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जावंत के वि साहू सूत्र . १४९ पूज्य बुद्धि उत्पन्न होने से साधु बनने में प्रतिबंधक बननेवाले कर्म शिथिल होते हैं । यही भक्ति का तत्काल अपेक्षित फल है । । मूलसूत्र :
जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ।। पद-४ संपदा-४
अक्षर-३८ अन्वय सहित संस्कृत छाया और शब्दार्थ :
भरहेरवय-महाविदेहे अ जावंत के वि साहू । भरतैरवत-महाविदेहे च यावन्तः केऽपि साधवः । भरत, ऐरवत और महाविदेह क्षेत्र में जो कोई साधु भगवंत हैं, तेसिं तिदंड-विरयाणं सव्वेसिं तिविहेण पणओ ।। त्रिदण्ड-विरतेभ्यः तेभ्यः सर्वेभ्यः त्रिविधेन प्रणतः ।। उन सभी तीन दंड से विराम पाए हुए (साधु भगवंतों) को, (मन, वचन और काया : ऐसे) तीन प्रकार (के योग) से मैं नमस्कार करता हूँ । विशेषार्थ :
जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ - भरत क्षेत्र, ऐरवत क्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र में जो कोई साधु भगवंत हैं ।।
2४५ लाख योजन प्रमाण मनुष्य लोक है । उसमें भरत, ऐरवत और महाविदेह क्षेत्र रूप १५ कर्मभूमियाँ हैं । इन कर्मभूमि में जन्मे हुए मनुष्यों
२ अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र के बराबर मनुष्य क्षेत्र है । इस अढ़ाई द्वीप में सबसे मध्य में १ लाख योजन प्रमाण जंबूद्वीप हैं । उसको घूमता हुआ २ लाख योजन प्रमाण लवण समुद्र है। उसको घूमता हुआ ४ लाख योजन प्रमाण धातकी खंड है । उसको घूमता हुआ ८ लाख योजन प्रमाण कालोदधि समुद्र है और उसको घूमता हुआ १६ लाख योजन प्रमाण पुष्करावर्त नाम का द्वीप है कि जिस द्वीप के बराबर मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है, वहाँ तक ही मनुष्यों की बस्ती है । इसी