ इदानी पंचविंशतितम,तस्य कोऽमिसंबंधः,चतुर्विंशतितमे समितयो गुप्तयश्च व्यावर्णिताः, पंचविंशतितमे ब्रह्मगुणा व्यावयेते,14॥२५॥ तच्च ब्रह्म समितिभिर्गुप्तिभिर्विना नैव भवति, अनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद्यावये नामनिष्पन्ने - *-- दीप अनुक्रम [९३६९६२] अध्ययनं -२४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२५- "यज्ञीय" आरभ्यते [272] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२५], मूलं [१२..] / गाथा ||९४८...९९१/९६३-१००६||, नियुक्ति : [४६३...४८२/४६०-४७९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||९४८९९१|| + श्रीउत्तरा | निक्षेपे जण्याइज,'णिक्खेकेवो जण्णंमी'त्यादि गाथाद्वयं(४६३-४।५२१)व्यतिरिक्तं ब्राह्मणादीनां जयनं,भावयनः तपःसंयमानुष्ठान, जयघोषस्य चूणौँ वैराग्यं अध्ययननिरुक्तगाथा 'जयघोसा' इत्यादि (४६५।५२१) गतार्था । उक्तो नामनिष्पनी निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, यज्ञीया० | अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्य,सूत्रं चेदं-'माहणकुलसंभूतो (९४८५२३ इत्यादि प्रायसः गतार्थ, तथापि यत्किंचिद्वक्तव्य ॥२६८॥ तदुच्यते,यथा इदं प्रवृत्त तथा कथ्यते-बाणारसीए नगरीए दो विष्पा भायरो य, जमलाऽऽसी,जयघोसो विजयघोसो, तत्थ जयघोसो ण्हातुं गतो गंग, तत्थ पेच्छति सप्पेण मंडुकं गसिज्जत, सप्पोऽवि मज्जारेण छनो, मज्जारो सप्प अक्कमिउ ठितो, तथावि सप्पो, मंडुकं चिञ्चयंत खायेति, मज्जारोवि सप्पं चडप्पडमाणं खायति, तं अण्णमण्णघाता इत्यादि सर्वा नियुक्तिगाथा गतार्था,जायाई ॐ जयनशीलः, 'जमजनंति(यम)तुल्यो यमयज्ञः, मारणात्मकः, इंद्रियग्रामं निगृह्णाति, सम्यग्दर्शनादिमार्गगामी, अथ तस्मिन् काले! लजयघोसेण यज्ञः प्रस्तुतः, ततोऽसौ (वि)जयघोषः मासक्षपणपारण के भिक्षार्थ समुपस्थितः, तेनासौ प्रतिषिद्धः, न ते दास्यामि भो। |मिक्षां, ये च वेदविदो विप्रा, ये च यज्ञस्य याजिनः।ज्योतिषांगविदो ये च, ये च धर्मस्य पारगाः॥१॥ ये समर्थाश्च उद्धतु, आत्मानं परमेव वा । तेषामिदं तु दातव्यं, अन्नदानं हितैषिणा||२|तचं वेदमुखं वक्षि यज्ञानामपि यन्मुख । नक्षत्राणां मुखं यच्च, धर्माणां | चापि यन्मुख।।३।। ये समर्थाश्च उद्धतु, आत्मानं परमेव वा। तेनापि त्वं न जानीपे, अथ ज्ञानी ततो भण।।४।। अस्याक्षेपस्य उत्तरं | दातुं अशक्तः, ततोऽसौ सपरिवारः ब्रवीति-भगवन् ब्रूहि सर्व यथा तथा अग्निहोत्रमुखा वेदा, यज्ञार्थ वेदसा मुखं । नक्षत्राणां मुखं | चंद्रः, धर्माणां काश्यपो मुखं ॥१॥राहुमुक्तं यथा चंद्र, नेमस्यंति अजानकाः । एवं वेदविदः केचित, ब्रह्मतत्त्वं न जानते ||२५८॥ ॥२॥ यो गृहानिर्गतस्सन् न पुनस्तत्रैव सज्जति, यश्च प्रबजन् न शोचति, आचार्यवचने च रमते, रागद्वेषौ च न कुरुते, तं वयं AAKE-C दीप अनुक्रम [९६३१००६] A [273] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२६], मूलं [१२..] / गाथा ||९९२...१०५८/१००७-१०४३||, नियुक्ति: [४८३...४८९/४८०-४८६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा वैराग्यं [१२...] गाथा चूणों २६ ||९९२ सामाचारी ॥२६९॥ १०५८|| | कर्मब्राह्मणं प्राणातिपातादिविरत, वयं इमं त्रामण पशुबंधादिपापकर्मरहितं, निरतं न तं ब्रामणं ब्रूमः, एवं जयघोषेण वि- जयघोषस्य जयघोषो भवति प्रतिपादितः, तस्यैव सकाशे प्रबजितः, तपः कृत्वा 'स्ववित्ता पुवकम्माई इत्यादि गतार्थाः (९९१।५३१) नयाः पूर्ववत् ।। जण्णइज्जं नाम पंचवीसइममज्झयणं ।। उक्तं पंचविंशतितम, इदानी पदविंशतितम, तस्य कोऽभिसंबंधः,पंचविंशतितमे ब्रह्मगुणा व्यावर्णिताः, पविशतितमे सामाचारी, ब्रह्मगुणायस्थितेन अवश्यमेव सामाचारी करणीया, अनेन संबंधेनायातस्यास्वाप्यध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववयावये | नामनिष्पन्ने निक्षेपे सामाचारी निकम्वे वो सामंमि'इत्यादि गाथाद्वयं(४८३-४।५३३)व्यतिरिक्त क्षीरशर्करादीनां सामभावो,भावसामं | इच्छामिच्छादिकं,'आयारे निक्खेवो'इत्यादिगाथात्रयं ४८७-८-९।५३३ व्यतिरिक्तो नामादि,नामने तिणिसलता,धोबने हरिद्रारागः, | वासने कपिल्लकादि,शिक्षापने शुकसारिकादि,सुकरणे सुवादि लब्धि(दध्ना साद्धं गुडाः,एष द्रव्याचार, भावे दशविधसामाचार्यो चरणं, उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपः,इदानी सूत्रालापकस्यावसरः,अस्माद्यावत सूत्र निपतितं तावक्तव्यं, सूत्रं चेई-'सामायारि पव|क्खामि इत्यादि(९९२-५३४) सर्व प्रायः गतार्थ,तथापि यत् किंचिद्वक्तव्यं तदुच्यते-दिवा पौरुपिप्रमाणं छायया ज्ञायते,आसानमासे इत्यादि प्रयोगेण,रात्री पुनः कथं नातं तद्', उच्यते,यनक्षत्रं रात्रि परिसमापयति तस्मिनक्षत्रे चतुर्भागे स्थिते प्रथमप्रहरः कालिक-13 |श्रुते तस्य तस्मिन् स्वाध्यायः क्रियते, तस्मिन्नेव नक्षत्रे णभोमध्ये स्थिते अर्द्धरात्रः, तस्मिन्नेव नक्षत्रे चतुर्भागे शेषस्थिते पधिमा H॥२६९॥ प्रहर।