Book Title: Sutra Samvedana Part 02
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 330
________________ सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र उज्जितसेल - सिहरे जस्स दिक्खा नाणं निसीहिआ । उज्जयन्तशैल-शिखरे, यस्य दीक्षा ज्ञानं नैषेधिकी । उज्जयंत पर्वत के ( गिरनार के) शिखर पर जिनकी दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक हुए हैं 1 धम्म - चक्कवट्टिं तं अरिट्ठनेमिं नम॑सामि ।।४।। ३०९ तं धर्म-चक्रवर्तिनम् अरिष्टनेमिं नमस्यामि ।।४।। उन धर्म के चक्रवर्ती नेमिनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ चत्तारि अट्ठ दस दो य, वंदिआ चउव्वीसं जिणवरा । चत्वारः अष्ट दश द्वौ च, वंदिताः चतुर्विंशतिः जिनवराः । चार, आठ, दस और दो (इस स्वरूप में अष्टापद पर स्थापन किए हुए) वंदन किए हुए चौबीसों जिनेश्वर, परमट्ठ-निट्ठिअट्ठा, सिद्धा मम सिद्धिं दिसंतु ।।५॥ परमार्थ-निष्ठितार्थाः सिद्धाः मम सिद्धिं दिशन्तु ॥ ५॥ परमार्थ को प्राप्त हुए, कृतकृत्य हुए सभी सिद्ध भगवंत ! मुझे मोक्ष दें ।।५।। विशेषार्थ : सिद्धाणं - सिद्ध हुए ( परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।) सब कर्मों का क्षय करके जिन्होंने सिद्धगति प्राप्त की है, वे सिद्ध कहलाते हैं । आत्मा जब तक कर्म के साथ संबंधित होती है, तब तक वह कर्म के अधीन बनकर चार गतिरूप संसार में भटकती रहती है । नए-नए शरीर धारण करके अनेक प्रकार की पीड़ाओं का भोग बनती हैं; परन्तु जब आत्मा सभी कर्मों से मुक्त होती है, तब शरीर के साथ बंधन, चार गति में भ्रमण और दुःख के सिलसिले का नाश हो जाता है और तब ही आत्मा 1 सिद्धाणं - अनेक भवों में बंधे (एकत्रित किए हुए) कर्म को द्ध - ध्मात - जिन्होंने जला दिया है, वे सिद्ध कहलाते है अथवा जिनके सभी कार्य सिद्ध हो गए हैं, उन्हें सिद्ध कहा जाता है। इस पद द्वारा सभी कर्म से रहित, कृतकृत्य सिद्ध भगवंत को वंदना की जाती है । सिद्ध शब्द का विशेष स्वरूप ‘नमस्कार महामंत्र' का विवेचन सूत्र संवेदना-१ में देखें ।

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