________________
सूत्र संवेदना - २
का उदयकाल होने से यह भय अव्यक्त रूप से रहता है । जब तक चित्त भय से व्याप्त होता है, तब तक चित्त स्वस्थ नहीं होता । जीव जब भयों से मुक्त होकर आंशिक भी अभयभाव को प्राप्त करता है, तब अनादि संसार में पहली बार उसे स्वस्थता का अनुभव होता है । चित्त की यह स्वस्थता ही मोक्षसाधक धर्म की शुरूआत है I
भवनिर्वेद ही भगवद् बहुमान :
चित्त की इस स्वस्थता का कारण है भगवान का बहुमान, और भगवद् बहुमान याने भवनिर्वेद 34। मोहनीय कर्म के मंद होने पर प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से प्राप्त हुए भगवान के वचन के आधार से जीव को संसार की वास्तविकता का ज्ञान होता है । संसार में जन्म के साथ अवश्य आनेवाली मृत्यु, संयोग के साथ संबंधित वियोग, संपत्ति के कारण आनेवाली विपत्तियां वगैरह का विचार करते हुए संसार असार लगता है, नीरस लगता है । संसार पर उदासीनता का भाव ही भवनिर्वेद है । जब तक संसार के प्रति राग तीव्र होता है, तब तक संसार से एकदम विपरीत भाव में रहे हुए वीतरागी भगवान के प्रति जीव को बहुमान नहीं हो सकता; परन्तु संसार की वास्तविकता सोचने पर जब भव का राग थोड़ा घटता है एवं आत्मा के ऊपर लक्ष्य केन्द्रित होता है, तब ही आत्मा के महासुख को जिन्होंने पाया है उन भगवान के ऊपर बहुमान का परिणाम प्रकट होता है । इसलिए संसार के प्रति नीरसता ही वीतराग के प्रति बहुमान का परिणाम है । राग से भरे हुए संसार पर अरुचि होना याने रागरहित अवस्था पर - वीतराग पर बहुमान होना । इस प्रकार जिसे भगवान के प्रति बहुमान प्रकट हुआ हो, वही भगवान के वचनों का यत्किंचित् विचार भी कर सकता है । 34. भवनिर्वेदस्यैव भगवद्बहुमानत्वात् ।
ललितविस्तरा
साम्प्रतं भवनिर्वेदद्वारेणार्थतो भगवद्बहुमानादेव विशिष्टकर्म्मक्षयोपशमभावादभयादिधर्म्मसिद्धेः, तद्व्यतिरेकेण नैःश्रेयसधर्म्मासम्मभवाद्, भगवन्त एव तथा तथा सत्त्वकल्याणहेतवः इति प्रतिपादयन्नाह‘अभयदयाण' मित्यादि सूत्रपञ्चकम् ।
इह भयं सप्तधा इहपरलोकाऽऽदानाकस्मादाजीवमरणा श्लाघाभेदेन । एतत्प्रतिपक्षतोऽभयमिति विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यम्, निःश्रेयसधर्म्मभूमिकानिबन्धनभूता धृतिरित्यर्थः । - ललितविस्तरा
१०२