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सूत्र संवेदना
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'लोगस्स सूत्र' द्वारा नामजिन की स्तवना का चौथा अधिकार प्राप्त होता है। यह सूत्र अर्थ के उपयोगपूर्वक इस प्रकार बोलना चाहिए कि, इस अवसर्पिणी में भरतक्षेत्र में हुए २४ तीर्थंकर परमात्मा अपनी नज़र के समक्ष आएँ और उनके सामने नतमस्तक खड़े हम उनको प्रार्थना करें कि - "प्रभु ! आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे भाव - आरोग्य, बोधि, श्रेष्ठ समाधि और सिद्धि प्राप्त करवाएँ ।”
उसके बाद तीन लोक में रहनेवाले सभी स्थापना जिन की वंदनादि के लिए 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं' सूत्र बोला जाता है और उसके बाद अन्नत्थ बोलकर कायोत्सर्ग करके सभी जिन की स्तवना रूप स्तुति बोली जाती है । उससे तीनों भुवन में स्थापनाजिन की वंदना का पाँचवां अधिकार यहाँ प्राप्त होता है ।
९. उसके बाद पुक्खरवरदी० सूत्र बोलकर, सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं० कहकर, वंदणवत्तिआए०, अन्नत्थ कहकर, एक नवकार का काउस्सग्ग करे, काउस्सग्ग पारकर (नमो अरिहंताणं कहकर ) तीसरी थुई कहें।
परमात्मा के प्रति तीव्र भक्तिभाव प्रकट होने के कारण साधक को परमात्मा के वचन के प्रति भी अत्यंत आदर प्रकट होता है। उससे चारों निक्षेपों में रहे हुए तीर्थंकर भगवंत की वंदना करने के बाद उनके वचन रूप श्रुतज्ञान के प्रति भक्ति उल्लसित होती है। इसलिए वह श्रुतज्ञान की स्तवना रूप पुक्खरवरदी सूत्र बोलता है । इस सूत्र की पहली गाथा बोलते हुए इस काल में धर्म का प्रारंभ करनेवाले वर्तमान में विचरनेवाले विहरमान भगवंतों को ध्यान में ला उनकी वंदना करनी चाहिए । यहाँ विहरमान जिन की वंदना का छठ्ठा अधिकार प्राप्त होता है।
उसके बाद 'तम तिमिर... ' वगैरह एक-एक पद के अर्थ को उपयोगपूर्वक बोलने से श्रुतज्ञान की उपादेयता, उपकारिता, महानता और शक्ति संपन्नता नज़र के समक्ष तैरने लगती है । अतः श्रुतभगवान की विशेष भक्ति के लिए एक नवकार का कायोत्सर्ग करके श्रुतज्ञान के स्तवनार्थ श्रुतज्ञा की महानता को सूचित करनेवाली थुई बोली जाती है। इस तरह यहाँ श्रुतज्ञान की आराधना का सातवाँ अधिकार प्राप्त होता है ।