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सूत्र संवेदना - २
"हे भगवंत ! जो आपका स्वरूप है, वही मेरा स्वरूप है। मेरा स्वरूप कर्म से आच्छादित है, जब कि आपका स्वरूप प्रकट हो गया है । आपको किया हुआ यह वंदन मेरे कर्म बंधनों को तोड़कर अपने शुद्ध स्वरुप को प्रकट करने में मुझे समर्थ बनायें । आप उसमें मेरी सहायता कीजिए ।” सभी सिद्ध भगवंतों को नमस्कार करके अब इन सिद्ध भगवंतों को जिन्होंने बताया, सिद्ध स्वरूप का जिन्होंने ज्ञान दिया और सिद्धगति का मार्ग जिन्होंने बताया, वैसे आसन्न उपकारी वीरभगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं -
जो देवाण वि देवो - जो देवों के भी देव हैं अर्थात् देवों के लिए भी जो पूजनीय हैं।
सामान्य जन ऋद्धि, बुद्धि और शक्ति की विशेषता के कारण इन्द्रादि देवों को महान मानकर उनकी उपासना करते हैं । जब कि, ऋद्धि संपन्न देव भी अनंत शक्ति और बेजोड़ गुण समृद्धि के कारण वीर प्रभु को महान मानकर उनकी उपासना करते हैं । प्रभु के जन्म से लेकर निर्वाण तक विविध प्रकार से प्रभु-भक्ति में लीन रहते हैं। देवलोक के सुख छोड़कर प्रभु की सेवा में हर क्षण हाज़िर रहते हैं । प्रभु के वचनामृत का पान करके खुद की आत्मा को धन्य मानते हैं । उन वचनों पर आस्था धारण करते हैं। देवगति प्रायोग्य अविरति के कारण परमात्मा के जिन वचनों का वे पालन नहीं कर सकते, उनका उन्हें अत्यंत दु:ख रहता है । प्रभु की आज्ञानुसार जीवन जीनेवाले महात्माओं पर वे अत्यंत आदर-बहुमान धारण करते हैं । इस तरह वीर प्रभु देवों से भी पूजनीय होने से देवों के भी देव कहलाते हैं।
जं देवा पंजली नमसंति - जिन्हें देवता (विनय से) दो हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं।'
महाबुद्धि के निधान, भौतिक सुख की पराकाष्ठा को पाए हुए, जगत जिनको महान मानता है, वैसे देव और देवेन्द्र भी वीरभगवान को दो हाथ