Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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ज्योतिःस्वरूप शब्द ब्रह्म' से विश्व की विविध प्रक्रियायें, प्रान्तर एवं बाह्य अर्थो, पदार्थो, भावों श्रादि के रूप में विवर्तित, प्रवर्तित आवर्तित एवं परिणत होती रही हैं ।" यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म (मानवीय इन्द्रियों द्वारा सर्वथा अविज्ञेय) मूलभूत शब्द ही प्राणियों की चेतना है, प्रान्तर ज्ञान । यही सूक्ष्म वागात्मा है, जो अपनी अनन्तविध अभिव्यक्ति के लिये वैखरीरूप स्थूल ध्वनियों में परिवर्तित होता है । सम्पूर्ण सृष्टि-प्रपंच के मूल में विद्यमान यही शब्द ब्रह्म स्वयं अपने स्थूल रूप में उसी प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि-प्रपंच बन जाता है जिस प्रकार वृक्ष के मूल में विद्यमान सूक्ष्म बीज ही अपने स्थूल रूप में परिणत हो जाता है । यह शब्द ब्रह्म द्वितीय है, अनादि और अनन्त है । इससे प्रतिरिक्त और कुछ भी नहीं है' । इस शब्द- बह्म की ग्रनन्तानन्त शक्तियां, शक्तिमान् ब्रह्म से अभिन्न होकर, विविध कार्यों में रत हैं । इन शक्तियों में प्रमुख है 'काल' शक्ति, जिसमें अन्य सभी शक्तियां समाहित अथवा अन्तर्भूत हैं । इसी 'काल' शक्ति के प्राश्रित वे जन्म आदि छः भावविकार भी हैं, जो सभी पदार्थों तथा क्रियाओं के पारस्परिक भेद के कारण हैं। इस रूप में वही शब्द ब्रह्म स्वयं भोक्ता, भोक्तव्य और भोग सब कुछ बना हुआ है ।
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दूसरी ओर, यदि भाषा की दृष्टि से देखा जाय तो, वही सूक्ष्मतम एक शब्द-तत्त्व ही विविध शब्दरूपों (वर्ण, पद, वाक्य यादि) में विभक्त, और इस रूप में नाम-रूपविभागा, वाणी का परम आह्लादक रस है । वह एक पवित्रतम ज्योति है क्योंकि वक्ता का प्रान्तर ज्ञान अथवा चैतन्य स्वरूप ग्रात्मा ही स्थूल शब्दों के रूप में प्रकट होता है । विद्वानों' का विचार है कि अव्यक्त शब्द ब्रह्म, जिसे 'परा' कहा गया है, अभिव्यक्ति के लिए उन्मुख होता हुआ वक्ता के नाभि स्थान में 'पश्यन्ती' एवं हृदय देश में 'मध्यमा' नाम ग्रहण करता है । 'मध्यमा' की स्थिति उसी शब्द तत्त्व को 'स्फोट' कहा जाता है
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द्र० - अथर्ववेद १३.३ १; यदेकं ज्योतिर्बहुधा विभाति ।
तथा बाप ० १.१२; यत् तत् पुण्यतमं ज्योतिः ।
द्र०—-वाप० १.१ (उत्तरार्ध); विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।
वही १११२, १२६, १२७;
अथेदमान्तरं ज्ञानं सूक्ष्मे वागात्मनि स्थितः । व्यक्तये स्वस्य रूपस्य शब्दत्वेन विवर्तते । सैषा संसारिणां संज्ञा बहिरन्तश्च वर्तते । तन्मात्रामनतिक्रान्तं चैतन्यं सर्वजन्तुषु । अर्थक्रियासु वाक् सर्वान् समोहयति देहिनः । तदुत्क्रान्तो विसंज्ञोऽयं दृश्यते काष्ठकुड्यवत् ॥
द्र० - वाप० १.४;
एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा ।
भोक्तृभोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः ॥
वही - १.२; एकमेव यदाम्नातम् ।
तुलना करो - गीता ७, ७; मत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय |
वाप० १.३;
अध्यातिकां यस्य कालशक्तिमुपाश्रिताः । जन्मादय विकारा: षड् भावभेदस्य योनयः ॥
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बाप० १.१२; प्राप्तरूपविभागाया यो नाचः परमो रसः । यत्तत्पुण्यतमं ज्योतिस्तस्य मार्गोऽयमांजसः । द्र०- पलम० ( प्रस्तुत संस्करण) पु० ९१-९६ ।
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