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नमोत्थुणं सूत्र . १०१ अब इस तरीके से भगवान सामान्य उपयोगी कैसे बर्ने ? उसका मूल कारण क्या है ? यह बतानेवाली पाँच पदों की पाँचवीं 'उपयोग हेतु' संपदा बताते हैं ।
अभयदयाणं (नमोऽत्थु णं) - अभय को देनेवाले अर्थात् अभयदाता परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो।)
'अभय' अर्थात् भय रहित अवस्था, जो चित्त की विशिष्ट स्वस्थतारूप आत्मा का एक परिणाम है । यह स्वस्थता मोक्षमार्ग का पहला कदम है, उसे धृति, धीरज भी कहते हैं । मोक्ष के अनुकूल चक्षु, मार्ग, शरण और सम्यग्दर्शनादि धर्मों की भूमिका तैयार करने के लिए यह धृति अथवा चित्त की स्वस्थता अति जरूरी है ।
धर्मसाधना की शुरुआत चित्त की स्वस्थता से होती है, चित्त की स्वस्थता भय की निवृत्ति से होती है एवं भय की निवृत्ति पूर्ण अभयभाव में रहे हुए परमात्मा के प्रति बहुमान से होती है । इस प्रकार अभय का मानसिक परिणाम परमात्मा के प्रति बहुमान से होता है, इसी कारण परमात्मा ही अभयदाता कहलाते हैं । इस पद द्वारा, इस तरीके से अभय प्रदाता परमात्मा को नमस्कार किया गया है।
संसारवर्ती सभी जीव निरंतर सात प्रकार के भयों33 से पीडित रहते है। कुछ जीवों को यह भय व्यक्त रूप से सताता है, तो कुछ जीवों में पुण्य 33.१. इहलोक भयः समान जातिवाले की तरफ़ से भय अर्थात् मनुष्य को मनुष्य से भय । २. परलोक भयः अन्य जातिवालों की तरफ़ से भय । अर्थात् मनुष्य को पशु से भय । ३. आदान भयः अपना कुछ लूट जाने का भय । ४. अकस्मात् भयः बाह्य निमित्त के बिना ही घर में या बाहर, रात्रि या दिन किसी भी समय अथवा ऐसे किसी भी स्थान में एकाएक भय उत्पन्न हो अथवा अकस्मात् होनेवाली घटना का भय । ५. आजीविका भयः अपनी आजीविका बंध हो जाने या उसमें विक्षेप पड़ने का भय । ६. मरण भयः मरने का भय । ७. अपयश भयः अपमानित होने का या अपयश का भोग बनने का भय ।