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पुक्खरवरदी सूत्र
है । अब संयोग और शक्ति के अनुसार इस श्रुतज्ञान की आराधना कर लूँ, उसको समझने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करूँ। श्रुतज्ञान को वंदन करके ऐसी अभिलाषा व्यक्त करता हूँ कि मेरा एक-एक आत्मप्रदेश श्रुतज्ञान से रंजित हो जाए और मेरा जीवन उसके अनुसार प्रवर्ते ।”
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'बुद्धिमान आत्मा श्रुतज्ञान में प्रमाद न करे' - ऐसा बताकर, अब ऐसे श्रुतज्ञान के विषय में खुद भी क्या करते हैं, यह बताते हैं ...
सिद्धे भो ! पयओ मो जिणमए - हे परमर्षियों ! आप देखें, सिद्ध जिनमत में प्रयत्न करनेवाला मैं (जिनमत को ) नमस्कार करता हूँ ।
यहाँ 'भो' शब्द द्वारा श्रुतधर परम - महर्षियों को आमंत्रण देकर, उनकी साक्षी में साधक कहता है कि मैं श्रुत के सामर्थ्य को जानता हूँ, इसलिए सिद्ध जिनमत में दृढ़ प्रयत्न करता हूँ ।
सिद्धे ( जिणमए) - जिनमत स्वरूप श्रुत ज्ञान सिद्ध है । 'सिद्ध' शब्द के तीन अर्थ होते हैं ।
(१) सिद्ध अर्थात् अवश्य फल देने वाले । जिनमत में बताये मार्ग पर चलने से मोक्ष रूपी फल अवश्य मिलता है, इसलिए उसे सिद्ध कहते हैं ।
(२) सिद्ध अर्थात् प्रतिष्ठित - सभी में रहा हुआ । आत्मादि सभी पदार्थ अनंत धर्मात्मक हैं । अनंत धर्मात्मक वस्तु को किसी एक धर्म से देखने से उसका यथार्थ ज्ञान हो नहीं सकता, इसलिए जो कोई एक धर्म को आगे करके आत्मादि पदार्थों को देखता है, उसका ज्ञान अधूरा है। जैनमत सर्वनय से पदार्थ को देखनेवाला होने से पूर्ण है और सर्वनय से व्याप्त होने से सब मतों का समावेश जैनमत में हो जाता है । इसीलिए प. पू. उपाध्यायजी म. सा. ने एक स्तवन में गाया है
'सर्व दर्शन तणु मूल तुझ शासनम् तेणे ते एक सुविवेक सुणिये ।'
इस तरह जिनमत सर्व मत में रहा हुआ है, इससे उसे सिद्ध कहना योग्य है।
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