Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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चार
क्योंकि वहां वाचक शब्द तथा वाच्य अर्थ का पार्थक्य प्रतीत होने लगता है । पृथक् पृथक् रूप से प्रतीत होने वाले शब्द तथा अथं में वाचक शब्द को 'स्फोट' इसलिए कहा जाता है कि एक तो वह स्वयं प्राकृत ध्वनियों के द्वारा स्फुटित होता है, उत्पन्न न होकर अभिव्यक्त होता है, तथा दूसरी ओर, अपनी महिमा से वक्ता के अभीष्ट अर्थ को स्फुटित करता है, प्रकाशित करता है।
एक ही 'शब्द' तत्व की पांच प्रमुख स्थितियाँ-संस्कृत वैयाकरणों के इस 'शब्दब्रह्म', 'केवला' अथवा 'परा' वाणी या सूक्ष्मतम मूल शब्द को समझने की दृष्टि से शब्द की प्रमुख पाँच स्थितियाँ मानी जा सकती हैं। प्रथम स्थिति को 'अशब्द' कहा गया जिसमें क्षोभ अथवा चंचलता का सर्वथा अभाव होता है। सारी चंचलता को समेट कर वह परात्पर तत्त्व शान्त समुद्र के समान अपने निश्चल रूप में स्थित रहता है। भगवद्गीता' में इसी मूल भूत तत्त्व को 'अव्यक्त अक्षर' कहा गया है तथा उसे ही 'परम गति' माना गया है। इसके बाद की स्थिति को 'पर शब्द' कहा गया। इस स्थिति में 'शब्दब्रह्म' की अनन्त शक्तियाँ कार्यरत हो जाती हैं । उनकी अव्यक्त चंचलता अब अभिव्यक्ति के लिए उन्मुख हो जाती है। इस चंचलता को सुनने योग्य कोई कान नहीं है । इस पर शब्द' की स्थिति में विद्यमान चंचलता को केवल स्रष्टा प्रजापति अथवा विधाता के कान ही सुन सकते हैं। यह 'पर शब्द' ही बाद की 'शब्द-तन्मात्रा' 'सूक्ष्म शब्द' तथा 'स्थूल शब्द' आदि विविध स्थितियों का कारण है क्योंकि उसके बिना इनकी स्थिति सम्भव नहीं है । इन 'शब्द-तन्मात्रा' आदि के न होने पर भी 'पर शब्द' की सत्ता तो रहती है पर इसके विपरीत स्थिति की सम्भावना नहीं की जा सकती, अर्थात् 'शब्द-तन्मात्रा' आदि के न होने पर 'पर शब्द' की स्थिति भी न रहे ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह 'पर शब्द' ही सर्व-समर्थ स्रष्टा है। इसके उच्चरित होते ही शब्द अपने अर्थ से सम्बद्ध पदार्थ की उसी क्षण सृष्टि करने में समर्थ होता है । इस स्थिति के लिए ही ब्राह्मण ग्रन्थों में यह कहा गया कि प्रजापति ने 'भूः' कहा और पृथ्वी बन गई, 'भुवः' कहा और अन्तरिक्ष बन गया । बाइबिल में भी यह कथन मिलता है कि "सृष्टि के प्रारम्भ में केवल शब्द तत्त्व ही था और वही ब्रह्म अथवा परमात्मा था। वहीं यह भी कहा गया है कि इस शब्द तत्त्व रूप ब्रह्म
. द्र०-वाप० १.७७ की स्वोपज्ञ टीका में उद्धत संग्रह की कारिका:
शब्दस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिरिष्यते ।
२. द्र०-व्याकरणमहाभाष्य, गुरुप्रसाद संस्करण प्रथम आहि नक् पृ० १२ ।
येनोच्चारितेन सास्नालागृलककुद्-खुरविषाणिनां सम्प्रत्ययो भवति स शब्दः ।
३. इस विषय के विस्तृत अध्ययन के लिये द्रष्टव्य-स्वामी प्रत्यगात्मानन्द-कृत जपसूत्रम्, भूमिका भाग,
'स्वाभाविक शब्द और मंत्र' (१), १० १७-१६ ।
भगवद्गीता ८.२१; अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तामाहुः परमां गतिम् ।
द्र०-तैत्तिरीय ब्राह्मण २.२.४.२-३; स भूरिति व्याहरत् । स भुवम् असजत् स भुवरिति व्याहरत् । सोऽन्तरिक्षम् असृजत् ।
Bible, New Testament, St. John, Chapter I. In the beginning was the word and the word was with God and the word was God.
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