Book Title: Sutra Samvedana Part 02
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 337
________________ ३१६ सूत्र संवेदना - २ मुझे मिले हैं और ऐसे देव के शासन में मेरा जन्म हुआ है । अब इस प्रभु की सेवा में मैं तत्पर बनूं और उनके वचनानुसार अपने जीवन को बनाकर जन्म सफल करूँ।” इन वीर परमात्मा को किए गए बहुत से नमस्कार तो दूर रहे, भावपूर्वक किया गया एक नमस्कार भी क्या फल देता है यह बताते हुए कहते हैं - इक्को वि नमुक्कारो जिणवर - वसहस्स वद्धमाणस्स - जिनों में श्रेष्ठ वृषभ तुल्य वर्धमान स्वामी को किया गया एक भी नमस्कार । अवधिजिन आदि अनेक जिनों में मार्गदर्शकता आदि गुणों के कारण भगवान वीर श्रेष्ठ हैं, इसलिए उनको जिनवर कहा जाता है और सामान्य प्राणी की तुलना में ज्यादा भार वहन करने में जैसे वृषभ श्रेष्ठ और सक्षम माने जाते हैं, वैसे सामान्य साधक की अपेक्षा परमात्मा विशेष प्रकार से १८००० शीलांगरथ को वहन करते हैं और अनेक भव्यात्माओं से उसका वहन करवाते हैं, इसलिए परमात्मा को वृषभ तुल्य कहा गया है । जिनवरों में श्रेष्ठ ऐसे वीर प्रभु को बार-बार नमस्कार की बात तो दूर रही, परन्तु उन्हें एक बार भी नमस्कार किया जाय तो क्या फायदा होता है, यह बताते हैं.... संसार - सागराओ तारेइ नरं व नारिं वा स्त्री अथवा पुरुष को संसार-सागर से तैराते हैं - करने का ऐसे प्रभु को सम्पूर्ण सामर्थ्य से अर्थात् समर्थ्ययोग से अगर एकबार भी नमस्कार किया जाए तो नमस्कार करनेवाला स्त्री हो या पुरुष, वह नमस्कार तुरंत उसे संसार सागर से तैराता है। अनादिकाल से जीव मोहाधीन अवस्था में जीवन व्यतीत करता है । इस मोह को दूर कार्य बहुत कठिन होने के बावजूद जो साधक वर्धमान स्वामी को एक बार भी भाव से नमस्कार करते हैं, वे मोह को मारकर संसार से पर हो सकते हैं । यह भाव नमस्कार अर्थात् सामर्थ्य योग का नमस्कार ।

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