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अरिहंत चेइयाणं सूत्र
द्वारा अखंड शाब्दबोध हो, उस तरीके से सूत्र और अर्थ को उपयोग रखना, अविच्युतिरुप धारणा है ।
२. चैत्यवंदन आदि करते समय बोले जानेवाले सूत्र से चित्त में पड़े हुए संस्कारों का बाद में बोले जानेवाले सूत्रों बोलते समय भी संस्काररूप से अवस्थित रहना, वासनारूप धारणा है ।
३. चैत्यवंदनादि में उत्तरोत्तर सूत्र बोलते समय पूर्व - पूर्व के सूत्रों का अनुसंधान एक वाक्यता से उपस्थित हो जाए, उस प्रकार के उपयोग का प्रवर्तमान होना, स्मृतिरूप धारणा है ।
धारणा का परिणाम एक विशिष्ट चित्त परिणति स्वरूप है । वह परिणति, जिस क्रम से प्रत्येक पूर्व पूर्व के सूत्रों के साथ उत्तर-उत्तर के सूत्रों का अनुसंधान होता है, उस क्रम को याद करके तथा उसी क्रम से प्रत्येक सूत्रों के भाव को भी याद करके, भगवान के प्रति बहुमान बढ़ता जाए, ऐसी आनुपूर्वी से युक्त चित्त परिणति होती है ।
जैसे कोई व्यक्ति कोई पिक्चर या सीरीयल देखने बैठा हो, तब अगर वह पूर्व पूर्व के प्रसंगों के साथ उत्तर-उत्तर के प्रसंगों का अनुसंधान जोड़ सके, वैसी चित्त की परिणति से युक्त हो, तो ही वह पिक्चर का मजा ले सकता है । वैसे ही चैत्यवंदन की क्रिया भी सफल करने के लिए ऐसे अनुसंधान से युक्त चित्त होना चाहिए । यह पद बोलते हुए साधक सोचता है,
“अगर नाटक जैसी तुच्छ क्रिया भी साद्यंत स्मृति में रहे, तो ही आनंद देती है, तो श्रेष्ठ चैत्यवंदन की क्रिया के लिए क्या कहना ? यह क्रिया भी मुझे इस प्रकार करनी चाहिए कि जिससे सभी सूत्र और उसके अर्थ साद्यंत स्मृति में रहें, तो ही इस क्रिया का आनंद प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए मुझे सूत्र का एक-एक पद इस प्रकार बोलना चाहिए कि, क्रम के हिसाब से बराबर स्मृति में रहें ।"