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सूत्र संवेदना - २ जिस श्रुत के कारण संयम का परिणाम वृद्धिमान होता है, वह संयम कैसा है वह बताते हुए कहते हैं -
देवं-नाग-सुवन-किन्नर-गण-स्सब्भूअ-भावञ्चिए - वैमानिक देव, नागकुमार, सुवर्णकुमार, भवनपति देव (तथा) किन्नर देवों के समूह द्वारा श्रुतज्ञान शुद्धभाव से पूजा गया है ।
संयम ही सुख का कारण है, संयम ही उपादेय है, ऐसी श्रद्धा होने के कारण ही चारों निकाय के देव उपचार से नहीं, परन्तु हृदय के सच्चे भाव से संयम को पूजते हैं, संयमी आत्मा की विविध प्रकार से भक्ति करते हैं, अनेक प्रकार से उनके संयम में सहायक बनते हैं।
महान शक्तिवाले इन्द्र या अविकारी ऐसे अनुत्तरवासी देव भी सतत संयम को चाहते हैं । तो भी वे चौथे गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ सकते । इसलिए वे संयमी आत्मा के प्रति अत्यंत आदरवाले होते हैं और अपने चारित्र-मोहनीय कर्म को क्षय करने के लिए सदा उनकी भक्ति में रत रहते हैं ।
लोगो-जत्थ पइट्ठिओ - जिसमें (जिस जिनमत में) ज्ञान प्रतिष्ठित है। लोक शब्द का अर्थ ज्ञान होता है अर्थात् जो आत्मकल्याण कर सके, वैसा सभी प्रकार का ज्ञान इस जैनमत में रहा हुआ है10 । जैन सिद्धांतों की रचना ही इस प्रकार हुई है कि उसका अध्ययन करनेवाली आत्मा को सभी विषय का ज्ञान होता है । कोई विषय ऐसा नहीं है कि, जो जैन सिद्धांत पढ़नेवाली आत्मा को पता न हो, फिर भले ज्योतिष ग्रंथ हो या संगीत शास्त्र हो, शिल्पशास्त्र हो या वास्तुशास्त्र हो। सभी विषय संबंधी ज्ञान जैन सिद्धांत में प्राप्त होता है तथा जैनशासन की यह विशिष्टता है कि, वह इन सब ज्ञान को आत्म हितकर बना सकता है । 9 'लोकनं लोकः ज्ञानमेव' लोक=ज्ञान 10 स्वनिरुपितजनकतासंबंध से वचन रूपी जिनमत में ज्ञान प्रतिष्ठित है = रहा हुआ है । जिनमत
= जनक और ज्ञान = जन्य ।