दशविधा सामाचारी चक्रवालसामाचारी न अबाभिहिता, (ओघरूपा च ) तौ च आवश्यकानुसरेण बातम्याविति, नयाः पूर्ववत्, षड्विंशति-तमं सामाचारीनामकं समाप्तं ।। दीप अनुक्रम [१००७१०४३] सव अध्ययनं -२५- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२६- “सामाचारी" आरभ्यते अध्ययनं -२६- परिसमाप्तं [274] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२७], मूलं [१२..] / गाथा ||१०४४...१०६०/१०५९-१०७५||, नियुक्ति : [४९०...४९८/४८७-४९५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा २७ ||१०४४ १०६०|| श्रीउत्तरान इदानी सप्तविंशतितम, तस्य कोऽभिसंबंधः?, पदविंशतितमे सामाचारी अभिहितेति सप्तविंशतितमे अशठता व्यावर्णिता, निक्षेपादि चूणा सा च साधुना सर्वप्रयोजनेषु कर्तव्या, अनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद्यावर्ष नामनिष्पन्ने निक्षेपे शक्षदुष्टता खलंकिज्जमि' इत्यादि गाथाद्वयं (४९०-११५४८) व्यतिरिक्तो बलीवर्दो मायी, खुटुका गली मरालो शठो प्रतिलोमे अविनीत खलुंकीये इत्येकार्थः, भावे खलुको प्रतिलोमो, सर्वेषु मोक्षप्रयोजनेषु खलप्रकार 'अबदाली' इत्यादि (४९२-५४८) अबदाली स्कंधानुयुगं योत्रं च ॥२७०॥ सुविण्णासति, उन्नसति, योत्रं युगं च भांडं भनक्ति, उत्पथेन गच्छति, विपथेन-विषमेण पथा गच्छति,' किर दवं बुज्ज'इत्यादि। गाथाद्वयं(४९३-४१५४८)गतार्थ, 'दंसमसक' इत्यादि (४९५२५४८)दंसमसकतुल्या जात्यादितुदनसीला,जलूकतुल्या दोषग्राहिनः, 15 कपिकतुल्या असमाधिकारिणः,'तीक्ष्णा' निस्त्रिंशा मृदवः अत्यंत अज्ञाः चंडा-रोपणाः मार्दविका-अत्यंतमलसा, एते भावFखलुका । 'जे किर गुरुपडिणीया' इत्यादि गाथात्रयं ४९६-७-८।५४८)गतार्थ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः इदानीं सूत्रालापकस्या वसरः, अस्मायावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं,सूत्र चंद-'धेरे गणधरे गग्गे'इत्यादि (१०४४५५०) स्थिरीकरणात् स्थविरः, गण धारयतीति गणधर:-गणी, गच्छआचार्य इत्यर्थ , गर्गसगोत्र इति, मन्यते त्रिकालावस्थितं जगदिति मुनिः, विशारद हेतोः, संग्रहो-18 पग्रहकुशल इत्यर्थः, गणिभाव प्रति आकीर्णः, सुतरां आचार्यगुणोपतः, ज्ञानादिसमाधिकारकः, स इदानी आचार्यः शिष्यस्योपदेश ददाति-बहन-रथादि तस्मिन् युक्तस्य बलीव देवहत यातव्योपदेशः अभिवर्त्तते, अथ न वहते तत् तस्यैवाशोभनं भवति, शिष्यस्यापि संयमयोगान सम्यग्वहतः संसारच्छेदो भवति, यः पुनः संयमयोगेष अविनीतान खलंकान योजयति असौ विधि-18||२७०॥ चोदनामपि कुर्वन् क्लिश्यति, असमाधि च लभते, लाघवं च प्रामोति, वक्ष्यमाणवलीचर्दसदृशाः कुशिष्या भवंति, ते च इमे NCRECRe८२-%% दीप अनुक्रम [१०५९ * १०७५] अत्र अध्ययन -२७- “खकिय" आरभ्यते [275] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२७], मूलं [१२..] / गाथा ||१०४४...१०६०/१०५९-१०७५||, नियुक्ति : [४९०...४९८/४८७-४९५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||१०४४ १०६०|| श्रीउत्तराएगं इसति पुच्छंमि'(१०४७-५५२)इत्यादि गाथा सर्वा. एकं बलिबर्दविशेष पुच्छे पीलयति, अन्यमभीक्ष्णं तुदयति, अन्यदतस्तत्र चूणौँ । दुष्टस्तत्कारणं कृत्वा पार्श्वस्थं उल्लंघ्य नश्यति, एवमादि कियत् वर्णयिध्यामि, यादृशास्ते दुष्टबलीव दुष्टशिक्षा अपि तादृशा शेक्षदुष्टता एव, धर्मयाने वा योजिता भज्यन्ते धृति दुर्बला एभिः कारण मज्यन्ते, रिद्धिरससातागुरुत्वात् , सबलशीलत्वात् , क्रोधनत्वात् , माक्षमागमा भिक्षाऽलसिकत्वात्, स्वपक्षपरपक्षमानमीरुकत्वाद्भज्यन्ते, अन्यैः अनुशास्यमानोऽपि अन्तरभाषया दोषोद्घट्टनान् कुरुते, आचा-IN ॥२७॥ दर्याणां वचनं प्रतिकूलयति, कथं ?, क्वचित् ष्यमाणो ब्रवीति-नासौ ममं जानाति, अथवा नासौ मम दास्यति, अथवा निर्गता HIसा एवमहं मन्ये, अन्यत्र प्रेष्यता, प्रेष्यमानो प्रतिकूल यति, ततः स्वच्छन्दी सुखं विहरति, राजवेष्टिमिव मन्यमानो भृकुटिं| कुर्वति, आचार्येण वाचिता संगृहीता भक्तपानेन पोपिता जातपक्षा पलायंते हंसा इव दिशादिश, ततो आचार्या विचिंतयंति-15 खलुकैः सह समागतः वि.मम दुष्टशिष्यैः', आत्मा मेऽवसीदति- यारशा मम शिष्यास्तु, तादृशा गलिगईभा । गलिगद्देभं परि-18 त्यज्य, दृढं गृह्णात्यसौ तपः||शाआचार्यः मृदुगंभीरसुसमाहितः शीलसमाहितो विहरतीति,नयाःपूर्ववत् । सप्तविंशतितमं समाप्तम् ।। उक्तं सप्तविंशतितमं, इदानीमष्टाविंशतितम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः, सप्तविंशतितमे अशठता व्यावर्णिता, अष्टाविंशतितमे मोक्षमार्गोऽभिधीयते, मोक्षमार्गोऽशठस्यैव भवति, अनेन सम्बन्धनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववव्यावर्ण्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे मोक्खमम्गगती-'णिक्खेवो मोक्वंमि०४९९-५००-५५५।। इत्यादि, गाथाद्वयं, ज्ञभब्यव्यतिरिक्तो निगलादिषु, भावमोक्खो अट्ठबिहकम्ममुक्को नायचो भावमोक्खो, 'निक्खेवो मग्गमि० ॥५०१-२२५५।। इत्यादि गाथाद्वयं, व्यतिरिक्तो। ||२७१॥ जले स्थले वा, भावमार्गो ज्ञानदर्शनचारित्राणि, 'निक्खेयो उ गतीए० ॥ इत्यादि गाथात्रयं ( ५०३-४ ५) व्यतिरिक्तं जीवानां दीप अनुक्रम [१०५९१०७५] अध्ययनं -२७- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२८- “मोक्षमार्गगति" आरभ्यते [2761 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२८], मूलं [१२..] / गाथा ||१०६१...