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अरिहंत चेइयाणं सूत्र
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करना है । यदि इस तरह कायोत्सर्ग करूँगा तो ही मेरा कायोत्सर्ग सफल होगा। 'हाँ' कभी श्रद्धादि के परिणाम में तरतमता हो सकती है । कई बार ये श्रद्धादि के परिणाम मंद मंदतर भी हो सकते हैं और कई बार वहीं परिणाम तीव्र-तीव्रतर भी हो सकते हैं, पर श्रद्धादि परिणामपूर्वक अगर कायोत्सर्ग हो, तो ही बोला हुआ वचन सार्थक कहलाता है, वरना ये शब्द प्रयोग असत्यरूप निश्चित होते हैं और बुद्धिमान कभी असत्य शब्द का प्रयोग नहीं करते ।
यह 'वड्ढमाणीए' पद पूर्व के प्रत्येक पद के साथ जोड़ना है । इसलिए बढ़ती हुई श्रद्धा से, बढ़ती हुई मेधा से, बढ़ती हुई धृति से, बढ़ती हुई धारणा से और बढ़ती हुई अनुप्रेक्षा से ऐसा अर्थ करना है ।
ठामि काउस्सग्गं - मैं कायोत्सर्ग में रहता हूँ ।
इस पद से कायोत्सर्ग का स्वीकार किया जाता है । पूर्व में 'करेमि' पद द्वारा मैं करूँगा, ऐसे कहकर क्रिया की सन्मुखता बताई थी। अब क्रिया की अत्यंत निकटता होने से एवं क्रियाकाल और समाप्ति काल का अत्यंत अभेद होने से 'मैं कायोत्सर्ग में रहता हूँ' ऐसा कहा है। यह पद बोलते हुए साधक संकल्प करता है, “भगवंत यह कायोत्सर्ग की क्रिया में बढ़ती हुई श्रद्धादि के परिणामों से करना चाहता हूँ । यद्यपि श्रद्धादि भाव सहित यह क्रिया करनी कठिन है, फिर भी हे प्रभु ! आप ऐसी कृपादृष्टि करें, ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि मेरी इस प्रतिज्ञा का अणिशुद्ध पालन कर मैं प्रभुमय बन सकूँ ।"