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जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र)
१९३ गुरुजन की पूजा का वर्णन करते हुए योगबिंदु ग्रंथ में बताया गया है कि, 'गुरु वर्ग को तीन संध्याओं में नमन करना चाहिए, वे आए तब खड़े होना चाहिए, उनके सामने अत्यंत नम्र होकर बैठना चाहिए, अस्थान पर उनके नाम का उच्चारण भी नहीं करना चाहिए, उनमें कोई दोष हो तो बोलना या सुनना भी नहीं चाहिए, श्रेष्ठ वस्त्र, पात्र उनको प्रदान करने चाहिए, उनकी संपत्ति का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए, उनको जो पसंद हो वही कार्य करना चाहिए, धर्म को छोड़कर उनको जो अनिष्ट हो उसका त्याग करना चाहिए ।'
बुजुर्गों के प्रति औचित्य पालनपूर्वक ही धर्म किया जाता हो और फिर भी बुजुर्गो को धर्म पसंद न हो, धर्म करने में रुकावट करते हो, तो धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्म ही स्व-पर का हित करने में समर्थ है।
यह गुरुजन की पूजा भी कषायों की मंदता के बिना नहीं हो सकती और कषायों की मंदता भगवान की कृपा के बिना प्राप्त नहीं होती। इसीलिए संसार से विरक्त हुई आत्मा भगवान से प्रार्थना करती है,
"हे परमेश्वर ! आपकी कृपा से मेरे मानादि कषाय नष्ट हों और मुझे गुरुजन की पूजा प्राप्त हो !” स्वार्थी-संकुचित मनोवृत्ति वाला व्यक्ति लोकोत्तर मार्ग के ऊपर चल नहीं सकता, इसलिए ऐसी वृत्ति का त्यागकर हृदय को विशाल बनाने के लिए
और औदार्यादि गुणों को प्राप्त करने के लिए अब परार्थकरण की छट्ठी माँग की जाती है । परत्थकरणं च - परोपकार करना “हे वीतराग ! आपके प्रभाव से मुझमें परोपकार करने की वृत्ति
प्रकट हो, ऐसी कृपा करो ।” पर अर्थात् अन्य । अर्थ अर्थात् प्रयोजन और करण अर्थात् करना । ऐसे अन्य का कार्य करना ‘परार्थकरण' अथवा परोपकार कहलाता है। दूसरों