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सूत्र संवेदना - २
उन्हें अतिप्रिय लगता है । गुरु जब भी उनकी आत्मा के हित की बात करें, तब मुमुक्षु उसे अपना सद्भाग्य मानते हैं और उन्हें लगता है कि, “मैं आज धन्य बना, आज में कृतपुण्य हुआ, गुरु की मेरे उपर कितनी कृपा है कि आज वे अपने श्रीमुख से मेरे आत्महित की बात कर रहे हैं । इन वचनों को मुझे तुरंत अमल में लाना चाहिए। महान निधान तुल्य इन वचनों का मुझे संरक्षण करना चाहिए, उनको जीवन का मंत्र बनाना चाहिए" ऐसी इच्छा होने के बावजूद सद्वीर्य के अभाव के कारण वह गुरुवचन का अमल नहीं कर पाता । इसलिए यह पद बोलते वह परमात्मा से प्रार्थना करता है -
"हे नाथ ! सद्गुरु मिलें, उनके वचन सुनने मिलें, परन्तु ऐसी शक्ति नहीं कि, उनका पूर्ण पालन कर सकूँ । इसलिए है वीतराग ! आपकी कृपा से मेरे में ऐसा बल प्रगट हो कि इन गुरु भगवंतों के वचन की मैं पूर्ण उपासना कर सकूँ । उनकी हितशिक्षानुसार अपने जीवन को सुधार सकूँ। उनकी आज्ञा का पूर्ण पालन कर अपने मोहनीय आदि कर्मों का विनाश कर सकूँ ।”
आंतरिक संवेदना के साथ बोले गए ये वचन कर्म का विनाश कर सद्वीर्य की वृद्धि का कारण बनते हैं और वर्द्धमान यह वीर्य (उत्साह) गुरु के वचनपालन में सहायक बनता है ।
आभवमखंडा - 'हे वीतराग ! जब तक भव में (संसार में) हूँ, तब तक (आप के प्रभाव से भवनिर्वेद आदि भाव) मुझे अखंडित प्राप्त हों ।'
साधक आत्मा समझती है कि भवनिर्वेद आदि आठ भाव जब तक प्राप्त नहीं होंगे, तब तक इस भयावह संसार का किसी भी प्रकार से अंत नहीं होगा और ये उत्तम भाव एक बार प्राप्त हों इतना ही पर्याप्त नहीं है। जब तक मोक्ष न मिले, तब तक उस-उस भूमिका में, उन-उन भावों की आवश्यकता है हो। इसीलिए परमपदेच्छु साधक यह पद बोलते हुए परमात्मा से प्रार्थना करता है -