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सूत्र संवेदना - २
बताते अपितु भगवान के वचन के आधार से ही बता सकते हैं । इसलिए परमात्मा ही अभयदाता है ।
अभयदाता परमात्मा को नमस्कार करते हुए प्रभु के पास प्रार्थना करनी है कि -
“सब जीवों को अभय प्रदान करनेवाले हे प्रभु ! सतत भयों से घिरे हुए मुझे भी आप भय से मुक्त कर सर्व प्रकार से निर्भय
बनाएँ ।” चक्खुदयाणं (नमोऽत्थु णं) - दिव्यदृष्टिरूप चक्षु देनेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो ।)
आत्मा जब तक घातिकर्मों के साथ संयुक्त हो, तब तक किसी भी पदार्थ का बोध करने के लिए उसे पाँच में से किसी भी एक इन्द्रिय का सहारा लेना पड़ता है । उसमें पदार्थ के रूपादि को देखने का कार्य चक्षु इन्द्रिय करती है। चक्षु द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार के हैं । यहाँ पर तो भगवान को इन दोनों चक्षुओं से अलग ही एक विशिष्ट चक्षु का दाता कहा गया है । यह चक्षु अर्थात् तत्त्व का बोध करवाने में कारण बने, वैसा मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाला तत्त्व श्रद्धा रूप आत्मा का परिणाम । श्रद्धा अर्थात् तत्त्व की रुचि37 या धर्म करने का सम्यक् भाव ।
अभय प्राप्त होने से साधक का चित्त स्वस्थ होता है एवं उसके कारण वह विडंबना से भरे संसार के वास्तविक स्वरूप को आंशिक पहचान सकता है । अब उसे इस संसार से भिन्न सुख का मार्ग जानने की इच्छा होती है । बार बार सोचते हुए उसे ऐसा लगता है कि, कषाय से युक्त मेरे परिणाम से ही मैं दुःखी हूँ एवं कषायरहित शुद्ध परिणाम ही मेरे सुख का कारण है, तो भी इस भूमिका में अभी इतना सूक्ष्म बोध नहीं होता, सुख का 37. रुचिः-करणाभिलाष। अत्र चक्षुः विशिष्टमेवात्मधर्मरूपं तत्त्वावबोधनिबन्धनश्रद्धास्वभावं गृह्यते;
- ललितविस्तरा