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सूत्र संवेदना - २ परन्तु उसमें सर्वश्रेष्ठ उपाय परमात्मा की भक्ति है । वंदन, पूजन, सत्कार या सम्मान रूप भगवान की भक्ति से मोक्षमार्ग को समझने की शक्ति प्राप्त होती है । वंदनादि से प्रकट हुई परमात्मा के प्रति अंतरंग प्रीति तीव्र कोटि के रागादि भावों का विनाश करवाकर तत्त्वमार्ग पर चलने की शक्ति देती है। तत्त्वमार्ग की समझ और तत्त्वमार्ग का अनुसरण बोधि है । इसीलिए
चैत्यवंदन करनेवाला साधक वंदनादि के फलरूप बोधि और बोधि के फलरूप मोक्ष की आकांक्षा रखता है ।
उत्कृष्ट फल के प्राणिधानपूर्वक किया हुआ यह कायोत्सर्ग, सतत बढ़नेवाली श्रद्धा, मेधा, घृति, धारणा और अनुप्रेक्षा रूप साधनों (भावों) के आसेवनपूर्वक ही सफल होता है । इसीलिए कायोत्सर्ग की सफलता के पहले साधन 'श्रद्धा' को बताते हैं ।
वड्डमाणिए सद्धाए - श्रद्धा से (बढ़ती हुई श्रद्धा से मैं कायोत्सर्ग में रहता हूँ ।)
श्रद्धा का अर्थ है निज अभिलाषा याने खुद की इच्छा । परमात्मा के गुणों की यथार्थ पहचान होने पर परमात्मा के प्रति बहुमान भाव प्रगट होता है । इस 7. चैत्यवंदन करने के लिए कैसी श्रद्धा चाहिए । यह बताते हुए ललितविस्तरा में निम्नोक्त लक्षण
बताए हैं - चैत्यवंदन करने के लिए कैसी श्रद्धा होनी चाहिए, उसके निम्नलिखित लक्षण ललित विस्तरा में बताए गए हैं - १. तत्त्वानुसरण : मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से श्रद्धा नाम का गुण प्रगट होने पर स्वाभाविक ही साधक जीवादि नवतत्त्व के अभिमुख होता है । उसे आश्रवादि हेय तत्त्वों के त्याग और संवरादि उपादेय तत्त्वों के स्वीकार की भावना जगती है। इसीलिए आश्रव को रोकनेवाले और संवरभाव को प्राप्त करवानेवाले चैत्यवंदन करने की उसे इच्छा होती है। २. आरोपनाश : श्रद्धा के कारण आत्मिक (वास्तविक) सुख की आंशिक अनुभूति होती है, जिससे ‘आत्मा से भिन्न जड़ पदार्थ मेरे सुख-दुःख का कारण हैं,' वैसा मिथ्यात्व के कारण होनेवाले आरोप (भ्रम) का नाश होता है और आत्मिक सुख को प्राप्त करने की भावना जागृत होती है । श्रद्धा से ऐसी प्रतीति होती है कि, पूर्ण सुख को प्राप्त परमात्मा की भक्ति से आत्मिक सुख प्राप्त होता है । इसलिए मैं पुनः पुनः चैत्यवंदन करूँ, इस प्रकार चैत्यवंदन करने की भावना श्रद्धा नाम के गुण से होती है ।