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नमोत्थुणं सूत्र
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इस प्रकार हमने जाना कि अभय से लेकर बोधि की प्राप्ति करवाने स्वरूप प्रभु ने हमारे ऊपर श्रुतधर्म के प्रदान स्वरूप क्या क्या उपकार किये हैं । श्रुतधर्म की अपेक्षा चारित्र धर्म विशेषधर्म है । चारित्रधर्म की प्राप्ति करवाने के द्वारा भगवान विशेषरूप से क्या उपकार करते हैं, यह आगे के पाँच पदों में बताते हैं जो छट्ठी 'विशेष उपयोग संपदा' है।
धम्मदयाणं (नमोऽत्थु णं) - धर्म को देनेकाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो)
धर्म से यहाँ चारित्रधर्म के प्रदाता परमात्मा को नमस्कार किया जाता है। भगवान चारित्रधर्म के दाता हैं, ऐसा सुनने पर प्रश्न होता है कि, चारित्र तो अंतरंग परिणाम (आत्मिक भावरूप) है एवं अंतरंग परिणाम का प्रदान हो नहीं सकता तो फिर परमात्मा चारित्र का प्रदान कैसे करते हैं ? वास्तव में प्रभु सर्वप्रथम भव्यात्मा में तात्त्विक कोटि के धर्मश्रवण की योग्यता उत्पन्न करते हैं । (यह योग्यता भी गुणवान परमात्मा के प्रति बहुमान से ही प्रगट होती है ।) इसके बाद देशना द्वारा भव्यात्मा को संसार का वैराग्य पैदा करवाकर परमात्मा उसे चारित्रधर्म प्रदान करते हैं । चारित्र ही वास्तविक धर्म है । देश-चारित्र एवं सर्व चारित्र के भेद से यह तात्त्विककोटि का धर्म दो प्रकार का है।
श्रेष्ठ कोटि का चारित्रधर्म आत्मा की सर्वथा मोहरहित अवस्था स्वरूप है। सर्वथा मोहरहित आत्मा का परिणाम, निष्पाप प्रवृत्ति से प्राप्त होता है एवं निष्पाप प्रवृत्ति भगवान के बताए हुए समिति-गुप्ति आदि रूप क्रिया कलाप से प्राप्त होती है । इस क्रिया-कलाप के लिए साधुवेश अत्यंत ज़रूरी है । इसीलिए साधुवेश के परिधानपूर्वक समिति-गुप्ति के पालन द्वारा सर्वथा मोहरहित होने का अंतरंग यत्न ही श्रमणधर्म या सर्वचारित्र है । इस जगत में धर्म तो बहुत हैं, परन्तु सूक्ष्म प्रकार से हिंसादि पापों से निवर्तन स्वरूप चारित्रधर्म तो सर्वज्ञ के शासन के अलावा कहीं नहीं बताया गया ।