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सूत्र संवेदना - २ ___ इस संसार में वास्तविक अर्थ में शांति, सुरक्षा या निर्भयता तत्त्व चिंतन से ही प्राप्त हो सकती है, इसलिए तत्त्व चिंतन वास्तव में शरण है । आत्मादि तत्त्व के चिंतन के बिना, उसका विशेष प्रकार से विचार किए बिना वास्तविक शांति नही मिलती ।
भव वैराग्य से जब भगवान के प्रति बहुमान भाव प्रगट होता है, तब साधक आत्मा का चित्त स्वस्थ बनता है। स्वस्थ चित्त से आत्मादि तत्त्व की जिज्ञासा होने पर उसमें एक श्रद्धा का परिणाम प्रगट होता है । तत्त्व की रुचिरूप इस श्रद्धा से 'चित्त की सरलता'रूप मार्ग की प्राप्ति होती है । सन्मार्ग प्राप्त होने पर कषायों की मुक्ति में वास्तविक सुख है, ऐसा महसूस होता है। इसलिए बुद्धिमान आत्मा सूक्ष्मता से उस मार्ग विषयक गंभीर चिंतन करती है, तत्त्व को सविशेष जानने की इच्छा रखती है । इस विशेष जानने की इच्छा को अन्य दर्शनकार (गोपेन्द्र परिव्राजक) विविदिषा (विशेष जानने की इच्छा) कहते हैं । उसी से अब तत्त्व श्रवण की उत्कंठा जागृत होती है । सच्चे अर्थ में धर्म श्रवण की भूमिका यहाँ प्रगट होती है । तत्त्व चिंतन या धर्म श्रवण की भूमिका ही सच्चे अर्थ में शरण है, क्योंकि जीव को जिससे सुख मिलनेवाला है, जिससे उसके आत्मभाव की सुरक्षा होनेवाली है, वैसे सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति इस तत्त्व चिंतन से होती है।
आत्मादि तत्त्व का चिंतन करने से तत्त्व संबंधी शुश्रुषा', श्रवण', ग्रहण, धारणा, विज्ञान', ऊह', अपोह एवं तत्त्व अभिनिवेश स्वरूप बुद्धि के आठ43 गुण प्रगट होते हैं । यह आठ गुण प्रकट होने के बाद धर्मश्रवण की 43.१. शुश्रूषा : तत्त्व सुनने की इच्छा । सच्चा सुख किसे कहते हैं ? आत्मा का सुख कैसे प्राप्त होता है, ऐसी जिज्ञासा से जिनवाणी सुनने की इच्छा वह शुश्रूषा है । परन्तु जैनों को जिनवाणी सुननी चाहिए अथवा सभी व्याख्यान में जाते हैं, इसलिए हमें भी जाना चाहिए, व्याख्यान में तर्क तथा नई-नई अनेक बातें आती हैं । इसलिए हमें भी व्याख्यान सुनना चाहिए । इस तरह जिनवाणी के श्रवण की इच्छा शुश्रूषा नहीं है । २. श्रवण : ज्ञान के संपूर्ण उपयोगपूर्वक एक-एक शब्द तत्त्व प्राप्ति का कारण बने, इस तरीके से सुनना ।। ३. ग्रहण : सुने हुए शब्द कान को स्पर्शकर न चले जाए परन्तु तत्त्व की प्राप्ति का कारण बने, वैसे एक-एक शब्द का मर्म समझना ।