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सूत्र संवेदना - २
४. विघ्नाभाव : नायक को वस्तु के उपभोग में किसी भी प्रकार का विघ्न न आए, तो ही वह सच्चे अर्थ में उसका नायक माना जाता है ।
सामान्य से स्त्री, संपत्ति आदि के नायक तो बहुत होते हैं, तो भी ये स्त्री या संपत्ति का यह मालिक है, वैसा बहुमान के साथ तब ही कह सकते हैं, जब वह स्त्री या संपत्ति उसके वश में हो । इसके उपरांत वह स्त्री या संपत्ति सामान्य नहीं, परन्तु श्रेष्ठ कोटि की प्राप्त हुई हो । उस स्त्री या संपत्ति के उपभोग का सुख वह अनुभव कर सकता हो । अकाल में उस संपत्ति का विनाश न हो, एवं उसके उपभोग में किसी प्रकार का विघ्न न आए, उसी प्रकार धर्म का नायक भी उसे ही कहते हैं जिन्हें -
१. धर्म वश में हो अर्थात् धर्म जिसको आत्मसात् हुआ हो ।
२. वह धर्म सामान्य नहीं, परन्तु विशिष्ट कोटि का प्राप्त हुआ हो । ३. वे पूर्णतया धर्म के फल का उपभोग कर सकते हो ।
४. उनको प्राप्त हुए धर्म में कभी भी विघ्न न आता हो ।
१. वशीकरण : कोई भी वस्तु वश में तब होती है, जब उसे विधिपूर्वक ग्रहण किया जाए । भगवान ने संपूर्ण विधिपूर्वक संयम जीवन का स्वीकार किया था । उन्होंने संयम के पूर्व या पश्चात् योग्य समय पर अपने औचित्य का पूर्णतया पालन करके संयम जीवन को वहन किया और संयमजीवन ग्रहण करने के बाद भी उसमें कोई दोष (अतिचार) न लग जाए, उसकी पूर्ण सावधानी रखी। खुद को संपूर्ण संयम आत्मसात् होने के बाद (फल मिलने के बाद) उन्होंने योग्य आत्माओं को उसका प्रदान किया है। इसके अलावा, जब-जब अन्य को प्रदान करना हो, तब अन्य मुनियों की तरह, उन्हें किसी के वचन की अपेक्षा नहीं रखनी पड़ती है, इसलिए परमार्थ से धर्म परमात्मा के वश में है ।
२. उत्तम धर्म की प्राप्ति : चारित्र के असंख्य प्रकार हैं । उन सब प्रकारों में से परमात्मा ने श्रेष्ठ ऐसा क्षायिक भाव का ( यथाख्यात) चारित्र प्राप्त किया । यद्यपि सामान्य केवली को भी यही चारित्र प्राप्त होता है, तो भी