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संसारदावानल स्तुति भावावनाम-सुर-दानव-मानवेन-चूला-विलोल कमलावलि - मालितानि - भाव से झुके हुए सुरेन्द्र, दानवेन्द्र और मरेन्द्रों के मुकट से युक्त चपल कमलों की श्रेणी द्वारा पूजे गए' श्री जिनेश्वर परमात्मा के चरणकमल को मैं नमस्कार करता हूँ।
इस जगत् में भौतिक सुख की पराकाष्ठा देवलोक में है। उसमें भी सर्वश्रेष्ठ भौतिक सुख तो देवों के इन्द्र-देवेन्द्रों के पास होते हैं। मनुष्य लोक के श्रेष्ठ सुख नरेन्द्रों और चक्रवर्तियों के पास होते हैं। ऐसे देवेन्द्र, दानवेन्द्र तथा नरेन्द्र भी प्रभु के चरणकमल को भावपूर्वक नमस्कार करते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि 'प्रभु के पास जो अनंत आध्यात्मिक सुख है, वही सच्चा सुख है । वही नियमित रहनेवाला और दुःख की मिलावट से रहित सुख है। उनके सुख के आगे हमारे भौतिक सुख की एक कोडी भी कीमत नहीं है तथा हमारा यह सुख तो अनित्य है, कब चला जाएगा ? उसमें कौन-सा दुःख आ जाएगा ? किसी को पता नहीं है, इसलिए हमें भी ऐसा क्षणिक सुख नहीं चाहिए, लेकिन प्रभु के पास जो सुख है, वही चाहिए ।' इसीलिए प्रभु की उत्तमता तथा उनके सुख का स्मरण करके देवेन्द्र वगैरह वैसे सुख की शक्ति खुद में प्रकट हो वैसी आंतरिक भावना से प्रभु के चरणकमल को प्रणाम करते हैं ।
जब वे प्रभु के चरणों में मस्तक झुकाते हैं, तब उनके मस्तक पर रहे हुए मुकुट में जो पूर्ण विकसित कमल होते हैं, वे नीचे ढलते हैं और प्रभु के चरणों का स्पर्श करते हैं । यह दृश्य ऐसा लगता है कि मानो प्रभु के चरणकमलों को ये मुकुट के कमल पूज रहे हों ।
3. इस गाथा में नमामि क्रियापद है और जिनराज-पदानि उसका कर्म है । 4. भाव अर्थात् सद्भाव या भक्ति । भक्ति से झुके हुए, वे भावावनाम और वैसे सुर-दानवमानवेन अर्थात् सुर, दानव और मानव के इन-स्वामी, उनकी चूला अर्थात् शिर-शिखा या सिर का आभूषण-मुकुट । उसमें रही विलोल-कमलावलि विशेष प्रकार से डोलती कमलों की पंक्ति-हार उसके द्वारा मालितानि पूजे गए । यह पद जिनराज-पदानि का विशेषण है ।