१०९६/१०७६-११११||, नियुक्ति : [४९९...५०५/४९६-५०२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||१०६१ २९ १०९६|| श्रीउत्तरा। पुद्गलानां वा गतिः, भावगती पंचप्रकारा, मोक्षगतीए अधिकारो, उक्तो नामपिनो निक्षेपः, इदानी सूत्रालापकस्यावसर, नक्षपाद चूर्णी अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं- 'मोक्वमग्गगति तच्च०।१०६१-५५६।। इत्यादि, सर्व प्रायः प्रकटार्थ, शिक्षदुष्टता तथापि यत्किंचिदक्तव्यं तदुच्यते, चत्तारि कारणा ज्ञानदर्शनचारित्रतषांसि चतुष्टयमपि, ज्ञानदर्शनलक्षणं कथं , येन ज्ञानसम्यक्त्वा. दर्शनाभ्यां बिना आत्मभावं न लभंत, गुणानामाश्रयो द्रव्यं, जीवद्रव्यस्य ज्ञानादयो गुणाः, अजीवद्रव्यस्य रूपादयः गुणा द्रव्या- | ॥२७२॥ सृताः पर्यायामृताच, पर्यायाः गुणाश्रिताश्च, धर्माधर्माकाशानि एकद्रव्यानी,न तेषां स्वतः प्रदेशकल्पना विद्यते,जीवाः पुद्गलाः कालाच अनन्तानि,वर्तनालक्षणः कालः बालयुवावृद्धत्वादिभिलेक्षणलक्ष्यते,पुद्रललक्षणं तत्रान्धकारातपोद्योतादीनि, पोयलक्षणं एकत्वं पृथतवं एकद्विव्यादिका संख्या संस्थान-आकारविशेषः, संयोगवियोगी, देवदत्तस्य गृहेण सह सम्बन्धः संयोगः, तस्माद् वियोगो| विभागः, जीवादयस्तथ्याः पदार्थाः, तत्वा(ध्या)नां भावानां निसर्गादधिगमाद्वा शुद्धानां रुचिः सम्यग्दर्शन, तदशप्रकारं निसगादि, ★ कथं लक्ष्यते, तचानां भावानां गुणोत्कीतनेन सम्यग्ज्ञानानुष्टानेन ग्यापनकुदर्शनवजनेन च लक्ष्यते, सम्यग्दर्शनविरहित चारित्रं न भवति, दर्शनं तु चारित्रविरहितमपि भवति, तथा ज्ञानं च दर्शनरहितं न भवति, ज्ञानेनापि विना चारित्रं न भवति । ज्ञानादिगुणविरहितस्य मोहो न भवति, अमुक्तस्य च निति स्ति, सुखं नास्तीत्यर्थः, ज्ञानादीनां विषयं प्रदर्शयति ज्ञानेन सर्व | पदार्थान् जानाति, दर्शनेन तानेव अद्धत्ते, चारित्रावस्थितस्यापूर्वपापग्रहणं न भवति, तपसा पूर्वोपात्तस्य कर्मणः क्षयं करोति ।। नयाः पूर्ववत ॥ अष्टाविंशतितमं मोक्षमार्गगतिनामकमध्ययनं समाप्त ॥ ४ा उक्तं अष्टाविंशतितमं, इदानीमेकोनत्रिंशत्तम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः?, अष्टाविंशतितमे मोक्षमार्गोऽभिहितः, एकोनत्रिंशत्तमे अवश्य दीप अनुक्रम [१०७६११११] अध्ययनं -२८- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२९- “सम्यक्त्व पराक्रम" आरभ्यते [277] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२९], मूलं [१३-८८/१११२-११८८] / गाथा ||१०९७-/१११२-११८८||, नियुक्ति : [५०६...५१२/५०३-५०९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा चा सूत्रांक [१३-८८] गाथा ||१०९७|| तपोमागे. ॥२७३॥ X | मेवाप्रमाद: करणीयः, स एव मोक्षमार्गः, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववत् व्यावj नामनिष्प मे |संवेगादि निक्षेपे अप्पमादज्झयणंति, आदानपदेनेदमध्ययनं सम्यक्त्वपराक्रममभिधीयते, गौणी संज्ञा अप्रमादश्रुतामिति, अन्ये तु वीतरा-13 गश्रुतमिति, तत्र द्रव्ये पत्रादिलिखितं, अथवा व्यतिरिक्तं सूत्रं पंचप्रकारं-अंडजादि, उक्तो नामनिष्फण्णो निक्षेपः, इदानीं सूत्राला-16 | पकस्यावसरः,अस्माद्यावत् सत्र निपतितं तावद्वक्तव्यं,सत्रं चेदं-'सुतं मे आउसं! तेण'५१३सू०५७२)मित्यादि सर्व, सम्यत्वसहितस्य पराक्रमः सम्यक्त्वपराक्रमः, पराक्रमः- उत्साहो, वक्ष्यमाणेषु प्रयोजनेषु उत्साहः करणीयः, प्रत्येककारणानि सिद्धयन्ति, संसारेर स्थितश्च भवति संविग्नः, 'ओपिजी भयचलनयोः' संसारोद्विग्नः, उक्तंच- यथा मृगा मृत्युभयस्य भीता, उद्विग्नवासा न लभन्ति | निद्राम् । एवं बुधा ज्ञानविबोधितात्मा, संसारभीता न लभन्ति निद्रां ॥१" संवेगेन कृतेन को गुणों भवति, तदुच्यते- संवे-16 |गणं भंते! (जीवे) किं जणयति?, गोयमा! संवेगेणं रु द्धाजणयति'(१५०५९८ एवं सर्वेषु पदेषु पुच्छानिवन्धनं वाच्यं, निव्वे | तेण सातासौख्यात् गृहस्वजनबन्धाच निर्वेदं करोति, निर्विनः सन् धर्मे उद्यमं करोति, भावसत्यं प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्ता | सम्यगुपयुक्तः करोति, योगा-मनोवाक्कायाः, सत्यमनोयोगः कर्तव्या, नासत्यमनोयोगा, एवं वागपि, काये लंघनप्लवनडेवनादि। न करोति, एवं यावत् संभोगभत्तपचक्खाणेणं अणियदि जणयति, अत्र प्रवृत्ती प्रत्याख्यानशब्दो, यथा अम्बुव्रतो, अनिवृत्तिव | तस्मिन् सयोगे भवति ' सेलेसी गं भंते ! किंजणयति ?, अकम्मताए जीचा सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिनिव्वायंति सच- ॥२७३॥ 4 दुक्खाणं अंतं करेंति, ब्रवीमीति, नयाः पूर्ववत् ॥ समाप्तं एकोनत्रिंशत्तमम् ।। उक्तं एकोनत्रिंशत्तम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः, एकोनत्रिंशत्तमे अगमादो व्यावर्णितः, त्रिंशचमे तपोऽभिधीयते, तच्च तपः दीप अनुक्रम [१११२११८८] %A . - . 4 %A - अध्ययनं -२९- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३०- “तपोमार्गगति" आरभ्यते [278] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३०], मूलं [८८...] / गाथा ||१०९८-११३४/११८९-१२२५||, नियुक्ति : [५१३...