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नमोत्थुणं सूत्र
१०५ होता है और खेद दोष दूर होता है । पू. आनंदघनजी महाराज ने इस भूमिका का वर्णन करते हुए कहा है, संभवदेव ते धूर सेवो सवे रे, लहि प्रभु सेवन भेद... सेवन कारण पहेली भूमिका रे, अभय अखेद अद्वेष रे ।। अरिहंत परमात्मा ही 'अभय' आदि के दाता :'जिस तरह अगर किसी राजा में शूरवीरता आदि गुणों का प्रकर्ष हो, तो उसमें सब शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति होती है । यह शक्ति होने से ही वह शत्रुओं के भय से मुक्त बनकर निर्भयता से राज्य करता है तथा स्वयं निर्भय होने के कारण वह राजा आश्रितों को भी भयमुक्त कर सकता है । वैसे भगवान में इन गुणों का प्रकर्ष होने से ही वे अचिंत्य शक्ति से युक्त हैं। अचिंत्य शक्ति होने के कारण ही वे मोहादि शत्रुओं से निश्चित हैं अर्थात् निर्भय हैं । सदा अभयभाव में स्थिर है । इस प्रकार स्वयं अभयभाव में स्थित होने से परमात्मा अन्य आश्रितों को अभय दे सकते हैं । परमात्मा के अलावा अन्य कोई भी जीव में अभय गुण इतने उत्कृष्ट रूप में नहीं होता । इसलिए वे अभय नहीं दे सकते । अतः सिर्फ परमात्मा द्वारा ही जीव को अभय की प्राप्ति या अभय की सिद्धि हो सकती है, इसी कारण से परमात्मा को अभयदाता कहा जाता है । इसी तरह परमात्मा में गुण का प्रकर्ष होने से, वे अचिंत्य शक्तिवाले होने से, उन-उन भावों में अवस्थित होने से और परार्थ परायण होने से परमात्मा ही चक्षु-मार्ग-शरण और बोधि के दाता हैं ।
सामान्य केवली या गुरु से भी कभी अभय की प्राप्ति होती है, परन्तु मूल-स्रोत की अपेक्षा से वह अंत में तो अरिहंत द्वारा ही प्राप्त होता है क्योंकि गुरु आदि भी जो अभय प्राप्ति का मार्ग बताते हैं, वह स्वयं नहीं 36.अतोऽस्य गुणप्रकर्षरूपत्वादचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् तथाभावेनावस्थितेः सर्वथापरार्थकरणाद्, भगवद्भ्य एव सिद्धिरिति । तदित्थंभूतमभयं ददतीत्यभयदा ।
- ललित विस्तरा