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जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र) . २०५ करते हैं, वह जगत् के जीवों से भिन्न प्रकार का है । जंगल के जीवों को किसी भी प्रकार का दुःख नहीं चाहिए, जबकि मुमुक्षु आत्मा को मोक्षमार्ग में बाधक बने, स्वसमाधि को हानि पहुँचाए, वैसा ही दुःख नहीं चाहिए। इसीलिए यह पद बोलते हुए साधक परमात्मा से प्रार्थना करता है,
“हे प्रभु ! मैं निःसत्त्व हूँ । मुझे साधना ही करनी है, परन्तु साधना के मार्ग में विघ्न आते ही मैं व्याकुल, हो जाता हूँ, मेरा मन अनेक संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है, जिससे साधना में अब तक स्थिरता नहीं आती, अतः हे नाथ ! साधना के मार्ग में विघ्न करनेवाले मेरे दुःखों का नाश हो तथा उसके सामने लड़ने
की शक्ति मुझे प्राप्त हों ।” यहाँ दुःख के डर से दुःख टालने की माँग नहीं है, परन्तु धर्ममार्ग में आते हुए विघ्नों का भय है और वैसे विघ्नकारक दुःख को ही टालने की यहाँ बात है इसीलिए साधक कहता है -
"हे नाथ ! जब तक प्राप्त दु:खों को मैं पूरी समाधि और स्वस्थता से सहन न कर सकूँ, दुःख की हाज़िरी में मोक्षमार्ग की साधना करने का सामर्थ्य मुझ में न आए, तब तक मेरे पैसे दुःखों का नाश हो, ऐसी मेरी प्रार्थना है ।” । इस प्रार्थना को इस तरह भी सोचा जा सकता है -
मोक्ष की साधना करनेवाला साधक विवेकी होता है, इसीलिए संसारी जीव जिस तरह दुःख से डरते हैं और उसके नाश के लिए प्रयत्न करते हैं, वैसा प्रयत्न साधक नहीं करता एवं उसके लिए भगवान से प्रार्थना भी नहीं करता; परन्तु समाधि में बाधक बने वैसे बाह्य दुःख और विषय की विह्वलता एवं कषाय की पराधीनता के आभ्यंतर दुःखों को टालने की ही उसकी भावना होती है क्योंकि वह समझता है कि वैषयिक-काषायिक भाव कर्मबंध का कारण है । कर्म का संबंध आत्मा को संसार में जकड़कर रखता है एवं संसार में रहे हुए जीवों को बार-बार जन्म लेना पड़ता है,