________________
२०४
सूत्र संवेदना - २ भगवान के चरण की सेवा सत्ज्ञान और सत्क्रिया स्वरूप मोक्षमार्ग के आसेवन रूप है । इसलिए पुनः पुनः की गई यह माँग वर्तमान में भी ज्ञान के अनुरूप उत्तम आचरण में यथाशक्ति यत्न करवाती है, इसलिए भी ऐसी माँग योग्य है ।
इन प्रत्येक पद को बोलते हुए उन-उन शब्दों में रहे उत्तम भावों का ज्ञान और उन-उन भावों के प्रति अत्यंत आदर होना चाहिए । सर्वश्रेष्ठ कोटि के ये गुण जिसमें हैं, वैसे परमात्मा के पास नतमस्तक से, विनम्र भावपूर्वक ये चीजें मुझे माँगनी हैं और प्रार्थना के बाद मुझे ये गुण प्राप्त करने के लिए आज्ञा के अनुसार यत्न भी करना है । ऐसा माननेवाले साधक को इन पदों द्वारा अवश्य उन-उन गुणों का लाभ होता है ।
जो ये शब्द बोलते हैं, परन्तु शब्द में रहे उत्तम भावों को समझते नहीं, उन भावों के प्रति जिनको आदर नहीं है और यथाशक्ति उनके लिए प्रयत्न भी नहीं है, उनको इन चीजों की प्राप्ति संभव नहीं है । __ भगवान से चरण सेवा की माँग करने के बाद स्व इष्ट की सिद्धि के लिए कुछ विशेष माँग करते हुए साधक जो कहता है, वह अब बताते
दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, समाहिमरणं च बोहिलाभो अ । संपजउ मह एअं, तुह नाह ! पणामकरणेणम् ।। - हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से मेरे दुःख का नाश हो, मेरे कर्मों का नाश हो (और) मुझे समाधिमरण तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो ।
दुक्खक्खओ - दुःख का नाश । “हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से मेरे दुःख का क्षय हो ।”
जगत् के जीवमात्र को दुःख इष्ट नहीं है, इसलिए सभी जीव दुःख के नाश की इच्छा करते ही हैं, परन्तु धर्मात्मा जिस दुःख के नाश की इच्छा