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सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र
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सिद्धशिला से लेकर एक योजन के २४ भाग करें, तो उसमें से २३ भाग दूर जाने के बाद सिद्ध हुई आत्माओं के स्थान की शुरूआत होती है और जब अंतिम चौबीसवाँ भाग पूरा हो, तब सिद्ध आत्माओं का स्थान पूरा होता है। उससे आगे मात्र अलोकाकाश ही आता है। उसमें गति सहायक धर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य भी नहीं है और स्थिति सहायक अधर्मास्तिकाय नामक द्रव्य भी नहीं है। इसलिए सिद्ध भगवंत लोक के अग्रभाग में ही स्थिर रहते हैं, परन्तु अलोकाकाश में नहीं जाते।
नमो सया सव्व-सिद्धाणं - (ऐसे स्वरूपवाले) सभी सिद्ध भगवंतों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।
आज तक अनंत आत्माओं ने सिद्ध अवस्था को प्राप्त किया है । वे सभी सिद्ध भगवंत गुण से समान स्वरूप वाले होते हैं। फिर भी सिद्ध बनने से पूर्व की अवस्था की अपेक्षा से शास्त्रों में उनके पंद्रह भेद बताए गए हैं । उन पंद्रह भेदों से युक्त अनंत सिद्ध भगवंतों को मैं हमेशा भाव से नमस्कार करता हूँ।
यहाँ सदा नमस्कार की जो बात है, वह द्रव्य नमस्कार की अपेक्षा से नहीं है, क्योंकि द्रव्य से सतत नमस्कार नहीं हो सकता, परंतु सिद्ध भगवंतों के प्रति आदर, उनके प्रति भक्ति और सतत सिद्ध अवस्था के नज़दीक जाने के प्रयत्न स्वरूप भाव नमस्कार सतत संभव है । इसीलिए यह पद बोलकर साधक ऐसे भाव नमस्कार की आकांक्षा व्यक्त करता है और साथ ही साथ अपने जीवन में ऐसी कोई प्रवृत्ति न हो जाए, जो सिद्ध अवस्था से अपने आप को दूर ले जाए, उसकी सतत सावधानी भी रखता है, इसी से इस पद के बोलने की सार्थकता है । ___ यह गाथा बोलते हुए साधक सहज स्वरूप में मग्न, ज्ञानानंद में निमग्न, संसार से पार पाए हुए अनंत सिद्ध भगवंतों को स्मृतिपट पर स्थापित करके भावपूर्ण हृदय से वंदना करते हुए सोचता है।