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नमोत्थुणं सूत्र
१२५ 'हे नाथ ! आपने तो जगत् को उच्चत्तम चारित्रधर्म का प्रदान किया है। आपको किया हुआ यह नमस्कार मुझमें भी चारित्रधर्म
की योग्यता को प्रकट करें। भगवान चारित्रधर्म देते हैं, यह पूर्व पद में देखा । अब प्रभु हमें चारित्रधर्म को कैसे प्रदान करते हैं, वह इस पद द्वारा देखें -
धम्मदेसयाणं (नमोऽत्थु णं) - धर्मदेशक परमात्माओं को (मेरा नमस्कार हो) ।
संसार की असारता को समझाकर चारित्रधर्म की प्राप्ति के योग्य देशना देनेवाले परमात्मा को इस पद द्वारा नमस्कार किया जाता है ।
अनंतकाल से जीव संसार में मशगूल रहा है । उसे कभी संसार को याने विषयों और कषायों को त्याग करने का मन भी नहीं होता, क्योंकि उसे पौद्गलिक सुख ही अच्छे लगते हैं । उसकी भयंकरता का उसे आभास नहीं होता । इसलिए परमात्मा सर्वप्रथम धर्मदेशना में यह संसार आत्मा के लिए कितना अहितकर-भयंकर है, उससे जीव किस तरह से दुःखी होता है वगैरह समझाकर भव्यात्माओं को संसार से विमुख करते हैं ।
ऐसी आत्मा को परमात्मा कहते हैं - 'हे भव्यात्मन् ! तुझे प्राप्त हुआ ये मनुष्यभव कितना दुर्लभ है, उसका विचार कर । ऐसे दुर्लभ मनुष्यभव को प्राप्त करके परलोक प्रधान धर्म की साधना करने में ही श्रेय है । धर्म की साधना किए बिना इस दुःखपूर्ण संसार का अंत सम्भव नहीं है । ऐसी धर्मसाधना करने के लिए तू सत्शास्त्र का अभ्यास कर । शास्त्रज्ञों के पास जाकर शास्त्र के मर्म को समझ । शास्त्र के मर्म को समझकर अपने चित्त को अनित्यादि भावों से भावित कर ।
अनित्य भाव को समझने के लिए तु पुष्पमाला एवं घट के दृष्टांत का विचार कर । १००० रु. की पुष्पमाला शाम को मुरझाने पर तुझे खेद नहीं होता, परन्तु १० रु. का घड़ा टूटने पर तू दुःखी हो जाता है क्योंकि पुष्पमाला शाम को मुरझा जाएगी, यह पहले से स्वीकार किया हुआ था एवं