________________ *18* _ "आश्चर्य है कि विद्यानन्द के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमान अलङ्कारों को सुनने वालों के भी अङ्गों में दीप्ति आ जाती है तो उन्हें धारण करने वालों की बात ही क्या है।" इस उद्धरण से स्पष्ट है कि सारस्वताचार्य विद्यानन्द की कीर्ति ई. सन् की १०वीं शताब्दी में ही व्याप्त हो चुकी थी। उनके महनीय व्यक्तित्व का सभी पर प्रभाव था। दक्षिण से उत्तर तक उनकी प्रखर न्यायप्रतिभा से सभी आश्चर्यचकित थे। 4. समय आचार्य विद्यानन्द द्वारा रचित 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में जल्प और वाद सम्बन्धी नियमों का उल्लेख किया गया है, जिसमें उनसे पूर्ववर्ती श्रीदत्त और 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित 'जैनेन्द्रव्याकरण' में 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियाम्' सूत्र से श्रीदत्त का उल्लेख मिलने से श्रीदत्त को आचार्य पूज्यपाद (छठी शताब्दी) का पूर्ववर्ती ग्रन्थकार मानते हैं। / आचार्य विद्यानन्द की रचनाओं में और भी अनेक पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों का प्रभाव दिखलाई पड़ता है, जैसे- गृद्धपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, भट्टाकलङ्क, कुमारनन्दिभट्टारक आदि। आचार्य विद्यानन्द जी सिद्धसेन के पश्चाद्वर्ती हैं। क्योंकि उनके द्वारा रचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. 3 पर सिद्धसेन के ‘सन्मतिसूत्र' के तीसरे काण्डगत “जो हेउवायपक्खम्मि" आदि ४५वीं गाथा उद्धृत की है। पृ. 114 पर “जावदिया वयणवहा-तावदिया होंति णयवाया" (सन्मति. 3-47) का संस्कृत रूपान्तर भी मिलता है। विद्यानन्दजी ने अष्टसहस्री में तो जैसे अकलङ्क की अष्टशती को आत्मसात् ही कर लिया है। इसलिए इनको अकलङ्कजी का उत्तरवर्ती माना गया है। अकलङ्कजी के उत्तरवर्ती कुमारनन्दिभट्टारक के 'वादन्याय' का विद्यानन्द जी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा और पत्रपरीक्षा में नामोल्लेख किया है। अत: इनको कुमारनन्दिभट्टारक का उत्तरवर्ती माना जाता है। इनका समय आठवीं और नौवीं शताब्दी का मध्य भाग होना चाहिए। . आचार्य विद्यानन्द की रचनाओं-तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक एवं अष्टसहस्री में ई. सन् 788 के पहले के दार्शनिक विद्वानों जैसे उद्योतकर, वाक्यपदीयकार भर्तृहरि, कुमारिलभट्ट, प्रभाकर, प्रशस्तपाद व्योमशिवाचार्य, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, मण्डन मिश्र और सुरेश्वर मिश्र की समीक्षा मिलने से आचार्य विद्यानन्द के समय की पूर्ववर्ती सीमा 788 ई. से मानी जा सकती है। आचार्य विद्यानन्द कृत प्रशस्तपादभाष्य पर लिखी गई चार टीकाओं में श्रीधर की न्याय कन्दली (ई. सन् 991) और उदयन की किरणवल्ली (ई. सन् 984) समीक्षा का न होना एवं माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि आदि आचार्यों पर विद्यानन्द जी का प्रभाव होने से यह मानना चाहिए कि इनका समय अकलङ्क देव (८वीं शती) और माणिक्यनन्दि (११वीं शती) के मध्य अर्थात् ९वीं शती है। अर्थात् इनके समय की उत्तरवर्ती सीमा ई. सन् 984 तक मानी जा सकती है।