Book Title: Sutra Samvedana Part 02
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 322
________________ पुक्खरवरदी सूत्र . ३०१ ज्ञान जैनमत में निहित है, ऐसा कहने का कारण यह है कि, यह सिद्धांत ज्ञान का कारण बनता है। जैसे ज्योतिष, संगीत आदि) का ज्ञान जिन पुस्तकों के माध्यम से मिलता है, उन पुस्तकों में उन विषयों का ज्ञान है वैसा कहा जाता है । वैसे ही सभी विषयों का ज्ञान जैनशास्त्र में होने से ज्ञान मात्र इस शास्त्र में रहा है, वैसा कहा जाता है अर्थात् जैनशास्त्रों (द्वादशांगी) में दुनियां के किसी भी विषय का ज्ञान बाकी नहीं है । जगमिणं तेलुक्क-मशासुरं (जत्थ पइट्ठिओ) - मर्त्यलोक = मनुष्यलोक, सुरलोक और असुरलोक ये तीनों लोकस्वरूप यह जगत् श्रुतज्ञान में ज्ञेय की तौर से प्रतिष्ठित हैं । श्रुतज्ञान तीन लोक स्वरूप जगत् का बोध करवाता है। इसलिए ऐसा कह सकते हैं कि पूरा विश्व ज्ञेय के रूप में श्रुतज्ञान में ही रहा हुआ2 है । ___ कितने लोग सिर्फ़ मनुष्यलोक को ही जगत् के रूप में स्वीकार करते हैं। परन्तु यह गलत है । यह विश्व तीन लोक से बना है, मनुष्यलोक, सुरलोक और असुरलोक । श्रुतज्ञान से ऊर्ध्व-अधो और तिरछालोक स्वरूप सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान प्राप्त होता है । यह विश्व कैसा है ? उसकी व्यवस्था कैसी है ? उसमें कौन-कौन से पदार्थों का समावेश हैं ? वे पदार्थ कैसे हैं ? वे कब से हैं ? कब तक रहनेवाले हैं, वगैरह सभी बातों का ज्ञान होता है, इसीलिए समस्त विश्व श्रुतज्ञान में समाया हुआ है, ऐसा कहा जाता है ।। अब ऐसे उत्तम श्रुतधर्म की वृद्धि की आशंसा से कहते हैं - 11 यहाँ मर्त्यलोक से तिरछालोक - मनुष्यलोक लेना है और असुरलोक से भवनपति के आवास ___ जहाँ हैं वह अधोलोक लेना है और सुरलोक स्वरूप ऊर्ध्वलोक अध्याहार से ग्रहण करना है। 12 ज्ञेय की तौर से पूरा जगत् जिनमत में प्रतिष्ठित है = रहता है । जिनमत = ज्ञान और जगत् = विषय, ज्ञेय ।

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