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नमोत्थुणं सूत्र भगवान के वचनों को सोचते हुए समझ में आता है कि, 'वास्तव में किसी बाह्य पदार्थ में मुझे सुखी या दुःखी करने की ताकत नहीं है । सुखदुःख तो मेरे मन पर निर्भर हैं । अमुक कल्पना करने से एक पदार्थ सुखदायक लगता है, जब कि अन्य कल्पना करने से वही पदार्थ दुःखदायक बन जाता है । व्यवहार से जिस अच्छे-बुरे की भी प्राप्ति होती है, उसमें मेरा कर्म ही कारण है ।' मेरे कर्मों के सिवाय इस जगत में मुझे कोई सुखी या दुःखी नहीं कर सकता । मृत्यु भी शरीर की होती है, आत्मा की नहीं । मैं तो आत्मा हूँ एवं आत्मा तो अमर है । इसके अलावा, यश-अपयश, संपत्तिविपत्ति, ये सब कर्माधीन हैं । इन कर्मकृत भावों से मुझे परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है। कर्म का नाश होने पर इन भावों का जरूर नाश होता है और कर्म का उदय हो, तब भी मैं अपने दोषों से ही दुःखी हूँ और गुणों से ही सुखी हूँ । यदि मैं अपने दोषों का नाश कर सकूँ, तो मैं सुखी ही हूँ ।' इस प्रकार सोचने से जीव थोड़ा-सा भय रहित होकर स्वस्थता का अनुभव करता है । इस तरह भगवद् बहुमान से जीव आंशिक चित्त की स्वस्थता प्राप्त करता है । चित्त की यह स्वस्थता ही धृति है एवं इस धृति से ही जीव सच्चे सुख का मार्ग ढूँढ सकता है ।'
उदाहरण द्वारा 'अभयदयाणं' :
'अभय' की अवस्था को समझने के लिए शास्त्र में एक उदाहरण बताया गया है : एक मुसाफिर एक भयानक जंगल में से गुजर रहा था, वहाँ चोर - डाकूओं ने उसे छूट लिया । उसकी संपत्ति, खाने-पीने का सामान वगैरह लूटकर, उसके हाथ-पैर बांधकर, आँखों पर पट्टी बांधकर, बहुत मार-पीटकर उसे घायल अवस्था में जंगल के बीच में गहरे गड्ढे में डालकर डाकू भाग गए । दो-तीन दिन के बाद उसे होश आया । चारों तरफ गहरा अंधेरा था, बारीश हो रही थी, खुद चल भी नहीं सकता था, उसके प्रत्येक अंग में असह्य वेदना हो रही थी, उसकी आँख के सामने मौत नाच रही थी। असहायता से अत्यंत निराश और भयभीत अवस्था में यात्री फँस गया था । इतने में पूर्व के कोई शुभ कर्मों के कारण उसे एक परिचित आवाज सुनाई दी, 'चिंता मत कर, मैं आ गया हूँ, तुझे