५१६/५१०-५१३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा [८८...] तपोवर्णन, चूर्णी गाथा चरणवि० ||१०९८११३४|| ॥२७४॥ | अप्रमादसहितस्यैव भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं (५१३-४-५-६५९९) पूर्ववत् व्यावर्ण्य नामनिप्पने | निक्षेपे तपोमार्गगती 'णिक्खवो तु तवंमी' त्यादि, गाथाचतुष्टय, व्यतिरिक्तो पंचतपादि, भावे द्वादशषिधं तपः शेष *गतार्थ, उक्तो नामनिप्फण्णो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसर, अस्मात् यावद् सू निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं-'जहा पाय पावर्ग कम्म' इत्यादि(१०९८१६००)सर्व, 'तप संतापे तपसो मार्गः तपोमार्गः, गमनं गतिः, तपोमार्गस्य गतिः२, तपो येन प्रकारेण क्रियते इत्यर्थः, यदि पूर्व संवृताश्रवद्वारः ततः तपसा निःशेष कर्म क्षपयति, प्राणिवधादीन्याश्रवद्वाराणि, अनशनं | | द्विविध-इत्वरं यावत्कथितं च, इत्वरं चतुर्थादि, तदा अनेन प्रकारेण पविधं भवति श्रेण्यादि, चतुर्थषष्ठाष्टमादि षण्मासपर्यव| साना श्रेणी, श्रेणी श्रेण्या गुणिता प्रतरं भवति, प्रतरं श्रेण्या गुणितं धनं मवति, तदा घनो वर्गितो वर्गो भवति, सोऽपि वर्ग: पुनरपि वर्म्यते ततो वर्गवर्गो भवति, षष्ठोऽपि चित्तो नानाप्रकारो प्रकीर्णतपोऽभिधीयते, तदन्यत्राभिहितं, शेष दशवकालिक-| चूर्णी आमिहितं, एवमेवं तु द्विविध, जे सम्म आयरे मुणी। से खिप्पं संसारा मुंचति पंडितेत्ति मि, नयाः पूर्ववत् ।। इति त्रिंशत्तमं अध्ययनं समाप्तम्। उक्तं त्रिंशत्तमं, अथैकत्रिंशत्तम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः?, त्रिंशत्तमे तपोमार्गगतिरभिहिता, एकत्रिंशचमे चरणविधिरभिधीयते, तपसा च विना चरणं नैव सम्पूर्ण भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्पाध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् ब्यावये नामनिप्फण्णे | निक्षेपे चरणविधिरिति, निक्खेवे चरणम्मिइत्यादि गाथा पंच (५१७-८-९-२०-२१६६११) व्यतिरिक्त चैत्यवन्दनको गच्छति,मोदकं भक्षयति, भावे पंचविधमाचारमाचरति, व्यतिरिक्त इन्द्रियार्थानां विधिः, भावे संयमयोगस तपसथ यो विधिः, उक्को नामनिफ दीप अनुक्रम [११८९१२२५] ॥२७॥ अध्ययनं -३०- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३१- "चरणविधि" आरभ्यते [279] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३१], मूलं [८८...] / गाथा ||११३५-११५५/१२२६-१२४६||, नियुक्ति : [५१७...५२१/५१४-५१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||११३५११५५|| II श्रीउत्तरा०ाणो निक्षेपः। इदानीं सत्रालापकस्यावसरः, अस्माद् यावत् यत्रं निपतितं तावद्वक्तव्य, सत्र चंद-चरणविधि पथक्वामि' इत्यादि | असंयमादि (१९३५) सर्व, असंयमाद् विरतः, संयमे प्रवत्तेन, मंडलग्रहणाच्चातुरंतः संसारः परिगृह्यते, नारकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभावः, पिंडेपणायां अवग्रहप्रतिमासु भयस्थानेषु ब्रह्मगुप्तिषु च एवं प्रतिक्रमणाणुसारेण ज्ञेयं, इत्येतेषु स्थानेषु यः प्रयत्नं करोति असो प्रमादश्रुतं. AI संसाराद् विमुच्यते इति अवीमीति, नयाः पूर्ववत् ।। इति एकत्रिंशत्तम अध्ययन समाप्तम् ॥ २७५॥ उक्तं एकत्रिंशचम, इदानी द्वात्रिंशत्तम, एकत्रिंशत्तमे चरणविधिरभिहिता,द्वात्रिंशत्तमे प्रमादस्थानान्यभिधीयते,चरणं च अप्र-14 मत्तस्यैव सम्पूर्ण भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनिष्पन्ने निक्लेवे प्रमादस्थानं, निकवेवो उपमाते' इत्यादि गाथा अष्ट ।। ५२२-३--४-५-६-७.८-९।६२०) । व्यतिरिक्तो द्रव्यप्रमाद: मद्यमधुप्रसन्नादि, भाव-11 प्रमादः निद्रा विकथा कषाये इन्द्रियाणां च कियास्थानं पूर्वोक्तं, तीर्थकराणां अप्रमत्तता व्यावर्ण्यते, ऋषभस्वामिनो वर्षसहस्रेऽपि | संकलिज्जमाणे अहोरात्रं प्रमादः, वर्द्धमानस्वामिनः द्वादशसु वर्षेषु समधिकेषु संकलिज्जमाणे अन्तर्मुहूर्त प्रमादो, ये पुनर्नित्यं | प्रमादास्ते संसारसागरं पर्यटन्ति, उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपो, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावद् । वक्तव्यं, सूत्रं चेद-'अच्चंतकालस्स॥११५६-६२२।।इत्यादि, सर्व, अत्यन्तकालः अतीतोऽनागतो वर्तमानः परिगृह्यते, समूलस्य सर्वदुःखस्य यः प्रमोक्षस्तस्य, सर्वमूलस्येति दुःखस्य मूलं कर्म, कर्मणो मूल रागद्वेषौ, तौ छित्त्वा भवति मोक्षो तन्मे प्रतिपादयितुः। | एकान्तहितं शृणुत, स मोक्ष एवं भवति ज्ञानप्रभावनया अज्ञानमृपावर्जनेन रागद्वेषक्षयेण गुरुपद्धसेवया बालजनवर्जनेन स्वाध्यायेन ॥२७५॥ धृत्या च भवति, तथा आहारेण मितेन एषणीयेन च, निपुणार्थे बुद्धिर्यस्य स सेव्यो गीतार्थः,निके नं-स्थानं तद्विवेकयोग्यं समाधि 4 %- दीप अनुक्रम [१२२६१२४६] सकार-बार - ---- अध्ययनं -३१- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३२- “प्रमादस्थान" आरभ्यते [280] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३२], मूलं [८८...] / गाथा ||११५६-१२६६/१२४७-१३५७||, नियुक्ति : [५२२...