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संसारदावानल स्तुति
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इसलिए आत्मा के लिए तो वे पीड़ाकारक ही हैं। जैसे शराब के नशे में शरीर को होनेवाली पीड़ा का अनुभव नहीं होता कैसे मोह के नशे के कारण जीव को रागादिकृत पीड़ाओं का अनुभव नहीं होता, अतः ये बाह्य सुविधाएँ कर्मबंध करवाकर भविष्य में कठिनाई उत्पन्न करती हैं, वह भी उसकी समझ में नहीं आता । भगवान के वचनानुसार साधना करके जीव जब मोह को मंद करता है और कषाय के उपशम का आनंद अनुभव करता है, तभी सुखद संसार भी कितनी कदर्थना से युक्त है, यह बात उसे स्पष्ट समझ में आती है। इस तरह महसूस हो या न हो सुख भरा या दुःख भरा संसार दावानल समान ही है।
संमोह-धूली-हरणे समीरं - मोहरूपी धूल को उड़ाने में पवन समान । (वीर परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।)
जिस कर्म के उदय से जीव योग्य-अयोग्य, हित-अहित का विचार न कर सके, वह मोहनीय कर्म है । यह कर्म जब प्रबलता से प्रवर्तमान होता है, तब उसे संमोह कहते हैं । यहाँ संमोह को धूल की उपमा दी गई है और वीर प्रभु को धूल दूर करनेवाले पवन की उपमा दी गई है। _ 'मैं आत्मा हूँ और देहादि पुद्गल मुझ से अलग है', ऐसा ज्ञान मोहनीय कर्म होने नहीं देता। इस कारण जीव पौद्गलिक चीजों को अपनी मानता है, और पुद्गल से ही सुख है वैसा मानकर उसमें ही रचा-पचा रहकर अनेक प्रकार के क्लिष्ट कर्मरूप रज से आत्मा को मलिन करता है, इसीलिए मोह को धूल की उपमा दी गई है ।
अनंत संसार में भटकते-भटकते जीव जब किसी तरह भगवान के वचन का याने वास्तविक तत्त्व का चिंतन करता है, तब उसे संसार की वास्तविकता का ख्याल आता है। उसमें खुद के शुद्ध स्वरूप की कुछ पहचान होती है । भगवान के स्वरूप का विचार, उनके गुण वैभव का ज्ञान
और गुण से प्राप्त होने वाले सुख की समझ से धीरे-धीरे साधक में परमात्मा के प्रति प्रीति प्रकट होती है। प्रीति और भावपूर्वक की गई भक्ति मोहनीय