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सूत्र संवेदना - २
यह सब मिथ्यात्व के उदय, बोधि की अप्राप्ति, गाढ़ राग-द्वेषरूपी ग्रंथि की उपस्थिति या अवेद्य-संवेद्य पद के कारण ही होता है ।
जैसे कभी-कभार नदी में कुछ पत्थर टकराते-टकराते बिना प्रयत्न के ही गोल हो जाते हैं, वैसे ही भव में भटकते-भटकते दुःखों को सहन करते करते जीव की मिथ्यात्व मोहनीयादि कर्मस्थिति थोड़ी मंद होने पर जीव को थोड़े शुभ भाव की प्राप्ति होती है । उसी कारण राग, द्वेष, क्रोधादि से होनेवाली आत्मा की पीड़ा उसे समझ में आती है और संसार की वास्तविकता का वह विचार कर सकता है । उसके कारण ‘संसार में सुख है' - ऐसा अनादिकालीन भ्रम कम होता है । संसार का राग अल्प होता है एवं भव से पार हुए भगवान के ऊपर उसे बहुमान होता है । इस परिणाम को ज्ञानीपुरुष यथाप्रवृत्तिकरण7 कहते हैं । इस तत्त्वचिंतन के मार्ग में आगे बढ़ते हुए निकट मुक्तिगामी आत्मा को उस प्रकार के कर्मों के क्षयोपक्षम से अपूर्वकरण48 एवं अनिवृत्तिकरण के अध्यवसाय प्रकट होते हैं । कुठार के प्रहार तुल्य इन अध्यवसायों से आत्मा राग-द्वेष की तीव्र गांठ को भेदती है एवं मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उपशम या क्षयोपशम करती है । इस प्रकार रागद्वेष के परिणामरूप ग्रंथि का भेद होने पर जीव को बोधि की प्राप्ति होती है।
बोधि की प्राप्ति से विपरीत अनुभव, विपरीत मान्यताएँ आदि का सर्वथा नाश होता है । 'हाँ' अभी भी ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण ज्ञान में कमी हो सकती है, परन्तु सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति के बाद हेय-उपादेय के 47. यथाप्रवृत्तिकरण : अनादिकाल से टकराते-ठोकर खाते जीव को जो कुछ शुभ भाव आते __ हैं, उन्हें यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की ६९ कोडा___कोडी से अधिक स्थिति का नाश करके जीव अन्तः कोडा-कोडी की स्थितिवाला बनता है । 48. अपूर्वकरण : पहले कभी न हुआ हो वैसा अपूर्व कोटि का जो अध्यवसाय प्रकट होता है उसे
अपूर्वकरण कहते हैं । इस करण = अध्यवसाय द्वारा ही आत्मा राग द्वेष की तीव्र गाँठ को
भेद सकती है ।। 49. अनिवृत्तिकरण : जिस परिणाम के कारण आत्मा सम्यग्दर्शन गुण प्राप्त किए बिना वापिस
नहीं लौटती वैसे विशिष्ट कोटि के अध्यवसाय को अनिवृत्तिकरण कहते हैं । (इन करणों के समय कर्म में कैसे परिवर्तन होते हैं वगैरह विवरण कर्मग्रंथ-२ में अथवा परमतेज भा. २ में देखें ।)