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नमोत्थुणं सूत्र
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तिण्णाणं तारयाणं (नमोऽत्थु णं) - संसार सागर को तैरनेवाले एवं दूसरों को तैरानेवाले (पार करवानेवाले) ऐसे परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो ।)
परमात्मा स्वयं तो संसार सागर को तैरकर पार हो चुके हैं साथ ही धर्मदेशना एवं गुणसंपन्नता द्वारा अनेकों को वे संसार सागर से तिरानेवाले भी हैं । केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद परमात्मा की मोक्ष तो निश्चित ही होता है, तो भी परम कृपालु परमात्मा अन्य जीवों के लिए भी मोक्षमार्ग निरंतर बना रहे, इसके लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं एवं अपने जीवनकाल में धर्म का उपदेश देकर अनेक जीवों को संसार सागर से पार उतारते हैं।
बुद्धाणं बोहयाणं (नमोऽत्थु णं) - स्वयं बोध को पाए हुए एवं अन्य को बोध प्राप्त करवानेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो)
अज्ञानरूप अंधकार में पड़े हुए इस जगत् में श्री तीर्थंकर देव अन्य किसी के उपदेश के बिना ही स्वसंवेदित ज्ञान द्वारा जीवादि तत्त्वों को जानते हैं तथा दूसरों को भी उसका बोध करवाते हैं, इसलिए वे बुद्ध एवं बोधक कहलाते हैं ।
मुत्ताणं मोअगाणं (नमोऽत्थु णं) - स्वयं कर्मों से मुक्त बने हुए एवं अन्य को कर्मों से मुक्त करवानेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो।)
विचित्र प्रकार के विपाक देनेवाले विविध कर्मों के बंधनों से परमात्मा प्रयत्न करके स्वयं मुक्त हुए हैं एवं अन्य को कर्म से मुक्त होने का मार्ग बताकर उन्हें कर्म से मुक्त करवाते हैं ।
इन चार पदों द्वारा परमात्मा की लोकोत्तम चार अवस्थाएँ बताई हैं,
मोहरूप महाशत्रु को जीतने के लिए परमात्मा शुक्लध्यान पर आरुढ़ होते हैं। मोह की एक-एक प्रकृति को परास्त करते हुए प्रभु नौवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। स्थिर एवं निश्चल ध्यान द्वारा बाकी रहे हुए कषायों एवं सूक्ष्म लोभ का नाश करके विभु रागादि शत्रु के परम विजेता बनते हैं ।