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सूत्र संवेदना - २
विशेषार्थ :
जय वीयराय ! - हे वीतराग' ! आपकी जय हो ! हे वीतराग ! इस शब्द द्वारा भगवान को संबोधन किया है । संबोधन दूरस्थ व्यक्ति को नज़दीक बुलाने के लिए या नज़दीक में रहे व्यक्ति का ध्यान खींचने के लिए किया जाता है । भगवान तो अपने से सात राजलोक दूर हैं, तो भी भक्ति भाव से और ज्ञान के उपयोग से भगवान को हृदय मंदिर में स्थापित करने के लिए प्रभु को संबोधन करके भक्त कहता है, “हे वीतराग ! आपकी जय हो !"
यद्यपि वीतराग परमात्मा ने रागादि शत्रु के ऊपर स्वयं विजय प्राप्त की हुई ही है तो भी, जैसे विजयवंत राजा के पास जानेवाला प्रजावर्ग जब राजा से कहता है, 'हे राजन् ! आपकी जय हो ! आपकी विजय हो !' तब यह शब्द राजा के जय को प्राप्त करवाने के लिए नहीं बोले जाते, परन्तु राजा के प्रति आदर और बहुमानपूर्वक राजा के राज्य विस्तार की इच्छा से बोले जाते हैं, उसी प्रकार भगवान के लिए बोले गए ये शब्द भगवान के प्रति आदर और बहुमान भाव को व्यक्त करनेवाले हैं तथा इन शब्दों द्वारा साधक ऐसी इच्छा व्यक्त करता है कि, भगवान का शासन इस जगत् में विस्तार को प्राप्त करें! अर्थात् बहुत सारे जीव भगवान के इस शासन को स्वीकार करके अनंतकालीन सुख की प्राप्ति करें ।
अथवा इन शब्दों द्वारा साधक परमात्मा को बिनती करता है - “हे नाथ! आप मेरे हृदय मंदिर में बिराजमान रहें ! अपनी आज्ञा को मेरे चित्त में प्रवर्तित करें कि, जिससे अनंतकाल से अड्डा जमाकर बैठे मोहमातंग (मातंग = जंगली हाथी) का मुझे कोई भय न रहे । आज तक मेरे ऊपर आक्रमण करके उसने मुझे बहुत प्रकार से पीड़ा दी है। आज तक हमले में सदैव उसकी ही विमय हुई है । हे नाथ ! अगर आप मेरे साथ रहें, मेरे मन 1. वीतराग : वीतोऽ.पेतो रागो यस्य स वीतरागः -
अर्थात् जिसका राग चला गया है वह वीतराग ।