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संसारदावानल स्तुति
२७१ वस्तुतत्त्व को जो स्पष्ट स्वरुप से व्यक्त करें, उसे आगम'12 कहा जाता है अथवा
वीर प्रभु को साढे बारह वर्ष की साधना के अंत में केवलज्ञान प्रकट हुआ। केवलज्ञान के प्रकाश में उन्होंने संपूर्ण जगत् को यथार्थ रूप से देखा। अपने प्रथम शिष्य गौतमस्वामी की जिज्ञासा संतुष्ट करने के लिए तीन शब्दों में उन्हें त्रिपदी द्वारा जगत् का स्वरूप बताया । बीज बुद्धि के स्वामी गौतमादि गणधरों ने उसके आधार पर जो द्वादशांगी की रचना की, उस द्वादशांगी को 'आगम' कहा जाता है ।।
इस आगम के आधार पर उनके बाद के महान श्रुतधर पुरुषों ने अनेक ग्रंथों की रचना की । कालक्रम से उसमें से बहुत से ग्रंथ नष्ट हो चुके हैं। बहुत कम बचे हैं । फिर भी बचे हुए शास्त्र इतने हैं कि उनका अध्ययन यदि किया जाए, तो जीवन कम पड़े ।
इन आगम वचनों को अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार समझने का प्रयत्न करना, समझे गए तत्त्वों के प्रति तीव्र श्रद्धा रखनी, शक्ति के अनुसार शास्त्र द्वारा बताए गए आत्महितकर कार्य में प्रवृत्ति करनी और अहितकर विषय से निवृत्त होना, जैनागम का आदरपूर्वक किया हुआ सुंदर आसेवन है।
जिज्ञासा : असार संसार को भी सागर के समान बताया है और श्रेष्ठ श्रुतज्ञान को भी सागर के समान बताया। विरोधी धर्मवाली दो चीजों को एक उपमा से कैसे व्यक्त किया जा सकता है ?
तृप्ति : किसी भी वस्तु के अच्छे-बुरे दो पहलू होते हैं। समुद्र का भी अच्छा पहलू देखें तो वह अनेक रूप से सुंदर दीखता है। उसके पानी की गहराई, अपार पानी का समूह, निरंतर आती पानी की लहरें, ज़्वार (Tides) का समय, उसमें रहे रत्न, ये सब देखते हुए समुद्र अनेक लोगों के अंतर को आकर्षित करता है और इसलिए बहुत लोग खास समुद्र को देखने जाते हैं, उसमें सैर भी करते हैं । ऐसे अच्छे पहलू को नजर के 12.आ-समन्ताद् गम्यते वस्तुतत्त्वमनेनेत्यागमः ।