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सूत्र संवेदना - २
जग-नाह ! हे जगनाथ !
नाथ अर्थात् स्वामी, पति, रक्षा करनेवाला, आश्रय देनेवाला या योग-क्षेम करनेवाला । सामान्य से जो अपना योग-क्षेम करें, वे अपने नाथ कहलाते हैं। योग अर्थात् जो प्राप्त न हुआ हो उसे प्राप्त करवाना और क्षेम का मतलब है, जो प्राप्त हो गया हो उसका रक्षण करना । जगत् के सर्व जीव सुख के अर्थी हैं और सुख की प्राप्ति धर्म से ही होती है इसीलिए वास्तव में तो परमात्मा ही इस जगत् के नाथ हैं क्योंकि वे जो जीव धर्ममार्ग में जुड़े हुए नहीं हैं, उनको धर्ममार्ग में जोड़ते हैं और धर्ममार्ग में जुडे हुए की आत्मिक संपत्ति का रक्षण करते हैं ।
जो लघुकर्मी आत्माएँ विधि और निषेध स्वरूप भगवान की आज्ञा को समझती हैं और अपनी भूमिका के अनुसार कर्तव्य और अकर्तव्य का विचार करके यथाशक्ति भगवान की आज्ञा का पालन करती हैं, वैसी आत्माओं के लिए ही भगवान नाथ हैं । जो आत्माएँ ऐसे परमात्मा को नाथ के तौर पर स्वीकार करती हैं, वैसी आत्माएँ संसार में कभी दुःखी नहीं होतीं और थोड़े समय में ही अनंत सुख को प्राप्त करती हैं, परन्तु जिनके कर्म भारी हों और उसके कारण जिन्होंने भगवान को नाथ के रूप में स्वीकार नहीं किया हो या अगर स्वीकार किया हो तो केवल शब्द से किया हो, उनकी आज्ञा को समझकर उसके अनुसार चलने का प्रयत्न या इच्छा नहीं की हो, वैसी आत्माओं के लिए जगत् के रक्षक ऐसे भगवान भी नाथ नहीं बन सकते ।
यह पद बोलते समय सोचना चाहिए,
“दुनिया में जिनके सिर पर कोई नाथ होता है, वे निश्चिंत और निर्भय होते हैं । इसलिए हे प्रभु ! मैंने आपको नाथ माना है । अब मुझे कोई चिंता नहीं है, अब मुझे किसी का भय नहीं है ।” इसी भाव को तू. आनंदघनजी महाराज ने व्यक्त करते हुए कहा है कि,
" धींग धणी माथे कीयो रे, कुण गंजे नर खेट,
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विमल जिन दीठा लोयण आज... '