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नमोत्थुणं सूत्र
११७ विवेक में थोड़ी भी न्यूनता नहीं रहती । बाह्य सांसारिक पदार्थों के ज्ञान में कदाचित् न्यूनता हो सकती है, परन्तु अपने अंतरंग भावों को देखने में तो जीव अब लगभग भूल नहीं करता ।
बोधि की गैरहाजिरी में मिथ्यादृष्टि आत्मा को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से बहुत से विषयों का विशाल ज्ञान हो सकता है । विविध विषयों की वह सुन्दर व्याख्या कर सकता है, तो भी उसका ज्ञान आत्मा के लिए हितकर नहीं बनता, इसलिए आत्मिक दृष्टि से उससे कोई लाभ नहीं होता । वह ज्ञान मृगजल की तरह मिथ्या होता है, जब कि सम्यग्दृष्टि को तो आत्मा का संवेदन होने से अपने हित-अहित का संपूर्ण ज्ञान होता है । जैसे नन्हा बालक भले ही विशेष कुछ न जानता हो, तो भी खुद पर होनेवाले सुख-दुःख के संवेदनों का वह बराबर अनुभव करता है । भूल से भी अग्नि में हाथ जाने पर दुःख का संवेदन होने से बालक रोने लगता है । इस तरह गहरी समझ न होने पर भी जिस प्रकार बालक अपने सुख-दुःख का अनुभव कर सकता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को शास्त्र की गहरी समझ न होने पर भी अपने हिताहित का वेदन करने में, आत्मभावों का विवेक करने में, उसकी बुद्धि अत्यंत कुशाग्र होती है । स्व में प्रकट हुए विवेक के कारण सम्यग्दृष्टि आत्मा हेय को हेय के तरीके से एवं उपादेय को उपादेय तरीके से, आत्मा के लिए हितकर वस्तु को हितकर तरीके से एवं अहितकर को अहितकर के रूप में मानती है, स्वीकार करती है एवं अनुभव करती है । यह विवेक ही बोधि है । अभयादि भावों की तरह बोधि का परिणाम भी परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है, इसलिए ही परमात्मा को बोधिदाता कहा जाता है । बोधि के पांच लक्षण:
बोधि की प्राप्ति होते ही आत्मा में सम्यग्दर्शन के साथ अविनाभावी ऐसा आस्तिक्य नामक गुण प्रगट होता है । आत्मा, पुण्य, पाप, परलोक आदि तत्त्व भगवान ने जिस प्रकार कहे हैं वे उसी प्रकार के हैं, वैसी दृढ़ श्रद्धा आस्तिक्य है ।