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चैत्यवंदन की विधि
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१०. उसके बाद सिद्धाणं बुद्धाणं वेयावच्चगराणं - अनत्य कहकर, एक नवकार का काउस्सग्ग करें। काउस्सग्ग पारकर (नमो अरिहंताणं कहकर) नमोऽर्हत् बोलकर चौथी थुई कहें ।
श्रुतज्ञान का या सर्वधर्म का अंतिम फल सिद्धावस्था है। सिद्धावस्था ही साधक का अंतिम लक्ष्य है, वही उसका स्वरूप है। वही परम आनंद का धाम है। इसलिए श्रुतज्ञान की स्तवना करने के बाद सिद्धों की स्तवना करने के लिए सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र बोला जाता है। इस सूत्र की प्रथम गाथा को उपयोगपूर्वक बोलने से सिद्ध भगवंतों के प्रति आदर बढ़ता है। यहाँ सभी सिद्ध भगवंतों की वंदना का आठवाँ अधिकार संपन्न होता है।
उसके बाद दूसरी-तीसरी गाथा बोलते हुए जिनको भावपूर्वक किया हुआ एक भी नमस्कार संसार सागर से तारने में समर्थ है, उन नज़दीक के उपकारी परमात्मा महावीर प्रभु को वंदन किया जाता है। यहाँ वीर प्रभु को वंदना का नौवाँ अधिकार प्राप्त होता है।
उसके बाद चौथी और पाँचवीं गाथा से नेमिनाथ भगवान एवं तीर्थो को वंदन करके, अंत में मस्तक झुकाकर सभी सिद्ध भगवंतों को स्मृति में लाकर उनसे सिद्धि की माँग की जाती है। इन गाथाओं द्वारा गिरनार तीर्थ की और अष्टापद तीर्थ की वंदना रूप दसवाँ और ग्यारहवाँ अधिकार प्राप्त होता है।
उसके बाद धर्म का भूषण औचित्य है, इसके लिए अरिहंतादि की स्तवना के बाद औचित्य रूप में उनके शासन की और संघ की सेवा तथा प्रभावना करनेवाले देवों के स्मरण के लिए 'वेयावच्चगराणं' सूत्र बोलकर कायोत्सर्ग किया जाता है क्योंकि उनका स्मरण करने से, विशिष्ट शक्ति संपन्न वे देव शासन के ऊपर आए हुए विघ्नों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील बनते हैं। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि देवों के स्मरणादि रूप बारहवाँ अधिकार यहाँ पूर्ण होता है। 9 देववंदन के १२ अधिकार इस प्रकार है : किसे वंदन - स्मरण
प्रथमादि पद भावजिन
नमोऽत्यु णं... जिअभयाणं तक
अधिकार
पहला