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उवसग्गहरं सूत्र
१५७ इअ संथुओ महायस ! भत्ति-भर-निब्भरेण हियएण । ता देव ! दिन बोहि, भवे भवे पास ! जिणधंद ।।५।। पद
संपदा - अक्षर-१८५ अन्वय सहित संस्कृत छाया और शब्दार्थः
उवसग्गहरं-पासं, कम्म-घण-मुक्कं, विसहर-बिस-निनासं । मंगल-कल्लाण-आवासं पासं वंदामि ।।१।। उपसर्गहर-पार्श्व, कर्म-घन-मुक्तं, विषधर-विष-निर्माशम् ।।
मंगल-कल्याण-आवासं पार्वं वन्दे ।।१।। जिनके पास उपसर्ग को दूर करनेवाले पार्श्व यक्ष हैं (अथवा जिनका सामीप्य उपसर्ग को दूर करता है), कर्मों के समूह से जो मुक्त हैं, सर्प के विष का जो अत्यंत नाश करनेवाले हैं (तथा) जो मंगल और कल्याण के स्थानभूत हैं, ऐसे पार्श्वनाथ भगवान को मैं वंदन करता हूँ ।।१।।
जो मणुओ विसहर-फुलिंग-मंतं सया कंठे धारेइ । तस्स गह-रोग-मारी-दुट्ठजरा उवसामं जंति ।।२।। यो मनुजः ‘विसहरफुलिंग' मन्त्रं सदा कण्ठे धारयति । तस्य ग्रहरोगमारी-दुष्टज्वरा उपशमं यान्ति ।।२।। जो मनुष्य विषहर फुलिंग मंत्र को हमेशा कंठ में धारण करता है, उसके ग्रह-रोग-मारी-दुष्टबुखार शांत हो जाते हैं ।।२।।।
मंतो दूरे चिट्ठउ, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । जीवा नरतिरिएसु वि दुक्ख-दोगधं न पावंति ।।२।। मन्त्रः दूरे तिष्ठतु, तव प्रणामोऽपि बहुफलो भवति ।
जीवा नरतिर्यक्ष्वपि दुःख-दौर्गत्यं न प्राप्नुवन्ति ।।३।। मंत्र तो दूर रहे, आपको किया हुआ प्रणाम भी बहुत फल देनेवाला है। उससे मनुष्यगति या तिर्यंचगति में भी जीव दुःख और दारिद्रय को प्राप्त नहीं करता ।।३।।