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सूत्र संवेदना - २
है। इस अवसर्पिणी काल में कल्याण के कारणरूप धर्मतीर्थ की स्थापना श्री ऋषभदेव परमात्मा ने की थी। इसीलिए यहाँ ऋषभदेव भगवान को कल्याण का मूल कहा गया है । इस पद द्वारा कल्याण के मूल के समान ऋषभदेव भगवान को भक्ति से वंदन करके, उनके पास अपने कल्याण की कामना व्यक्त करनी है । जिणिदं संति -
उसके पश्चात् जिनों में इन्द्र तुल्य शांतिनाथ भगवान को वंदना की जाती है। राग-द्वेष को जीतनेवाले जिन कहलाते हैं । श्रुतजिन, केवलीजिन वगैरह अनेक प्रकार के जिन हैं । उन सभी जिनों में भगवान इन्द्र तुल्य हैं, क्योंकि उन्होंने स्वयं रागादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है और अनेक आत्माओं को रागादि शत्रु के ऊपर विजय प्राप्त करने का मार्ग बताया है । जिनों में इन्द्र तुल्य और नाम सदृश गुणवाले शांतिनाथ भगवान कषाय से संतप्त आत्मा को परम शांति की प्राप्ति करवाते हैं । नेमि जिणं मुणिंद -
उसके बाद मुनियों में इन्द्र तुल्य नेमिनाथ भगवान को वंदन करते हैं । जो संसार से विरक्त होकर सदैव मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करते हों, वे मुनि कहलाते हैं । ऐसे मुनियों में भी नेमिनाथ भगवान इन्द्र तुल्य हैं, क्योंकि उन्होंने जीव मात्र के प्रति अत्यंत करुणा से, नवयौवन अवस्था में, नौ-नौ भव की प्रीति वाली राजीमति का सहजता से त्याग किया तथा महासत्त्वपूर्वक संयम जीवन का स्वीकार कर चौवनवें दिन ही केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थ की स्थापना की । ऐसे बाल ब्रह्मचारी नेमिनाथ भगवान का ध्यान मुनियों के लिए भी परम कल्याण का कारण बनता है । मुनियों में इन्द्र तुल्य नेमिनाथ भगवान को आदर और बहुमानपूर्वक किया गया नमस्कार ब्रह्मचर्य के पालन में विघ्न उत्पन्न करनेवाले कर्मों का नाश करके, परम ब्रह्म को प्राप्त करवाता है ।