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सूत्र संवेदना - २
ही, लौकिक धर्म की आराधना के लिए भी अत्यंत जरूरी हैं। ये छः गुण जिसमें नहीं दिखते, वैसी आत्माएँ शायद बाह्य से धर्म करें, तो भी उनका वह धर्म, धर्मस्वरूप न बनकर, अधर्म स्वरूप ही बन जाता है ।
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लौकिक सौंदर्य स्वरूप ये छः माँगें भगवान के पास कीं । अब लोकोत्तर धर्म की आराधना के लिए जिसकी अत्यंत जरुरत है, वैसे 'शुभ गुरु का योग' आदि की माँग करते हुए कहते हैं -
सुहगुरुजोगो - सद्गुरु के साथ का योग । (विशिष्ट चारित्रसंपन्न आत्मा के साथ खुद को जोड़ना ।)
“हे वीतराग ! आपके प्रभाव से मुझे सद्गुरु का सुयोग प्राप्त हो !”
जो कंचन - कामिनी के सर्वथा त्यागी हैं, अहिंसा आदि महाव्रतों का सुविशुद्ध पालन करते हैं, निर्दोष आहार -पानी से जीवन का निर्वाह करते हैं, उत्सर्ग-अपवादमय भगवान के शास्त्रों को जानकर उनके अनुरूप जीवन जीते हैं, वैसे विशिष्ट चारित्रसंपन्न व्यक्ति ही सुगुरु कहलाते हैं । ऐसे गुरु के साथ का योगावंचक भाव से योग ही सुगुरु का योग है
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इस माँग में दो शर्तें हैं । (१) गुरु तो सुगुरु चाहिए और (२) सुगुरु के साथ भी सुयोग चाहिए । ऐसा कहने का कारण यह है कि इस जगत् में गुरु भी दो प्रकार के हैं और गुरु के साथ संबंध भी दो प्रकार से होता है । ऊपर वर्णन किए हुए गुरु के गुणों से जो युक्त हैं, वे सुगुरु कहलाते हैं परन्तु जो मात्र वेषधारी हैं, गुरु बनने योग्य गुण जिनमें नहीं होते, वे कुगुरु कहलाते हैं। ऐसे कुगुरु स्वयं कल्याण के मार्ग पर प्रयत्नशील नहीं होते, इसलिए वे अन्य को भी कल्याण के मार्ग पर प्रवृत्त नहीं कर सकते । कई बार उपदेश देकर किसी से सत्कार्य करवाए, तो भी स्वयं में वैसे भाव नहीं होने के कारण,उनके उपदेश का भी वैसा असर नहीं होता । कल्याणकामी आत्मा का सुगुरु के साथ योग-संबंध होना चाहिए क्योंकि 'भावात् भावः प्रसूयते' भाव से भाव की उत्पत्ति होती है ।