________________ इसकी टीका ‘अष्टसहस्री' में भी दस परिच्छेद हैं। प्रत्येक परिच्छेद का प्रारम्भ और समाप्ति एक-एक सुन्दर पद्य द्वारा किये गये हैं। इस पर लघु समन्तभद्र (वि. की १७वीं शती) ने 'अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका' और श्री यशोविजयजी (वि. की १७वीं शती) ने 'अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण' नाम की व्याख्याएँ लिखी हैं। (3) युक्त्यनुशासनालङ्कार - ‘आप्तमीमांसा' कार स्वामी समन्तभद्र की दूसरी बेजोड़ रचना 'युक्त्यनुशासन' है। यह एक महत्त्वपूर्ण और गम्भीर स्तोत्र ग्रन्थ है। ‘आप्तमीमांसा' में अन्तिम तीर्थंकर - भगवान महावीर की परीक्षा की गई है और परीक्षा के बाद उनके आप्त सिद्ध हो जाने पर इस ‘युक्त्यनुशासन' में उनकी गुणस्तुति की गई है। इसमें केवल 64 पद्य ही हैं परन्तु एक-एक पद्य इतना दुरूह और गम्भीर है कि प्रत्येक के व्याख्यान में एक-एक स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखा जाना योग्य है। आचार्य विद्यानन्द ने इस ग्रन्थ को सुविशद व्याख्यान से अलंकृत किया है। यह ‘युक्त्यनुशासनालंकार' उनका मध्यम परिमाण का टीका ग्रन्थ है, न ज्यादा बड़ा है और न ज्यादा छोटा। मौलिक ग्रन्थ : (1) विद्यानन्द महोदय - यह आचार्यश्री की सर्वप्रथम रचना है। 'श्लोकवार्तिक' आदि में उन्होंने अनेक जगह इस रचना का उल्लेख किया है और विस्तार से उसमें जानने एवं प्ररूपण करने की सूचनाएँ की हैं। आज यह अनुपलब्ध है। विक्रम की १३वीं सदी तक इसका पता मिलता है। आचार्य विद्यानन्द ने तो अपने परवर्ती सभी ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया ही है किन्तु उनके तीन-चार सौ वर्ष बाद होने वाले वादिदेवसूरि ने भी अपनी विशाल टीका ‘स्याद्वाद रत्नाकर' में इसका उल्लेख किया है और इसकी एक पंक्ति भी दी है। इस ग्रन्थरत्न का उल्लेख 'विद्यानन्दमहोदय' और 'महोदय' दोनों नामों से हुआ है। (2) आप्तपरीक्षा - स्वामी समन्तभद्र ने जिस प्रकार 'तत्त्वार्थसूत्र' के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगल पद्य पर उसके व्याख्यान में 'आप्तमीमांसा' लिखी है उसी प्रकार आ. विद्यानन्द ने भी उसी मंगल श्लोक के व्याख्यान में यह आप्तपरीक्षा' रची है और उसकी स्वयं 'आप्तपरीक्षालंकृति' नाम की व्याख्या भी लिखी है। ‘आप्तपरीक्षा' में 'आप्तमीमांसा' की तरह मोक्षमार्गनेतृत्व, कर्मभूभृद्नेतृत्व और विश्वतत्त्वज्ञातृत्व- इन्हीं तीन गुणों से युक्त आप्त का उपपादन और समर्थन करते हुए अन्ययोग व्यवच्छेद से ईश्वर, कपिल, सुगत और ब्रह्म की परीक्षापूर्वक अरहन्तजिन को आप्त सुनिर्णीत किया गया है। ग्रन्थ में कुल 124 कारिकाएँ हैं। (3) प्रमाणपरीक्षा - यह आ. विद्यानन्द की तीसरी मौलिक रचना है जो ‘आप्तपरीक्षा' के बाद लिखी गई है। आचार्यश्री ने इसकी रचना अकलंकदेव के प्रमाणसंग्रहादि प्रमाणविषयक प्रकरणों का आश्रय लेकर की जान पड़ती है। यद्यपि इसमें परिच्छेदभेद नहीं है तथापि प्रमाण को अपना प्रतिपाद्य विषय बनाकर उसका अच्छा निरूपण किया गया है। प्रमाण का 'सम्यग्ज्ञानत्व' लक्षण करके उसके भेदप्रभेदों, विषय तथा फल और हेतुओं की इसमें सुसम्बद्ध एवं विस्तृत चर्चा की गई है। यह बहुत ही सरल और सुविशद रचना है।