५२९/५१९-५२६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा कम ||११५६१२६६|| श्रीउत्तरा कामो भजते, रागद्वेषौ कर्मवीज, मोहप्रभवं कर्म, कर्म च जातिमरणस्य मूलं, जातिमरणं दुःखमूल, रागद्वेषौ मोहश्च यथा उद्धियते प्रमादवजेनं | तमुपायं वक्ष्ये, रसा ते कामं न निषेवणीया, आसविता दीप्तिकरा भवन्ति, प्रीणितं कुर्वन्तीत्यर्थः, प्रीणितं च कामा समभिद्रवन्ति, दुमं यथा स्वादुफलं हि पक्षिणः, यथा दवाग्निः प्रचुरेधनः समारुतो नोपशमं गच्छति, तथेन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजने शमं न* गच्छति, विविक्तशय्यासनयंत्रितानां ओमासणाणं दमितेन्द्रियाणां रागादयो नाभिभवन्ति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधीभिः प्रकृत्य ये इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञा न तेषु रागं करोति, अमनोज्ञेषु च द्वेष, तदाऽसौ समो भवति, चक्षु रूपं गृह्णाति, रूपेणापि गह्यते ॥२७६॥ चक्षुः, रूपेषु यो गद्धिमुपैति तीबांस शीघ्रमेव विनश्यति, आलोकलोलो यथा पतंगः, रूपानुगतोऽसौ चराचरप्राणिनो हिनस्ति, | तस्माद्रागानुगतस्य परिग्रहो दोषः, यस्य जायते परिग्रहादत्ताहारित्वं ततो मृषावादः, एवं रागद्वेषानुगतो बहुकर्मसंचयो भवति, रूपाद्विरको विशोको भवति, दुःखौघपरंपरेण च न लिप्पते, जलेन वा पद्मिनीपत्रं, एवं श्रोत्रघ्राणजिह्वास्पर्शा, विनाशमागच्छति र इहलोके परलोके च, इहलोके तावत् शब्दान् मृगो घ्राणान्मधुकरः मच्छो जिह्वया गजो स्पर्शन, इहलोक एवं विनाशमागच्छन्ति, शनिश्चयेन न ते दोषमुत्पादयन्ति, किन्तु यस्तेषु राग द्वेषं वा करोति स वध्यते, एवं क्रोधादयोऽपि कर्मबन्धहेतवो भवन्ति, यः पुनर्विरक्तभावः स कर्मबन्धेन न लिप्यते, ततः शुभाध्यवसायिनः क्षपकश्रेण्यनुप्रवेशः,ततः क्रमेण मोहनीयज्ञानावरणीयदर्शनावरणी-1 यांतरायेषु क्षयं गतेषु केवलं-सम्पूर्ण ज्ञानमुत्पद्यते, तत आयुषः क्षयात् सादिकमनन्तमच्याबाधं निर्वाणसुख प्राप्नोति, एवं अनादि- २७६॥ | कालप्रभवस्य मोक्षो व्याख्यातः, येन अत्यन्तसुखिनः सचा भवन्ति । इति ब्रवीमि, नयाः पूर्ववत्।। समाप्तं द्वात्रिंशत्तममध्ययन।। उक्तं द्वात्रिंशत्तम, इदानीं त्रयविंशत्तम उच्यते, तस्य कोऽभिसम्बन्धी, द्वात्रिंशनमे प्रमादोऽभिहितः, त्रयस्त्रिंशत्तमे कर्मा दीप अनुक्रम [१२४७१३५७] अध्ययनं -३२- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३३- “कर्मप्रकृति" आरभ्यते [281] Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३३], मूलं [८८...] / गाथा ||१२६७-१२९१/१३५८-१३८२||, नियुक्ति: [५३०...५३७/५२७-५३३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूर्णी [८८...] गाथा कम ||१२६७ १२९१॥ श्रीउत्तरात 11 ण्यभिधीयन्ते, प्रमादचशगो जीवः कर्म बध्नाति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावj नाम-प्रमादवर्जन निष्पन्ने निक्षेपे कम्मपगडी कम्ममि निक्खेवो इत्यादिगाथा अष्ट (५३०.१-२-३-४-५-६-७१६४०.नियुक्त)) व्यतिरिक्तं कर्म | द्रव्यं च नोकर्मद्रव्यं, अनुदयः कर्मणो, नोकर्मद्रव्यं लेप्यकादि, भावे कर्मणां उदयः, व्यतिरिक्तो द्रव्यप्रकृतिः कर्मणो कमोप्रकृत्य भ्यां कर्मणि अनुदयः, नोकर्म ग्रहणप्रायोग्यानि मुक्तानि द्रव्याणि, भावे मूलोत्तरप्रकृतीनां उदया,- पयतिहिति अणुभागो || मापदेसकम्मं च मुटु णाऊणं । एतेसि संबरे खलु खवणे उ सयाविनइतन्य।।१।। उक्तो नामनिप्पमो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्या॥२७७ वसरः, अस्मायावत्सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं-'अट्ट कम्माई वोच्छामी' त्यादि (१२६७-६४१) सर्व, तेषां कर्मणां चतु:-14 प्रकारो बन्धो भवति प्रकृतिवन्धः स्थितिवन्ध अनुभागवन्ध प्रदेशबन्ध इति, प्रकृतिशब्देन स्वभावो भेदश्राभिधीयते, स्थितिः कालावस्थानं, अनुभावो यो यस्य कर्मणः शुभो अशुभो वा विपाकः, प्रदेशबन्धः जीवप्रदेशानां कर्मापुद्गलानां च सम्बन्धः, तत्र | प्रकृतिवन्धो द्विविधः मूलोत्तरभेदः, अष्टौ मूलप्रकृतयः, तद्यथा-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीयं मोहनायं आयुष्कं नाम गोत्र अन्तरायामिति, ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीय, दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयं, वेदनां करोतीति वेदनीय, मुह्यतीति मोहनीयं, येन नारकादिभावस्तिष्ठति तदायुष्क, गतिजात्यादिभिः प्रकारैर्नामयतीति नाम, प्रधानमप्रधानं वा करोतीति गोत्र, अन्तरायर करोतीति अन्तरायिकं, इदानीं उत्तरप्रकृतयोभिधीयते-ज्ञानावरणं पंचप्रकारं आभिनिवोधिकश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि, एपा-12 ||२७७॥ |मावरणं, दर्शनावरणं नवमेदं चक्षुरचक्षुरवाधिकेवलानि तेषामावरण, निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्याना रिति, एषामुदयं । करोतीति,वेदनीयं सातमसातं च,तयोरुदयं करोतीति,मोहनीयं अष्टाविंशतिमेदं तत्समासतो द्विविध-दर्शनमोहं चरित्तमोई, दर्शनमोहं। 