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सूत्र संवेदना - २
अन्वय सहित संस्कृत छाया और शब्दार्थ :
उड्ढे अ अ अ तिरिअलोए अ जावंति चेइयाई । ऊर्ध्वे चाधश्च तिर्यग्लोके च यावन्ति चैत्यानि ।
ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में और तिरछेलोक में जितने चैत्य हैं,
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इह संतो (अहं) तत्थ संताई ताई सव्वाइं वंदे ।
इह सन् (अहं) तत्र सन्ति तानि सर्वाणि वन्दे ।
यहाँ रहा हुआ मैं वहाँ रहे उन सभी को वंदन करता हूँ ।
विशेषार्थ :
जावंति चेइयाई, उड्डे अ अहे अ तिरिअलोए अ ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में और तिरछेलोक में जितने चैत्य 1 हैं ।
ऊर्ध्वलोक में समभूतला पृथ्वी से ९०० योजन ऊपर के भाग को ऊर्ध्वलोक कहते हैं । मेरुपर्वत पर जो चैत्य हैं तथा वैमानिक देवों के
आवासों में जो जिनचैत्य हैं, वे ऊर्ध्वलोक के चैत्य कहलाते हैं ।
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अधोलोक में समभूतला पृथ्वी से ९०० योजन नीचे के भाग को अधोलोक कहते हैं । अधोलोक में भवनपति देवों के आवासों में तथा महाविदेह क्षेत्र के अधोग्राम में जो-जो जिनचैत्य हैं, उनको अधोलोक के चैत्य कहते हैं ।
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तिरछालोक में - ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के बीच में रहे भाग को तिरछालोक कहा जाता है । तिरछेलोक में द्वीप, समुद्र, पर्वत, द्रह, नदियाँ, वृक्ष, वन, कुंड आदि में जितने जिनचैत्य हैं, उन्हें तिरछालोक के चैत्य कहा जाता है ।
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1 चैत्य जिनौकस्तबिंबं चैत्यं जिनसभातरुः । चैत्य शब्द का अर्थ जिनमंदिर, जिनप्रतिमा और जिनराज की सभा का चौतरायुक्त वृक्ष होता है ।