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पुक्खरवरदी सूत्र
. २९५ कहा जाता है - 'ज्ञानस्य फलं विरतिः' श्रुतज्ञान की इस शक्ति को जानकर साधक निरंतर श्रुतज्ञान के लिए प्रयत्न करता है। श्रुतज्ञाल द्वारा जितना जानने को मिलता है, उसके अनुरूप जीवन जीने के लिए मेहनत करता है। अपना एक क्षण भी श्रुत के उपयोग रहित प्रवृत्तिवाला न हो, उसके लिए सतत जागृत रहता है क्योंकि वह जानता है कि यह श्रुतनिर्दिष्ट चारित्र जीवन ही मेरी आत्मा का कल्याण करनेवाला है। इसीलिए श्रुत धर्म के सार को जाननेवाले मुनि तेलपात्रधर के दृष्टांत से संयमयोग में हमेशा अप्रमत्त भाववाले रहते हैं ।
मुनि भगवंत अप्रमत्त भाव से श्रुतधर्म और चारित्रधर्म की आराधना करते हैं। अप्रमत्तभाव अर्थात् प्रमाद के वश हुए बिना । 'प्रमाद' का सामान्य अर्थ है आलस, शैथिल्य, जड़ता वगैरह । शास्त्रीय पद्धति से सोचें तो मोक्षमार्ग पर चलने का अभाव या मोक्ष के उपायों के सेवन में शिथिलता । विषयों की आसक्ति, कषायों की परवशता, व्यसन, निद्रा और विकथाः ये पाँच प्रकार के प्रमाद साधक को मोक्षमार्ग में आगे नहीं बढने देते ।
सम्यग् प्रकार से श्रुतज्ञान प्राप्त करनेवाले साधक कभी इस प्रमाद के वश नहीं होते, उन्हें श्रुत द्वारा ऐसे विशिष्ट आनंद की अनुभूति होती है कि, विषय-कषाय में प्रवृत्ति जहर जैसी लगती है । इसलिए श्रुत की प्राप्ति
और श्रुतानुसार प्रवृत्ति करने में वे एकाग्रता से रत रहते हैं । वहाँ से उनका 6 तेलपात्रधर : चोरी करने की वजह से मौत की सज़ा पानेवाले श्रेष्ठी पुत्र से राजा ने कहा, इस
तेल से भरे पात्र को लेकर, समग्र नगर में घूमकर अगर एक भी बूंद को गिराए बिना लौटोंगे तो मैं तुम्हारी सज़ा माफ कर दूंगा । नगर में देखने योग्य, सुनने योग्य, खाने-पीने योग्य बहुत कुछ था । इसके बावजूद मौत के भय से मुक्त होने के लिए इस युवान ने अपने चंचल मन को तेल पात्र में स्थिर किया । मन-वचनकाया को एकाग्र करके स्थिरतापूर्वक एक बूंद भी नीचे न गिरे, उस प्रकार से वह युवान समग्र नगर में घूमकर शाम को राजमंदिर वापस लौटा । उसकी मौत की सज़ा माफ हो गई । एक ही मरण के भय से युवान जिस प्रकार मन-वचन-काया को स्थिर किया, उसी प्रकार अनंत मरण का भय जिसकी आँख के समक्ष है, वैसा मुनि संपूर्ण जीवन संयम के सभी योगों में मन को स्थिर रख सकता है। इस प्रकार मुनि तेलपात्रधर के जैसे अप्रमत्तभाव वाले होते हैं ।