1-1-%C4% 1994-9-19 दीप अनुक्रम [१३५८१३८२] Ak47 [282] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [cc...] गाथा ||१२६७ १२९१|| दीप अनुक्रम [१३५८ १३८२] अध्ययनं [ ३३ ], मूलं [८८...] / गाथा || १२६७-१२९९/१३५८-१३८२||, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्ण : श्रीउत्तरा० चूर्णी ३४ लेश्याध्य० ॥२७८॥ “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र -४ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) अध्ययनं -३३- परिसमाप्तं | सप्तभेदं अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं मिध्यात्वं, चरितमोहनीयं एकविंशतिभेदं अप्रत्याख्यानाः क्रोधादयश्वत्वारः प्रत्याख्यानावरणा क्रोधादयश्चत्वारः संज्वलनक्रोधादयश्वत्वारः हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदा, एषामुदयादेतानि भवन्ति, आयुष्कं चतुर्भेदं नरकतिर्यग्योनिमनुष्यदेवानि, एषामुदयात्, नाम द्विचत्वारिंशद्भेदं शुभमशुभं च अनयोरुदयात्, गोत्रं द्विविधं शुभमशुभं च अनयोरुदयात्, अन्तरायं पंचप्रकारं दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च एतान्यपि तदुदयादेव भवंति । इदानीं स्थितिबन्धोऽभिधीयते - णाणावरणीयस्य स्थितिः जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टेन त्रिंशत्साग| रोपमकोटा कोट्यः त्रीणि च वर्षसहस्राणि आवाधा अंतरं भवति, बाट लोडने, न बाधा अबाधा, तत्र उदयो न भवतीत्यर्थः, तैश्च सत्स्थितिरूना भवति, एवं दर्शनावरणीयान्तराययोः, वेदनीय स्थितिर्जघन्येन द्वादश मुहूर्त्ता उत्कृष्टेन त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यः, शेषं तदेव, मोहनीयं द्विविधं दर्शन मोहनीयं चारित्र मोहनीयं च दर्शनमोहनीयं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टेन चत्वारिंशत्सागरोपमकोटी कोटयः, चत्वारि वर्षसहस्राण्यावाघा अन्तरं भवति, शेषं तदेव चारित्रमोहनीस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टेन सप्ततिः सागरीपकोटाकोटयः सप्त वर्षसहस्राणि आवाधा अन्तरं भवति, शेषं तदेव, आयुष्कस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि, नामगोत्रयोर्जघन्येन अष्टौ मुहूर्त्ता, उत्कृष्टेन विंशतिः सागरोपमकोटाकोटयः, वर्षसहस्रद्वयं आबाधा अंतरं भवति शेष तदेव । इयपथस्य कर्म्मणः स्थितिर्जघन्येन उत्कृष्टेन च समयः, अनुभावप्रदेशबन्धौ पूर्वोक्तौ कर्म्मबन्धकरणानां संवरः करणीयः, बद्धानां क्षपनं प्रति यत्नः करणीय इति ब्रवीमि नयाः पूर्ववत् ॥ इति त्रयस्त्रिंशत्तममध्ययनं समाप्तम् ॥ उक्तं त्रयस्त्रिंशत्तमं, इदानीं चतुस्त्रिंशत्तमं उच्यते, तस्य कोऽभिसम्बन्धः ?, त्रयस्त्रिंशत्तमे कर्मोक्तं चतुखिंशत्तमे तत्कारणभूता लेश्या, निर्युक्ति: [ ५३०...५३७/५२७-५३३], अत्र अध्ययन -३४- "लेश्या" आरभ्यते [283] प्रमादवर्जनं ॥२७८॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३४], मूलं [८८...] / गाथा ||१२९२-१३५२/१३८३-१४४३||, नियुक्ति: [५३८...५४७/५३४-५४५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूणौं [८८...] गाथा 7-01- ||१२९२१३५२|| श्रीउत्तराअनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावये नामनिष्पने निक्षेपे लेसज्झयणं, 'लेसाणं निक्खेवो प्रमादवजेनं (५३८-४७नि०६५१)इत्यादि गाथा दश,व्यतिरिक्ता द्रव्य लेश्या द्विविधा-कर्मलेश्या अकर्मद्रव्यलेश्या,अकर्मद्रव्यलेण्या द्विविधा | जीवानामजीवानां च, जीवलेश्या भव्याभव्ययोः, सा सप्तविधा,कृष्णादयः, सप्तमा संयोगजा, लेश्याप्रायोग्यद्रव्याणि परिगृह्यन्ते,जोगा। অনা । | बज्झा बझंतगा य पत्ता उदीरणाबालिय। (५४८)जीवलेश्या द्विविधा चन्दादि ग्रन्थत एव ज्ञायन्ते, कर्मदव्यलेश्या षड्विधा कृष्णादि, ॥२७९॥ अत्रापि जीवसंबद्धानि द्रव्याणि परिगृह्यन्ते,मावलेश्या द्विविधा-विशुद्धा अविशुद्धाः उपशमे क्षये च, शेषं गतार्थ, उक्को नामनिष्पन्नो निक्षपः इदानी सूत्रालापकस्यावसरः,अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तब्ध, सूत्रं चेद-लेसज्झयणं पवक्खामी०।१२९२-६५२।। | इत्यादि,सर्व,लेश्यानांदश कारणानि नामादीनि वक्तव्यानि,कृष्णलेश्यावर्णःजीमतो-मेघ ,स च स्निग्धः,गवलं-महिष शृंगं, रिष्ठो-द्रोणलिकाकः,कापोते कोइलछगो तेलंकरका,रसा जह कडुगतुंबगादी,गंधा गोमडाती,स्पी जहा करगयादि,परिणामो उत्तमाधममध्यमखिविधः स एव त्रिभिर्गुणितो नवभेदो भवति, नव त्रिभिर्गुणिताः सप्तविंशतिः, सप्तविंशति त्रिभिर्गुणिता एकाशीति एकाशीतिखिभिर्गुणिता द्वेशते चत्वारिंशे भवतः, कृष्णाद्यास्तिस्रो लेश्या दुर्गतिगमनाय भवन्ति, लेश्यापरिणामस्य आदिसमये अन्तसमये वा न कश्चित् ॥ | म्रियते, यदा तु अन्तर्मुहूर्ते गते शेषे वा भवति तदा परभवं गच्छति, अपसत्थाओ परिवज्जेजा, पसत्थाओ अहेदुए मुणिति, बेमि, नयाः पूर्ववत् ।। इति चतुर्विंशत्तम अध्ययनं समाप्तम् उक्तं चतुर्विंशत्तम, इदानीं पंचत्रिंशत्चम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, चतुर्विंशत्तमे लेश्याभिहिता, पंचत्रिंशचमे अणगार-1 २७९॥ गुणा अभिधीयन्ते, अनगारथ अश्वस्तलेश्याविरहितो प्रशस्यलेश्यायुक्तो भवति, अनेन सम्पन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य अनु *नन NCR -SCRe% - दीप अनुक्रम [१३८३१४४३] - % % % अध्ययनं -३४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३५- "लेश्या" आरभ्यते [284] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [cc...] गाथा ||१३५३ १३७३ ॥ दीप अनुक्रम [१४४४ १४६४] “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [३५], मूलं [८८... ] / गाथा || १३५३-१३७३/१४४४-१४६४], निर्युक्ति: [ ५४८...५५०/५४६-५४८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन निर्युक्तिः एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० ॐ योगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनिष्कण्णे निक्षेपे अणगारमग्गगती 'अणगारे निक्खेबो ० ' ।। ५४९-५०।६६३॥ इत्यादि प्रमादवर्जनं चूर्णौ ३६ जीवाजीव: ॥२८० ॥ गाथात्रयं व्यतिरिक्तं निह्नवादि, भावे सम्यग्दृष्टिः अगारवासाद्विनिर्मुक्तः, उक्तो नामनिष्फण्णो निक्षेषः । इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं 'सुणेह मे एगमणे इत्यादि (१३५३-६६८) सर्व ' पंज संगे ' एसो संग ज्ञात्वा परिवर्जयेत्, एकान्ते परेण आत्मार्थकृते वासं तत्राभिरोचयेत् नैव स्वयं गृहाणि कुर्वीत नैव कारापयेत् नैवानुजानीयात्, यस्मात्तत्र सस्थावराणां दृश्यते वधः, तथा भक्तपाने च करणकारणाणुमोदने त्रसस्थावराणां वधः, इन्धनं प्राप्य विसर्पते अग्निं, सर्वतो धारव, संयमयात्रार्थं भुज्जीत, न रसाथै, न वन्दनपूजनादि प्रार्थयेत् धर्म्मशुक्ले ध्याने सदा ध्यायेत्, पश्चिमे काले आहारपरित्यागं कृत्वा, 'निर्ममो निरहंकारो, वीतरागो निराश्रवः । संप्राप्य केवलं ज्ञानं शाश्वतं परिनिर्वृतः ॥ ' इति ब्रवीमि नयाः पूर्ववत् । इति पञ्चत्रिंशत्तमं अध्ययनं समाप्तम् || उक्तं पञ्चत्रिंशत्तमं, इदानीं पत्रिंशत्तमं तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, पञ्चत्रिंशत्तमे अनगारगुणा अभिहिताः, पत्रिंशत्तमे जीवाजीवविभक्तिरभिधीयते, अणगारेन च जीवाजीवविभक्तिर्ज्ञातव्या, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य अध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्व| वद् व्यावर्ण्य नामनिप्पने निक्खेवे जीवाजीवविभक्तिः, 'निक्खेवो जीवंभि० ॥ ( ५५२-३१६७१) । इत्यादि गाथाइयं व्यतिरिक्तं गुणपर्यायवियुक्तं जीवद्रव्यं, भावे गुणपर्यायसहितं, जीव परिणामो दशविधः पंचेन्द्रियाणि क्रोधादयश्चत्वारः मनश्व, सहवर्त्तिनो गुणाः, क्रमवर्त्तिनः पर्याया, गुणाः प्रशस्ताः अप्रशस्ताच प्रशस्ता ज्ञानादयो, अप्रशस्ता क्रोधादयः, पर्याया नरकादिभवाः, 'निक्खेवो उ अजीचे० " ।।५५४ - ५।६७१ ।। इत्यादि गाथाद्वयं, व्यतिरिक्तं गुणरहितं अजीवद्रव्यं, भावे गुणपर्यायसहितं अजीवद्रव्यं, परिणामो दशविधः शब्द अध्ययनं - ३५ - परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३६- “अणगारगुण” आरभ्यते [285] ॥२८० ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३६], मूलं [८८...] / गाथा ||१३७४-१६४०/१४६५-१७३१||, नियुक्ति : [५५१...५५९/५४९-५५९], भाष्यं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||१३७४१६४०|| । श्रीउत्तरारूपस्पशरसगन्धाः शुभा अशुभाघ । 'निक्खेवो विभत्ती' इत्यादि गाथा सप्त ५५६-६२२६७१) विभजनं विभक्ति, जीवानाम- अधिकारी जीवानां च भेदप्रत्याख्यापन, जीवानां सिद्धानां असिद्धानां च, अजीवानां रूपीणामरूपीणां च, भावे भावानां विभक्तिः भाववि भक्तिः, भावानां भेदप्रत्याख्यापन, अत्राधिकारजीवद्रव्यविभक्त्या अजीवद्रव्यविभक्त्या च, जे इति निर्देश, किलशब्दः परोजीवजीवाक्षवाची, एवं किल आचार्याः कथयन्ति-ये भव्यास्तेषामपि ये परीतसंसारिणो-भवाष्टाभ्यन्तरे सेत्स्यन्तो, पुनरपि भव्यग्रहणं येषां । तदावरणीयकर्मणां क्षयोपशमा विद्यते किल पठन्ति धीरा छत्तीस उतरज्झाए,तम्दा जिणपण्णत्ते अणंतगमपज्जवेहिं संजुत्ते । अज्झाये। ॥२८॥ जहजोग्गं गुरुप्पसाया अहिजंति॥१॥येषां सिद्धिर्भविष्यति, येच गठियसत्वा रागद्वेषबहुला ये च अणंतसंसारिणःते संकिलिट्टकम्मा कर्मभिः ओतप्रोता ते अयोग्या उत्तराध्ययनाना,तस्माज्जिनप्रज्ञप्तं अनन्तगमपर्यायैः संयुक्त तं स्वाध्याययोगेन यथायोग यथाविधि पुञ्जीत.15 यो यस्याध्ययनस्य योगः तेन गुरुप्रसादादधीते,उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपः। इदानी सूत्रालाप कस्यावसरः,अस्माधावत्सूत्रं निपतित | LAतावद्वक्तव्यं, सत्रं चेद-'जीवाजीवविभत्ती० ॥१३७४६७२।। इत्यादि,सर्व, विभजनं विभक्तिः,मेदप्रत्याख्यापनमित्यर्थः, शृणुत। मन मम, क एवमाह-सुधर्मस्वामी जम्यूनाम ब्रवीति, सं०-जीवाजीवात्मको लोकः, सच क्षेत्रकालभावादिभिरनुगन्तव्य:, अजीवाड-1 रविणो दशविधा, धम्मस्थिकायाधर्मास्तिकायः सम्पूर्णः परिगृह्यते, देशः त्रिभागचतुर्भागादि, प्रदेशो निरंशः एव धर्मास्तिकायः, आकाशं च, कालो, दशधा, धर्माधर्मी लोकालोकप्रमाणं, समयक्षेत्र काला, द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायात्सर्व अनाद्यपयवसितं, पर्यायामार्थिकस्य सादिपर्यवसितं, रूपिणश्चतुर्विधा, स्कन्धो अचित्तमहास्कन्धादि सम्पूर्णः परिगृह्यते, देशखिभागचभतुर्भागादि, प्रदेशोऽ |२८१॥ | संख्येयतमोऽनन्ततमो वा प्रदेशः, परमश्चासावणुश्च परमाणु, निरंशः, क्षेत्रतः स्कन्धा, परमाणव, लोकालोको भजनीयो, कालतः दीप अनुक्रम [१४६५१७३१] 17011 . 4 . [286] Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३६], मूलं [८८...] / गाथा ||१३७४-१६४०/१४६५-१७३१||, नियुक्ति : [५५१...५५९/५४९-५५९], भाष्यं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा जान प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||१३७४१६४०|| चूर्णों । जीवाजीव: ॥२८२॥ - सन्तति प्राप्य अनाद्यपर्यवसिताः, रूपिअजीवानां स्थितिजघन्येन समयः उत्कृष्टेन असंख्येयः कालः, अन्तरं जघन्येन समय | उत्कृष्टेन अनन्तः कालो, भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानादि परिणामः, वर्णः कृष्णादि, गन्धः सुरभ्यादि, रसः तिक्तादि, स्पर्श कक्खडादि, संस्थानं परिमण्डलकादि, इदानी संयोगः क्रियते-वर्णतो ताव किण्हे भयित. स तु गन्धतो रसतो फासतो चव भयिते, संठाणातोपि य, एवं नीललोहितहालिहसुकिल्लसठाणं भजना, संयोगः कर्त्तव्य इत्यर्थः, एवं वनगन्धरसफाससंठाणेहिं संजोया | कायन्वा, एषा अजीवविभक्तिः समासतो व्याख्याता । इदानी जीवविभक्तिरुच्यते-जीवा द्विविधाः-सिद्धा संसारिणश्र, सिद्धा परमार्थत | एकाकारा एव, पूर्वभावप्रज्ञापना प्रतीत्य भेदा अभिधीयते-'इत्थी पुरिस सिद्धा य, तहेव य नपुंसगा । सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहलिंगे तहेव य ।।१।। उकोसियाए ओगाहणाए तह मज्झिमाए य । जहन्नाए य उड्डे, अहो य तिरिय समुदमि ॥२॥ दस चेव नपुंसेसु, बीसति | | इत्थीयासु य । पुरिसेसु अट्ठसतं, समएणेगेण सिझति शचित्तारिय गिहलिंगे, अण्णलिंगे दसेव य । सेणिमि य अट्ठसए, समएणेगेण सिज्मति ॥ ४॥ द्रव्यलिंग प्रतीत्य इदमभिहितं, भावलिंगेन विना नास्ति सिद्धिः, उक्कोसयाए ओगाहणाए सिमंती जुगवं चेव । चत्तारि जहण्णा य जुगवं अठुत्तरं सतं ॥५॥ चतुरो उड्डलोगमि, वीसपुरतं हे भवे । सतं अठुत्तरं तिरिए, एगसमएण सिज्झती ॥४॥ दुवे समुहे सिझंति, सेसजलेसुन यो(चउ'जणा। एसा उ सिझणा भणिता, जीवभावं पडच्च उ॥७॥ संसारत्था जीवा द्विविधावसाः स्थावराय, स्थावरा तिविहा जीवा- पृथिवी आपो बनस्पति इति, असा द्विविधा- तेजो वाययश्व कीर्तिता, द्वीन्द्रियादयचतुर्विधाः, एषां भेदः भवस्थितेः आयु इतरं च विज्ञेय अन्धानुसारेणेति, जीवमजीवे एते णच्चा सहिऊण य सम्बन्नसमतमी जएज्जा, संजमे विद् एसेज्जा, तेणोवगते कालं किच्चाण संजते सिद्ध वा सासते भवति देवे वावि महिड्डिए ।। इति पादुकरे युद्धे, दीप अनुक्रम [१४६५ .1.42%E १७३१] 04-* [287] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३६], मूलं [८८...] / गाथा ||१३७४-१६४०/१४६५-१७३१||, नियुक्ति: [५५१...५५९/५४९-५५९], भाष्यं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा चूर्णी सिद्धभेदाः [८८...] गाथा ॥२८॥ ||१३७४१६४०|| जातते परिनिचुते। छत्तीस उत्तरायणे,भवसिद्धिय सष्णिये॥१॥त्ति इति परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने च,प्रादुः प्रकाशे,प्रकाशीकृत्य प्रज्ञाप- यित्वा बुद्धः-अवगतार्थः ज्ञातका ज्ञातकुलसमुद्भवः बर्द्धमानस्वामी, ततः परिनिर्वाणं गतः, कि प्रापयित्वा', पत्रिंशदुत्तराध्यय| नानि भवसिद्धिकसमतानि भवसिद्धिकानामेव संमतानि, नाभवसिद्धिकानामिति, बीम्याचार्योपदेशात, न स्वमनीपिकया, नयाः पूर्ववत् ॥ वाणिजकुलसंभूओ, कोडियगणिओ उ वयरसाहीतो। गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगंमि ॥१॥ ससमयपरसमयविऊ ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो । सीसगणसंपरिबुडो बचाणरतिप्पिओ आसी ॥२॥ तेसिं सासेण इम, उत्तरायणाण चुण्णिखंडं तु । रइयं अणुग्गहत्धं, सीसाणं मंदबुद्धीणं ॥३॥ जं एत्थं उस्सुत्तं, अयाणमाणेण विरतितं होज्जा । तं अणुओगधरा मे, अणुचिंतेउं समारंतु ॥ ४॥ पद्मिशोराध्ययनचूर्णी समाप्ता, ग्रन्था ।। ५८५० ॥ उत्तराध्ययनचूर्णिः संमत्ता ॥ 4 % - - - -- दीप अनुक्रम [१४६५१७३१] ॥२८३|| - - - अध्ययनं -३६- परिसमाप्तं उत्तराध्ययनचूर्णि: परिसमाप्ता [288] Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [-1, मूलं [-] / गाथा ||--||, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्राक गाथा ||-|| ॥२८४॥ इति श्रीउत्तराध्ययनानां पत्रिंशतशूर्णिः -MONALECIAkade दीप अनुक्रम * समाप्ता * city-.-NCk0. २८४॥ - ___ मनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादिता (आगमसूत्र ४३) "उत्तराध्ययन-चूर्णि:” परिसमाप्ता: [289] Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः [43] 43 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “उत्तराध्यनानि मूलसूत्र” [नियुक्ति एवं जिनदासगणि-रचिता वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "उत्तराध्ययन" नियुक्ति: एवं चूर्णि: नामेण परिसमाप्ता Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' [290]