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जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र) १७३ करनी है तथा ऐसी दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिए कि, 'ऐसे नाथ से माँगने से मुझे ये चीजें ज़रूर मिलेंगी। जो माँगना है, वो भी उत्तम गुणसंपत्ति का कारण बने ऐसी श्रेष्ठ चीज है । जगत् में इससे उत्तम अन्य कुछ नहीं है इतना ध्यान में रहे, तो यह सूत्र बोलते हुए हृदय में अलौकिक भाव प्रकट हुए बिना नहीं रहता।
जयवीयराय सूत्र अर्थात् परमात्मा के साथ अंतर की बात करके, आंतरिक प्रीति और मनोरथों को शब्ददेह देने का सूत्र । इस सूत्र के पहले दो पदों द्वारा साधक परमात्मा को अपने हृदय मंदिर में स्थापित करता है। उसके बाद अपने नज़दीक में ही रहे हुए परमात्मा को संबोधित करते हुए कहता है कि, “हे नाथ ! मेरा सामर्थ्य नहीं है कि मोक्ष की साधना के लिए ज़रूरी भवनिर्वेद आदि गुण मैं स्वयं प्राप्त कर सकूँ, इसलिए आप से बिनती करता हूँ कि, आपके प्रभाव से मुझे ये गुण प्राप्त हों!" ।
इस सूत्र का उपयोग मध्यम या उत्कृष्ट चैत्यवंदन करते समय होता है। 'नमोऽत्थु णं' आदि सूत्र के माध्यम से भगवान की भक्ति करने से भगवान के प्रति बहुमानभाव, भक्तिभाव, पूज्यभाव अत्यंत उल्लसित होता है । तब लगता है कि - "इस जगत् में इनसे विशेष सामर्थ्य वाला दूसरा कोई नहीं है। सर्व गुणों के धारक, सर्व सुख के कारक ये परमात्मा ही हैं। इसलिए वास्तविक सुख के साधन भी मुझे वहीं से मिलेंगे" । ऐसे बहुमानपूर्वक इस सूत्र द्वारा साधक परमात्मा को प्रार्थना करें - १. भव का निर्वेद संसार से ऊब ५. गुरुजन की पूजा २. मोक्षमार्ग का अनुसरण ६. परोपकार का करण ३. इष्टफल की सिद्धि ७. सुगुरु का योग ४. लोकविरुद्ध का त्याग ८. सुगुरु के वचन का हमेशा पालन । ये आठ वस्तुएँ मिलें । मोक्षांग जैसी इन आठ माँगों को बतानेवाले इस सूत्र की पहली दो गाथाओं के ऊपर याकिनी महात्तरासूनु आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी