Book Title: Sutra Samvedana Part 02
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 325
________________ ३०४ सूत्र संवेदना - २ होने के बाद भी जब तक क्षपकश्रेणी योग्य प्रातिभज्ञान14 प्राप्त न हो, तब तक मुझ में उत्तरोत्तर श्रुतज्ञान की वृद्धि होती रहे, वैसी मुझे शक्ति प्रदान करें।' जिज्ञासा : श्रुतधर्म की वृद्धि हो ! चारित्रधर्म की वृद्धि के बाद भी श्रुत धर्म बढ़े ऐसी प्रार्थना को आशंसा नहीं कह सकते ? तृप्ति : यह प्रार्थना आशंसा स्वरूप ज़रूर है; परन्तु यह आशंसा ही सभी आशंसाओं का नाश करवाकर अनाशंसा भावरूप मोक्ष का कारण बने, ऐसी आशंसा है । ज्ञानादि की वृद्धि रूप ऐसी आशंसा मोक्षाभिलाषी को सतत रखनी चाहिए क्योंकि ऐसी प्रार्थना से ही मोक्ष का बीजाधान होता है। नया-नया ज्ञान प्राप्त करने की भावना से तीर्थंकरनाम कर्म का बंध होता है, इसलिए श्रुतवृद्धि की यह प्रार्थना आशंसारूप होने के बावजूद उपादेय है। यह गाथा बोलते हुए साधक श्रुतज्ञान तथा श्रुतधर महर्षियों को स्मृति पट पर बिराजमान करके उनकी साक्षी में श्रुतज्ञान को भावपूर्ण हृदय से दो हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर वंदन करते हुए प्रार्थना करता है कि, “हे प्रभु ! इस श्रुतज्ञान द्वारा मुझमें सदा चारित्र धर्म की वृद्धि हो । तीनों जगत का स्पष्ट बोध करवानेवाला यह श्रुतज्ञान मेरे में मात्र शब्द रूप में नहीं, परन्तु कुमत के संस्कारों का उच्छेद करने के रूप में वृद्धि को प्राप्त हो। चारित्र धर्म की प्राप्ति के बाद भी केवलज्ञान प्रकट न हो तब तक मुझमें श्रुतज्ञान की वृद्धि होती मात्र प्रार्थना से संतोष न होने से आगे बढ़कर साधक श्रुतधर्म की आराधना के लिए कायोत्सर्ग करता है । 14 प्रातिभज्ञान यह अरुणोदय की तरह श्रुतज्ञान और केवलज्ञान के बीच का ज्ञान है । यह आने के बाद जीव को तुरंत ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । यह प्रातिभ ज्ञान श्रेणी में आता है, इसकी सहाय से जीन प्रचंड पुरुषार्थ से अपने लक्ष्य को सिद्ध करता है । आत्मा की अनुभूति को पाने के लिए क्षयोपशम जन्य प्रकृष्ट बुद्धि वही प्रातिभज्ञान है । इस ज्ञान में मार्गानुसारी प्रकृष्ट उह (बुद्धि) होती है।

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