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संसारदावानल स्तुति
सारं वीरागम-जलनिधिं' सादरं साधु सेवे ||३|| "
और जो श्रेष्ठ7 है ऐसे वीरप्रभु के आगमरूपी समुद्र का मैं आदरपूर्वक सेवन करता हूँ ।।३।।
आमूलालोल - धूली - बहुल-परिमलाऽऽलीढ - लोलालिमाला झंकारारावसारामलदल-कमलागारभूमिनिवासे' !
मूल पर्यंत कुछ डोलने से झरे हुए मकरंद की अत्यंत सुगंध में मग्न हुए चपल भ्रमरवृंद के झंकार के शब्द से युक्त उत्तम निर्मल पंखुडी वाले कमल से बने हुए घर की भूमि पर वास करनेवाली 1 !
छाया - संभार - सारे' !
कांति के
समूह
से शोभायमान !
वरकमल - करे !
सुंदर कमल जिसके हाथ में है ऐसी 3 !
तार- हाराभिरामे !
देदीप्यमान हार से सुशोभित !
वाणी - संदोह - देहे ! देवि !
वाणी के समूहरूप देहवाली' हे देवी !
सारं भव- विरह - वरं मे देहि ||४ ||
श्रेष्ठ ऐसे भवविरहरूप मोक्ष का वरदान मुझे प्रदान करें ।।४।।
विशेषार्थ :
२५९
ह-नीरं 1
संसार रूपी दावानल के दाह को
संसार - दावानल - दाहबुझाने के लिए पानी तुल्य । ( वीर परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।
1. इस गाथा में नमामि क्रियापद है और वीरं उसका कर्म है ।
(१) संसार-दावानल-दाह-नीरं
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(२) संमोह-धूली-हरणे समीरं
(३) माया-रसा-दारण-सार-सीरं
(४) गिरि-सारं धीरं; ये पद 'वीरं' के विशेषण हैं ।