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मत ही है। और इसीसे इस पंथको कोई भी मनुष्य मानुषीपंथ कहने का साहस नही कर सकेगा। क्योंकि मनुष्य प्रतिपादित 'कोई' भी धर्म ऐसा नहीं है कि-जिसमें सर्वथा मनुष्य के हृदयको निष्ठुर - निर्दयी अथवा पाषाणके नातेदार बनानेका प्रयत्न किया गया हो । जो मनुष्य हमेशा मांस खानेवाला है, और जो कसाई हमेशा जीवोंका वध करता है, वह भी यदि रास्ते में, दो जीवों को लडते हुए अथवा प्रबलजीव, दुर्बलजीवको मारते हुए देखेगा, तो उसको, छुडानेका अवश्य ही प्रयत्न करेगा । परन्तु तेरापंथी नामधारी ऐसे जीवों को कभी नही छुडावेंगे |
हमें इस बात से अधिक खेद है कि ये लोग पवित्र जैनधर्मको कलंकित कर रहे हैं, लेकिन हम इसको 'जैनी' नहीं कह सकते । क्योंकि जैनधर्मका तो मुख्य सिद्धान्त ही जीव दया- जीवरक्षा है, और इन्होने जीवदयाको तो बिलकुल उठा ही दिया है । फिर वे क्योंकर जैनी होने के दावेको निभा सकते हैं ? ।
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क्या यह जैनधर्मका कभी सिद्धान्त हो सकता है कि-' भूखेप्यासेको जिमाने, कबूतरादि पक्षियोंको दाने डालने और दानशाला के करवाने, इत्यादि अनुकंपा के कार्यों में एकान्त पाप होता है ? | क्या यह जैनधर्मका सिद्धान्त हो सकता है कि - बिल्ली चूहे ( अंदर ) को और कुत्ता बिल्लीको पकडता हो तो उसको छुडानेले पाप लगे ? | क्या यह जैनधर्मका सिद्धान्त हो सकता है कि- कोई मनुष्य किसी जीवको मारता हो, तो उसको द्रव्यादिक देकरके छुडानेमें पाप लगता है ? और क्या यह जैनधर्मका सिद्धान्त हो सकता है कि - गरीब - दुःखी - दुर्बलजीवको अनुकंपा दान देने में एकान्त पाप लगता है ? |
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